तीसरे एपिसोड में हम 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद के उस दौर की बात करते हैं, जब भारत की जैव विविधता और जलवायु नीति एक अहम मोड़ पर थी। हल्दी और नीम जैसे पारंपरिक ज्ञान के पेटेंट को लेकर 1990 के दशक के मध्य में सार्वजनिक आक्रोश देखा गया। इन घटनाओं ने भारत की बौद्धिक संपदा और जैव विविधता संरक्षण नीतियों पर गहरा असर डाला। गोपीकृष्ण वारियर बताते हैं कि किस तरह इन विवादों ने जैव संसाधनों के स्वामित्व और स्थानीय समुदायों की भूमिका को केंद्र में लाने में मदद की।
1992 के रियो समिट और भारत द्वारा जैव विविधता व जलवायु परिवर्तन संधियों पर हस्ताक्षर, 2002 के जैव विविधता अधिनियम की नींव, ‘पीपल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर’ जैसी पहलों की शुरुआत और 73वें व 74वें संविधान संशोधनों ने भारत की पर्यावरणीय नीतियों को किस तरह बदला।
साथ ही हम यह भी समझते हैं कि जलवायु परिवर्तन को लेकर घरेलू नीति में इतनी देरी क्यों हुई, भारत के पारिस्थितिक तंत्र, जैसे मैंग्रोव, जंगल और प्रवाल भित्तियां, जलवायु संकट से कैसे जूझ रहे हैं, और बड़े सौर पार्क जैव विविधता और भूमि उपयोग को कैसे प्रभावित कर सकते हैं।
एपिसोड के अंत में, हम यह सवाल उठाते हैं कि क्या भारत की वर्तमान पर्यावरण नीति पारिस्थितिकी सेवाओं के महत्व को समुचित रूप से स्वीकार करती है? और क्या आर्थिक विकास और जैव विविधता संरक्षण के बीच कोई संतुलन बन पाया है?
संशोधन नोट- इस एपिसोड में गोपीकृष्ण वारियर ने संविधान के 72वें और 73वें संशोधन का उल्लेख किया था, जबकि यह 73वां और 74वां संशोधन है।