- छत्तीसगढ़ में देश का 19 फीसदी लौह अयस्क भंडार है और इसके खनन की वजह से पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है।
- छत्तीसगढ़ वन विभाग के मुताबिक बीते कुछ वर्षों में 4,920 हेक्टेयर जंगल की जमीन लौह अयस्क खनन हेतु डायवर्ट की जा चुकी है।
- बड़े स्तर पर होने वाले खनन के लिए जंगल को साफ करना पड़ता है जिससे पर्यावरण और स्थानीय समुदाय के लिए मुश्किल खड़ी होती है। कुछ मामलों में अपने ऊपर खतरा देख आदिवासी समुदाय के लोग खनन परियोजनाओं का विरोध भी करते हैं।
छत्तीसगढ़ में एक बड़े हिस्से में जंगल है जो न केवल स्थानीय बल्कि राष्ट्रीय स्तर की आबोहवा के लिए जरूरी है। पर राज्य में लौह अयस्क का प्रचूर भंडार भी मौजूद है। लौह अयस्क कच्चा माल है, जिसका उपयोग लोहा बनाने के लिए किया जाता है। इसके खनन की वजह से यहां के जंगलों को नुकसान हो रहा है। छत्तीसगढ़ वन विभाग द्वारा हाल ही में जारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले कुछ वर्षों में राज्य में 4,920 हेक्टेयर जंगल की जमीन को लौह अयस्क खनन के लिए डायवर्ट किया गया। यानी जहां पहले जंगल था वहां खनन की अनुमति दे दी गई।
छत्तीसगढ़ सरकार के मुताबिक राज्य में 370 किलोमीटर लंबी पर्वत श्रृंखला में लौह अयस्क पत्थरों के रूप में पाए जाते हैं। ये पर्वत शृंखला दंतेवाड़ा, बस्तर, कांकेर, नारायणपुर, राजनंदगांव, दुर्ग और कबीरधाम जिलों से होकर गुजरती है। इस पर्वत में 403.1 करोड़ टन लौह अयस्क का भंडार है जो कि भारत के कुल भंडार का 19 फीसदी है। छत्तीसगढ़ में हेमेटाइट प्रकार का लौह अयस्क पाया जाता है जो कि मैग्नेटाइट के बाद सर्वोत्तम लौह अयस्क माना जाता है।
छत्तीसगढ़ के दक्षिण में स्थित बस्तर क्षेत्र घने जंगलों से भरा हुआ है और यहां का स्थानीय समुदाय आजीविका के लिए इन्हीं जंगल पर निर्भर है। लौह अयस्क निकालने के लिए, यहां के पहाड़ी क्षेत्र निजी कंपनियों को लीज दी जाती हैं। फिर जंगल की जमीन पर खनन होता है और स्थानीय लोगों का जीवन इससे अस्त-व्यस्त हो जाता है। कुछ मामलों में स्थानीय लोग आरोप लगाते हैं कि गैर कानूनी तरीके से फर्जी दस्तावेज के आधार पर खनन की अनुमति ली गई है।
उदाहरण के लिए नायारणपुर जिले में जायसवाल नेको इंडस्ट्रीज लिमिटेड को आमदई घाटी के रिजर्व फॉरेस्ट इलाके में 192 हेक्टेयर में खनन का लीज मिला। इस घाटी में लौह अयस्क की भरमार है। खनन की शुरुआत 2016 में हुई और स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद अब कंपनी अपना उत्पादन बढ़ाना चाहती है।
विरोध जताने के लिए जुलाई में नक्सलियों ने सड़क निर्माण के दौरान गाड़ियों में आग लगा दी और एक सड़क खुलवाने के प्रयास में भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) के एक जवान की मौत भी हो गई। यह खदान अबूझमाड़ से से 8 से 10 किलोमीटर के दायरे में है। अबूझमाड़ को नक्सलियों का गढ़ माना जाता है। इस क्षेत्र में गोंड, मुजरिया और अबुज मारिया आदिवासी समुदाय के लोग भी रहते हैं।
स्थानीय लोग आरोप लगाते हैं कि खदान के लिए जंगल डायवर्ट करने की अनुमति ग्राम सभा से नहीं लगी गई।
नारायणपुर स्थित गैर लाभकारी संस्था से जुड़े राजेंद्र कुमार महावीर ने कहा कि स्थानीय लोग खदान का विरोध करते हैं।
“जो लोग इस इलाके में रहते हैं उनके लिए जंगल आजीविका का साधन है। ये लोग जंगल से जलावन, तेंदू पत्ता और बांस लेकर आते हैं। इस क्षेत्र में खनन शुरू होने से उनकी आजीविका प्रभावित होगी। इसी वजह से ग्रामीण इसका विरोध कर रहे हैं। जंगल के अलावा ग्राणीण मानते हैं कि खनन का बुरा प्रभाव पर्यावरण पर भी होगा,” उन्होंने कहा।
स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता आरोप लगाते हैं कि कई निजी खनन कंपनियों ने स्थानीय लोगों को रोजगार देने का वादा किया लेकिन बाद में मुकर गईं।
नारायणपुर के निवासी महेंद्र मंडावी कहते हैं कि स्थानीय लोग जंगल पर निर्भर हैं और जंगल खत्म होने से इनका भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। वह आरोप लगाते हैं कि राज्य सरकार ने निजी कंपनियों को जंगल में खनन के लिए कानूनी अनुमति दिलाने में मदद की है।
लौह अयस्क खनन का पर्यावरण पर प्रभाव
जंगल की जमीन का खनन के उद्देश्य से उपयोग होने से कई सवाल खड़े होते है। इसमें जंगल पर स्थानीय लोगों को अधिकार और पर्यावरण से संबंधित मुद्दे शामिल है।
मतला रिजर्व फॉरेस्ट स्थित रावघाट लौह अयस्क परियोजना कांकेर और नारायणपुर जिले में फैली हुई है। परियोजना की वजह से पेड़ों की कटाई विवाद का मुद्दा रहा है। रावघाट में 731 मीट्रिक टन लौह अयस्क भंडार है जो कि राज्य का दूसरा सबसे बड़ा भंडार है।
छत्तीसगढ़ वन विभाग के एक अधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहा कि रावघाट में पेड़ कटाई का सिलसिला शुरू हो गया है और आने वाले समय में बचे हुए पेड़ भी काट दिए जाएंगे।
माटी संस्था से जुड़े अनुभव शोरी, वन अधिकार कानून के मुद्दे पर काम करते हैं। उन्होंने कहा कि आदिवासियों की आजीविका जंगल पर निर्भर है और खनन से यह बुरी तरीके से प्रभावित होती है। “खनन की अनुमति लेने में कई बार कानूनों का उल्लंघन भी किया जाता है। ग्राम सभा की अनुमति अगर ली भी जाती है तो यह पूरी तरह से कानून-सम्मत नहीं होता,” उन्होंने आरोप लगाया।
शोरी ने जोर देते हुए कहा कि यह साफ नहीं है कि कितने गांव और कितना जंगल प्रभावित होने वाला है। “फिलहार खनन शुरू नहीं हुआ है, क्योंकि रेल लाइन, सड़क मार्ग और टाउनशिप बनने का काम चल रहा है। भिलाइ स्टील प्लांट को 2028.79 हेक्टेयर का लीज मिला है। प्लांट के मुताबिक 16 गांव इससे प्रभावित होंगे, लेकिन मुझे लगता है कि इसका असर 30 गांवों पर होने वाला है,” उन्होंने कहा।
कांकेर निवासी और साथी समाज सेवा संस्था के प्रमोद पोटाई कहते हैं कि आदिवासी समाज जंगल, पर्वत और नदियों से जुड़ा रहता है और विस्थापन की स्थिति में उनका उचित पुनर्वास होना चाहिए।
“खनन का काम अंतारगढ़ के चरगांव नामक गांव में होना है। हालांकि, अभी काम शुरू नहीं हुआ है। भिलाई स्टील प्लांट ने खनन का काम देव माइनिंग कंपनी को दे दिया है जिसके बाद ग्रामीण विरोध कर रहे हैं। गांव वालों का मानना है कि भिलाई स्टील प्लांट अगर खुद खनन करती तो इलाके में कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी के तहत ही सही कुछ काम हो पाता,” उन्होंने कहा।
वर्ष 2019 में बनी संस्था रावघाट संघर्ष समिति से जुड़े कांकेर के सोमनाथ उसेंडी कहते हैं कि रावघाट में अबतक कोई विकास नहीं हुआ है।
“भिलाइ स्टील प्लांट को लीज मिलने के बाद भी गांव वालों की भलाई के लिए अभी तक कुछ भी नहीं किया गया है। हमने सड़क चौड़ा करने की मांग भी की थी। इस समिति की स्थापना विरोध दर्ज कराने के लिए की गई है,” उन्होंने कहा।
उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि इस परियोजना के लिए ग्राम सभा की अनुमति नहीं ली गई थी। “कांकेर का यह पहाड़ ओडिशा के नियमगिरी की तरह ही पवित्र माना जाता है। हमारे पूर्वज यहां राजा राव देवता का वास मानते थे। हमने अपने देवता को बचाया और इससे जंगल और पानी का स्रोत भी बचा रहा,” उसेंडी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
वर्ष 2013 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ओडिशा सरकार को ओडिशा के कालाहांडी और रायगडा जिले में बॉक्साइट खनन की अनुमति लेने के लिए ग्राम सभा में जाने के लिए कहा था। फैसले के बाद स्थानीय वनवासियों से पूछा गया कि क्या बॉक्साइट खनन से उनके धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर असर पड़ेगा? स्थानीय लोगों ने नियमगिरि पहाड़ियों पर खनन के खिलाफ फैसला किया जिसके कारण एक बड़ी परियोजना को रद्द करना पड़ा।
उन्होंने यह भी कहा कि क्षेत्र में पहले से ही पेड़ों की कटाई चल रही है और इस बात पर जोर दिया कि पर्यावरण को हर कीमत पर संरक्षित किया जाना चाहिए। “यदि लोग विस्थापित हो जाते हैं, तो भविष्य में उनकी आजीविका का क्या स्रोत होगा?” उसांडी ने सवाल किया।
खनन से नहीं होता स्थानीय लोगों का विकास
खनन राज्य की अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग है। पर यह स्थानीय लोगों के जीवन में भी उतना ही महत्वपूर्ण परिवर्तन लाता है क्या? जवाब है-नहीं।
दंतेवाड़ा जिले में किरंदुल स्थित बैलाडीला लौह अयस्क खदान परियोजना के लिए लगभग 315 हेक्टेयर वन को डायवर्जन हेतु प्रस्तावित किया गया है। इसे डिपॉजिट-13 के नाम से जानते हैं। इसे राष्ट्रीय खनिज विकास निगम और रायपुर स्थित छत्तीसगढ़ खनिज विकास निगम के संयुक्त प्रयास से विकसित किया जा रहा है। नारायणपुर की तरह, यहां भी पहाड़ी और जंगली क्षेत्र है। यहां के स्थानीय लोग भी खनन के सख्त खिलाफ हैं। वजह है इन पहाड़ियों में से एक पहाड़ नंदराज जो यहां के लोगों के लिए पवित्र है।
स्थानीय पत्रकार मंगल कुंजाम ने बताया डिपॉजिट-13 एक वन भूमि है। उन्होंने कहा कि यहां की जमीन पूरे समुदाय की है।
“आदिवासी अपनी पवित्र पहाड़ी नंदराज की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि पहाड़ी खतरे में है। एनएमडीसी भी इस इलाके में 1968 से खनन कर रही है लेकिन यहां कोई विकास नहीं हुआ है,” कुंजाम ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
दंतेवाड़ा निवासी कुंजाम और धीरज राणा ने भी उस प्रक्रिया पर सवाल उठाया जिसमें खनन के लिए ग्राम सभा (ग्राम परिषद) से अनुमति मांगी गई थी। राणा ने बताया कि सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी मांगी गयी तो पता चला कि ग्राम सभा (ग्राम परिषद) की सहमति प्रामाणिक नहीं थी।
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स्थानीय समुदाय के लोग नंदराज पर्वत को पवित्र मानते हैं और हर वर्ष में एक बार यहां आते हैं।
दंतेवाड़ा के बचेली निवासी तुलसी ठाकुर ने कहा कि डिपॉजिट-13 में खनन का विरोध 2018-19 में शुरू हुआ और आदिवासियों ने 10 किलोमीटर का विरोध मार्च निकाला था।
ठाकुर ने आरोप लगाया कि इलाके में हजारों पेड़ काटे गए हैं। वन विभाग के एक स्थानीय अधिकारी ने पुष्टि की कि वन विभाग की जानकारी के बिना पेड़ों को काटा गया था। साथ में उस अधिकारी ने यह भी कहा कि कंपनी ने वन भूमि के डायवर्जन की अनुमति ली थी। “नियमानुसार हमें सूचित किया जाना चाहिए था। वन विभाग या तो पेड़ों को काटता है या प्रक्रिया की निगरानी करता है,” अधिकारी ने कहा।
बैनर तस्वीरः छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में बैलाडीला लौह अयस्क खदानों का एक दृश्य। तस्वीर- सुरेश यादव