- भारत में उपभोग के आंकड़ों का विश्लेषण करने वाले एक नए अध्ययन में कई दिलचस्प जानकारियां सामने आई हैं। अध्ययन में सबसे गरीब और सबसे अमीर घरों के बीच पानी, पार्टिकुलेट मैटर और कार्बन फुटप्रिंट में भारी अंतर देखा गया है। अमीर घरों में पानी की खपत छह गुना बढ़ जाती है। पार्टिकुलेट मैटर का उत्सर्जन दोगुना हो जाता है। वहीं कार्बन फुटप्रिंट भी आठ गुना बढ़ जाता है।
- यह अध्ययन उपभोग के आधार पर पर्यावरण पर पड़ने वाले गंभीर दुष्प्रभाव के बारे में बताता है। इसमें पाया गया है कि जहां अमीर परिवारों में खाने-पीने की चीजों पर खर्च मामूली रूप से बढ़ता है। वहीं दूसरी चीजों और विलासिता की वस्तुओ पर खर्च काफी काफी बढ़ जाता है।
- सबसे अमीर 10% और उसके बाद वाले 10% परिवारों के बीच का अंतर श्रेणियों में सबसे ज्यादा पाया गया। अध्ययन में पर्यावरण पर असर को कम करने के लिए विलासिता की वस्तुओं की मांग कम करने वाली नीतियों बनाने पर जोर दिया गया है।
- यह भी पाया गया कि संपन्न लोग सामाजिक दबाव के चलते विलासिता की चीजों पर खर्च करते हैं। वहीं जनसंचार माध्यम गरीबों और मध्यम वर्ग के बीच खर्च करने की आदतों पर असर डालता है। हालांकि, शिक्षा जनसंचार माध्यमों के असर को कम करती है, यह उपभोग विकल्पों पर समृद्ध सामाजिक नेटवर्क के प्रभाव को कम करने में बहुत कम मदद करती है।
हाल ही में इकोलॉजिकल इकोनॉमिक्स जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि भारतीयों का खान-पान पर्यावरण पर होने वाले दुष्प्रभावों पर सबसे ज्यादा असर डालता है। खास तौर पर ज्यादा आमदनी वाले परिवार रेस्तरां और सामाजिक कार्यक्रमों में खान-पान पर ज्यादा खर्च करते हैं।
साल 2023 में भारत दुनिया भर में तीसरा सबसे ज्यादा प्रदूषित देश बन गया। वहीं इसने अपने इतिहास में अमीरी और गरीबी के बीच सबसे ज्यादा फर्क देखा। इस तरह, यह अध्ययन अमीरों के बढ़ते खर्च और पर्यावरण पर उसके दुष्प्रभाव के बीच संबंध को रेखांकित करता है।
खास तौर पर, इस अध्ययन में पानी के इस्तेमाल, वायु प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन पर उपभोग के असर की पड़ताल की गई है। अध्ययन में आय के बजाय हर व्यक्ति पर हर साल होने वाले खर्च के आंकड़ों पर नजर डाली गई। इसमें 10,000 रुपये से लेकर 173,000 रुपये तक के खर्च को देखा गया।
अध्ययन में पाया गया कि सबसे गरीब से सबसे अमीर परिवारों के बीच हर व्यक्ति सालाना खर्च 17 गुना बढ़ जाता है। इससे, कार्बन फुटप्रिंट में आठ गुना बढ़ोतरी हो जाती है। पानी का इस्तेमाल (वाटर फुटप्रिंट) छह गुना बढ़ जाता है। वहीं पार्टिकुलेट मैटर (पीएम 2.5) का उत्सर्जन (पीएम 2.5 फुटप्रिंट) दोगुना हो जाता है।
पीएम 2.5 के उत्सर्जन में तुलनात्मक रूप से कम तेजी से बढ़ोतरी की वजह खाना पकाने के लिए गरीब घरों में ईंधन की लकड़ी और प्रदूषण फैलाने वाले दूसरे बायोमास का इस्तेमाल है। अमीरों के बीच, पीएम 2.5 का उत्सर्जन महंगी घड़ियों और मोबाइल फोन जैसी ज्यादातर निजी वस्तुओं पर खर्च के बाद सामाजिक कामों और निजी परिवहन पर खर्च होता है।
और बात जब अमीरों के कार्बन फुटप्रिंट की आती है, तो सामाजिक काम सबसे ऊपर हैं। इसके बाद आभूषण और गहने, फर्नीचर और निजी परिवहन पर खर्च होता है।
कार्बन से आगे
अध्ययन में भारत मानव विकास सर्वेक्षण (आईएचडीएस) 2011-12 के उपभोग पर खर्च से जुड़े आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया। इस अध्ययन से जुड़े और बीएमएल मुंजाल विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ लिबरल स्टडीज के सहायक प्रोफेसर सौम्यजीत भर ने कहा, “हालांकि डेटा पुराना है, लेकिन कोई अन्य सर्वेक्षण नहीं था जो खास तौर पर विलासिता से जुड़े उपभोग का व्यापक डेटा दे सके ।”
उपभोक्ताओं से जुड़ा सर्वेक्षण होने के चलते, इसमें सरकारों और कारोबार से सीधे तौर पर होने वाले उत्सर्जन शामिल नहीं है, बल्कि उपभोग किए गए उत्पादों से होने वाले उत्सर्जन को शामिल किया गया है।
कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत दुनिया भर में तीसरे पायदान पर है। यह उत्सर्जन 2.83 बिलियन टन कार्बन है, जो दुनिया भर में कुल कार्बन उत्सर्जन का 7.6% है। हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका के 14.9 टन या दुनिया भर के औसत 4.7 टन की तुलना में भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन अभी भी 1.9 टन कम है।
टीचर्स अगेंस्ट द क्लाइमेट क्राइसिस के सदस्य नागराज अदवे ने कहा, “जहां विकसित और विकासशील दुनिया के बीच गहरी असमानता है, वहीं हर देश के भीतर भी असमानता बहुत ज्यादा है। जिस तरह हम अमीर देशों को उनके उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार मानते हैं, उसी तरह हमें अमीर भारतीयों पर भी कुछ जिम्मेदारी डालनी चाहिए। यह अध्ययन सुपर रिच और उनके उपभोग के पैटर्न के बारे में बेहतर तरीके से बताता है।” वे जलवायु कार्रवाई की वकालत करने वाले शिक्षकों के समूह और भारत में जलवायु परिवर्तन: विज्ञान, प्रभाव और राजनीति के लेखक हैं।
अध्ययन के अनुसार, सबसे गरीब की तुलना में सबसे अमीर परिवारों में आवश्यक खान-पान पर खर्च का अंतर छह गुना बढ़ जाता है। वहीं, खाने-पीने से इतर दूसरी चीजों पर खर्च 26 गुना बढ़ जाता है। साथ ही, खास और विलासिता खर्च 47 गुना बढ़ जाता है। खास चीज़ों पर और विलासिता खर्च में आनंद पाने या अपनी सामाजिक स्थिति के दिखावे के लिए किया जाने वाला किसी भी तरह का खर्च शामिल है।
भर ने कहा, “यहां तक कि ये आंकड़े भी असल से कम होंगे, क्योंकि विकासात्मक सर्वेक्षणों में अमीर परिवारों का प्रतिनिधित्व आमतौर पर कम होता है।”
जापान स्थित रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमैनिटी एंड नेचर ने भी साल 2021 में अपने अध्ययन ने यही निष्कर्ष निकाला था कि गरीबों की तुलना में अमीर भारतीय सात गुना ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करते हैं। लेकिन इससे तस्वीर पूरी तरह साफ नहीं होती है। भर ने कहा, “कार्बन दुनिया भर में अहम संकेतक है, लेकिन भारत में यह सबसे जरूरी मुद्दा नहीं है, क्योंकि हमारा प्रति व्यक्ति कार्बन फुटप्रिंट छोटा है।” “दूसरी ओर, पानी की कमी और वायु प्रदूषण जैसे स्थानीय और क्षेत्रीय मुद्दे बड़ी चिंता का विषय रहे हैं, खासकर गरीबों के लिए। इसलिए, कार्बन के साथ इन फुटप्रिंट को शामिल करना अहम था।
फुटप्रिंट की तीव्रता
अध्ययन फुटप्रिंट की तीव्रता को भी देखता है, जिसका मतलब है कि घरों में हर रुपया खर्च करने का फुटप्रिंट कितना बड़ा है। यह पाया गया कि गरीब परिवारों की कार्बन तीव्रता खाने-पीने की चीजों से इतर श्रेणी के अमीरों की तुलना में ज्यादा थी। इसका कारण गरीब परिवारों की ओर से ईंधन के रूप में केरोसिन का इस्तेमाल हो सकता है। लेकिन जब विलासिता/खास श्रेणी की बात आती है, तो बढ़ती आय के साथ कार्बन और पीएम 2.5 की तीव्रता बढ़ने लगती है, जिससे पता चलता है कि ज्यादा आय समूह जिन वस्तुओं का उपभोग करते हैं, वह पर्यावरण के लिए ज्यादा हानिकारक हैं।
विलासिता/खास श्रेणी में सबसे ऊपर वाले 30% घरों की तीव्रता एक जैसी है, लेकिन शीर्ष 10% के फुटप्रिंट ज्यादा ही बड़े हैं। सबसे अमीर 10% और इसके बाद वाले 10% घरों के बीच पानी की खपत 40%, पीएम 2.5 59% और कार्बन फुटप्रिंट 50% बढ़ जाता है।
2021 के अध्ययन की अगुवाई करने वाले जापान स्थित रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमैनिटी एंड नेचर के शोधकर्ता जेमयुंग ली ने कहा, “यह पेपर कई अन्य अध्ययनों के मुताबिक ही है जिसमें सबसे अमीर वर्ग सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है।” “यह दिखाता है कि नीतियों को सिर्फ नवीन ऊर्जा ग्रिड और अन्य प्रौद्योगिकियों के जरिए प्रदूषण की तीव्रता को कम करने पर निर्भर रहने के बजाय खास/लक्जरी उपभोग की मांग को कम करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।”
दूसरी ओर, अगर प्रदूषण की तीव्रता और उसका नियंत्रण ही एकमात्र फोकस रहेगा, तो इसका हाशिए पर रहने वाले लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। उदाहरण के लिए, पानी की बहुत ज्यादा खपत के कारण ईंधन की लकड़ी के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने या चावल की खेती में कटौती करने वाली नीतियां सीधे सबसे गरीब परिवारों को प्रभावित करेंगी।
अदवे ने कहा, “कार्बन टैक्स के संबंध में बहुत बहस हो रही है जो उन सेवाओं और उत्पादों पर लगाया जा सकता है जिनसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन होता हैं। हालांकि, यह ठीक से काम करे, इसके लिए गरीबों को मुफ्त बिजली जैसी सब्सिडी के जरिए राहत दी जानी चाहिए।” “अमीरों के उत्सर्जन की सीमा तय करने और संपत्ति कर लगाने से भी संपत्ति से जुड़ी असमानता और अनावश्यक खपत को दूर करने में काफी मदद मिल सकती है। दूसरी ओर, गरीब परिवारों को मुफ्त एलपीजी देने से उनके बायोमास इस्तेमाल पर अंकुश लगाने में मदद मिल सकती है जिसके दूरगामी लाभ होंगे।
खान-पान और फुटप्रिंट
अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि भोजन सभी घरों में पर्यावरण पर प्रभाव का सबसे बड़ा स्रोत है। पानी का सीधे इस्तेमाल कुल वाटर फुटप्रिंट का सिर्फ 5-7% है, क्योंकि पानी की ज्यादा खपत खाने-पीने की चीजों से होती है।
जबकि चावल और गेहूं जैसी जरूरी वस्तुएं, जिनमें बहुत ज्यादा सिंचाई की जरूरत होती है, गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों के वाटर फुटप्रिंट को बढ़ाती हैं, फलों और मेवों की ज्यादा खपत अमीरों के लिए भी ऐसा ही करती है।
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भर ने कहा, “फल और मेवे, अनाज से बने उत्पाद और दालें सबसे अमीर 10% घरों में पानी की खपत बढ़ाते हैं, जो इसके बाद वाले 10% घरों की तुलना में 30% ज्यादा है। हालांकि, फलों और मेवों को लक्जरी खपत में गिना जाता है, वे स्वस्थ आहार के लिए जरूरी हैं। इस प्रकार स्वास्थ्य और पर्यावरण से जुड़े लाभों के बीच संबंध के बारे में बताता है।”
साल 2019 के एक अध्ययन में पाया गया था कि एक संपन्न भारतीय हर दिन 2,477 किलो कैलोरी की खपत करता है, जो सुझाए गए आहार से 193 किलो कैलोरी ज्यादा है। साथ ही, औसत भारतीय की खपत से 336 किलो कैलोरी ज्यादा है। अगर सभी भारतीय समृद्ध आहार लेना शुरू कर दें, तो इससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, पानी की खपत और भूमि के इस्तेमाल में 19 से 36% की बढ़ोतरी हो सकती है। दूसरी ओर, अगर हर कोई स्वस्थ आहार लेना शुरू कर दे, तो इससे फुटप्रिंट में महज 3 से 5% की बढ़ोतरी होगी।
सामाजिक दबाव और मीडिया
आप यह किस तरह तय करते हैं कि विलासिता की वस्तुओं पर खर्च करना है या नहीं? भर ने उसी आईएचडीएस डेटा के पहले के विश्लेषण में पाया गया कि समृद्ध सामाजिक दायरे का हिस्सा होने से अपने जैसे लोगों के साथ बने रहने और धन का दिखावा करने का दबाव बनता है। सामाजिक नेटवर्क सूचकांक में एक यूनिट की बढ़ोतरी से विलासिता पर खर्च में 10 से 14% तक की बढ़ोतरी हुई।
गरीबों और मध्यम वर्ग के लिए, जनसंचार द्वारा विलासिता की चीजों के उपभोग को सामान्य बनाना खर्च को बढ़ाता है। हर दिन एक घंटे के अतिरिक्त मास-मीडिया एक्सपोज़र ने एक परिवार के विलासिता पर सालाना खर्च को 4 से 7% तक बढ़ा दिया। हालांकि, उच्च शिक्षा में बढ़ोतरी के साथ, जनसंचार माध्यमों का असर कम हो गया। लेकिन शिक्षा किसी घर को समृद्ध सामाजिक नेटवर्क के असर और विलासितापूर्ण उपभोग के जरिए सामाजिक स्थिति बनाए रखने से नहीं बचा पाई।
अदवे ने कहा, “इस अध्ययन से पता चलता है कि अगर सबसे अमीर लोगों के उपभोग पर अंकुश लगाया जाता है, तो इससे पर्यावरण पर दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है। यह दूसरों के लिए पारिस्थितिक और विकासात्मक जगहें भी बढ़ाएगा, क्योंकि हमारे पास एक सीमित कार्बन बजट है।”
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बैनर तस्वीर: मुंबई में प्रदूषित समुद्र तट का नजारा। भारत दुनिया का तीसरा सबसे ज़्यादा प्रदूषित देश है। साथ ही इसके इतिहास में पहली बार अमीरी और गरीबी के बीच सबसे ज्यादा अंतर देखा गया है। तस्वीर – वायन वोटा/फ़्लिकर।