- कर्नाटक के पावागढ़ में जिन स्थानों पर सौर ऊर्जा से बिजली बनाई जा रही है, वहीं के गांवों में बिजली की सुविधा उपलब्ध नहीं है। ऐसी ही स्थिति कोयले से बिजली पैदा करने वाले स्थानों पर भी देखी जाती रही है।
- सौर पार्क में जमीन देने वालों लोगों के लिए आमदनी का एक जरिया तो खुला, लेकिन आय का यही एकमात्र स्रोत होने की वजह से इन्हें भविष्य की चिंता सताती है।
- किसानों को सोलर पार्क के लिए जमीन किराये पर देने का एक फायदा नियमित आय के रूप में हुआ, लेकिन इससे उनकी सांस्कृतिक पहचान खत्म होती चली गई। आय बढ़ने से इनके जीवनस्तर में भी सुधार हुआ।
“अगर हमारे पास पानी की व्यवस्था होती तो यह शहर काफी पहले विकसित हो गया होता,” यह कहना है गिरिश आर का जो कि पावागढ़ में रहते हैं। पावागढ़ कर्नाटक का एक पहाड़ी शहर है जहां बीते आधी सदी से सूखे की समस्या रहती है। बैंगलुरु से 160 किलोमीटर दूर स्थित पावागढ़ तालुक तुमकुर जिला का हिस्सा है। 2,50,000 आबादी वाले इस इलाके को पिछले 60 वर्ष में 54 बार सूखाग्रस्त घोषित किया गया है।
पावागढ़ के ऊपर सूरज ने हमेशा अपना रौद्र रूप दिखाया है। इस वजह से गर्मियों में यहां का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। यहां के किसान सूखे में होने वाली फसल जैसे अरंडी, दालें, मूंगफली, मिलेट्स या मोटे अनाज और मॉनसून के दौरान कुछ फलों की खेती करते हैं। मॉनसून में यहां औसतन 600 मिलिमीटर बारिश होती है जो कि किसानों की जरूरत के लिए काफी नहीं है। बारिश की कमी का असर किसानों की आमदनी पर भी हो रहा है।
वर्ष 2015 में पावागढ़ को सोलर पार्क के लिए चुना गया। यह पार्क कर्नाटक के सबसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट में से एक है।
सौर ऊर्जा उत्पादन करने वाले इस पार्क का नाम शक्ति स्थल रखा गया है। इसे भारत का सबसे बड़ा और विश्व का दूसरे नंबर का सोलर पार्क बनाने का संकल्प लिया गया। पार्क की क्षमता 2,050 मेगावॉट है। इस स्थान पर प्रति वर्ग मीटर प्रति दिन 5 केडब्लूएच (किलोवॉट आवर) की दर से ऊर्जा का उत्पादन होता है। यह इलाका पथरीली पहाडियों से घिरा होने की वजह से सौर पार्क के लिए मुफीद स्थान है। यह परियोजना 2018 से चल रही है। परियोजना की एक और खास बात है इसमें किसानों की जमीन को शामिल करना। किसानों ने 28 वर्ष के लिए अपनी 13000 एकड़ जमीन किराये पर दी। हर साल 21,000 रुपए प्रति एकड़ की दर से किसानों को किराया दिया जाता है। हर दो साल में इस राशि में पांच फीसदी का इजाफा किया जाता है।
पावागढ़ सोलर पार्क बैंगलुरु से 160 किमी दूर स्थित है। यह 13000 एकड़ में फैला हुआ है। मैप— टेक्नोलॉजी फॉर वाइल्डलाइफ.
कर्नाटक अक्षय ऊर्जा विकास लिमिटेड (केआरईडीएल), सोलर एनर्जी कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एसईसीआई) और कर्नाटक सौर ऊर्जा विकास निगम लिमिटेड (केएसपीडीसीएल) ने मिलकर इस परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण और जरूरी अनुमति ली थी। थिरुमणि ग्राम पंचायत के अंतर्गत आने वाले पांच गांवों- थिरुमणि, वल्लूर, बालासमुद्र, रायचारलू और क्याथागनाचारलू में भूमि का अधिग्रहण किया गया था।
कुल 2,050 मेगावाट क्षमता में से, नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) ने 600 मेगावाट सौर पीवी क्षमता स्थापित की, जबकि एसईसीआई और केआरईडीएल ने क्रमशः 200 मेगावाट और 1,250 मेगावाट की स्थापना की। केएसपीडीसीएल के महाप्रबंधक एन. अमरनाथ ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि एसपीवी ने भूमि खरीद में देरी से बचने और जमीन के मालिकों के हितों की रक्षा के लिए एक पट्टा मॉडल अपनाया।
“किसानों को जमीन का किराया मिलता है और हम उनकी जमीन पर पार्क का संचालन करते हैं,” उन्होंने कहा।
इलाके में लगभग 30 प्रतिशत साक्षरता दर है और लगभग आधे परिवार की मासिक आय 20 हजार से कम है। यह आंकड़ा दो परियोजना प्रभावित गांवों, थिरुमणि और रायचारलू पर सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण के दौरान जुटाए गए थे। पावागढ़ को राज्य के सबसे पिछड़े तालुकों में से एक माना जाता था।
यहां की एक और पहचान है। वह है जाति-आधारित हिंसा। 1970 के दशक में वामपंथी उग्रवाद का भी उदय हुआ। अधिकांश भूमि और धन उच्च जाति के जमींदारों के पास रहे जबकि सीमांत किसान और भूमिहीन दलित गरीब बने रहे। किसानों को सोलर पार्क में एक तरह से भागीदार बनाकर तकनीकी रूप से अच्छे मेगा सोलर पार्क में इस सामाजिक अन्याय रूपी बुराई से लड़ने की क्षमता भी थी। सौर पार्क के छह साल बाद, इसके प्रभाव पर विभिन्न सामाजिक आर्थिक अध्ययन सामने आए लेकिन इसके परिणाम विपरीत दिख रहे हैं।
क्या भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया से बचने के लिए ली किराये पर जमीन?
कागज पर लीज या पट्टा मॉडल निष्पक्ष और न्यायसंगत है। लेकिन ग्रामीणों के साथ बातचीत से आश्चर्यजनक बात सामने आती है। बालासमुद्र निवासी केएस चक्करैया ने कहा, “बलराम, (तत्कालीन) केआरईडीएल के एमडी, पावागढ़ के निवासी थे और उन्होंने हमें बताया कि पावागढ़ एक बंजर भूमि जैसा दिखता है जिसमें कृषि के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। उन्होंने कहा कि सोलर पार्क से हमें फायदा होगा। तत्कालीन ऊर्जा मंत्री डी.के. शिवकुमार ने ग्रामीणों से कहा कि यदि वे प्रस्ताव के साथ आगे नहीं बढ़े, तो मल्लिकार्जुन खड़गे (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता) इस योजना को अपने निर्वाचन क्षेत्र कलबुर्गी में ले जाएंगे।
पर्यावरण समूह के भार्गवी राव, जो हार्वर्ड-कैनेडी स्कूल समर्थित परियोजना गवर्नेंस ऑफ सोशियोटेक्निकल ट्रांसफॉर्मेशन के प्रमुख जांचकर्ताओं में से एक हैं। वह कहते हैं कि जमीन को खरीदने के बजाय पट्टे पर देना, जमीन से जुड़े विभिन्न नियमों और कानूनों को दरकिनार करने का एक तरीका था। अधिग्रहण और एक मेगा सोलर पार्क जल्द से जल्द शुरू करने का यह आसान और तेज तरीका था।
“यदि वे भूमि खरीदना चाहते थे, तो भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्वास अधिनियम, 2013 के तहत किया जाना चाहिए था। इसके तहत लोगों को उचित मुआवजा मिलता और पारदर्शिता के अधिकार के अनुसार भूमि अधिग्रहण की एक उचित प्रक्रिया अपनाई जाती। इस प्रक्रिया में सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन अध्ययन की तैयारी, जन सुनवाई होता,” उन्होंने कहा। “आज भी परियोजना से प्रभावित लोगों के पास पट्टा समझौते (कॉन्ट्रेक्ट) की प्रतियां नहीं हैं। तो, यह जन-केंद्रित प्रक्रिया कैसे हुई?”
हालांकि, अमरनाथ ने भूमि-पट्टे की प्रक्रिया में उचित कार्यप्रणाली अपनाए जाने की बात दोहराई। “लोगों को जागरूक करने और उन्हें समझौते की व्याख्या करने के लिए हमारे पास बहुत सारे सहायक कर्मचारी थे। सभी जमीन मालिकों के पास समझौते की मूल प्रति होनी चाहिए। वे इसे अपने पास रख सकते हैं,” उन्होंने कहा।
केएसपीडीसीएल ने हर भुगतान के बाद जमीन संबधित रिकॉर्ड को हर साल अपडेट किया, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसानों का उनकी भूमि के साथ संबंध बना रहे।
मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में ग्रामीणों ने कहा कि किसी को भी उनकी भूमि पर पार्क के प्रभाव या पट्टे की अवधि के अंत में डीकमिशनिंग प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी नहीं दी गई थी। पार्क को बंद करते समय जो प्रक्रिया अपनाई जाती है उसे डीकमिशनिंग कहते हैं। नाइट फ्रैंक द्वारा दो गांवों, थिरुमणि और रायचारलू में किए गए पर्यावरण प्रभाव आकलन किया गया। इस दौरान थिरुमणि में आयोजित पार्क के विभिन्न पहलुओं पर हितधारकों के साथ चर्चा के दौरान महज 10 से 12 ग्रामीणों ने भाग लिया। जबकि यहां की आबादी 2000 के करीब है।
मोंगाबे-हिन्दी को ग्रामीणों ने बताया कि उनमें से किसी को भी इस बारे में जानकारी नहीं दी गई थी।
जैविक खेती करने वाले किसान महेश ने अपनी जमीन देने से इनकार कर दिया। वह कहते हैं, “लोग जमीन से वार्षिक आय की संभावना के बारे में इतने उत्साहित थे कि वे अपने घरों के लिए बिजली जैसी सबसे बुनियादी चीजों पर भी बातचीत करना भूल गए।” “चूंकि मेरी जमीन पर कई फलदार पेड़ थे, उन्होंने मुझे रुपये का एक बड़ा मुआवजा देने की पेशकश की। यह राशि 2.5 करोड़ की थी और इसके बदले मुझे अपने पेड़ों को काटना था,” उन्होंने कहा।