- याक के दूध से कई तरह की वस्तुएं बनाना ब्रोकपा पशुपालक चरवाहों की खासियत है। यह समुदाय भारत के हिमालयी क्षेत्रों में याक पालन करता है।
- पारंपरिक तरीके से याक पालन पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में जागरूकता और विरासत में मिले पारंपरिक ज्ञान पर निर्भर करता है। लेकिन बदलते समय के साथ इसकी अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे गिरावट की ओर जा रही है।
- ब्रोकपा को साल के कुछ महीने काम करने के बारे में शिक्षित किया जा रहा है। साथ ही, युवा पीढ़ी को ध्यान में रखते हुए लाभदायक याक पालन के लिए व्यावहारिक बैंक योजनाएं भी शुरू की गई हैं।
अरुणाचल प्रदेश के बाज़ारों में घूमते हुए आपको मौसमी कीवी, ख़ुरमा, मेवे वगैरह सहित कई तरह के स्थानीय व्यंजन मिल जाएंगे। सर्दियों की शुरुआत के साथ ही राज्य में आने वाली पर्यटकों की भीड़ के लिए सबसे ज्यादा आकर्षक चीज हल्के भूरे और सफेद कैंडी की लटकती हुई मालाएं हैं। ये मालाएं आपको हर दुकान में मिल जाएगी। कुछ खरीदार नया स्वाद चखने को आतुर रहते हैं और अक्सर दुकानदारों से इस बारे में सवाल करते हुए देखे जा सकते हैं।
आपको ये चॉकलेट की माला लग सकती है, लेकिन ऐसा है नहीं। बल्कि यह सख्त पनीर है। इसका स्थानीय नाम छुरपी है। इसे दूध से तैयार किया जाता है। सफेद वाला छुरपी खास है, क्योंकि यह याक के दूध से बनता है।
ठंड वाले दिनों में, आगंतुक तिब्बती छाछ चाय की चुस्कियों का आनंद लेते हैं। इसे हिमालयी क्षेत्र में सबसे बहेतरीन पेय माना जाता है। लेकिन जो लोग जानते हैं वे इस स्वादिष्ट मिश्रण को बाजार में बिकने वाले नियमित मक्खन के साथ नहीं, बल्कि याक के दूध से बने बहुत सारे घी के साथ तैयार करना पसंद करते हैं।
याक के दूध से बने ये प्रोडक्ट ब्रोकपा (ब्रोक का अर्थ चरागाह और पा मतलब लोग होता है) पशुपालकों की ओर से बनाई गई खास वस्तुएं हैं। भारत के हिमालयी क्षेत्रों में इस समुदाय को याक-पालक के रूप में जाना जाता है। अरुणाचल प्रदेश में ब्रोकपा बड़ी मोनपा जनजाति की एक उप-जनजाति है, जो पूर्वी हिमालय क्षेत्र में पश्चिम कामेंग और तवांग जिलों में रहती है।
जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन और बदलती सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियां चरवाहों की आजीविका को खतरे में डाल रही है। ऐसे में उनकी टिकाऊ लेकिन आर्थिक रूप से चुनौतीपूर्ण जीवनशैली में अतिरिक्त आय की जरूरत और बढ़ जाती है। याक दूध की बढ़ती मांग एक संभावित समाधान के रूप में काम करती है।
बदलते समय के साथ बढ़ी पैसे की जरूरत
ब्रोकपा खानाबदोश समुदाय है जो मौसम के हिसाब से अपने मवेशियों को एक चरागाह से दूसरे चरागाह में ले जाते हैं। गर्मियों वे ज्यादा ऊंचाई वाले चरागाहों में चले जाते हैं। इससे वे आसानी से जलवायु में होने वाले बदलाव के अनुसार खुद को ढाल लेते हैं। साथ ही, मौसम के चलते चारे की उपलब्धता की समस्या से भी निजात मिल जाती है। याक के लिए सही समय पर खाने-पीने की चीजों की उपलब्धता अहम है।
फिलहाल, भारत में याक की आबादी लगभग 58,000 है। इनमें से लगभग 24,700 अरुणाचल प्रदेश में हैं। देश भर में लगभग 2,500 ब्रोकपा में से लगभग 1,200 इसी राज्य में रहते हैं।
दस हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित गांव लुब्रांग के ब्रोकपा रिंगचिन केसांग ने कहा, “मेरे परिवार के पास 80 शुद्ध नस्ल के याक का झुंड है। याक को ज्यादा तापमान पसंद नहीं है और सर्दियों में सीमित भोजन पर जीवित रहने के बाद वे पोषण के लिए भूखे रहते हैं। इसलिए, अप्रैल-मई में जब तापमान बढ़ना शुरू होता है, तो मैं और मेरी पत्नी, बहन अपने झुंड के साथ क्षेत्र के अन्य चरवाहों के साथ चढ़ाई शुरू करते हैं।”
केसांग ने कहा कि लुब्रांग, मंडला-फुदुंग और अन्य क्षेत्रों से चरवाहे सबसे पहले भूटान में विजय गोम्पा से होते हुए सेला दर्रा पहुंचते हैं। “यह तीन दिनों का सफर होता है। हम जरूरी वस्तुओं का स्टॉक करने और दूसरे ब्रोकपा को अपने झुंड के साथ इकट्ठा करने के लिए एक या दो दिन वहां रुकते हैं। वहां से, हम समूह के रूप में तवांग में लुगुथांग तक चढ़ाई करते हैं, जो 14,500 फीट की ऊंचाई पर है। हमें यहां पहुंचने में लगभग 10 दिन लगते हैं। ऊंचे पहाड़ों पर बर्फ नहीं पिघलती और हमें झुंडों के लिए इसके बीच से रास्ता बनाना पड़ता है। रात बिताने के लिए रास्ते में जगहें हैं।” अन्य चरवाहे पश्चिम कामेंग में रम्पू, लुंगथांग, डोंगचेपु और चुर्खतांग के समान प्रवासी रास्तों और तवांग में थिंगबू, ब्रोक्सर तांगलुंग, और ज़िथांग के रास्ते पहुंचते हैं।
इन चरागाहों में आने की कीमत भी चुकानी पड़ती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उन तक पहुंचने के लिए अलग-अलग रिन (शुल्क) लगाया जाता है। घास के मैदानों और जंगलों का मालिकाना हक व्यक्तियों, कबीलों, समुदायों या यहां तक कि मठों के पास होता है और शुल्क उन्हें चुकाया जाता है। रिन की गणना जानवरों की संख्या, मौसम और घास के मैदान की प्रकृति (नए या पहले से चराई वाले), चरागाह के आकार और अवधि के आधार पर की जाती है।
आवाजाही के दौरान, चरवाहों को लैमरिन का भुगतान करना पड़ता है, जो उन्हें आवाजाही के रास्तों पर लगभग तीन रातों तक रहने की अनुमति देता है। वन क्षेत्रों में चराई के लिए पुरिन का शुल्क लिया जाता है। परंपरागत रूप से, मक्खन, पनीर और पशुधन का इस्तेमाल इस शुल्क को चुकाने के लिए तब तक किया जाता था जब तक कि पशुपालकों के बीच भी पैसों का चलन शुरू नहीं हो गया। केसांग ने बताया कि उन्हें पिछली सर्दियों में (छह महीने के पूरे सीजन के लिए) घी और छुरपी के अलावा कर के रूप में 10,000 रुपए कर के रूप में भुगतान किया गया था। कर के रूप में दूध से बनी चीजें भी शामिल हैं।
अपने इस्तेमाल के बाद चरवाहे बचे हुए याक के दूध उत्पादों को बेच देते हैं। याक के दूध के उत्पाद उन्हें ऊंचे पहाड़ों में गलाने वाली ठंड में जीवित रहने में मदद करते हैं और वैकल्पिक स्रोत नहीं मिलने पर उनके वहां रहने के दौरान जरूरी पोषण उपलब्ध कराते हैं। केसांग ने कहा, “हम चार-पांच महीने का राशन लेकर चलते हैं।” सबसे पहले सब्जियों और जल्दी खराब होने वाली चीजों का सेवन किया जाता है। बौद्ध होने के कारण वे जानवरों को नहीं मारते और मरे हुए जानवर का ही मांस खाते हैं। उन्होंने बताया, “दूध को मथकर छुरपी, चूरकम, घी, दही आदि बनाया जाता है। हमारे उपभोग के बाद जो कुछ बचता है उसे स्थानीय बाजारों में बेच दिया जाता है। हम प्रवास के दौरान एक बार और कभी-कभी दो बार भी अपनी जरूरी वस्तुओं का स्टॉक करने और अपने उत्पादों को बेचने के लिए गांव आते हैं।”
अब बदलते समय के साथ युवा ब्रोकपा औपचारिक शिक्षा का विकल्प चुन रहे हैं और मुख्य रूप से इसमें शामिल कड़ी मेहनत और पारंपरिक जीवन शैली से जुड़ी आर्थिक और सामाजिक अनिश्चितताओं के कारण अपने पुरखों की अर्ध-खानाबदोश जीवनशैली को अपनाना कम पसंद करते हैं। अपने साथी ब्रोकपा की तरह, केसांग के परिवार ने भी कम ऊंचाई वाले शहरी क्षेत्र में जमीन का एक भूखंड खरीदा है और दूसरा घर बनाया है। उनके तीन बच्चे वहीं रहकर स्कूल जाते हैं।
याक के दूध उत्पादों से होने वाली कमाई से समुदाय का भरण-पोषण
पारंपरिक रूप से, देशी तकनीक का इस्तेमाल करके याक के दूध से कई तरह की चीजें बनाई जाती हैं। बिना चिकनाई वाले याक दूध (जिसे धारा कहा जाता है) को दही इनोकुलम का इस्तेमाल करके फरमेंट किया जाता है। मक्खन को मथने के बाद जो नरम गीला पनीर बचता है, वह छुरपी है जो तुरंत खाने के लिए होता है। लंबे समय तक खाने लायक रहने वाली सूखी छुरपी (स्थानीय नाम चुरतांग) को याक की खाल की थैलियों में जमा किया जाता है। मक्खन को घी बनाने के लिए मथा जाता है और उसी तरह उसे बचाकर रखा जाता है। याक की खाल की थैलियों के अंदर रखे पनीर और घी में तीखी गंध आती है जिसे बाजार में बेचने से पहले हटाना जरूरी होता है।
बाजार में उपलब्ध याक के दूध से बने सभी उत्पादों में से छुरपी और घी सबसे लोकप्रिय हैं और इनकी मांग, आपूर्ति से ज्यादा है। इसके अलावा, उत्पाद की उपलब्धता काफी हद तक पश्चिमी कामेंग और तवांग जिलों के बाजारों तक ही सीमित है। इनके बाहर आपूर्ति मामूली है।
ब्रोकपा 600-650 रुपए प्रति किलो के हिसाब से छुरपी बेचते हैं। घी की कीमत 400 रुपए प्रति किलो है। खुदरा क्षेत्र में, दुकानदार अक्सर इसमें 50 रुपए अपना मुनाफा जोड़ते हैं। चॉकलेट के आकार के छुरपी के एक टुकड़े को 10 रुपए में बेचा जाता है। वहीं घी 600 रुपए किलो के हिसाब से बेचा जाता है।
बिक्री बढ़ाने के लिए याक के दूध को बेहतर बनाना
उत्पाद बनाने के पारंपरिक तरीके बहुत मेहनत वाले है। याक केंद्र (राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र [एनआरसी]-याक) दूध और उससे बनी चीजों की मांग पूरी करने के लिए समुदाय को मदद करने के लिए कई तरह की योजनाएं लेकर आया है।
“ज्यादा ऊंचाई वाले क्षेत्रों जहां याक के दूध का उत्पादन होता है वहां इसके उत्पादों का प्रसंस्करण और पैकेजिंग हमेशा साफ-सुथरे तरीके से नहीं होता है। इसलिए, बाहरी लोग अक्सर इसका इस्तेमाल करने को लेकर उदासीन रहते हैं। एनआरसी-याक के प्रमुख वैज्ञानिक विजय पॉल ने कहा, बाजार का विस्तार करने के लिए, हम इन मसलों को सुलझा रहे हैं। ब्रोकपा को स्वच्छता और गुणवत्ता नियंत्रण से जुड़े उपायों में व्यावहारिक प्रशिक्षण दे रहे हैं। याक के दूध से प्राप्त उत्पादों को लोकप्रिय बनाकर याक पालन को ज्यादा लाभकारी बनाने के लिए, संस्थान ने न्युकमाडुंग में ज्यादा ऊंचाई पर याक दूध डेयरी और पार्लर खोला है। अरुणाचली याक छुरपी को हाल ही में ज्योग्रफिकल इंडिकेशन (जीआई) टैग भी मिला है।
मध्यम आकार के अरुणाचली याक से दूध उत्पादन पहाड़ी मवेशियों और याक-मवेशी संकर (डोज़ोमो) की तुलना में कम स्तनपान अवधि के साथ अपेक्षाकृत कम है। औसतन, एक मादा याक प्रतिदिन 0.98-1.04 किलो दूध देती है, जो 180 दिनों की स्तनपान अवधि में कुल मिलाकर लगभग 185 किलो होता है। मामूली उपज के बावजूद, याक का दूध अन्य गोवंशों की तुलना में ज्यादा पौष्टिक होता है।
दिरांग में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-एनआरसी-याक द्वारा फार्म में पाले गए अरुणाचली याक के दूध की पोषक संरचना और भौतिक रासायनिक गुणों के आकलन से पता चला है कि यह पोषण के मामले में अन्य गोवंश दूध से बेहतर है। एनआरसी-याक के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. विजय पॉल ने कहा, “सामान्य तौर पर याक के दूध को प्राकृतिक रूप से केंद्रित दूध माना जाता है जिसमें पोषक तत्व बहुत ज्यादा होते हैं। साथ ही ओमेगा -3, फैटी एसिड, अमीनो एसिड और एंटीऑक्सिडेंट से भरपूर होता है। इसमें विटामिन और खनिज भी हैं।” गाढ़े और मीठे याक के दूध में गाय के दूध की तुलना में ज्यादा प्रोटीन, वसा, लैक्टोज, खनिज और कुल ठोस पदार्थ होते हैं।
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पारंपरिक उत्पादों के अलावा, एनआरसी-याक ने आहार फाइबर-संवर्धित कम वसा वाला पनीर, सब्जी वाला पनीर, कीवी-स्वाद वाला और विटामिन सी से भरपूर मट्ठा और यहां तक कि मोज़ेरेला और चेडर स्टाइल पनीर जैसे नए आइटम भी पेश किए हैं।
इस तरीके से याक का पालन
याक के दूध का उत्पादन चारे की उपलब्धता पर निर्भर है। सर्दियों में चारे की कमी हो जाती है जब याक अपने शरीर का वजन 25-30% कम कर लेते हैं। हर समय गोवंश की पोषण सुरक्षा पक्की करने के लिए, एनआरसी-याक ने स्थानीय रूप से उपलब्ध फसल अवशेषों और उपयुक्त बायोमास जैसे हरा मक्का चारा, नेपियर, सैलिक्स इत्यादि का इस्तेमाल करके पूरी तरह फ़ीड ब्लॉक (सीएफबी) बनाया है और इन्हें चरवाहों को दिया जाता है। इसके अलावा, पशुपालकों को चारा संरक्षण तकनीकों और मक्के की कुशल किस्मों की खेती के बारे में भी प्रशिक्षित किया जाता है।
इसके अलावा, एनआरसी-याक ने 9,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित अपने न्युकमादुंग फार्म में याक पालन का एक नया मॉडल विकसित किया है। इस मॉडल में, याक के झुंडों को स्थायी रूप से विशेष ऊंचाई पर रखा जाता है। साथ ही, प्रवास की जरूरत को कम करने के लिए प्रजनन, नए तरह के चारे आदि सहित पालन-पोषण की जरूरतों का वैज्ञानिक तरीके से प्रबंध किया जाता है।
फिलहाल यहां 125 याक और 17 डेज़ोमो (गाय और याक की संकर नस्ल) हैं। कम लागत वाली साइलेज बनाने की तकनीक भी विकसित की गई है और फार्म में इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। पॉल ने कहा, “हम पिछले 25 सालों से इस सफल मॉडल पर काम कर रहे हैं, जिससे हम ठंड के महीनों में भी दूध उत्पादन बनाए रख सकते हैं।”
ब्रोकपा को इस मॉडल के बारे में जानकार दी जा रही है और लाभदायक याक पालन के लिए बैंक से जुड़ी योजना शुरू की गई है। उन्होंने कहा, “यह खास तौर पर युवा पीढ़ी पर केंद्रित है जो पशुपालन को लेकर उत्साही नहीं है। हम अतिरिक्त आर्थिक लाभ के लिए ऐसे फार्म में पर्यटन शुरू करने की भी वकालत कर रहे हैं।”
खानाबदोश याक पालन पारिस्थितिकी तंत्र जागरूकता और विरासत में मिले पारंपरिक ज्ञान पर निर्भर करता है और दोनों के संरक्षण के लिए अहम है। फिर भी, बदलते समय के साथ, इससे जुड़ी अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे इसके गिरावट का कारण बन रही है। इस प्रकार, याक के दूध से बनी चीजें याक पालन को मुनाफा वाला बनाने के लिए एक खास अवसर उपलब्ध कराता है।
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बैनर तस्वीर: अरुणाचल प्रदेश में ऊंचाई वाले पहाड़ पर चराई करता याक। छुरपी जैसे याक के दूध से बनी चीजें याक पालने वाले ब्रोकपा पशुपालक समुदाय के लिए आजीविका का बेहतर विकल्प बन रहे हैं। तस्वीर – सुरजीत शर्मा/मोंगाबे।