- 2007 से अब तक राष्ट्रीय योजनाओं के जरिए बाढ़ सुरक्षा उपायों पर 13,000 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए गए हैं।
- बाढ़ सुरक्षा संरचनाएं लोगों में सुरक्षा की झूठी भावना पैदा करती हैं, जिससे बाढ़ प्रभावित इलाकों में मानवीय गतिविधियां बढ़ रही हैं।
- गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिन की तुलना करते हुए, ब्रह्मपुत्र में बाढ़ से बचाव के ढांचों के कारण अधिक जोखिम नजर आया।
बाढ़ नियंत्रण हमेशा से ही भारतीय सरकार के लिए एक महत्वपूर्ण मिशन रहा है। 2007 से अब तक राष्ट्रीय योजनाओं के जरिए बाढ़ सुरक्षा उपायों पर 13,000 करोड़ रुपये (130 बिलियन रुपये) से अधिक खर्च किए गए हैं। भले ही ये उपाय तेजी से और बड़े पैमाने पर लागू किए जा रहे हों, लेकिन कुछ जगहों पर बाढ़ की स्थिति और भी गंभीर हो गई है। असल में, केंद्रीय जल आयोग के डेटा से पता चलता है कि बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम करने के उपायों में भारी निवेश के बावजूद, बाढ़ से प्रभावित लोगों की संख्या और बाढ़ से होने वाले आर्थिक नुकसान में कमी नहीं आई है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली के शोधकर्ताओं ने गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिनों में इस विरोधाभास का अध्ययन करने की कोशिश की। जहां गंगा बेसिन देश का सबसे घनी आबादी वाला नदी बेसिन है, वहीं ब्रह्मपुत्र में हर मॉनसून में भीषण बाढ़ आने की आशंका बनी रहती है। दोनों बेसिन बाढ़ से बचाव के ढांचे (एफपीएस)- जैसे तटबंध और बांध- के लिए लोकप्रिय जगहें हैं।
इस अध्ययन की प्रमुख लेखिका अपूर्वा सिंह ने कहा, “दो प्रमुख बेसिनों और कई एफपीएस संरचनाओं का अध्ययन करने के पीछे मुख्य उद्देश्य ‘लीवी इफेक्ट’ की व्यापकता का पता लगाना था।” लीवी इफेक्ट एक ऐसी घटना को दर्शाता है जहां बाढ़ सुरक्षा प्रणालियों के निर्माण से सुरक्षा की भावना बढ़ने के कारण बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में विकास और गतिविधियां बढ़ जाती हैं।
जब बड़ी और ज्यादा खतरनाक बाढ़ आती है, तो लीवी इफेक्ट के कारण नुकसान का खतरा बढ़ जाता है। अध्ययन में पाया गया है कि बाढ़ से बचाव के ढांचों के कारण गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिनों में सुरक्षा की झूठी भावना पैदा हुई, जिससे बाढ़ से होने वाले नुकसान का खतरा बढ़ गया।

बाढ़ सुरक्षा और खतरा
बाढ़ सुरक्षा संरचनाओं के प्रभावों का आकलन करने में यह आकलन करना भी शामिल है कि बाढ़ में क्या जोखिम है और क्या खतरे हैं। आमतौर पर, बाढ़ सुरक्षा संरचनाओं की सफलता या विफलता को इस बात से मापा जाता है कि वे भौतिक क्षति को कितनी अच्छी तरह से कम या रोकते हैं। कई बाढ़ सुरक्षा संरचनाएं कम तीव्रता वाली बाढ़ का सामना करने में सक्षम हैं। पेपर में कहा गया है, “हालांकि, हाल के अध्ययनों से खतरे की मेपिंग से लेकर जोखिम मूल्यांकन तक में एक बदलाव का संकेत मिलता है, इस प्रकार लोगों की सुरक्षा और कल्याण को सभी बाढ़ से निपटने के प्रयासों के केंद्र के रूप में पहचाना जाता है।”
शोधकर्ताओं ने दोनों बेसिनों में 132 बाढ़ सुरक्षा संरचनाओं के प्रभावों का आकलन किया – गंगा बेसिन में 60 और ब्रह्मपुत्र बेसिन में 72। इन दो बेसिनों को उनके अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक विशेषताओं के कारण भी चुना गया था। दोनों बाढ़ वाले मैदानों में मुख्य गतिविधि कृषि है, लेकिन गंगा में कृषि व्यावसायिक है और ब्रह्मपुत्र में यह झूम खेती है।
प्रभावों का आकलन करने के लिए, अध्ययन में 2005-2006 से उपग्रह डेटा का उपयोग करके भूमि उपयोग परिवर्तनों को दर्ज किया गया, क्योंकि अधिकांश बाढ़ सुरक्षा संरचनाओं को 2007 के बाद चालू किया गया था। भूमि उपयोग परिवर्तन विश्लेषण का ध्यान बाढ़ वाले मैदानों के किनारे कृषि और निर्मित भूमि में परिवर्तन पर था।
शोधकर्ताओं ने एक सामाजिक-भेद्यता सूचकांक भी विकसित किया, जिसमें तीन घटक शामिल थे: एक्सपोजर (बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में स्थित संपत्ति और आबादी), ससेप्टिबिलिटी (यह पैमाना बताता है कि यहां रहने वाली आबादी को किस हद तक नुकसान पहुंच सकता है), और रेजिस्टेंस (नुकसान को रोकने या नुकसान का सामना करने के लिए समुदाय की क्षमता) है।
सिंह ने कहा, “हमने सामाजिक-भेद्यता सूचकांक को इस तरह से बनाया है, जिसमें मुख्य रूप से भूमि उपयोग में बदलाव को शामिल किया सके, इसके अलावा भौतिक कारक जैसे पानी का बहाव, सुरक्षित पुनर्वास के लिए परिवहन की मौजूदगी और एफपीएस के पास बड़े शहर शामिल हैं।” उन्होंने आगे कहा, “यहां यह माना गया है कि शहरी विकास में वृद्धि क्षेत्र में बढ़ती सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों की ओर इशारा करती है, जिससे क्षेत्र किसी आपदा के प्रति और अधिक असुरक्षित हो जाता है। अगर बारहमासी सड़कों को इसमें शामिल कर लिया जाए तो इससे बुनियादी ढांचे की मजबूती आंशिक रूप से बेहतर हो सकती है।”

विश्लेषण में पाया गया कि 2005-2006 से लेकर 2018-2019 तक, आमतौर पर सामाजिक-भेद्यता सूचकांक बढ़ा था। अध्ययन कहता है, “जहां बाढ़ से बचाने वाली संरचनाएं बनी हुई हैं, उनके आसपास के इलाकों में खतरा, बाकी जगहों की तुलना में ज्यादा तेजी से बढ़ा है।” यहां तक कि छोटे और कम लागत वाली बाढ़ सुरक्षा संरचनाएं भी बड़े और अधिक दिखाई देने वाली संरचनाओं की तुलना में “लीवी इफेक्ट” पैदा कर रहे हैं। अध्ययन में आगे कहा गया है, “एफपीएस के आसपास खतरे में वृद्धि का कारण एफपीएस के आसपास के क्षेत्रों में बढ़ती हुई जनसंख्या और आर्थिक गतिविधि को माना जा सकता है।”
गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी के बेसिन की तुलना में, ब्रह्मपुत्र में बाढ़ सुरक्षा संरचनाओं के कारण ज्यादा नुकसान होने का खतरा देखा गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बाढ़ के मैदानों में गंगा की तुलना में ज्यादा निर्माण हुआ। सिंह ने कहा, “यह हमारी उस शुरुआती धारणा के विपरीत था, जिसमें हमने माना था कि बार-बार बाढ़ का सामना करने से लोग नदी के किनारे संरचनाएं बनाने को लेकर ज्यादा सतर्क रहेंगे।” उन्होंने आगे कहा, “ब्रह्मपुत्र में पहले भी विनाशकारी बाढ़ आती रही है, इसलिए हम उम्मीद कर रहे थे कि ब्रह्मपुत्र बेसिन में एफपीएस के कारण नुकसान के खतरे में उतनी वृद्धि नहीं होगी।”
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सिंह को उम्मीद है कि लीवी इफेक्ट की समझ से नीति निर्माताओं को बाढ़ सुरक्षा के सामाजिक पहलुओं को ध्यान में रखने में मदद मिल सकती है। उन्होंने कहा, “बाढ़ से बचाने वाले ढांचे का निर्माण, बाढ़ के मैदानों को आर्थिक रूप से अधिक आकर्षक बना रहा है। साथ ही भूमि उपयोग नियमों में ढील दिए जाने से, भविष्य में और अधिक आबादी व संपत्ति बाढ के जोखिम में समा सकते हैं। एफपीएस के बाद के जोखिम पर विचार करना और बाढ़ के मैदानों के लिए जोनिंग के सख्त कार्यान्वयन और अनुकूलन रणनीतियों को बढ़ाने पर ध्यान देना सार्थक होगा।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 29 नवंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: महाराष्ट्र के पुणे में इंद्रायणी नदी पर बना एक तटबंध। तस्वीर- चकितनव्यास, विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0)।