- मध्य केरल के कई किसान रबर की जगह विदेशी फलों के पेड़ लगा रहे हैं। अगले 30 सालों में इस सेक्टर के बढ़ने का अनुमान है।
- केरल सरकार कानून में बदलाव पर विचार कर रही है, जिससे बड़े पैमाने पर विदेशी फलों के पेड़ लगाना संभव हो सकेगा।
- वैज्ञानिकों का कहना है कि सरकार को सिर्फ तात्कालिक मुनाफे पर ही नहीं, बल्कि पारिस्थितिकी और किसानों की आमदनी पर लंबी अवधि के असर पर भी विचार करना चाहिए।
थिडानाडु पंचायत केरल के कोट्टायम ज़िले में ‘रबर बेल्ट’ के बीचों-बीच स्थित है। लेकिन, इस वार्ड के रबर उत्पादक संघ के सचिव अब्राहम जेवियर के अनुसार पिछले एक दशक में ही पंचायत के वार्ड 8 में रबर की एक-तिहाई जमीन पर विदेशी पेड़ लग गए हैं। उनके अनुसार, आने वाले सालों में यहां के कई अन्य किसान रबर की जगह रामबुतान, कटहल की विदेशी किस्में, ड्रैगन फ्रूट और अन्य फसलें उगाने की योजना बना रहे हैं।
केरल में रबर दूसरी सबसे ज्यादा उपजाई जाने वाली फसल है। यह कुल बोए गए क्षेत्र का लगभग पांचवां हिस्सा है। पिछले कुछ दशकों में कीमतों में अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव से मध्य केरल के रबर क्षेत्र के किसान धीरे-धीरे इस नकदी फसल से तौबा कर रहे हैं, जो लंबे समय से इस क्षेत्र की जीवनरेखा रही है। जिन लोगों ने रबर की बजाय विदेशी फलों की फसलों की ओर रुख किया है, वे जानकारी में कमी और आपूर्ति श्रृंखला की समस्याओं के बावजूद अच्छा-खासा मुनाफा कमा रहे हैं।
केरल के वृक्षारोपण निदेशालय के उप निदेशक निशांत एस. कहते हैं कि किसानों की मांग ने राज्य सरकार को कानून में संशोधन पर विचार करने के लिए प्रेरित किया है, ताकि इन फसलों की खेती बड़े पैमाने पर शुरू हो सके। हालांकि, वैज्ञानिक आगाह करते हैं कि इस तेज बदलाव का क्षेत्र की पारिस्थितिकी और किसानों के मुनाफे, दोनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
विदेशी फलों की खेती में तेजी
आजादी से पहले शुरू की गई रबर की खेती का 1970 के दशक से केरल के कई जिलों में विस्तार हुआ, जिससे जीवन स्तर में सुधार हुआ। लेकिन, अब किसानों का कहना है कि यहां रबर का कोई भविष्य नहीं है।
जेवियर कहते हैं, “कीमतें अचानक गिर जाती हैं” और रबर निकालने वाले मजदूरों की कमी भी चिंता बढ़ा रही है। “रबर की बार-बार रोपाई से मिट्टी की पोषकता भी कम हो गई है। जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ इससे उत्पादकता और आमदनी में भी कमी आई है।”

केरल सरकार की मदद से भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम), कोझीकोड द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, राज्य में रबर से कमाई 2013-14 में ₹210 अरब से गिरकर 2021 में ₹93.60 अरब हो गई। इस अवधि में रबर की कीमतें गिर गईं, जिसने किसानों को दूसरे विकल्पों पर विचार करने के लिए प्रेरित किया। रबर बोर्ड के एक अध्ययन से पता चला है कि कोट्टायम, इडुक्की और एर्नाकुलम जिलों में इन सालों के दौरान रबर की खेती का रकबा कम हुआ है, जबकि पथानामथिट्टा में महज मामूली बढ़ोतरी देखी गई है। इन जिलों में केरल के रबर कृषि भूमि का चालीस फीसदी हिस्सा है। इनमें सबसे ज्यादा रकाब कोट्टायम में है। अध्ययन में कहा गया है कि ये ऐतिहासिक रूप से केरल के प्रमुख रबर उत्पादक जिले हैं और ये वे जिले भी हैं जहां रबर उत्पादकों को आमतौर पर ज्यादा अमीर माना जाता है। इसके विपरीत, मध्य और दक्षिण केरल के अन्य जिलों में इस अवधि के दौरान रबर की खेती के रकबे में बढ़ोतरी दर्ज की गई।
कोट्टायम में इंजीनियर से किसान बने वर्की जॉर्ज अब अपने 15 एकड़ के रबर फार्म के एक हिस्से में रामबुतान उगाते हैं। उनका कहना है कि रबर की प्रति एकड़ खेती से उन्हें सालाना लगभग ₹20,000 का ही मुनाफा होता है, जबकि रामबुतान से उन्हें ₹1,50,000 की कमाई होती है। जॉर्ज जैसे मध्यम आकार की जोत (लगभग 10-25 एकड़) वाले किसान, एक बार में अपने पूरे रबर के बागान को बदलने के बजाय, खेत के उन हिस्सों को बदल देते हैं जहां दोबारा रोपाई की जरूरत होती है।
वैसे, इस बदलाव का कोई आधिकारिक अनुमान नहीं है, लेकिन कोट्टायम स्थित नर्सरी होमग्रोन बायोटेक के प्रबंध निदेशक जोस जैकब बताते हैं कि उनके ग्राहकों ने 2024 तक कुल 7,000 हेक्टेयर (लगभग 17,000 एकड़) विदेशी फलों की व्यावसायिक खेती की है। यह आंकड़ा एक दशक पहले के लगभग 120 हेक्टेयर (लगभग 300 एकड़) से काफी ज्यादा है। जैकब बताते हैं कि कंपनी के 6,000 ग्राहक हैं, जो केरल के लगभग 80% विदेशी फल उत्पादक किसान हैं।
होमग्रोन के अनुमानों के अनुसार, अगले 30 सालों में केरल में विदेशी फलों की खेती चार लाख हेक्टेयर (लगभग दस लाख एकड़) क्षेत्र में होने लगेगी, जिसका मुख्य आधार राज्य के मध्यम स्तर के किसान होंगे। यह 2020 में रबर की खेती के क्षेत्रफल के लगभग बराबर है, जब यह लगभग छह लाख हेक्टेयर (15 लाख एकड़) था।
विदेशी फलों की खेती के समर्थकों की दलील है कि केरल एकमात्र ऐसा भारतीय राज्य है जिसकी उष्णकटिबंधीय आर्द्र जलवायु दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में उगने वाले फलों के पेड़ों के लिए अनुकूल है। पहले उल्लेख की गई आईआईएम-के की रिपोर्ट कहती है कि इससे राज्य को घरेलू बाजार और निर्यात दोनों में अनूठा लाभ मिलता है।

बदलाव में बाधाएं
खेती से लेकर भंडारण और बिक्री तक, केरल के विदेशी फलों के किसान आगे बढ़ते हुए इनकी खेती के गुर सीख रहे हैं।
उदाहरण के लिए, पथानामथिट्टा में स्टीफन अब्राहम कहते हैं कि इस साल ड्रैगन फ्रूट के कुछ खेतों में फफूंद का हमला हुआ। लेकिन रबर या स्थानीय फसलों के विपरीत, जिले में ड्रैगन फ्रूट के कई किसानों का कहना है कि सरकारी विभाग इस समस्या से निपटने के लिए वैज्ञानिक जानकारी नहीं दे पाया। किसानों को आखिरकार भारी नुकसान उठाना पड़ा। स्टीफन अब्राहम कहते हैं कि ड्रैगन फ्रूट की खेती के पहले साल में अच्छी कमाई होती है, लेकिन इस तरह के फफूंद के हमले का मतलब होगा पूरा शुरुआती निवेश गंवाना, जो प्रति एकड़ छह लाख रुपए तक हो सकता है। अब्राहम अपने 25 एकड़ के रबर फार्म के एक हिस्से में ड्रैगन फ्रूट और रामबुतान दोनों उगाते हैं।
किसानों का कहना है कि विदेशी फलों के पेड़ों के फूल आने के मौसम में भारी बारिश से भी नुकसान हो सकता है, जिसे मिट्टी और पौधों के प्रबंधन के जरिए कम किया जा सकता है।
इन जोखिमों के बावजूद, किसान ज्यादातर अनुभव से या सिर्फ इंटरनेट से सीख रहे हैं।
कुछ लोग अपने रबर फार्मों के कुछ हिस्सों में एवोकाडो और मैंगोस्टीन जैसे कम लोकप्रिय विदेशी फलों को भी आजमा रहे हैं। कोट्टायम के एक किसान थॉमस करिप्पापरम्बिल चेरियन ने अपनी पांच में से तीन फसलों में सफलता हासिल की है। वे कहते हैं, “मैं अनुसंधान और विकास के लिए सालाना बजट बनाता हूं। अगर एक फसल भी सफल हो जाती है, तो मैं उसे बढ़ाकर अपने खर्चों की भरपाई कर सकता हूं।” चूंकि, अलग-अलग विदेशी फल साल के अलग-अलग समय पर फल देते हैं, इसलिए कई फसलों की सफल खेती का मतलब किसान के लिए साल भर की आमदनी हो सकती है।
एक और चुनौती यह है कि विदेशी फल बहुत कम समय तक टिकते हैं और रबर के विपरीत, इनकी आपूर्ति श्रृंखला भी सही नहीं होती। वर्तमान में, बिक्री में आसानी के कारण रामबुतान इस क्षेत्र का सबसे लोकप्रिय विदेशी फल है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि तमिलनाडु के व्यापारी पारंपरिक रूप से यहां के घरेलू पेड़ों से फल खरीदते हैं। इस अनौपचारिक आपूर्ति श्रृंखला के साथ, किसानों को सिर्फ अपने फलों की गुणवत्ता पक्की करनी होती है, जबकि व्यापारी जाल लगाने, कटाई और परिवहन का ध्यान रखते हैं।
हालांकि, व्यापारी अभी अच्छी कीमत दे रहे हैं, लेकिन किसानों के पास बिक्री के लिए कोई और विकल्प नहीं है क्योंकि रामबुतान जल्दी खराब हो जाते हैं। चेरियन कहते हैं, “अगर 72 घंटों के अंदर इन्हें नहीं बेचा गया, तो इनका रंग उड़ जाता है और ये देखने में भी खराब लगने लगते हैं। इसलिए, यहां से सड़क मार्ग से मुंबई तक रामबुतान भेजना नामुमिकन है।”

वहीं पूरे भारत मे उगाए जा सकने वाले ड्रैगन फ्रूट की बिक्री ज्यादा मुश्किल है। किसानों को कोच्चि जैसे शहरों में थोक विक्रेताओं की तलाश करनी पड़ती है जो कीमतें तय करते हैं। स्टीफन अब्राहम कहते हैं कि अगर वे सीधे उपभोक्ताओं या खुदरा विक्रेताओं को फल बेच पाते तो उनका मुनाफा ज़्यादा होता, लेकिन कोल्ड चेन इंफ्रास्ट्रक्चर के अभाव में यह संभव नहीं है।
होमग्रोन बायोटेक के जोस जैकब का कहना है कि इन फलों को ज्यादा दिनों तक बचाए रखने की तकनीक थाईलैंड जैसे देशों में उपलब्ध है, लेकिन सिर्फ बड़े बागानों के पास ही ऐसी तकनीक लाने की क्षमता है। बड़े किसानों के आने से निजी कंपनियों के आने की भी उम्मीद है जो खरीद केंद्र और कोल्ड चेन सुविधाएं स्थापित करेंगी, जिनका इस्तेमाल छोटे और मध्यम किसान भी कर सकते हैं।
हालांकि, केरल भूमि सुधार कानून वर्तमान में 15 एकड़ से ज्यादा की जोत वाले बागान मालिकों को अपनी भूमि के 5% से ज्यादा पर अन्य फसलें उगाने से रोकता है। केरल किसान संघ सोसाइटी के बैनर तले, मध्यम किसान सालों से इस कानून के तहत विदेशी फलों को बागान फसलों में शामिल करने की मांग कर रहे हैं। इससे मध्यम और बड़े किसान अपनी जितनी भी जमीन पर ये पेड़ उगा सकते हैं, उतने पर भी लगाम लग जाएगी।
आईआईएम-के की रिपोर्ट में भी यही सिफारिश की गई है और कहा गया है कि किसानों को बिना किसी हस्तक्षेप के इन फसलों के बीच बदलाव करने की सुविधा दी जानी चाहिए। राज्य सरकार अब आगामी विधानसभा सत्र से पहले कानून में संशोधन पर विचार कर रही है। निशांत एस कहते हैं, “चूंकि, राजस्व विभाग कानून का संचालन करता है, इसलिए फैसला उन्हीं को लेना चाहिए। अगर वे मंजूरी देते हैं, तो सरकार संभावित पारिस्थितिक प्रभावों के बारे में पर्यावरण और अन्य विभागों की राय ले सकती है।”
छोटे किसानों की चिंता विदेशी फसलों में पानी की ज्यादा खपत भी है। स्टीफन अब्राहम कहते हैं, “तीन साल पुराने एक पेड़ को रोजाना लगभग 50 लीटर पानी की जरूरत होती है। इसलिए, अगर आपके पास 100 पेड़ (चार एकड़ में फैले) हैं, तो उन्हें साल के चरम गर्मी के तीन महीनों में कुल 4.5 लाख लीटर पानी की जरूरत होगी।” ज़्यादातर रामबुतान किसान बोरवेल लगवाते हैं, क्योंकि सूखे पेड़ों का मतलब भारी नुकसान होता है।

सावधानी बरतने की वकालत
जानकरों का मानना है कि रबर किसान सिर्फ जरूरत के चलते विदेशी फल देने वाली फसलें अपना रहे हैं। लेकिन वे आगाह करते हैं कि सरकार को भूमि सुधार कानून में संशोधन करने से पहले इस बड़े बदलाव के पर्यावरण सम्बंधी प्रभावों का अध्ययन करना चाहिए।
अध्ययनों से पता चला है कि रबर की एकल खेती ने समय के साथ भूजल स्तर और मिट्टी की सेहत को खराब किया है। केरल वन अनुसंधान संस्थान के मुख्य वैज्ञानिक टी.वी. सजीव कहते हैं कि बड़े पैमाने पर विदेशी फलों की ओर रुख करने का मतलब होगा एक फसल की जगह दूसरी फसल को अपनाना।
सजीव कहते हैं, “पानी पर इसका असर बहुत ज़्यादा होगा। रबर साल में कम से कम 2-3 महीने पानी नहीं लेता। जबकि विदेशी फलों के पेड़ सदाबहार होते हैं और उन्हें साल भर पानी की जरूरत होगी।” वे आगे कहते हैं कि आमदनी में मौजूदा बढ़ोतरी को बनाए रखना भी चुनौतीपूर्ण होगा। जब एक ही पेड़ को कई बार दोबारा लगाया जाता है, तो मिट्टी की बनावट बदल जाती है और पैदावार कम हो जाती है। “इसके अलावा, जब आप कोई विदेशी पेड़ लगाते हैं, तो कीटों को आने और फैलने में समय लगता है। अगर एक ही पेड़ हर जगह उगता है, तो एक कीट बहुत तेजी से उन पर आक्रमण कर सकता है, जिससे स्थायी आमदनी प्रभावित हो सकती है।”
हालांकि, ये पेड़ खुद आक्रामक नहीं हैं। फिर भी, सजीव कहते हैं कि बड़ी संख्या में इनके आने से अन्य आक्रामक प्रजातियां भी आ सकती हैं। आयातित रबर के पौधों के साथ आने वाले आक्रामक लता मिकानिया माइक्रांथा के मामले में भी यही हुआ था।
चूंकि, केरल में विदेशी फलों की खेती अपेक्षाकृत नई चीज है, इसलिए इसके पर्यावरण सम्बंधी प्रभावों पर बहुत कम अध्ययन हुए हैं। कोट्टायम स्थित सीएमएस कॉलेज के प्राणीशास्त्र विभाग में सहायक प्रोफेसर विजो थॉमस कुरियन का कहना है कि मिट्टी की उर्वरता पर इनके संभावित प्रभावों को समझने के लिए इन पेड़ों के कचरे की संरचना और विघटित होने के पैटर्न पर अध्ययन की जरूरत है। कुरियन के पिछले शोध से पता चला है कि रबर जैसे एकल-फसलीय वृक्षारोपण ने केरल में मिट्टी की सेहत को नुकसान पहुंचाया है।
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“इसके अलावा, जब वनस्पति बदलती है, तो मिट्टी से कार्बन उत्सर्जन की मात्रा भी बदल जाती है। इसलिए बारीक स्तर पर मिट्टी कार्बन उत्सर्जन का अध्ययन किया जाना चाहिए, और भूदृश्य, मृदा के प्रकार आदि के आधार पर क्षेत्रीय स्तर पर योजना बनाई जानी चाहिए,” कुरियन कहते हैं। “नाज़ुक क्षेत्र होने के नाते, जहां मानव आबादी बंटी हुई है, मानव-पशु संघर्ष और जलवायु आपदाएं हैं, केरल को भूमि उपयोग प्रणालियों या पैटर्न में किसी भी बदलाव के प्रति वैज्ञानिक नजरिया अपनाना चाहिए।”
रबर से सीधे विदेशी पेड़ों की ओर रुख करने के बजाय, सजीव मुनाफा और मिट्टी की उर्वरता दोनों को बनाए रखने के लिए अंतर-फसलीय खेती का सुझाव देते हैं। वे कहते हैं, “किसान रामबुतान के पेड़ों के बीच की दूरी बढ़ा सकते हैं और इसका इस्तेमाल टैपिओका और अदरक जैसी अन्य फसलें उगाने के लिए कर सकते हैं। इससे पानी की जरूरत भी कम होगी। अगर आप सिर्फ एक साल के मुनाफे पर विचार करें, तो सिर्फ रामबुतान की खेती बेहतर होगी। लेकिन 20 सालों में इससे होने वाला मुनाफा बहु-फसलीय खेती के मुनाफे के बराबर हो जाएगा।” “जब विदेशी पेड़ बड़े क्षेत्रों में लगाए जाते हैं, तो एक छोटा सा क्षेत्र प्राकृतिक वनस्पति के लिए भी छोड़ा जाना चाहिए, ताकि कीटों के प्राकृतिक दुश्मन उगाए जा सकें।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 8 अगस्त, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: वर्की जॉर्ज कोट्टायम में अपने खेत में अंगूर का पेड़ दिखाते हुए। वह अपनी फल खेती में विविधता लाने की योजना बना रहे हैं। तस्वीर सौजन्य: वर्की जॉर्ज।