2017 में चक्रवात ओखी के दौरान कन्याकुमारी में कई लोगों की जान गई। लेकिन जो बच गए गए, वो छह साल बाद भी मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से उबर नहीं पाए हैं।
मानसिक स्वास्थ्य के जानकारों का कहना है कि जिन लोगों ने किसी आपदा के दौरान ज्यादा समस्याएं झेली हों, उन्हें लंबे समय तक बार-बार पुरानी बातों के याद आने, अनिद्रा और नकारात्मक विचार जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है। इसके अलावा उन्हें डिप्रेशन और पोस्ट- ट्रोमैटिक डिसऑर्डर का सामना करना पड़ सकता है। इन सबसे बचने के लिए अक्सर बेहतर इलाज की जरूरत होती है।
जिस तरह से जलवायु परिवर्तन हो रहा है और चरम मौसम की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं, इसे देखते हुए डॉक्टरों और मनोविज्ञान शोधकर्ताओं का मानना है कि आपदाओं से प्रभावित लोगों को आर्थिक मुआवजे के साथ-साथ लंबे समय तक मानसिक स्वास्थ्य सहायता भी दी जानी चाहिए।
इस लेख में आपदा से बचे लोगों की मानसिक सेहत पर चर्चा की जा रही है। कुछ घटनाएं पाठकों को परेशान कर देने वाली हो सकती हैं।
30 नवंबर, 2017 का दिन था, भारत के दक्षिणी छोर पर तटीय जिले कन्याकुमारी के गहरे समुद्र के मछुआरों ने खुद को एक बहुत ही खतरनाक चक्रवाती तूफान में फंसा पाया।
भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने एक दिन पहले यानी 29 नवंबर, 2017 को भारी बारिश और तेज हवाओं की चेतावनी जारी कर दी थी। मछली पकड़ने वाले समुदाय को दोपहर 2:30 बजे के आसपास ‘समुद्र में न जाने’ के खास निर्देश दिए गए थे। लेकिन जो मछुआरे गहरे समुद्र में दूर तक जा चुके थे, उन्हें सचेत करना अव्यावहारिक हो गया। क्योंकि उन्हें वापस लौटने में आमतौर पर 25 से 45 दिन लग जाया करते हैं।
चक्रवात ओखी अपने रास्ते पर था और आगे बढ़ने लगा। लेकिन इन मछुआरों को इसकी खबर नहीं थी। वो बेपरवाह अपने रास्ते पर चल रहे थे। अचानक एक तेज तूफान आया और उनके जीवन को तहस-नहस कर गया। इस घटना को बीते छह साल हो चुके हैं, लेकिन उनके दिलो-दिमाग से आज भी वह दर्दनाक हादसा उतरा नहीं है।
तमिलनाडु के कन्याकुमारी जिले के एराइविपुथेनथुराई गांव में सालों से हो रहे तटीय क्षरण और मौसम की घटनाओं के कारण घरों की हालत ठीक नहीं है। ज्यादातर लोग घरों को छोड़कर जा चुके हैं और जो बचे हैं उनकी हालत खराब है। यह क्षेत्र 2017 में चक्रवात ओखी के दौरान सबसे बुरी तरह प्रभावित क्षेत्रों में से एक था। तस्वीर: नारायण स्वामी सुब्बारामन/मोंगाबे।
इस संवाददाता ने ओखी से प्रभावित मछुआरों से बातचीत करने के लिए कन्याकुमारी के नीरोडी, एराविपुथन्थुराई, थूथूर, चिन्नाथुराई, थेंगापट्टनम, वल्लविलाई गांवों की यात्रा की।
जो लोग चले गए गए उनका गम तो ताउम्र सालता है लेकिन बचे हुए लोगों की कहानियां भी कम मुश्किलों भरी नहीं हैं। वे चक्रवात के लगभग छह साल बाद भी अपने मानसिक और भावनात्मक आघात से दूर जाने के लिए लड़ रहे हैं।
रॉबिन्सन जॉनसन
गहरे समुद्र में जाकर मछली पकड़ने वाले रॉबिन्सन जॉनसन (35) कन्याकुमारी जिले के एक तटीय गांव एराइविपुथेनथुराई में चक्रवात ओखी से बचे लोगों में से एक हैं। तस्वीर: नारायण स्वामी सुब्बारामन/मोंगाबे
ओखी चक्रवात के दौरान थूथूर से सटे एक गांव एराविपुथेनथुराई के मछुआरे रॉबिन्सन जॉनसन की नाव समुद्र में डूब गई। तीन दिनों तक समुद्र के साथ मुश्किल लड़ाई से बचकर वह किसी तरह लक्षद्वीप द्वीपसमूह में कल्पेनी द्वीप तक पहुंचने में कामयाब रहे। विपरीत परिस्थितियों को चुनौती देने के बावजूद, सालों बाद भी उनका जीवन सामान्य स्थिति में नहीं लौट पाया है। उन्होंने कहा, “मैं कई महीनों तक समुद्र में वापस नहीं जा पाया। मैंने गायें पालने और आस-पड़ोस में दूध की सप्लाई करने का फैसला लिया। मैंने हमेशा से मछली पकड़ने का काम ही किया था, सो मेरे पास मवेशी पालने कोई अनुभव नहीं था। इसकी वजह से मुझे इस व्यवसाय में भारी घाटा हुआ और मुझे समुद्र में लौटना पड़ा।”
जॉनसन ने अपना काम छोड़ने के 11 महीने बाद फिर से मछली पकड़ने का साहस जुटाया। 35 साल के जॉनसन ने कहा, “समुद्र शांत होता है, तो मुझ पर ज्यादा असर नहीं होता। लेकिन जब भी हवाएं तेज़ होती हैं, वे भयावह यादें फिर से उभर आती हैं, चक्रवात में खो गए साथी मछुआरों की आवाज़ें मेरे कानों में गूंजने लगती हैं। इससे बचने के लिए मैं जानबूझकर अपना ध्यान भटकाने की कोशिश करने लगता हूं, अपने साथी मछुआरों के साथ बातचीत करता हूं या फिर कोई काम करने लगता हूं।” वह आज भी ओखी की दर्दनाक यादों को भूलने की कोशिशों में लगे हैं।
रॉबिन्सन ने मानसिक स्वास्थ्य देखभाल की कमी को उजागर करते हुए कहा, “ओखी के बाद जब सरकारी अधिकारी हमसे मिलने आए, तो उनकी पूछताछ पूरी तरह से चक्रवात के दौरान समुद्री घटनाओं के इर्द-गिर्द घूमती रही। किसी ने हमारे मौजूदा या दिमागी हालत के बारे में नहीं पूछा। हम वे लोग हैं जिन्होंने भावनात्मक और आर्थिक रूप से खुद को फिर से तैयार किया है।”
सैलोम कास्मिर
केरल की सीमा से लगे कन्याकुमारी के कस्बे थूथूर के मछुआरे सालोम कास्मिर उस समय गहरे समुद्र में थे, जब चक्रवात ओखी ने तबाही मचाई थी। अपने तीन चाचाओं के साथ उन्होंने खुद को कुछ दिनों तक अपनी देशी नाव (मोटर वाली एक छोटी नाव जो कि केरोसिन या पेट्रोल से चलती है, जो गहरे समुद्र में नहीं जा सकती और एक घंटे के भीतर किनारे पर लौट आती है) में फंसा हुआ पाया। वह याद करते हुए बताते हैं कि उन्होंने भगवान से अपने जीवन की भीख मांगी थी और वादा किया था कि अगर उसकी जान बख्श दी गई तो वह कभी समुद्र में नहीं लौटेगा। कासमीर ने वह वादा निभाया है।
वह तो बच गए लेकिन उन्होंने अपने दो चाचाओं को समुद्र में खो दिया। उनके शरीर पर लगी चोटों का दर्द आज भी उन्हें परेशान करता रहता है। लगातार होने वाला पीठ दर्द की वजह से वह ठीक से खड़े तक नहीं हो पाते हैं। उन्होंने कहा, “मैं अब शारीरिक रूप से फिट नहीं हूं। अगर मैंने वादा न भी किया होता तो भी मैं मछली पकड़ने जैसे मुश्किल काम की तरफ नहीं जा सकता था।”
39 साल के कास्मिर ने अपना दर्द साझा करते हुए बताया, “समुद्र में उतरने के विचार से ही भयावह यादों का सिलसिला शुरू हो जाता है। यहां तक कि ओखी में खोए हुए लोगों के लिए साल में एक बार की जाने वाली प्रार्थनाएं भी मुझे उन पलों की याद दिला जाती हैं।” चक्रवात के बाद जब वह तट पर लौटे तो उनका चेहरा और पूरा शरीर सूजा हुआ था। उनके अपने परिवार के लोग भी पहचान नहीं पा रहे थे। समुद्र में लंबे समय तक रहने के कारण ऐसा होता है।
एंटनी राज
कन्याकुमारी के एक तटीय गांव थूथूर में रहने वाले मछुआरे एंटनी राज (43) चक्रवात ओखी के दौरान समुद्र में फंसे मछुआरों को ढूंढने के लिए समुद्र में गए थे। तस्वीर: नारायण स्वामी सुब्बारामन/मोंगाबे
43 साल के एंटनी राज चक्रवात ओखी के समय मैंगलोर के पास तट पर मछली पकड़ रहे थे, क्योंकि वहां हवाएं कन्याकुमारी जितनी तेज नहीं थीं। 4 दिसंबर, 2017 को पांच नावों और सात गांवों के मछुआरों की 35 सदस्यीय टीम से लैस राज उन लोगों को बचाने के लिए निकल पड़े, जो चक्रवात के बाद भी समुद्र में फंसे हुए थे। टीम ने लगभग 25 ऐसे शवों को देखा जो फूले हुए थे और उन्हें पहचानना मुश्किल था। उन्होंने वो तस्वीरें सरकार और मीडिया के साथ साझा कीं थीं।
राज ने बताया, “हमने उन मछुआरों तक पहुंचने की भी कोशिश की, जिन्होंने वायरलेस से हम तक मदद की गुहार लगाई। वे ‘कापाथुंगा!’ कापाथुंगा!’ (तमिल में ‘हमें बचाओ, हमें बचाओ!’) कहते हुए चिल्ला रहे थे। इससे पहले कि वे अपना जीपीएस लोकेशन बता पाते, कनेक्शन टूट गया। पांच दिनों तक जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ने वाले मछुआरों को जिंदा न बचा पाने का अफसोस आज भी मेरे सिर पर एक भार की तरह बना हुआ है।”
उन्होंने कहा, “आज भी मैं जब समुद्र में जाता हूं, तो मेरे दिलो-दिमाग में उनकी आवाजें हावी हो जाती हैं, जो अपनी जीवन बचाने के लिए हमसे विनती कर रहे थे। मैं कई बार सोचता हूं कि शायद वे किसी दूर द्वीप पर जिंदा हो या फिर समुद्र में यात्रा करते समय उनकी मौत का दुख मुझे सालता रहता है।”
आपदाओं के बाद मानसिक सेहत पर पड़ता असर
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज (NIMHANS) बेंगलुरु के आपदा प्रबंधन में सामाजिक सहायता विभाग (DPSSDM) के सलाहकार और पूर्व प्रमुख डॉ. के. शेखर ने मोंगाबे-इंडिया से बातचीत में कहा, “किसी भी आपदा के बाद प्रभावित आबादी का एक बड़ा हिस्सा मानसिक परेशानियों से जूझता रहता है। हालांकि इनमें से कई समय के साथ ठीक हो जाते हैं, लेकिन कुछ लोग जिन्हें जान-माल का नुकसान ज्यादा हुआ है, उन्हें अवसाद और पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर जैसे स्थायी मानसिक स्वास्थ्य प्रभावों का सामना करना पड़ सकता है। इनसे निपटने के लिए अक्सर मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की जरूरत होती है।”
सेकर के मुताबिक, घटनाओं का फ्लैशबैक कुछ लोगों के लिए काफी परेशान कर देने वाला होता है, जिसे वह नजरअंदाज नहीं कर पाते हैं। कुछ अन्य लोगों के लिए यह सुनामी की यादों को फिर से जिंदा कर सकता है। इससे हाइपर विजिलेंस होने की संभावना होती है। तेज पसीना, कंपकंपी और दिल की धड़कन का तेज होने जैसे शारीरिक प्रभाव नजर आने लगते हैं। उन्होंने कहा, “अगर समय पर इसका इलाज न किया जाए तो, कुछ लोग इससे निपटने के लिए शराब या मादक द्रव्यों की तरफ भी चले जाते हैं।”
डीपीएसएसडीएम, एनआईएमएचएएनएस के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. संजीव कुमार मणिकप्पा ने कहा, बचे हुए लोगों को नींद न आने और नकारात्मक विचार जैसी परेशानियां हो सकती हैं। इन मनोवैज्ञानिक बीमारियों से बचने के लिए बेहतर इलाज की जरूरत होती है।
काउंसलिंग साइकोलॉजिस्ट और चेन्नई काउंसलर फाउंडेशन की अध्यक्ष डॉ. एस दिव्य प्रभा ने कहा, पालांकि मानसिक बीमारियों को लोग एक कलंक की तरह लेते है। लेकिन इस धारणा के विपरीत, चक्रवात से प्रभावित कन्याकुमारी के लोग इलाज के लिए आगे आ रहे थे। प्रभा उस दस सदस्यीय टीम का हिस्सा थीं, जो चक्रवात ओखी के बाद जनवरी और मार्च 2018 के दौरान दो बार कन्याकुमारी में लोगों को मनोवैज्ञानिक परामर्श देने के लिए पहुंची थी।
मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ का कहना है कि ये दो दौरे काफी नहीं थे। वह कहती हैं, “जब हम पहली बार जनवरी में वहां गए, तो लोगों में गहरी निराशा थी। लोग परेशान थे कि यहां आने वाले लोग उन्हें इस परेशानी से निकालने के लिए उनकी कोई सहायता नहीं कर रहे थे। इसलिए हमने मार्च में एक बार फिर से आने के बारे में सोचा। हालांकि, इन लोगों को लगातार लंबे समय तक सहायता की जरूरत थी, जो सिर्फ मनोवैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की नियोजित टीम के जरिए सरकार द्वारा ही दी जा सकती थी।”
एराविपुथेनथुराई बोट ओनर्स वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष लियो टॉल्स्टॉय ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “एक मछुआरे की आजीविका उसकी मानसिक शक्ति पर निर्भर करती है। एक बार जब वह खत्म हो जाए, तो उसका जीवन वैसा नहीं रह पाता है। मेरा अनुमान है कि लगभग 50% मछुआरों ने ओखी के बाद अभी तक समुद्र में अपना काम फिर से शुरू नहीं किया है। वे तट पर कम वेतन वाली नौकरियों में फंस गए हैं। बाकी बचे 50% धीरे-धीरे समुद्र में लौट रहे हैं। हालांकि उनकी मानसिक शक्ति पहले जितनी मजबूत नहीं है।”
अपर्याप्त मुआवजे से मानसिक तनाव बढ़ गया
ओखी के तात्कालिक वित्तिय परिणाम काफी गंभीर थे। इसकी वजह से मछली पकड़ने की गतिविधियों में 106,250 मानव-दिनों की हानि के कारण 1.85 मिलियन डॉलर (लगभग 15.4 करोड़ रुपये) की अनुमानित राजस्व हानि हुई। मृत और लापता मछुआरों के परिवारों को 20-20 लाख रुपये दिए गए, जबकि घायल होने पर 50,000 रुपये का मुआवजा दिया गया। कुछ मछली पकड़ने वाले परिवारों को एकमुश्त आजीविका सहायता के रूप में 5,000 रुपये मिले। खासतौर पर 30,778 मछुआरों को 15.38 करोड़ रुपये की पारिवारिक राहत राशि वितरित की गई और 1,568 लौटने वाले मछुआरों को एकमुश्त मुआवजे के रूप में भोजन भत्ते के लिए 2000 रुपये दिए गए। हालांकि, मछुआरे अपने नुकसान को देखते हुए इस मुआवजे को अपर्याप्त मानते हुए असंतोष व्यक्त कर रहे हैं।
सेकर ने अपर्याप्त मुआवजे की वजह से मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव पर प्रकाश डालते हुए समझाया, “जब दिया जाने वाला मुआवजा नुकसान की तुलना में कम हो, तो उसे स्वीकार कर पाना मुश्किल हो जाता है। नतीजतन, एक तत्काल प्रतिक्रिया अक्सर अपराधबोध के रूप में प्रकट होती है। जैसे – ‘मैं चक्रवात के दौरान समुद्र में क्यों गया?”
मणिकप्पा ने साझा किया, “खाना, रहने के लिए जगह और अन्य जरूरी चीजें देने के बाद, हम अक्सर मान लेते हैं कि हमारी जिम्मेदारियां पूरी हो गई हैं। लेकिन ये सिर्फ आपदा प्रबंधन के भौतिक पहलुओं से निपटता है। किसी आपदा के बाद होने वाला मानसिक आघात तुरंत दिखाई नहीं देता है। और प्रशासक गलती से मान लेते हैं कि मुआवजा देने के साथ ही उनका काम पूरा हो गया है। हालांकि मुआवजा महत्वपूर्ण है, लेकिन यह आपदा प्रबंधन का सिर्फ एक पहलू है। किसी भी भौतिक पहलू की तुलना में मनोसामाजिक घटक भी उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं।”
मैरी फ्रांसिस और फ्रांसिस फर्नांडीज
फ्रांसिस फर्नांडीज (55) को ओखी के कारण गंभीर आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ा। इसके बाद से उनके पूरे परिवार पर आर्थिक और मानसिक बोझ बढ़ गया। तस्वीर: नारायण स्वामी सुब्बारामन/मोंगाबे
मैरी फ्रांसिस कहती हैं, “आज भी जब मेरे पति समुद्र में जाते हैं तो डर हमें घेर लेता है। ओखी से पहले ऐसा नहीं था। समुद्र में मौतें असामान्य नहीं थीं, लेकिन इससे पहले इतना विनाश नहीं हुआ था। जिसकी वजह से हम इसे भूल नहीं पाए हैं। फिर भी, हम मछली पकड़ना नहीं छोड़ सकते क्योंकि हमारे पास औऱ कोई काम करने का न तो अनुभव है और न ही हम ज्यादा पढ़े-लिखे हैं।”
मैरी के पति फ्रांसिस फर्नांडीज की उम्र 55 साल है। वह एक मछुआरे हैं और इराविपुथाथुराई में रहते हैं। नाव खरीदने के लिए एक निजी बैंक से लोन लेने के लिए उन्होंने अपना घर गिरवी रख दिया था। फर्नांडीज ने बताया, “मेरी नाव की कीमत 18 लाख रुपये थी। ओखी के दौरान वह तहस-नहस हो गई। इसे ठीक कराने के लिए काफी पैसे की जरूरत थी। मुझे नौकायन पर किया गया लगभग 5 लाख रुपये का खर्च भी उठाना पड़ा। इस आर्थिक झटके ने हमारे लिए लोन को चुकाना मुश्किल कर दिया है। बैंक अधिकारियों ने मेरे घर के सामने नीलामी नोटिस लगा दिया है।”
आर्थिक तंगी के चलते दंपति को अपनी तीन बेटियों को दो साल तक स्कूल/कॉलेज से बाहर रखने के लिए मजबूर होना पड़ा। मैरी फ्रांसिस ने आगे कहा, “एक ब्रेक के बाद ही उन्होंने अपनी पढ़ाई फिर से शुरू की है।”
फर्नांडीज बताते हैं, “मेरी 18 लाख रुपये की नाव बर्बाद होने पर सरकार ने मुझे महज 40,000 रुपये का मुआवजा दिया। मरम्मत में भी 7 लाख रुपये लग रहे थे। इसलिए, हमारे पास इसे 1.5 लाख रुपये में स्क्रैप के तौर पर बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। उस समय हमारी परिस्थितियां इतनी विकट थीं कि हम ज्यादा पैसों के लिए लड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। जब खाने के लिए पैसे की कमी का सामना करना पड़े, तो क्या आप मिलने वाले कुछ हज़ार का विरोध कर पाएंगे, भले ही आप जानते हों कि मुआवजा उचित नहीं है?”
महिलाओं और बच्चों पर भी इसका असर
सेकर ने परिवार के सदस्यों के बीच होने वाली मानसिक उथल-पुथल के बारे में कहा, गहरे समुद्र में मछुआरों के परिवार के सदस्य भी पीड़ित के समान तनाव से गुजरते हैं। उदाहरण के लिए, एक चिंतित पिता बच्चों को परेशान कर सकता है और एक पति का अजीब व्यवहार उसकी पत्नी को प्रभावित कर सकता है। मणिकप्पा के मुताबिक, अक्सर मछुआरे का पूरा परिवार आमदनी के लिए खास तौर पर पुरुषों पर निर्भर होता है। इसकी वजह से परिवार को कई तरह से नुकसान उठाना पड़ता है।
ओखी चक्रवात में अमलतासी का पति समुद्र में लापता हो गया और उसे मृत घोषित कर दिया गया। वह और उसकी दो बेटियां अभी भी उसकी मौत से उबरने के लिए संघर्ष कर रही हैं। 45 साल की अमलतासी कहती हैं, “अगर कम से कम हमें उनका शव मिल गया होता, तो इससे कुछ सांत्वना मिल जाती। मेरी बड़ी बेटी, 26 साल की है, लेकिन वह शादी नहीं करना चाहती है। हर समय अपने पिता की यादों में खोई रहती है। वह डिप्रेशन में जा रही है। पति को खोने के बाद इस समाज में महिला की कोई इज्जत नहीं रह जाती है। यहां तक कि मेरे रिश्तेदार भी मेरी उपेक्षा करते हैं और समय पर बेटी की शादी न करने की शिकायत करते रहते हैं।” फिलहाल अमलतासी एक गृहिणी हैं। उनका मानना है कि भावनात्मक और आर्थिक रूप से वह कमजोर पड़ गई है। उनका जीवन अब पहले जैसा नहीं रह गया है।
चक्रवात के बाद परिवारों से मुलाकात करने वाली काउंसलर प्रभा ने बताया, “हमने उन परिवारों से भी मुलाकात की जिन्होंने अपने घर के सभी पुरुषों को खो दिया था। हम उस समय उनकी कहानियां सुनने के अलावा कुछ नहीं कर सके। उनकी दर्दनाक कहानियों ने हमें भी झकझोर कर रख दिया था। इससे निपटने के लिए हम एक-दूसरे के साथ अपने अनुभव साझा करते रहे।”
समुदायिक मदद
कन्याकुमारी जिले में मौजूद चर्चों ने मछुआरों की मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जिले की लगभग आधी आबादी ईसाई धर्म का पालन करती है। नाम न बताने की शर्त पर कन्याकुमारी के एक जिला स्वास्थ्य अधिकारी ने कहा, “मानसिक रूप से परेशान लोगों की मदद करने के लिए चर्चों में योग्य मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर हैं।”
एराविपुथेनथुराई चर्च के पादरी फादर राजेश बाबू ने कहा, “ईसाई धर्म में मानव शरीर को पवित्र माना जाता है। लेकिन हमें लापता लोगों के अवशेष नहीं मिले। इसलिए, इस साल भी हमारे गांवों के लोग समुद्र में गए और उनकी याद में वहां फूल बिखेर कर आ गए।”
सेकर का मानना है कि अगर किसी व्यक्ति की धार्मिक आस्था है तो वो मानसिक परेशानियों से उबरने के लिए आध्यात्मिकता का सहारा ले सकता है। यह एक सरल नजरिया है, जो जटिल तरीकों से ज्यादा फायदेमंद साबित होता है। उनकी पसंद से जुड़ी मनोरंजक गतिविधियों में शामिल होने से भी मदद मिल सकती है।”
आगे का रास्ता
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने अपनी छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में मानसिक स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर चर्चा की और कहा, “जलवायु संबंधी घटनाओं के परिणामस्वरूप संभावित मानसिक स्वास्थ्य परिणाम हो सकते हैं, जिनमें चिंता, अवसाद, तीव्र दर्दनाक तनाव, पीटीएसडी, आत्महत्या, मादक द्रव्यों का सेवन और नींद की समस्याएं शामिल हैं। ये परेशानियां कम भी हो सकती हैं या फिर ज्यादा होने पर अस्पताल में भर्ती होने की नौबत भी आ सकती है।”
IPCC AR6 WGII की प्रमुख लेखिका और अमेरिका के वूस्टर कॉलेज में मनोविज्ञान और पर्यावरण अध्ययन की प्रोफेसर सुसान क्लेटन ने मोंगाबे-इंडिया के साथ बातचीत में कहा, “मानसिक स्वास्थ्य से जूझ रहे लोगों को सिर्फ प्रशिक्षित पेशेवरों से मदद नहीं मिलती है। लोगों को एक-दूसरे से जुड़ने और अपनी खुद से देखभाल करने और खुद से इन परेशानियों से मुकाबला करने की तकनीक सीखने के ज्यादा अवसर देने से भी मदद मिलती है। और ये प्रयास मौजूदा सामुदायिक संरचनाओं जैसे कि स्कूलों या सामुदायिक समूहों के भीतर किए जा सकते हैं।”
क्लेटन का तर्क है कि एक-दूसरे के साथ जुड़ने और प्रत्याशित जलवायु घटनाओं के बारे में जानकारी के लिए लोगों की जरूरतों पर ध्यान देने से आपदाओं का सामना करने की उनकी क्षमता मजबूत हो सकती है। उन्होंने कहा, “यह और भी बेहतर होगा, अगर जलवायु घटनाओं के बाद मानसिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए सरकारी सहायता उपलब्ध कराई जा सके।”
क्योंकि जलवायु परिवर्तन चक्रवात और तूफान जैसी चरम घटनाओं को तेज करता है, इसलिए आर्थिक मुआवजे के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों से भी निपटना जरूरी है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार, अब मानसिक स्वास्थ्य पर उचित ध्यान दिया जा रहा है, जबकि पहले ऐसा नहीं था। सेकर ने कहा, “अब मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं तमिलनाडु में भी उपलब्ध हैं। यहां मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के जरिए हर जिले के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर मौजूद हैं।”
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत, तमिलनाडु सरकार ने जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (डीएमएचपी) शुरू किया है। डीएमएचपी का प्राथमिक लक्ष्य मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मामलों को रोकना और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के जरिए समुदाय के भीतर निरंतर मानसिक स्वास्थ्य सहायता को बढ़ावा देना है। प्रत्येक जिले में जमीनी स्तर पर सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए चिकित्सा अधिकारियों द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता है।
लेकिन कन्याकुमारी के जिला स्वास्थ्य अधिकारी का मानना है कि इन कार्यक्रमों पर केवल सैद्धांतिक रूप से चर्चा की जाती है। उन्होंने कहा, “मानसिक स्वास्थ्य के वास्तविक पुनर्वास की दिशा में ठोस कदमों की कमी रही है।”
क्लेटन ने मानसिक स्वास्थ्य पर नीतिगत चर्चा की जरूरत पर प्रकाश डालते हुए अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “सरकारी अधिकारी भौतिक बुनियादी ढांचे के पुनर्निर्माण जैसी अन्य प्राथमिकताओं की तुलना में मानसिक स्वास्थ्य को कमतर आंकते हैं। लेकिन मानसिक स्वास्थ्य जनसंख्या स्वास्थ्य का हिस्सा है – जो लोग मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना कर रहे हैं वे खुद की देखभाल करने और नागरिकों के रूप में प्रभावी ढंग से कार्य करने में कम सक्षम हैं। खराब मानसिक स्वास्थ्य और आर्थिक लागत पर जोर देना सार्वजनिक नीति के लिए एक आकर्षक तर्क हो सकता है।”
उधर मणिकप्पा ने सुझाव दिया कि जब तक जीवित बचे लोगों का पुनर्वास पूरा नहीं हो जाता, तब तक मनोवैज्ञानिक मदद दी जाती रहनी चाहिए। क्योंकि मुआवजे की तत्परता के आधार पर उनके पुनर्वास में एक या दो साल भी लग सकते हैं।
मोंगाबे-इंडिया ने टिप्पणी के लिए तमिलनाडु राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के निदेशक और कन्याकुमारी के जिला कलेक्टर से संपर्क किया था। लेकिन रिपोर्ट छपने तक उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल पाई।
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बैनर तस्वीर: कन्याकुमारी में मछली पकड़ने के घाट पर खड़े रॉबिन्सन जॉनसन और अन्य मछुआरे। तस्वीर: नारायण स्वामी सुब्बारामन/मोंगाबे