अक्षय ऊर्जा में सब ‘अच्छा’ होने के मिथक को तोड़ता पावागढ़ सौर पार्क

सोलर पार्क के बाहर चरती भेड़ें। इस पार्क में भेड़-बकरियों और दूसरे मवेशियों को चराने की अनुमति नहीं है। ऐसे में भूमिहीन किसानों को मवेशी चराने के लिए दूर दूर तक भटकना पड़ता है। तस्वीर- अभिषेक एन. चिन्नप्पा/मोंगाबे।

उन्हें लगता है कि राज्य ने ग्रामीणों की दुर्दशा का फायदा उठाया। उन्होंने कहा, “गांव के कुछ बुजुर्ग अब कहते हैं कि सारी ज़मीन देना अच्छा फैसला नहीं था। आने वाली पीढ़ियों का खेती से कोई रिश्ता नहीं रहेगा। जहां कई किसान नियमित आय से संतुष्ट हैं, वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी सांस्कृतिक पहचान खत्म होने पर अफसोस जताते हैं। पिल्लई ने मोंगाबे-हिन्दी से कहा, “कुछ लोगों का मानना है कि चूंकि क्षेत्र में खेती खराब नहीं थी, इसलिए आदर्श स्थिति में सरकार को उनकी जमीन लेने की बजाय सिंचाई परियोजना से मदद करनी चाहिए थी।”

कई मामलों में, बड़े सोलर पार्क आसानी से उपलब्ध सार्वजनिक संसाधनों को खत्म कर देते हैं। अध्ययन कहता है कि चूंकि देश की कुल 9 करोड़ हेक्टेयर भूमि को ‘बंजर भूमि’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जो पारिस्थितिकी के लिए जरूरी सेवाएं देते हैं और लोगों के जीवन व आजीविका के लिए महत्वपूर्ण हैं, इन जगहों पर सौर पार्कों के लिए अपेक्षाकृत आसानी से हासिल की जाने वाली भूमि स्थानीय समुदायों पर सामाजिक-आर्थिक प्रभाव डालती है।

पिल्लई के अनुसार, पावागढ़ के परियोजना प्रभावित गांव मुख्य रूप से कृषि प्रधान हैं। यहां लगभग 80 प्रतिशत बड़ी जोत (10 एकड़ या अधिक) अमीर किसानों के पास है जो संयोग से अगड़ी जाति के हैं। जबकि मध्यम से छोटी जोत गरीब किसानों के पास है। वहीं अधिकांश दलित भूमिहीन हैं।


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जब सोलर पार्क के लिए बड़े भूखंड दिए गए तो कई लोगों ने अपने पशुओं को औने-पौने दामों पर बेच दिया क्योंकि उनके पास चारागाह नहीं थे। जो लोग मवेशी रखते थे, उन्हें चराने के लिए दूर-दराज के इलाकों में ले जाने के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि बाड़ लगे हुए सौर पार्क में जाना नामुमकिन था। कुछ तो अपने मवेशियों को चराने के लिए तीन-चार महीने के लिए दूसरे गांवों में चले गए। जबकि कुछ कंपनियां पुरुष चरवाहों को अपनी भेड़ और बकरियों के साथ पार्क में जाने दे रही हैं (गाय या भैंस नहीं क्योंकि वे सौर पैनलों को नष्ट कर सकती हैं)। महिलाओं को अभी भी पार्क के अंदर जाने की अनुमति नहीं है।

सोलर पार्क की बाड़ पर धुले हुए कपड़ों को सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। तस्वीर- अभिषेक एन. चिन्नप्पा/मोंगाबे
सोलर पार्क की बाड़ पर धुले हुए कपड़ों को सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। तस्वीर- अभिषेक एन. चिन्नप्पा/मोंगाबे

इन गांवों में अधिकांश दलित-किसान भूमिहीन हैं। वल्लूर के माचे हनुमंत जैसे कुछ लोगों ने दो एकड़ जमीन पर पीढ़ियों से खेती की, लेकिन उनके पास मालिकाना हक नहीं था। पार्क के लिए बिना मुआवजे के उनसे जमीन लिए जाने के बाद हनुमंथा को शराब और जुए की लत लग गई। वह छह छोटे बच्चों के पिता हैं। उनका एक कमरे वाला घर मामूली मजदूरी पर चलता है। उनकी पत्नी एक खेत में टमाटर तोड़कर और छांटकर कुछ पैसे कमाती है। उन्होंने कहा, “मेरे पिता यहां मजदूरी करते थे और फिर उन्होंने जमीन जोतनी शुरू कर दी। हमने तब मालिकाना हक हासिल करने की कोशिश नहीं की। अब पार्क के लिए जमीन ले ली गई है। मैंने मालिकाना हक का मुद्दा सुलझाने के लिए लगभग दो हजार से तीन हजार रुपए खर्च किए। लेकिन मुझे अब तक कुछ भी नहीं मिला है।”

क्लाइमेट इन्वेस्टमेंट फंड्स का एक अध्ययन कहता है कि कोयले को चरणबद्ध तरीके से हटाने और इसे स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र में उचित तरीके से बदलने में सामाजिक समावेश के साथ प्रक्रियात्मक और वितरणात्मक न्याय प्रमुख घटक हैं। साल 2011 से, राजस्थान में ज्यादातर भूमिहीन और हाशिए पर रहने वाले समुदायों ने राज्य के उच्च न्यायालय में सौर संयंत्रों के खिलाफ 15 मामले दर्ज कराए हैं। इन्हें विकास योजनाओं से बाहर रखा गया है क्योंकि उनके पास चराई और अंतिम संस्कार के लिए उपयोग की जाने वाली सरकारी भूमि पर कोई मालिकाना हक नहीं है। नेचुरल रिसोर्सेज डेवलपमेंट सेंटर और काउंसिल ऑन एनर्जी, एन्वायरन्मेंट एंड वाटर की ओर से 2012 की एक रिपोर्ट में इस मुद्दे की पहचान की गई थी, जिसमें कहा गया था कि “जैसे-जैसे सौर ऊर्जा बाजार परिपक्व हो रहा है, यह महत्वपूर्ण है कि सरकारी नीतियां और (निजी) डेवलपर्स स्थानीय समुदाय पर इसके प्रभाव को कम से कम करें।”

अक्षय ऊर्जा समावेशी कैसे हो!

अक्षय ऊर्जा अपेक्षाकृत नया क्षेत्र है और दुनिया भर में इस पर बात हो रही है कि जीवाश्म ईंधन से स्वच्छ ऊर्जा में बदलाव को न्यायोचित कैसा बनाया जाए। चूंकि यह एक नई तकनीक है, इसलिए जीवाश्म ईंधन उद्योग से जुड़ी सभी गैर-बराबरी और सामाजिक अन्याय को दूर करने का यह सही समय है। प्रिया पिल्लई का मानना ​​है कि ऊर्जा क्षेत्र के लिए उस मॉडल को अपनाने का यह सही समय है जहां लिंग, जाति या वर्ग से परे प्रभावितों को न्याय दिया जाए। उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी से कहा,  “हालांकि, हो ऐसा रहा है कि सरकारें और बड़े खिलाड़ी अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में उसी तरह आ रहे हैं जैसा जीवाश्म ईंधन के दौरान हुआ था और यह केवल पहले के अन्याय की पुष्टि करता है।”

आगे का रास्ता विकेंद्रीकृत प्रणालियों, समुदाय के स्वामित्व वाले मॉडल और सहकारी समितियों जैसे अधिक समावेशी विकल्पों को अपनाने से निकलेगा जहां लोग और समुदाय इन प्रणालियों के स्वामी होंगे।

 

आरती मेनन ने कर्नाटक में पावागढ़ के गांवों की यात्रा की। उन्होंने इंटरन्यूज के अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क के लिए 2021 में भारत में अक्षय ऊर्जा: उद्यमिता, नवाचार और चुनौतियों की कहानी अनुदान के हिस्से के रूप में मेगा सौर पार्कों से संबंधित सामाजिक-पारिस्थितिक मुद्दों पर दो-भाग की श्रृंखला की। इस कड़ी की अगली स्टोरी अभी प्रकाशित होनी है।

 

बैनर तस्वीरः सोलर पार्क से सटे खेत में टमाटर की टोकरी ढोते किसान। तस्वीर- अभिषेक एन चिन्नप्पा/मोंगाबे 

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