- भंडारण की समस्या से जूझ रहे झारखंड के किसानों को एक नया रास्ता मिला है। अब बांस की मदद से दो या तीन तल की संरचना बनाकर आलू का भंडारण कर रहे हैं।
- ऐसे भंडारण करने से आलू को लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इससे किसानों को यह सुविधा मिल गई कि वे बाजार में उचित मूल्य मिलने तक आलू का भंडारण कर सकते हैं।
- इसके पहले किसान आलू को जमीन पर फैलाकर रखते थे जिससे काफी नुकसान होता था। आधे से अधिक आलू खराब हो जाता था। इससे निजात पाने के लिए किसान औने-पौने दाम पर आलू बेचने के लिए मजबूर थे।
अनिता देवी झारखंड के हजारीबाग जिले के चंदा गांव की किसान हैं। यह आलू की खेती करती हैं और यही इनके आजीविका का मुख्य साधन है। साल-डेढ़ साल पहले तक इस आलू की फसल से इनको इतनी आमदनी भी नहीं होती थी कि साल भर चैन से जी सकें।
पर अब हालात बदलें हैं। यह परिवर्तन उपज बढ़ने से संभव नहीं हुआ बल्कि भंडारण की बेहतरीन व्यवस्था उपलब्ध होने से आया है। पहले भंडारण के दौरान आलू सड़ने की वजह से अनिता को भारी नुकसान उठाना पड़ता था।
छोटे किसानों के घरों में कम स्थान होने की वजह से उपज के लिए भंडारण एक शाश्वत चुनौती बनी रहती है। संसाधन की कमी और उपज कम होने की वजह से इन ग्रामीणों के लिए कोल्ड-स्टोरेज जैसी सुविधा मिलना संभव नहीं है।
इनको समाधान मिला डिजिटल ग्रीन नाम के वैश्विक संस्था के सौजन्य से जो अनिता जैसे कई किसानों के लिए संजीवनी लेकर आया। झारखंड राज्य आजीविका संवर्धन सोसाइटी के साथ मिलकर संस्था ने गांव वालों को भंडारण के नायाब तरीके सिखाए। ये तरीके नए थे लेकिन गांव में उपलब्ध संसाधनों से ही अपनाए जा सकते हैं।
बांस की बल्लियों से तीन या चार तल्ले की संरचना बनाकर उसमें कम जगह में अधिक से अधिक आलू का भंडारण किया जाता है। इस संरचना को इस तरीके से बनाया जाता है कि अगर इसे हटाने की जरूरत पड़े तो बिना किसी तोड़-फोड़ के इसे एक जगह से दूसरी जगह भी ले जाया जा सकता है।
“मैं तकरीबन छः क्विंटल तक आलू उपजाती हूं जिसमें से आधा सड़कर बर्बाद हो जाता था। अब बर्बादी काफी कम हो गई है और आलू लंबे समय तक रखे जा सकते हैं,” अनिता ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
इचाक गांव की रीना देवी ने कहा कि अगर आलू न सड़े तो भी उसमें कई तरह के दाग लग जाते थे। इससे बाजार में उस आलू की कम कीमत मिलती थी। बांस की बल्लियों पर आलू रखने से यह समस्या नहीं आती है।
आलू को बीच-बीच में साफ भी नहीं करना पड़ता रोशनी और हवा मिलने से ये ताजे दिखते हैं। रीना देवी को 20-25 दिन में आलुओं को बस पलटना होता है।
इचाक गांव के 312 किसान इस तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। अनीता की पड़ोसी तनुजा देवी कहती हैं कि अब किसानों को सस्ते में उपज बेचने की मजबूरी का सामना नहीं करना पड़ता है। पहले उपज खराब होने के डर से जल्दबाजी में बेच देते थे। कम कीमत में।
“मैंने आलू के अलावा अरबी को भी पांच महीने तक रखा है। इससे खुद के खाने के अलावा सही दाम मिलने पर बेचने में भी सहूलियत होती है,” तनुजा कहती हैं।
बांस के इन संरचनाओं को बनाने में स्थानीय बढ़ई सक्षम हैं।
आमदनी के गणित को समझाते हुए अनिता कहती हैं कि उन्होंने बाजार में आलू की कीमत 25 रुपया होने तक इंतजार किया। यह 2019 की बात है। इसके पहले उन्हें यह हिसाब-किताब करने की सहूलियत नहीं थी। अगर बेचने में देर करतीं तो आलू सड़ने लगता। इसलिए बाजार में जो भी भाव मिलता उसकी परवाह किये बिना इन्हें अपनी फसल बेचनी पड़ती थी।
कलादवार गांव के गंडोरी महतो कहते हैं कि आलू की तीन बोरी की कीमत पहले 1500 तक ही लगती थी, लेकिन इस तकनीक का इस्तेमाल कर वे पांच से छह बोरी आलू बचाकर रखते हैं और कीमत भी कहीं अधिक मिल रही है।
आलू भंडारण का घरेलू तरीका
संयुक्त राष्ट्र के फूड एण्ड ऐग्रिकल्चर ऑर्गनाईजेशन (एफएओ) के अनुसार भूख और कुपोषण और गरीबी-उन्मूलन के साथ जैव-विविधता को बचाने के अंतर्राष्ट्रीय प्रयास को छोटे या सीमांत किसानों पर फोकस करना होगा। दुनिया के लगभग 80 प्रतिशत किसान इसी श्रेणी में आते हैं। आलू के भंडारण की यह नई सुविधा भी इन छोटे और सीमांत किसानों को ही मिल रहा है।
वर्ष 2017 में एक वैश्विक संस्था डिजिटल ग्रीन ने झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी के साथ मिलकर झारखंड के छोटे किसानों को ध्यान में रखकर खेती के कई नए तरीके सुझाए। चूंकि इस क्षेत्र में आलू की खेती अधिक होती है इसलिए संस्था ने आलू की खेती और इसके भंडारण पर काम करना शुरू किया।
डिजिटल ग्रीन के सह कार्यक्रम प्रबंधक रितेश कुमार के मुताबिक आलू के समुचित भंडारण का यह उपाय इचाक गांव के किसानों से बातचीत करने पर समझ में आया। करीब डेढ़ सौ किसानों के साथ बैठक की गयी और इसी बातचीत में सामने आया कि इनके आधे से अधिक आलू रखे-रखे खराब हो जाते हैं।
महिला किसान सशक्तिकरण योजना (एमकेएसपी) के तहत छोटे और सीमांत किसानों को आजीविका कमाने में मदद की जाती है। आलू भंडारण के लिए बांस की संरचनाओं का निर्माण भी इसी योजना का हिस्सा है।
“किसानों से बातचीत करने पर कृषि संबंधित चुनौतियों को लेकर समझ बनी। यह पता चला कि भंडारण के दौरान आलू का अधिक नुकसान हो जाता है।”
कुमार के मुताबिक, बांस से बनाये घरेलू भंडारण के तरीकों से आलू की बर्बादी को बहुत हद तक रोकने में सफलता मिली। पहले एक क्विंटल आलू की उपज में करीब 60 फीसदी खराब हो जाता था। लेकिन बांस के भंडारण की सुविधा से यह घटकर 10-20 फीसदी तक सिमट गया है। किसानों के लिए यह बड़ी राहत है।
इस संरचना पर आने वाली लागत के बारे में कुमार बताते हैं कि दो तल के भंडारण की संरचना तैयार करने में करीब 1500 रुपये का खर्च आता है। लेकिन अगर किसान के अपने खेत का बांस हो तो लागत घटकर 700 से 800 रुपए हो जाती है। इचाक गांव में सक्रिय एक स्वयंसेवी संस्था सृजन फाउंडेशन ने नट-बोल्ट और दूसरे उपकरण मुफ्त में उपलब्ध करवाए जिससे किसानों का खर्च कम हुआ। इन सबके सहयोग से चन्दा गांव में 22 भंडारण की सुविधा तैयार की गयी।
कुमार कहते हैं कि डिजिटल ग्रीन अगले चरण में 9,000 किसानों को इस तरह की तकनीक से जोड़ने की कोशिश कर रहा है। इस तकनीक के सहारे आगे चलकर झारखंड के 12 जिलों के 24 ब्लॉक में 20 हजार किसानों को भंडारण की सुविधा पहुंचाने का लक्ष्य है।
उत्तरप्रदेश के कृषि विशेषज्ञ रवि भूषण सिंह कहते हैं कि आलू जैसे फसल का उचित भंडारण न होने पाने की वजह से किसानों को बेहद कम कीमत में इसे बेचना पड़ता है। किसानों को फसल का उचित दाम दिलाने के लिए भंडारण की क्षमता उपलब्ध कराना जरूरी है।
बैनर तस्वीर- आलू की फसल खोदता इचाक गांव का एक किसान। तस्वीर- दीपांविता गीता नियोगी