- हर साल गन्ने की कटाई के मौसम में महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों से हजारों मजदूर राज्य के अन्य क्षेत्रों में पलायन करते हैं। कम वेतन और खराब कामकाजी परिस्थितियों में काम करना उनके लिए आम बात है।
- इन मजदूरों के पास अपने गांवों में थोड़ी-बहुत जमीन होती है। उनके मुताबिक, अगर गांवों में बेहतर जल प्रबंधन सुविधाएं दी जाएं तो उन्हें गन्ना काटने के काम के लिए राज्य के दूसरे हिस्सों में पलायन नहीं करना पड़ेगा।
- हालांकि, बीड जैसे सूखा प्रभावित जिलों में पानी की समस्या बनी हुई है, फिर भी यहां की चीनी मिलें इथेनॉल उत्पादन लाइसेंस के लिए आवेदन कर रही हैं।
- गन्ना उगाना और इससे से इथेनॉल बनाना, दोनों ही कामों में काफी ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है।
रात के 8 बजे हैं। अक्टूबर का महीना है और तेज बारिश हो रही है। बीड से 10 लोगों का एक परिवार दक्षिण-पश्चिमी महाराष्ट्र के गन्ना उत्पादक जिले कोल्हापुर के नंध्याल गांव में डेरा डाले हुए है। बीड राज्य के पूर्वी हिस्से के मराठवाड़ा क्षेत्र का एक जिला है। यह परिवार गन्ना काटने का काम करने के लिए कोल्हापुर आया है। खाली पड़ी जमीन के एक हिस्से पर उन्होंने चमकीली नीले रंग की तिरपाल से तंबू लगाए हैं। कपड़े, राशन और बर्तनों के बैग से भरे हुए ये तंबू ही अगले चार महीने तक उनका घर होंगे।
महाराष्ट्र भारत के शीर्ष गन्ना उत्पादक राज्यों में से एक है और कोल्हापुर महाराष्ट्र के सबसे संपन्न गन्ना उत्पादक जिलों में आता है। कोल्हापुर सह्याद्री पर्वत श्रृंखला के साथ राज्य के दक्षिण-पश्चिमी भाग में बसा है। यहां जून से सितंबर तक काफी बारिश होती है और सिंचाई का अच्छा-खासा बुनियादी ढांचा भी है। किसानों ने अपने खेतों की सिंचाई के लिए नदियों और नहरों से पानी लिफ्ट करने और उस सुविधा को बनाए रखने के लिए सहकारी समितियों का गठन किया हुआ है। गन्ने की कटाई का मौसम आमतौर पर मानसून के बाद के महीनों के दौरान अक्टूबर/नवंबर से फरवरी/मार्च तक होता है।
सह्याद्री के पूर्व में, पठारी इलाकों की ओर बढ़ने पर बारिश 200 मिमी से भी कम हो जाती है। इस क्षेत्र के बड़े हिस्से वृष्टि छाया क्षेत्र में आते हैं और लंबे समय तक सूखे की चपेट में रहते हैं। राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित मराठवाड़ा ऐसा ही एक इलाका है। इसमें औरंगाबाद, बीड, जालना, लातूर, नांदेड़, उस्मानाबाद, परभणी और हिंगोली जैसे आठ जिले शामिल हैं। साल 2011 की जनगणना के अनुसार इन आठ जिलों में लगभग 18 लाख की आबादी बसती है। बार बार पड़ने वाला सूखा इस क्षेत्र में एक सामान्य घटना है। साल 2019 में इस क्षेत्र के 151 से अधिक तालुकों को सूखाग्रस्त घोषित किया गया था।
सूखे और खेतों में ज्यादा कुछ न उगा पाने की समस्या ने मौसमी प्रवास को आम बना दिया है। शुष्क क्षेत्रों से पानी से भरपूर इलाकों की ओर जाना यहां के लोगों के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। सांगली के कार्यकर्ता और श्रमिक मुक्ति दल (टॉयलर लिबरेशन लीग) के संस्थापक भरत पाटणकर ने कहा, “खेती में किसी तरह का कोई विकास न होना एक बड़ा कारण है। इसी वजह से यहां के लोग शहरों में काम करने और गन्ना काटने के काम के लिए पलायन करते हैं।” उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र के लोग शहरों में संगठित और असंगठित कार्यबल का हिस्सा हैं।
सिंचाई की बदहाल व्यवस्था
कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था में सूखाग्रस्त इलाकों की समस्याओं से निपटने के लिए एक मजबूत जल प्रबंधन प्रणाली के निर्माण की दिशा में काम करने वाली मजबूत नीतियां होनी चाहिए। औरंगाबाद में वाटर एंड लैंड मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट (WALMI) के रिटायर्ड प्रोफेसर प्रदीप पुरंदरे ने कहा, “लेकिन, महाराष्ट्र इस मामले से बहुत दूर है।” उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “महाराष्ट्र में नौ अलग-अलग सिंचाई अधिनियम हैं और उनमें से एक भी ठीक ढंग से लागू नहीं किया गया है।” वह आगे कहते हैं, “1976 का महाराष्ट्र सिंचाई अधिनियम मूल अधिनियम है। और आपको कमांड क्षेत्रों, नदियों और नहर अधिकारियों की नियुक्ति के संबंध में कुछ अधिसूचना जारी करनी होती है। अगर आप इस प्रक्रिया को पूरा कर लेते हैं, तो जमीनी स्तर पर इस पर कोई अमल सुनिश्चित हो सकता है। इनमें से अधिकतर नोटिफिकेशन जारी नहीं किए गए हैं। अधिनियम 1976 में बनाया गया था और 46 साल बीत चुके हैं, लेकिन इस अधिनियम के लिए कोई नियम नहीं है। नियमों के बिना, कुछ भी लागू नहीं किया जा सकता है।”
पुरंदरे ने बताया कि वैसे तो मराठवाड़ा में 35 बांध हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर बांधों का जलग्रहण क्षेत्र अन्य क्षेत्रों में है। उन्होंने कहा, “जायकवाड़ी को नासिक से पानी मिलता है और जब ऐसा होता है, तो अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम के बीच हमेशा एक संघर्ष होता है।”
इन कई सालों में बहुत सी योजनाएं शुरू की गई हैं। मगर उनमें से किसी ने भी किसानों के लिए पानी की पहुंच में सुधार के लिए ठीक ढंग से काम नहीं किया है।
पुणे में वाटरशेड ऑर्गनाइजेशन ट्रस्ट के एक पेपर में ‘खेत तालाब योजना’ का विश्लेषण किया और पाया कि किसान अपने निजी तालाबों को भरने के लिए भूजल का और ज्यादा दोहन कर रहे हैं। पेपर में लिखा था, “लंबी अवधि की रणनीति यह होनी चाहिए कि खेत तालाबों की संख्या को सीमित किया जाए, उनके आकार को विनियमित किया जाए और सबसे महत्वपूर्ण यह सुनिश्चित करना है कि खेत के तालाबों को भरने के लिए जमीन से पानी न निकाला जाए।”
‘जल युक्त शिवर अभियान’ एक अन्य योजना है, जिसे महाराष्ट्र सरकार ने राज्य को “2019 तक सूखा मुक्त” बनाने के लिए 2015 में शुरू किया था। इस योजना में नहरों के किनारों को सीमेंट से पाटने, नहरों और नालों को गहरा करने, जल भंडारण क्षमता बनाने, वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करने सहित अन्य चीजों पर 9,633 करोड़ रुपये खर्च किए थे। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की एक ऑडिट रिपोर्ट ने योजना के उचित कार्यान्वयन की कमी की आलोचना करते हुए कहा था, “योजना की स्टेट वॉटर कनवर्सेशन डिपार्टमेंट की ओर से पर्याप्त निगरानी नहीं की गई थी।” इस रिपोर्ट ने फंड के इस्तेमाल पर भी सवाल उठाया था। वर्ष 2019 में कम से कम 5,000 गांवों में सूखा पड़ा और लगभग 1,300 किसानों ने आत्महत्या की। इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली की एक समीक्षा में इस योजना को दीर्घकालिक समस्या का “त्वरित समाधान” कहा था।
महाराष्ट्र में सिंचाई की स्थिति पर टिप्पणी के लिए सिंचाई विभाग को एक ईमेल भेजा गया था। लेकिन रिपोर्ट के प्रकाशित होने के समय तक वहां से कोई जवाब नहीं आया।
सूखाग्रस्त क्षेत्रों में जमीन से पानी सोख रहा है गन्ना
प्रोफेसर वाल्मी ने भी भूजल की कमी के लिए गन्ने को जिम्मेदार ठहराया। साल 2018-19 में सूखाग्रस्त मराठवाड़ा की 27% सिंचित भूमि का उपयोग गन्ने की खेती के लिए किया गया था। गन्ना उगाने के लिए काफी ज्यादा पानी की जरूरत होती है। उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “आपने वर्चुअल ट्रांसपोर्ट ऑफ वाटर की अवधारणा के बारे में सुना होगा। जब आप मराठवाड़ा में चीनी तैयार करते हैं और इसे भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों में निर्यात करते हैं, तो आप वास्तव में सूखाग्रस्त क्षेत्र मराठवाड़ा से पानी निर्यात कर रहे होते हैं।”
जहां एक तरफ मराठवाड़ा सूखे की समस्या से जूझ रहा है वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र में स्थित चीनी कारखाने इथेनॉल उत्पादन लाइसेंस के लिए आवेदन कर रहे हैं। यह एक ऐसा चलन है जो उन किसानों को परेशान कर रहा है जो उस पानी को लेकर चिंतित हैं जो कारखानों द्वारा और चूसा जाएगा। एक लीटर इथेनॉल के उत्पादन के लिए 2,860 लीटर पानी की जरूरत होती है।
बीड के किसान और किसान संघ स्वाभिमानी शेतकारी संगठन के सदस्य कुलदीप करपे को डर है कि इथेनॉल उत्पादन की गति कहीं मराठवाड़ा के लिए पानी का अंत न हो जाए। उन्होंने कहा, “यहां बीड में हमारे पास 10 चीनी कारखाने हैं और सभी इथेनॉल लाइसेंस के लिए आवेदन कर रहे हैं।” वह आगे कहते हैं, “अगर आप सिर्फ बीड के पीने के पानी के अनुपात को देखें, तो फरवरी के बाद प्री-मानसून महीनों में 600 गांवों को टैंकरों से पानी मिलता है। यहां की चीनी फैक्ट्रियां इथेनॉल प्लांट लगाएंगी और 600 गांवों की टैंकर पानी क्षमता से तीन गुना ज्यादा पानी की खपत करेंगी। मराठवाड़ा में यह इथेनॉल परियोजना नहीं होनी चाहिए।”
इथेनॉल उत्पादन को भारत में सरकार की तरफ से काफी बढ़ावा दिया जा रहा है, क्योंकि यह इथेनॉल-मिश्रित पेट्रोल यानी एक स्वच्छ ईंधन विकल्प के लक्ष्य की ओर ले जाता है। सरकार गन्ने से मिलने वाले इथेनॉल को प्रोत्साहन दे रही है। प्रमुख गन्ना उत्पादक राज्य होने के नाते महाराष्ट्र की इस लक्ष्य को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका होगी।
किसानों को पलायन की बजाय अपने खेतों में काम करना पसंद
महाराष्ट्र में कृषि आबादी मुख्य रूप से तीन तरह की है – भूमिहीन, छोटे/सीमांत किसान, और बड़ी जोत वाले किसान। मराठवाड़ा में किसान भी दो प्रकार के हैं- एक मौसमी किसान, जो अपनी फसलों के लिए बारिश पर निर्भर होते हैं और दूसरे वह किसान जो अपनी फसलों के लिए सिंचाई पर निर्भर होते हैं। भूमिहीन और छोटी जोत वाले मौसमी किसान फसल के मौसम के दौरान गन्ना काटने का काम करने के लिए दूसरे हिस्सों में चले जाते हैं।
मराठवाड़ा के बीड जिले में एक ऐसा ही गांव हैं – ‘बेलगांव’। यहां पादरंग शेलके और बबन शेलके रहते हैं। उनके पास जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े हैं, जिस पर वे सोयाबीन और कपास की खेती करते हैं। इस साल अनियमित और बेमौसम बारिश के कारण उनकी फसल बर्बाद हो गई। पादरंग ने मोंगाबे-इंडिया से कहा, “सब कुछ खत्म हो गया है। हम पर काफी कर्ज है। बारिश के खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं ताकि गन्ना कटाई के लिए जा सकें और कुछ कमाई कर सकें।”
बेलगांव की आबादी 300 है, लेकिन गन्ने के मौसम में गांव लगभग खाली हो जाता है। पादरंग ने कहा, “अगर आप दो महीने बाद आएंगे, तो आपको यहां कोई नहीं दिखाई देगा। हम सभी गन्ना काटने के लिए निकल जाते हैं। गांव में सिर्फ बुजुर्ग मिलेंगे।”
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फसल के मौसम के दौरान गन्ना काटने वाले काम में गन्ने को काटना, इकट्ठा करना और बांधना शामिल होता है। एक सामान्य दिन में लगभग 15 घंटे तक काम करना पड़ता है। काम की शुरूआत सुबह 4 बजे से होती है और यह शाम 7 बजे तक चलता है। बीच में एक घंटे का लंच ब्रेक होता है। बबन ने कहा, “मौसम जितना ठंडा होगा, कटाई उतनी ही अच्छी होगी।” पहले खंजर जैसे चाकू (कोयटा) से गन्ने के तने, और तने की पत्तियों को काटा जाता है और फिर वे इनका ढेर लगा देते हैं। 15-20 गन्नों को एक गट्ठर बनाने के लिए वे इसकी पत्तियों का इस्तेमाल करते हैं। हर एक गट्ठर (मोली) का वजन लगभग 25-30 किलोग्राम होता है। इसके बाद वे इसे अपने सिर पर ढोते हैं और ट्रैक्टर या ट्रक पर लाद देते हैं। हर मजदूर से एक दिन में एक टन गन्ना काटने की उम्मीद की जाती है। इन सभी को एक ठेकेदार काम पर रखता है और वही उनको काम के पैसे भी देता है।”
बबन ने बताया, “वे (ठेकेदार) हमें सीजन के लिए 1-2 लाख रुपये का एडवांस देते हैं और फिर हम उसे चुकाने के लिए काम करते हैं।” एक मजदूर एक दिन में 15 घंटे की मेहनत के बाद सिर्फ 320 रुपये तक ही कमा पाता है। अगर वे एक सीजन में अपने एडवांस में मिले पैसे को चुकाने में असमर्थ होते हैं, तो ब्याज सहित राशि को अगले सीजन में आगे बढ़ा दिया जाता है और इस तरह से ये लोग कर्ज के जाल में फंस जाते हैं।
इसके अलावा मजदूरों को अपनी बीमारी पर होने वाले खर्च, मवेशियों और अन्य खर्चों को भी खुद ही उठाना पड़ता है। बबन ने कहा, “अगर हमें कुछ भी होता है, तो उसकी जिम्मेदारी हमारी होती है।”
बीड के मजदूरों ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि आसपास कोई सुरक्षा उपकरण, अस्पताल या चिकित्सा सुविधाएं नहीं हैं। उनके लिए शरीर पर कट लगना, सांप और कीड़े का काटना आम बात है।
इस दौरान अचानक से होने वाली मौतों के कई मामले भी सामने आए हैं। मार्च 2021 में कगल गांव के एक 47 साल के मजदूर की ट्रैक्टर पर 30 किलो गन्ने को लादते समय मौत हो गई थी। वह 15 फीट ऊंची सीढ़ी से नीचे आकर गिरा था। उनके 24 वर्षीय बेटे अर्जुन ने बताया कि उनके पिता एकदम फिट थे और न ही उन्हें कोई बीमारी थी। एक साल से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी परिवार को अभी तक तीन लाख रुपये का बीमा नहीं मिला है। अर्जुन ने कहा, “हमें बताया गया है कि यह अगले महीने आएगा।”
महिलाओं के लिए तो स्थिति और भी खराब है। वे गन्ना काटने से बचती हैं, क्योंकि ये काम कमर तोड़ देने वाला होता है। उनके पास शौचालय की कोई सुविधा नहीं होती है और यह काम अक्सर सुरक्षित भी नहीं होता है। हालांकि, कभी-कभी, महिलाओं को भी इस काम के लिए अपने परिवार के साथ पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है. क्योंकि बीड में उनके खेतों में पानी की उचित उपलब्धता नहीं है।
अपने गांव बेलगांव में मीनाक्षी शेलके का पूरा दिन घर के काम, खाना बनाने, शाम 7 बजे तक खेतों में काम करने और फिर रात 11 बजे तक फिर से घर का काम निपटाने में लग जाता है। उसके बावजूद उन्हें गन्ना काटने के लिए पलायन करना पड़ा। वह कहती हैं कि काम दर्दनाक, असुविधाजनक और असुरक्षित है। “और वहां घर भी नहीं है।” उन्होंने कहा कि अगर बेलगांव में उनके खेतों के लिए पानी की बेहतर उपलब्धता होती, तो उन्हें और गांव के अन्य लोगों को गन्ना काटने के लिए दूसरी जगहों पर नहीं जाना पड़ता।
मराठवाड़ा के सैकड़ों गन्ना काटने वालों ने 19 सितंबर को सेंटर ऑफ ट्रेड यूनियंस (सीटू) की महाराष्ट्र शाखा द्वारा आयोजित एक विरोध प्रदर्शन में भाग लिया और पुणे में चीनी आयुक्त के कार्यालय तक मार्च किया। वे बेहतर वेतन, बेहतर काम करने की स्थिति, अपने काम की एक औपचारिक पहचान और बेहतर सुविधाओं की मांग कर रहे थे।
महाराष्ट्र के सामाजिक कल्याण कार्यालय पुणे के क्षेत्रीय उपायुक्त, बालासाहेब सोलंकी ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि उन्होंने गन्ना किसान कल्याण निगम ‘लोकनेता गोपीनाथ मुंडे उस्तोद कामगार कल्याण महामंडल’ की स्थापना की है, जो राज्य में 10 लाख श्रमिकों के लिए काम करने की बेहतर स्थिति बनाने के लिए एक फंड इकट्ठा करेगा। सभी चीनी मिलों से 10 रुपये प्रति टन गन्ना इस फंड में डाला जाएगा।
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बैनर तस्वीर: पूरे फसल के मौसम में गन्ना काटने वाले मजदूर बिना किसी सुरक्षा उपकरण, चिकित्सा सुविधाओं या सफाई व्यवस्था के काम करते हैं। तस्वीर- जयसिंह चव्हाण/मोंगाबे