राजस्थान के रणथंभौर और मध्य प्रदेश के पन्ना जैसे इलाकों में रहने वाली मोगिया और पारधी जनजातियों के लिए शिकार कभी जीवन का एकमात्र जरिया था। पीढ़ी दर पीढ़ी ये समुदाय जंगलों से जीविका चलाते रहे, लेकिन 1972 में भारत में लागू हुआ वन्यजीव संरक्षण अधिनियम इनकी ज़िंदगी में एक बड़ा मोड़ लेकर आया। कानून के तहत शिकार पर सख्त पाबंदी तो लगी, लेकिन वैकल्पिक आजीविका का कोई सरकारी इंतजाम नहीं हुआ। इससे ये समुदाय आजीविका के गहरे संकट में आ गए।
हालात तब बदले जब ज़मीनी स्तर पर कुछ सामाजिक संगठनों ने इन समुदायों को नए अवसर दिए। दो उल्लेखनीय पहल ढोंक (Dhonk) और वाइल्डपाइंस (Wildpines) ने महिलाओं को केंद्र में रखकर बदलाव की शुरुआत की।
आत्मनिर्भरता की राह पर मोगिया महिलाएं
दिव्या खंडाल ने 2005 में ढोंक की स्थापना की। रणथंभौर टाइगर रिज़र्व के पास स्थित इस संस्था ने मोगिया समुदाय की महिलाओं को सिलाई, ब्लॉक प्रिंटिंग, कढ़ाई और खिलौना निर्माण जैसे पारंपरिक हुनर सिखाकर आत्मनिर्भर बनाया।
“अगर हम उनसे शिकार छुड़वा रहे हैं, तो विकल्प देना भी हमारी ज़िम्मेदारी है। तभी हमने ढोंक शुरू किया,” दिव्या कहती हैं।
ढोंक अब दर्जनों महिलाओं को प्रशिक्षण, उचित मज़दूरी, पेंशन, जीवन बीमा और बच्चों की शिक्षा जैसी सुविधाएं देता है। अकेली माताओं और विधवाओं को विशेष सहायता दी जाती है।
“हमारा काम सिर्फ फेयर ट्रेड नहीं है। हम कानूनी अधिकार, सामाजिक सुरक्षा और आत्मसम्मान देने में विश्वास रखते हैं,” दिव्या बताती हैं।
यहां काम करने वाली उगंती माली कहती हैं, “मैं टाइगर और हाथी के खिलौने बनाती हूं। जब मेरा खिलौना बिकता है, तो मुझे खुशी होती है। उस पैसे से मैं अपने परिवार का खर्च चलाती हूं और बेटी को कॉलेज भेजती हूं।”
पारधी समुदाय की पहचान
मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में 2022 में शुरू हुई वाइल्डपाइंस संस्था ने पारधी समुदाय की युवतियों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाया। पारधी जनजाति भी पारंपरिक शिकारी रही है, और समाज में ‘आपराधिक जनजाति’ की छवि से जूझती रही है।
संस्थापक शताक्षी सिंह बताती हैं, “जब मैंने काम दोबारा शुरू किया, तो दोस्तों ने सलाह दी कि पारधी लड़कियों को सिखाओ। उन्हें कोई मौका नहीं मिलता, लेकिन वे बहुत सीखने को तैयार हैं। मेरे लिए यह भी सही समय था कुछ अच्छा शुरू करने का।”
वाइल्डपाइंस में युवतियों को प्राकृतिक रंगों और इको-फ्रेंडली फैब्रिक के साथ हस्तशिल्प सिखाया जाता है। इसके साथ ही वे “Walk with the Pardhis” जैसे इको-टूरिज्म प्रोजेक्ट्स का हिस्सा बन चुकी हैं, जिसमें पूर्व शिकारी अब जंगलों में पर्यटकों को गाइड करते हैं। “रेधा अब अपनी कमाई से बच्चों की देखभाल कर सकती है, चाहे उसका पति मदद करे या नहीं। वे हमेशा झगड़ते हैं, लेकिन अब वह आत्मनिर्भर है और अपने घर में सुरक्षित महसूस करती है,” वह बताती हैं।
बदलाव जो पीढ़ियों तक जाएगा
इन पहलों ने केवल रोजगार नहीं दिए, बल्कि सोच बदल दी है। अब वही हाथ जो कभी शिकार के लिए उठते थे, कला, सिलाई और गाइडिंग में लगे हैं। जंगल के ये पूर्व शिकारी अब वन्यजीवों के संरक्षक बन चुके हैं।
शिकार की घटनाएं घट गई हैं, और ये समुदाय अब वन विभाग के साथ मिलकर संदिग्ध गतिविधियों की जानकारी देते हैं।
दिव्या खंडाल कहती हैं, “हम चाहते हैं कि ढोंक एक मॉडल बने, जिसे राजस्थान के बाहर भी अपनाया जा सके। हर जगह जहां लोगों के पास विकल्प नहीं हैं, वहां यह रास्ता कारगर हो सकता है।”
वहीं, वाइल्डपाइंस की शताक्षी कहती हैं, “हर गांव की अपनी कहानी होती है। हमारा सपना है कि इको-टूरिज्म के ज़रिए ये कहानियां दुनिया तक पहुँचें और गांव की महिलाएं आत्मनिर्भर बनें।”
ढोंक और वाइल्डपाइंस जैसी संस्थाएं सिर्फ रोजगार की पहल नहीं, बल्कि सामाजिक पुनर्निर्माण की कहानी हैं। इन्होंने मोगिया और पारधी जैसी जनजातियों को एक नई पहचान दी है, जहां अब शिकार नहीं, बल्कि संरक्षक बनना गौरव की बात है।