- राजस्थान में कई प्रकार के पत्थरों का खनन बड़े पैमाने पर किया जाता है। इन पत्थर खदानों से निकली बारीक धूल मजदूरों के फेफड़ों में जमा होता रहती है। इससे कई तरह की बीमारियां होती हैं। इनमें एक जानलेवा बीमारी का नाम है सिलिकोसिस।
- इस बीमारी से हजारों लोगों की जान जा चुकी है। सिलिकोसिस से मरने वाले लोग अपने पीछे अपना परिवार छोड़ जाते हैं, जिन्हें विकल्प के अभाव में दोबारा उसी मौत के खदानों में पुनः काम के लिए जाना पड़ता है।
- समाजसेवी संस्थाएं खनन प्रभावित महिलाओं को इकट्ठा कर सहकारिता के माध्यम से रोजगार के दूसरे विकल्प देने की कोशिश में हैं, ताकि उन्हें दोबारा मौत के मुंह में न जाना पड़े।
“इसके सिवा मेरे पास रास्ता क्या है! मेरे चार बेटे भी जानते थे कि खदानों में काम करने से सिलिकोसिस जैसी बीमारी होगी। फिर भी वो यहां काम करते रहे। मेरी उम्र तो वैसे भी अब हो चली है,” पचपन वर्ष की कमला भील कहती हैं। इनके पति का इन्हीं खदानों में काम करने से निधन हो चुका है। इसी सिलिकोसिस की वजह से। इनका एक जवान बेटा फेफड़ें की गंभीर बीमारी से ग्रसित है और बिस्तर पर पड़ा है।
कमला भील राजस्थान के जोधपुर के भील बस्ती में अपने बेटों के साथ रहती हैं। इनका पूरा जीवन गरीबी में गुजरा लेकिन ऐसा अकेलापन और बेबसी कभी नहीं रही। खदानों के वीभत्स रूप को देखने के बाद भी इन्हें यहां काम करना पड़ रहा है।
कहती हैं, “अगर दो जून की रोटी कमाने का कोई और विकल्प होता तो मैं सबसे पहले अपने बेटों को यहां काम करने से रोकती।”
कमला अकेली विधवा नहीं हैं जो इन पत्थर के खदानों के वीभत्स रूप को देखने के बाद भी यह काम करने को मजबूर हैं। इनके जैसी इस इलाके में हजारों विधवाएं हैं जिनके पति को इन्हीं खदानों ने छीन लिया और ये यहीं काम करने को मजबूर हैं।
तब जब इन्हें मालूम है कि यहां से उन्हें सिर्फ संघर्ष ही मिला है। बीमारी, मुआवजे के लिए संघर्ष और मौत।
“मेरे एक बेटे को कुछ साल पहले सिलिकोसिस हुआ। उसके बाद से वह बिस्तर से उठ नहीं पाया है। सरकार ने जो कुछ मुआवजा दिया, वह बेटे की देखभाल के लिए काफी नहीं है,” कमला भील ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।’
जोधपुर के सोधो की ढ़ानी गांव की साठ वर्षीय शांति देवी की कहानी कुछ अलग नहीं है। पति की सिलिकोसिस से मौत और फिर बेटे की कैंसर से हुई मौत ने शांति देवी को तोड़कर रख दिया। उन्हें खुद भी मुंह का कैंसर है। काम न कर पाने की स्थिति में सरकार से मिलने वाला विधवा पेंशन ही एकमात्र सहारा है। सरकार ने बेटे के जीवित रहते उसकी देखभाल के लिए कुछ पैसों की राहत दी थी। लेकिन बेटे के जाने के बाद वाजिब मुआवजा नहीं मिला।
राजस्थान सरकार की नीति के मुताबिक, जो लोग सिलिकोसिस के शिकार होते हैं उन्हें तीन लाख रुपए की एकमुश्त राहत राशि जीवित रहते दी जाती है। मृत्यु के पश्चात परिवार को दो लाख रुपए की सहायता दी जाती है।
“मेरे बेटे को गए हुए कई साल बीत गए। मैं अकेली रहती हूं और मेरे पास अब कुछ नहीं बचा। पिछले साल, कोरोना महामारी के दौरान लगे तालाबंदी में मुझे पेट पालने के लिए अपने बचे हुए छोटे-मोठे गहने तक गिरवी रखने पड़े। मुझे पता है कि अब वो गहने मेरे पास कभी नहीं आएंगे। अब मैं अपना दिन गिन रही हूं। मुझे मालूम है कि न मेरा इलाज होना है और ना खाने-पीने की कोई व्यवस्था होने वाली है,” शांति देवी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
राजस्थान में वैध या अवैध पत्थर खदानों में काम करने वाले मजदूरों को सिलिका के कणों की वजह से फेफड़े की बीमारियां होती है। सिलिकोसिस नाम की इस गंभीर बीमारी ने इनका जीवन तबाह कर दिया और फिर भी ये उसी काम को करने पर मजबूर हैं।
पिछले कुछ दशकों में हजारों-हजार लोगों को इस बीमारी की वजह से जान गंवानी पड़ी है। पीड़ित परिवारों को सरकार की कागजी कार्यवाई और अफसरों की लेटलतीफी की वजह से समय पर मुआवजा तक नहीं मिलता।
मआवजे की आस में कई लोग राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग तक गुहार लगाते हैं, लेकिन इससे काम में कोई खास तेजी नहीं आती। उदाहरण के लिए शांति देवी ने मुआवजा के लिए मानव अधिकार आयोग की सहायता चाही, लेकिन कागजों में ही यह मामला उलझकर रह गया। वर्ष 2017 में जो मुआवजा मिलना चाहिए उसका अब तक इंतजार हो रहा है।
प्रशासन की अकुशलता से बढ़ता गया सिलिकोसिस पीड़ितों का दर्द
राजस्थान में इस बीमारी से कितने लोग प्रभावित है इसकी समुचित जानकारी किसी के पास नहीं है। इसकी वजह है जांच की सुविधा ना होना, सर्टिफिकेट देने में सरकारी लापरवाही इत्यादि। हालांकि वर्ष 2018 के भारत के नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) की एक रपट कहती है कि राज्य में आठ हजार सिलिकोसिस के मरीज सामने आए। यह आंकड़ा जनवरी 2015 से लेकर फरवरी 2017 के बीच का है। इन्हीं दो वर्षों में मजह पांच जिले के 449 मरीजों की इस बीमारी से मृत्यु भी हो गयी।
राजस्थान के सरकारी आंकड़ों को देखें तो राज्य में कुल 17,000 सिलिकोसिस के मरीज हैं। हालांकि, सिलिकोसिस मरीज की बेहतरी के लिए काम करने वाली संस्थाओं का मानना है कि कम से कम 10,000 मरीज और होंगे जो सरकारी दस्तावेज में मौजूद नहीं हैं। इनका मानना है कि कई मरीजों का सिलिकोसिस होने का दावा सरकार द्वारा निरस्त भी कर दिया जाता है।
“ऐसी कई महिलाएं अपना पति खोने के बाद अनिश्चितता झेल रही हैं। अकेले जोधपुर इलाके में ऐसी 1100 महिला होने का अनुमान है,” माइन लेबर प्रोटेक्शन कैंपेन (एमएलपीसी) की शिखा कछवाहा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
“यह मामला काफी पेचीदा है। कुछ महीने पहले सिलिकोसिस से बीमार हुए व्यक्ति को कई बार मुआवजा मिल जाता है, लेकिन कई वर्ष पहले मृत हो चुके व्यक्ति का परिवार मुआवजा के लिए भटकता फिरता है,” वह कहती हैं।
इसी तरह का मामला जगदीश गहलोत का है जिनकी मृत्यु 13 जनवरी 2021 को हुई। नवंबर में ही उनको सिलिकोसिस होने की बात पता चली थी। इस मामले में प्रशासन का कहना है कि परिवार को सिर्फ मृत्युपरांत मिलने वाला मुआवजा दिया जाएगा। हालांकि, जानकार मानते हैं कि जीवित रहने के दौरान मिलने वाली सहायता भी परिवार को मिलनी चाहिए।
शिखा कहती हैं कि गहलोत के परिवार को दो लाख रुपए की राशि दी गई है।
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चमकदार पत्थर के पीछे मजदूरों की स्थिता का स्याह सच
राजस्थान सरकार के मुताबिक यह देश का सबसे बड़ा राज्य है, जहां संगमरमर, ग्रेनाइट, बलुआपत्थर, चूनापत्थर, क्वार्ट्ज, फेल्सपार, सिलिका रेत, क्ले और सोपस्टोन का भंडार है। इसके अलावा धातुओं में तांबा, जस्ता, लौह अयस्क, लिग्नाइट और मैंगनीज यहां बहुतायत में पाया जाता है। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में खनन क्षेत्र 4.4 प्रतिशत का योगदान करता है।
राजस्थान में खनन नीति 2015 के मुताबिक यहां खनन के दौरान मजदूरों की सुरक्षा का ध्यान रखा जाना है। खनन से कम से कम अपशिष्ट पैदा करना, अधिक से अधिक खनिज पाना, खनिज का संरक्षण और कम लागत में खनन जैसी नीतियां शामिल हैं। यह नीति पर्यावरण, लोगों के स्वास्थ्य, समाजिक दायित्व और लोगों के कल्याण की बात भी करती है।
खनन नीति कहती हैं कि न्यूमोकोनियोसिस और सिलिकोसिस जैसी बीमारियों पर काबू पाने के लिए खदानों में पानी के साथ पत्थर तोड़ा जाएगा, ताकि धूल हवा में न फैले। साथ ही, कामगारों के स्वास्थ्य की सतत निगरानी होगी।
हालांकि, जो लोग खदानों में काम करते हैं उनका मानना है कि यह सब नियम कागजों तक ही सीमित हैं। अवैध खदानों में काम करने वाले मजदूरों का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। खनन क्षेत्र को समझने वाले लोग मानते हैं कि नीति और उसे लागू करने की इच्छाशक्ति सरकार के पास नहीं है। सरकार लोगों के जीवन में खनन की वजह से आई त्रासदी की ओर देखना नहीं चाहती।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज मुंबई में असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर काम करने वाले पेखम बासु लंबे वक्त से खनन क्षेत्र में प्रभावित मजदूरों के साथ काम कर रहे हैं।
“खनन से जुड़े खतरों से जूझने वाले लोग खनीज संपन्न इलाकों से ही आते हैं। वे खदानों में काम करते हुए जान लेने वाली बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। वे बीमारी के इस कुचक्र से बाहर भी निकलना चाहें तो निकालना लगभग असंभव है। क्योंकि विकल्प नहीं है। सिलिकोसिस जैसी बीमारियां उनके कठिन जीवन में एक और समस्या जोड़ती है,” बासु ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
“ऐसे जीवन की कल्पना भी कई लोग नहीं कर सकते हैं। जब कोई पुरुष मरता है, उनकी पत्नी उसी खदान में जीवन को खतरे में डालकर काम करने जाती है। जब सब लोग काम पर पहुंच जाते हैं तभी ये महिलाएं घर से निकलती हैं, क्योंकि समाज में कुरीति है कि विधवा को काम पर जाते वक्त देखना अशुभ होता है। जब वे देरी से खदान पर पहुंचती हैं तो उनकी आधे दिन का वेतन देर से पहुंचने पर दंड के रूप में काट लिया जाता है,” बासु ने बताया।
“महिलाओं को भली-भांति पता है कि जिस खदान ने उनके पति और बेटों की जान ले ली, वहां उनका जीवन भी अधिक सुरक्षित नहीं है। लेकिन इलाके में कोई और काम उपलब्ध नहीं है जिससे दो वक्त का खाना जुटाया जा सके। कई महिलाएं इतनी मजबूर होती हैं कि बच्चे के जन्म के कुछ ही दिन में कमजोर बच्चे और कमजोर शरीर के साथ पत्थर तोड़ने पहुंच जाती हैं,” उन्होंने बताया।
इस परेशानी का क्या कोई अंत नहीं?
खनन में लगे लोग एक बात बार-बार कहते हैं, कि विकल्प क्या है? एमएलपीसी से जुड़ी राना सेनगुप्ता कहती हैं कि पत्थर खदानों में काम करने वाले लोग अकुशल मजदूर हैं।
“कोविड-19 की वजह से लगे तालाबंदी के दौरान कई खदान बंद थे। हमने उन महिलाओं से बात की जिनके पति नहीं हैं और समझने की कोशिश की कि वे और क्या काम कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि वे चूड़ियां बना सकती हैं, बकरी संभाल सकती हैं। उनमें से कुछ पापड़ बनाना भी जानती थी। हमने ऐसी महिलाओं को चुनकर 19 महिलाओं का एक समूह बनाया और उन्हे बकरी पालने का काम दिया। वे अब एक सहकारिता समिति का निर्माण कर काम कर रही हैं,” सेनगुप्ता ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
सेनगुप्ता कहते हैं कि हम अच्छी नस्ल की बकरियों को इन महिलाओं को सौंपते हैं जिनका दूध बेचकर वे अपना भरण पोषण कर सकें। अगर कोई बकरी को बेचना चाहे तो सहकारिता समूह ही इन बकरियों को खरीद सकती है।
बैनर तस्वीरः कमला भील के पति सिलिकोसिस बीमारी की वजह से नहीं रहे। अब उनका बेटा भी इसी बीमारी से जूझ रहा है। तस्वीर- एमएलपीसी