मध्यप्रदेश का पन्ना जिला हीरे के लिए विख्यात है। इस हीरे की चमक में खदानों में काम करने वाले मजदूरों की कहानी कहीं खो जाती है।
पन्ना में वनोपज, पत्थर और हीरा खनन के अलावा रोजगार का कोई दूसरा विकल्प मौजूद नहीं है। इस वजह से स्थानीय लोग या तो पलायन करते हैं या पत्थर के खदानों में काम कर सिलिकोसिस जैसी बीमारी झेलते हैं।
पन्ना जिला मध्य प्रदेश के उन कुछेक जिलों में आता है जहां बच्चों और महिलाओं में कुपोषण और एनीमिया सबसे अधिक है। खदानों में काम करने वाली महिलायें सामान्यतः एनीमिया से ग्रसित हैं। यानी खून की कमी से।
पर्यावरण के सख्त नियमों की वजह से वैध खदान बंद हो रहे हैं। रोजी-रोटी के लिए कुछ मजदूरों को अवैध खदानों में वन विभाग और पुलिस की कार्रवाई के खतरों के बीच काम करना पड़ता है।
जनवरी में पड़ने वाली सर्दी की एक ढलती हुई शाम जब कुसुम बाई (बदला हुआ नाम) अपने कच्चे घर के बाहर चारपाई पर बैठी हुई हैं। पन्ना जिले के कल्याणपुर गांव की रहने वाली कुसुम ने आज दिन भर अवैध खदानों के खाक छाने हैं। कुछ भी हाथ नहीं आया। जो डेढ़-दो सौ की मजदूरी मिलनी थी वह भी नहीं मिली। फिर भी कुसुम बाई के चेहरे पर सुकून है। राहत इस बात की है कि वन विभाग के कर्मचारियों की नजर से बच गईं। अगर पकड़ी जातीं तो कुछ समय हवालात में गुजारने पड़ते।
वन विभाग के कर्मचारियों के साथ कुसुम का लुका-छिपी का यह खेल पिछले एक साल से चल रहा है। हफ्ते-दो हफ्ते में ऐसा समय एक बार आ ही जाता है क्योंकि ये अवैध खदानों में काम करती हैं। पन्ना जिले में इनके तरह कई मजदूर है जो अवैध खदानों में काम करने को मजबूर हैं। वन विभाग का छापा पड़ने पर इन्हें उस दिन की मजदूरी गंवानी पड़ती है।
अवैध खदान से तात्पर्य उन खदानों से है जिसके लिए ठेकेदार ने सरकार से अनुमति नहीं ले रखी है फिर भी मजदूरों से खनन करवाता है। वैध खदान में खुदाई के लिए साल में दो सौ रुपए की राशि देकर खदान का पट्टा लेना होता है। इस खदान के निकले हीरे को सरकार के हीरा विभाग में जमा कर नीलामी की रकम से 30 फीसदी कर देना होता है।
“एक साल पहले मैं वैध खदान में ही काम करती थी, लेकिन कई वर्षों से उस खदान में हीरा नहीं मिला, इसलिए अब जंगल के इलाके में अवैध खदान में काम मिला है। यहां जिस दिन वन विभाग वाले आते हैं उस दिन की मजदूरी जाती है,” कुसुम ने मोंगाबे-हिन्दी से बताया।
जिस दिन बे-रोकटोक काम होता है, उस दिन भी डेढ़ सौ से दो सौ रुपए से अधिक नहीं मिलता। “वर्षों मेहनत करने के बाद भाग्य से कहीं कभी हीरा मिलता है, वह भी खदान के मालिक का होता है,” कुसुम ने बताया।
कल्याणपुर गांव की गुलाब बाई (40) की स्थिति भी कुसुम से बेहतर नहीं है। कहती हैं, “कुछ दिन पहले मैं खदान में ही बेहोश हो गई थी। इतनी मेहनत का काम अब मुझसे नहीं होता। सुबह जल्दी जाने के चक्कर में कई बार बिना कुछ खाए-पीए निकल जाना पड़ता है। डॉक्टर कहते हैं शरीर में खून की कमी है,” गुलाब ने बताया।
गुलाब को तीन साल पहले हीरे से डेढ़ लाख की आमदनी हुई थी, लेकिन बेटी की शादी के बाद वे फिर से इन खदानों में मजदूरी करने लौट आयीं हैं।
यह तस्वीर हीरा खदान में होने वाले तीनों प्रक्रिया को दिखा रही है। पहले शीलों को तोड़कर उसके नीचे दबे कंकड़ निकाले जाते हैं। इसके बाद उन कंकड़ों को पानी से साफ किया जाता है, फिर किसी साफ स्थान पर उसे बिछाकर उसमें हीरा खोजने की कोशिश होती है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से 400 किमोमीटर दूर पन्ना की ख्याति हीरा खदानों को लेकर विश्व के कोने-कोने तक है। पर पन्ना जिले के चमकदार हीरा-खनन के पीछे ऐसे लाखों कहानियां छिपी हैं जो कम ही उजागर हो पाती हैं।
तीन हजार वर्षों से भारत विश्व में हीरे का एकमात्र उत्पादक बना हुआ था। बाद में दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील के खदानों की खोज हुई। देश में नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (एनएमडीसी) की पन्ना में एक हीरा खदान सरकार के द्वारा संचालित है। इंडियन ब्यूरो ऑफ माइंस की इंवेंटरी रिपोर्ट कहती है कि भारत में मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ही हीरे की खदानें हैं, जिसमें 28,709,136 कैरेट (90.17) प्रतिशत हीरों के साथ पन्ना के खदान सबसे समृद्ध हैं।
एनएमडीसी के मुताबिक पन्ना के खदान से 84,000 कैरेट प्रतिवर्ष की क्षमता के साथ हीरे निकल रहे हैं। अबतक 1,005,064 कैरेट हीरे निकाले जा चुके हैं।
एनएमडीसी के पास 74 एकड़ में मैकेनाइज्ड खनन (मशीन से खनन) की सुविधा है, लेकिन उथली खदानों में यह संभव नहीं है। यहां हाथ से ही काम होता है। हालांकि, इस इलाके की एक त्रासदी भी है। सालों-साल इन खदानों में काम करने वाले खनन मजदूर की स्थिति अब भी नहीं बदली है। यहां मजदूर आज भी गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी और पलायन की चपेट में फंसे हुए हैं।
किस्मत की दो-धारी तलवार: हीरा पाने की उम्मीद और सालों का संघर्ष
खदान में काम करने वाले किशोरी यादव बताते हैं कि हाथ से खनन के लिए पहले पत्थर की शीलाओं को तोड़ा जाता है। उनके नीचे छोटे-छोटे मिट्टी से सने कंकड़ होते हैं, जिनमें हीरा मौजूद होने की संभावना होती है।
“पानी से इन कंकड़ों को धोया जाता है। इसके बाद एक साफ जगह पर इसे बिछाकर एक-एक कंकड़ को बारिकी से परखते हैं। कांच जैसा चमकता पत्थर मिले तो समझिए भाग्य खुल गया,” हीरा खोजने की प्रक्रिया बताते हुए किशोरी की आंखे चमक उठती है।
इस एक चमक में पन्ना जिले की तमन्ना छिपी है जहां अनगिनत लोग सालों-साल इन खदानों में गुजारते हैं। इस उम्मीद में कि अगर एक हीरा मिल जाए तो जिंदगी संवर जाए। पर मजदूरों के जीवन में ऐसा दिन लगभग नहीं के बराबर आता है।
उदाहरण के तौर पर पन्ना से 40 किलोमीटर दूर खजुराहो के गोंविद रायकवाड़ को ही लीजिए। करीब 37 साल के युवा गोविंद पहले अपने जिले में ऑटोरिक्शा चलाते थे। कोविड-19 से जुड़े लॉकडाउन में काम बंद हुआ तो कर्ज लेकर भाग्य आजमाने आ गए। हीरा पाने की चाह में।
“पिछले कई सप्ताह से खोद रहा हूं लेकिन अब तक कुछ हाथ नहीं लगा है। इसी बीच पानी खत्म हो गया तो अब कंकड़ धुल नहीं पाएंगे। मैं कंकड़ इकट्ठा करता हूं और बारिश के बाद इसे साफ करुंगा,” रायकवाड़ कहते हैं।
हीरे की खदानों में रात में भी कुछ मजदूर रहते हैं। पॉलीथिन और आसपास के खर-पतवार से वे झोपड़ी बनाते हैं। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
हीरे के खुले खदान खतरों से खाली नहीं। जगह-जगह पर पत्थर, गड्ढे और उबड़-खाबड़ जमीन। एक छोटी सी चूक से सीधे कई फीट गहरे गड्ढे में गिरकर चोटिल होने का खतरा बना रहता है। लेकिन हीरा खोजने वाले इसकी परवाह नहीं करते। खजुराहो से आए गोविंद ने यहीं एक अस्थायी घर बना लिया है।
“मैंने इसी खदान में एक छोटा झोपड़ा बनाया है, जिसमें रात बिताता हूं। दूर से पानी लाना पड़ता है और रात के घने अंधेरे में जानवरों का डर भी लगा रहता है,” रायकवाड़ ने खदान के बीच आने वाली परेशानियों को साझा किया। गोविंद को अभी कितने दिन ऐसे रहना पड़ेगा इसका कोई अनुमान नहीं है। फिर भी हीरा मिले न मिले- कोई गारंटी नहीं है।
जीवन के 42 बसंत देख चुके राम प्यारे अहिरवार ने दो दशक पहले एक हीरा खोज निकाला था। पिछले 25 सालों से लागातार सक्रिय रहने के बाद भी दूसरा हीरा अभी तक नसीब नहीं हुआ है।
याद करते हुए राम प्यारे कहते हैं, “20 वर्ष पहले ही मैंने एक हीरा खोजा था, लेकिन वह खदान मेरा नहीं था। खदान के मालिक ने इनाम में मुझे पांच हजार रुपए और कपड़े दिए थे। तब से मैं दूसरे हीरे की तलाश में हूं। खुद मजदूरी करने के अलावा दूसरों को भी अपने खदान में काम पर रखता हूं, लेकिन अबतक मेरे भाग्य नहीं खुले हैं,” अहिरवार बताते हैं।
छोटू लाल अहिरवार ने भी खनन में हजारे गंवा दिए। थककर उन्होंने इसी सप्ताह खनन का काम छोड़ दिया। “किसी को पहले दिन ही हीरा मिल जाता है, लेकिन सात महीने की कड़ी मेहनत के बावजूद मेरे हाथ कुछ भी नहीं आया,” छोटू कहते हैं।
छत्रसाल पटेल ने बताया कि उनका परिवार तीन पीढ़ियों से हीरा पाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन तीसरी पीढ़ी में हीरे का एक टुकड़ा मिला जो कि पांच हजार से अधिक का नहीं होगा।
पन्ना में हीरा निकालने के काम में सिर्फ छोटे खदान मालिक ही नहीं, बल्कि एनएमडीसी को भी नुकसान झेलना पड़ा रहा है। नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक की रपट कहती हैं कि एनएमडीसी को वर्ष 2016-17 में 27.16 करोड़ का नुकसान हुआ है।
मिट्टी के सने कंकड़ों को धोने के बाद खदान मजदूर का शरीर मिट्टी से सराबोर हो जाता है। वर्षों कठिन परिश्रम के बाद भी हीरा कुछ भाग्यशाली लोगों को ही मिलता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
हीरे के चमक के पीछे छिपी है बेरोजगारी, गरीबी, भूख, कुपोषण और पलायन
हीरे के लिए लगातार संघर्ष कर रहे मजदूरों को हीरा मिलता है कि नहीं यह एक बात है। पर बदले में हजारों मजदूर को जो मिलता है वह है- बेरोजगारी, पलायन, गरीबी, कुपोषण इत्यादि।
“हमने यह देखा है कि जो महिलाएं खनन के काम में लगी हैं, उनमें खून की बेहद कमी है। उनके बच्चों में कुपोषण की समस्या भी है,” पन्ना में सामाजिक कार्यों से जुड़े रवि पाठक कहते हैं। रवि पृथ्वी ट्रस्ट नामक संस्था से जुड़े हैं जो इलाके में कुपोषण से निपटने के प्रयास में लगी है।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के आंकड़ों की ओर देखें तो पन्ना जिले में 49 प्रतिशत महिलाओं (15 से 49 वर्ष) में खून की कमी है। पांच साल से कम उम्र के करीब 68 फीसदी बच्चों में खून की कमी है। सर्वे के मुताबिक यहां के 42 फीसदी बच्चों में ठिगनापन है और 24 फीसदी बच्चों का वजन कम है। ये सभी कुपोषण के लक्षण हैं।
“खून की कमी ही नहीं बल्कि पत्थर के धूल से मजदूरों को सिलिकोसिस जैसी लाइलाज बीमारियां होती हैं,” पाठक ने बताया।
“सिलिकोसिस के मरीजों की जांच और उपचार की सुविधा मौजूद नहीं है। सरकार के द्वारा उन्हें पेंशन भी नहीं दिया जाता, जिससे वे काम न कर पाने की स्थिति में घर चला सकें,” पत्थर खनन मजदूरों के लिए काम करने वाले समाजिक कार्यकर्ता युसुफ बेग इलाके की समस्या पर कहते हैं।
यूसुफ बेग ने बताया कि वर्ष 2010-11 में पत्थर खदान मजदूर संघ नें इन्विरानिक्स ट्रस्ट दिल्ली के सहयोग से पन्ना जिले के पत्थर खदान मजदूरों की जांच कराई थी जिसमें 162 मजदूरों के सिलीकोसिस बीमारी से पीड़ित होने की पुष्टि की गई थी। हालांकि, अधिकृत तौर पर बुंदेलखंड मेडिकल कॉलेज सागर और जिला चिकित्सालय पन्ना ने मात्र 39 मजदूरों को सिलिकोसिस पीड़ित माना है। इन चिन्हित मजदूरों में से अब तक 25 मरीजों की मौत हो चुकी है । मानव अधिकार आयोग के दखल के बाद सरकार ने 11 मजदूरों के परिवार को मृत्यु के बाद 3-3 लाख की सहायता राशि दी है।
पन्ना के कृष्ण कल्याणपुर गांव स्थित हीरा खदान का एक सामान्य दिन। यहां कोई खुदाई में लगा है तो कोई अपनी झुग्गी के पास आराम कर रहा है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
बाघ संरक्षण की वजह से हीरे से जुड़े रोजगार की रही सही उम्मीद भी जाती रही
पन्ना में खनन उद्योग अब बंद होने के कगार पर है। वजह है यहां के वन और वन्य जीव। पन्ना टाइगर रिजर्व, देश का एक महत्वपूर्ण बाघों का ठिकाना है। एक दशक पहले यहां बाघ खत्म हो गए थे, लेकिन संरक्षण की कोशिशों की वजह से अब इनकी संख्या बढ़कर पचास के करीब हो गयी है। संरक्षण के लिए यहां के खदानों को एक-एक कर बंद कर दिया गया। यहां तक कि एनएमडीसी की खदान पर भी बंद होने का संकट आ गया था। सरकार की कोशिशों की वजह से इसे 20 साल के लिए दोबारा चालू किया गया है।
वन विभाग ने हाल ही में अवैध खनन करने वालों पर करोड़ों का जुर्माना लगाया है।
“हमारे बंद खदान अब चालू नहीं हो पा रहे हैं। यह इलाके में रोजगार का एकमात्र स्रोत थे,” कहते हैं पदम अहिरवार। उन्होंने यहां वर्षों तक खदान संचालित किया है।
पत्थर खदान में काम करने वाले बीजू आदिवासी का भी रोजगार सरकार की सख्ती की वजह से चला गया। “अब मैं खदान के पास पड़ा रहता हूं। कोई काम नहीं है। अगर बिना अनुमति के पत्थर निकाला तो वन विभाग के लोग पकड़ ले जाएंगे,” बीजू कहते हैं।
पन्ना के सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं कि रोजगार का कोई विकल्प दिए बिना खदान बंद करना ज्यादती है।
“इस इलाके में कोई रोजगार नहीं है। कोविड-19 लॉकडाउन में जिले में एक लाख मजदूर वापस लौट आए। अगर उन्हें रोजगार नहीं मिला तो जंगल में अवैध गतिविधि बढ़ने का खतरा है, जिससे संरक्षण की कोशिशों को झटका लग सकता है,” यूसुफ बेग कहते हैं।
“सरकार को डिस्ट्रिक्ट मिनरल फंड का इस्तेमाल बजाए बड़े प्रोजेक्ट में जाया करने के मजदूरों को रोजगार और उनका कौशल बढ़ाने में करना चाहिए,” बेग सुझाते हैं।
बैनर तस्वीरः पन्ना के हीरा खदान में रामप्यारे मिट्टी से सने कंकड़ों को धो रहे हैं। इन्हीं कंकड़ों से हीरा मिलने की संभावना रहती है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे