- कुछ साल पहले तक झारखंड के गुमला और सिमडेगा जिले के किसान पानी की किल्लत और भू-क्षरण से परेशान थे।
- राज्य सरकार और कुछ गैर लाभकारी संस्थाओं ने मिलकर जल संभरण कार्यक्रम या कहें वाटरशेड मैनेजमेंट का काम शुरू किया। इसमें पहाड़ के ढलानों पर जगह जगह खुदाई करना भी शामिल था।
- इन दो जिलों में करीब 25,000 लोग इस नई संरचना का फायदा उठा रहे हैं। इस नए प्रयास से स्थानीय लोगों के लिए पानी सुलभ हुआ है और अब ये लोग एक से अधिक फसल उगाने में सफल हो रहे हैं।
- खेतों की मेढ़ ऊंची करना और चेकडैम के जरिए बारिश का पानी रोकना किसानों के इन प्रयासों में शामिल है, जिससे सिंचाई की व्यवस्था हो रही है।
उमेश कुमार सिमडेगा जिले के एक मेहनती किसान हैं। पहाड़ियों और हरे जंगल से घिरा उनका गांव एक सकारात्मक परिवर्तन से गुजर रहा है। पिछले कुछ सालों से उमेश अपने 12 एकड़ की जमीन पर गेंहू की एक फसल के साथ, सब्जियों की कई फसल उगा ले रहे हैं। यह सब वर्षा जल संरक्षण से संभव हुआ है।
अपने खेत के पास बने मिट्टी के छोटे छोटे चेक डैम की तरफ देखकर उमेश के चेहरे पर जो चमक आती है, वो देखते बनती है। कहते हैं, “हमारे खेत की हरियाली इसी चेक डैम की देन है। इसी डैम की वजह से अब खेतों में पूरे साल पानी मिलता है। इस खेती से मेरी आमदनी बढ़ी तो मैंने अपने दोनों बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में भेजना शुरू किया। साल भर पहले तक यह एक सपने जैसा था।”
इनका दावा है कि इनके खेत के पास घेराव कर पानी को रोकने की व्यवस्था की गयी और फलस्वरूप इनकी आमदनी दोगुनी हो गयी। इसके पहले बस इतनी ही सब्जी उपजती थी जिससे इनके परिवार का काम किसी तरह चल जाए। अब इतनी उपज बढ़ गयी है कि ये उसे बेचकर कुछ आमदनी भी हो जाती है। इतना ही नहीं, अब साल में एक से अधिक फसल उगाना भी आसान हो गया है।
करीब 5000 की जनसंख्या वाले इस पिथरा गांव में 90 प्रतिशत लोग खेती-किसानी करते हैं। जब से ऐसे चेकडैम बनाये गए हैं तब से इन सबकी आमदनी में काफी इजाफा हुआ है।
2012 में ही बनी थी वर्षा जल संग्रहण की योजना
राज्य सरकार ने एक गैर-लाभकारी संस्था सोशल एक्शन फॉर रूरल डेवलपमेंट (एसएआरडीए) के साथ मिलकर करीब 30 गांव में वाटरशेड प्रोग्राम की शुरुआत की।
एसएआरडीए के संस्थापक एनपी सिंह कहते हैं कि इस प्रोजेक्ट की शुरुआत सिमडेगा और गुमला जिले में क्रमशः 2012 और 2013 में हुई। क्योंकि इन क्षेत्रों में हमेशा पानी की किल्लत बनी रहती थी। गर्मियों में स्थिति और बिगड़ जाती थी। ऐसे में किसानों के लिए खेती करना बहुत मुश्किल था। उन्हें एक ही फसल से संतोष करना होता था और हालात इतने गंभीर थे कि कई जगहों पर भूखमरी जैसी स्थिति बन जाती थी।
पश्चिम बंगाल में रहने वाले प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के विशेषज्ञ देबाशीष डे कहते हैं कि किसान आजकल जरूरत और जगह के हिसाब से छोटे छोटे गड्ढे खोद लेते हैं। पहाड़ियों के ढलान पर खोदे गए इन गड्ढों से न केवल बारिश के पानी को रोकने में मदद मिलती है बल्कि इस बहाव के कम होने से मिट्टी का कटाव भी रुकता है। इससे किसानों की फसल बर्बाद नहीं होती। इन गड्ढों मे रुके हुए पानी की वजह से आस-पास की मिट्टी में नमी बनी रहती है।इससे किसान साल भर खेती कर सकते हैं। इससे भूमिजल का स्तर भी बढ़ता है।
इनका कहना है कि अधिकतर किसान पारंपरिक खेती ही करते हैं। जिस साल बारिश कम हो जाती है उस साल इन किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बारिश में अनिश्चितता आजकल बहुत ही सामान्य बात हो गयी है। ऐसे में छोटे छोटे गड्ढे की खुदाई समय की मांग हैं।
भूजल के स्तर में सुधार के साथ कई हेक्टेयर भूमि बनी उपजाऊ
पानी की किल्लत से निजात पाने के लिए वाटरशेड प्रबंधन की शुरुआत 1975 में महाराष्ट्र के रालेगांव से हुई थी। अन्य राज्यों में भी इसकी शुरुआत हो चुकी है।
वर्ष 2012 में झारखंड में शुरू हुए इस योजना के तहत इन दो जिलों के 30 गांव में करीब दो लाख ऐसे गड्ढे तैयार किये जा चुके हैं। यह आंकड़ा एसएआरडीए ने उपलब्ध कराया है।
सिंह कहते हैं कि इन गांव में किये जा रहे जल संरक्षण की वजह से पूरे साल पानी की उपलब्धता बनी रहती है। “हमलोगों ने अब तक करीब 1500 हेक्टेयर भूमि को कृषि योग्य बनाया है और करीब 800 करोड़ लीटर पानी का संरक्षण किया है।”
गुमला जिले के गोजा गांव के रहने वाले अर्जुन महतो कहते हैं कि जल संरक्षण से कुएं और तालाब इत्यादि में भी पानी का स्तर बढ़ा है। 35 साल के महतो का कहना है, “पहले हमें खेती के लिए बारिश का इंतजार करना होता था। मुश्किल से एक फसल ही हो पाती थी और उसी में हमें पूरे परिवार का भरण-पोषण करना होता था। लेकिन अब स्थिति काफी बदल गयी है।”
पिथरा गांव के सुजीत कुमार अब बारिश के मौसम में मछली पालन की शुरुआत करने की सोच रहे हैं। यह आमदनी बढ़ाने का एक और जरिया हो सकता है।
झारखंड के लिए इस वाटरशेड कार्यक्रम का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि यहां बारिश की अनिश्चितता एक सामान्य स्थिति है। हाल के वर्षों में स्थिति और बिगड़ी है। उदाहरण के लिए पिछले साल को ही लें। पिछले साल केन्द्र सरकार ने झारखंड के दस जिलों को सूखा-प्रभावित घोषित किया था। राज्य में इससे करीब 12 लाख किसान प्रभावित हुए थे।
झारखंड में जून 1 से लेकर अगस्त 23 तक कुल 541.6 मिलीमीटर वर्षा हुई। इस समय में औसत वर्षा 754.3 मिमी होनी चाहिए थी। पर पिछले साल की तुलना में 28 प्रतिशत कम बारिश हुई।
स्वयं सहायता समूह के माध्यम से आजीविका का सृजन
वाटरशेड प्रबंधन योजना के माध्यम से इस क्षेत्र के समग्र विकास के लिए किसानों के बीच मवेशियों का आवंटन किया गया। महिलाओं को ध्यान में रखकर स्वयं सहायता समूह भी बनाये गए। ऐसे ही एक समूह की सदस्य है सोनल गुड़िया। सिमडेगा जिले के बिंधरटोली गांव की रहने वाली सोनल कहती हैं कि उन्हें 2014 में हस्तकला का प्रशिक्षण दिया गया था। “हमें छह साल पहले विभिन्न प्रकार के आइटम बनाने में प्रशिक्षित किया गया था। जैसे कि टेबल कवर, बांस की टोकरी, अगरबत्ती इत्यादि। हमलोग इन चीजों को स्थानीय बाजार में बेचते हैं और कभी कभी ऑनलाईन भी बेच लेते हैं।”
ये सारे उदाहरण यही दर्शाते हैं कि वाटरशेड प्रबंधन ने उन क्षेत्रों में आजीविका के ढेरों अवसर पैदा किए हैं जो कभी माओवादी गतिविधियों के लिए बदनाम थे। वाटरशेड प्रबंधन के लिए संरचना तैयार करते हुए कई लोगों को रोजगार दिया गया। पानी की व्यवस्था होने से किसानों की आमदनी भी बढ़ी, कहते हैं जुनुल समद जो जिले के ग्रामीण विकास से जुड़े तकनीकी विशेषज्ञ हैं।
झारखंड सरकार वाटरशेड प्रबंधन परियोजना को राज्य के अन्य जिलों में भी विस्तार दे रही है।
बैनर तस्वीर- पिथरा गांव के किसान उमेश कुमार अपने हरे-भरे खेत में खड़े होकर फसलों को दिखा रहे हैं। फोटो- सोशल एक्शन फॉर रूरल डेवलपमेंट (एसएआरडीए)