- सुप्रीम कोर्ट ने भारत के पर्यावरण मंत्रालय को वनों की पुरानी परिभाषा को बहाल करने का निर्देश दिया है। पुरानी परिभाषा में जंगलों की सुरक्षा ज्यादा “व्यापक और सर्वव्यापी” थी।
- यह स्पष्ट नहीं है कि राज्यों ने अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी वन क्षेत्रों को रिकॉर्ड करने के 1996 के फैसले के आदेशों का पालन किया या नहीं।
- सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि वन क्षेत्रों में किसी भी सफारी और चिड़ियाघर को उसकी पहले से मंजूरी के बिना अधिसूचित नहीं किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने 19 फरवरी को केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) को वनों की पुरानी परिभाषा को बहाल करने का निर्देश दिया। इस परिभाषा में जंगलों की सुरक्षा ज्यादा “व्यापक और सर्वव्यापी” थी। वहीं संशोधित वन (संरक्षण) कानून में दी गई नई परिभाषा ज्यादा संकीर्ण थी। सरकार के संशोधनों को चुनौती देने वाले चल रहे मामले के हिस्से के रूप में यह अंतरिम आदेश है। मामले में आखिरी फैसला जुलाई में सुनाया जाएगा।
वन भूमि पर बुनियादी ढांचा विकास गतिविधियों को सीमित करने के लिए वन (संरक्षण) कानून, 1980 पारित किया गया था। लेकिन इसके इस्तेमाल के दायरे को बढ़ाने के लिए 2023 में इसमें संशोधन किया गया था। कानून में संशोधन को अब वन (संरक्षण एवं संवर्धन) अधिनियम, 1980 कहा जाता है। इसमें कानूनी सुरक्षा सिर्फ उन जंगलों तक सीमित है जो 1927 के भारतीय वन कानून में अधिसूचित हैं और जिनका उल्लेख सरकारी रिकॉर्ड में मिलता है। इससे बिना किसी सुरक्षा या क्षतिपूर्ति तंत्र के अन्य इस्तेमाल के लिए बिना रिकॉर्ड वाली वन भूमि के बहुत बड़े हिस्से इस्तेमाल के लिए खुल जाते हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण 2021 के अनुसार, भारत के 28% जंगलों का रिकॉर्ड नहीं हैं।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने अब सरकार को 1996 के ऐतिहासिक गोदावर्मन फैसले में परिभाषा का पालन करने का निर्देश दिया है। इसमें शीर्ष अदालत ने कहा था कि सरकारी रिकॉर्ड में अधिसूचित और पाए गए वनों के अलावा, “शब्दकोश वाले अर्थ” से मिलते-जुलते सभी वन, वन (संरक्षण) कानून के तहत सुरक्षा के हकदार होंगे, भले ही उनका मालिकाना हक और स्थिति कुछ भी हो। 1996 के आदेश में यह फैसला लिया गया था कि राज्य सरकारें अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले ऐसे सभी जंगलों का नोट बनाने के लिए विशेषज्ञ समितियों का गठन करेंगी और सर्वेक्षण करेंगी। 19 फरवरी को अपने अंतरिम आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से 15 अप्रैल तक इन राज्य रिकॉर्डों को सार्वजनिक रूप से फिर पेश करने को कहा है।
सुप्रीम कोर्ट संशोधित कानून को अमल में लाने पर रोक लगाने के लिए सेवानिवृत्त वन अधिकारियों और संरक्षणवादियों के समूह की तत्काल याचिका पर सुनवाई कर रहा था। वन (संरक्षण एवं संवर्धन) कानून के अलग-अलग पहलुओं को चुनौती देने वाली उनकी याचिका अक्टूबर 2023 में दायर की गई थी। इससे पहले संशोधनों को राष्ट्रपति की सहमति मिली थी और संसद के दोनों सदनों से इसे बिना चर्चा के पास किया गया था।
वहीं, 30 नवंबर, 2023 को अदालती कार्यवाही के दौरान, केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को भरोसा दिलाया कि वह अगले आदेश तक वनों की संशोधित परिभाषा के आधार पर कोई कार्रवाई नहीं करेगी। लेकिन सरकार ने एक दिन पहले ही, 29 नवंबर को संशोधित कानून के लिए नियमों और दिशानिर्देशों को अधिसूचित कर दिया था, जिसमें राज्यों को संशोधित कानून के अनुसार वनों की पहचान करने का निर्देश दिया गया था। याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिका में लिखा, “नियमों और दिशानिर्देशों की सामग्री और फैसले लेने की शक्तियां जो वे अलग-अलग सरकारी अधिकारियों को देते हैं, बिना किसी संदेह के तेजी से कार्रवाई करने के समान हैं।”
जंगलों को रिकॉर्ड करना
गोदावर्मन फैसला आने के लगभग तीन दशक बाद भी यह स्पष्ट नहीं है कि राज्यों ने सर्वेक्षण किया है या नहीं। केंद्र सरकार ने बार-बार कहा है कि संशोधित कानून शीर्ष अदालत के 1996 के फैसले का उल्लंघन नहीं करेगा, क्योंकि राज्यों ने सभी वन क्षेत्रों की पहचान की है और उन्हें उनके शब्दकोश के मतलब के अनुसार दर्ज किया है, जिसमें वे वन भी शामिल हैं।
केंद्र सरकार ने पिछले साल संयुक्त संसदीय समिति को यह भी बताया था कि संशोधनों का प्रस्ताव करते समय इन सर्वेक्षणों को “रिकॉर्ड पर लिया गया है”। हालांकि, 17 जनवरी को सेवानिवृत्त वन अधिकारी प्रकृति श्रीवास्तव द्वारा दायर सूचना का अधिकार (आरटीआई) आवेदन से पता चला कि केंद्रीय मंत्रालय के वन संरक्षण विभाग के पास ऐसी रिपोर्टों का कोई रिकॉर्ड नहीं था।
पच्चीस जनवरी को मिले जवाब में कहा गया, “इस संबंध में, यह बताया जाता है कि राज्य/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा विशेषज्ञ समितियों की प्रस्तुत रिपोर्ट की कोई जानकारी वन संरक्षण प्रभाग में उपलब्ध नहीं है, क्योंकि जानकारी का विषय संबंधित राज्य सरकार/केंद्र शासित प्रदेशों से संबंधित है।” मोंगाबे-इंडिया की ओर से इस जवाब की समीक्षा की गई। अनुरोध प्रत्येक राज्य विभाग को भेज दिया गया था। 26 फरवरी तक, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, अरुणाचल प्रदेश और असम के राज्य वन विभागों ने जवाब दिया था। इनमें से, पहले तीन राज्यों ने जवाब देते हुए कहा कि उनके पास भी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट का कोई रिकॉर्ड नहीं है और अनुरोध को अन्य कार्यालयों को भेज दिया गया।
इस मामले में याचिकाकर्ता श्रीवास्तव ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “यह अस्वीकार्य है, क्योंकि ये रिकॉर्ड राज्य मुख्यालय के पास होने चाहिए।” “यह बहुत चिंताजनक है, क्योंकि मंत्रालय और वन महानिदेशक ने संसदीय समिति को बताया कि राज्य की रिपोर्ट रिकॉर्ड पर ले ली गई है और उन्हें कानून को लागू करने में शामिल किया जाएगा। लेकिन ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार के पास इन रिपोर्टों की कोई प्रति नहीं है।”
नवंबर 2023 में जारी अपने दिशानिर्देशों में केंद्र सरकार ने राज्यों को “ऐसी भूमि का समेकित रिकॉर्ड तैयार करने के लिए एक साल का समय दिया है, जिसमें विशेषज्ञ समिति द्वारा पहचाने गए वन जैसे क्षेत्र, अवर्गीकृत वन भूमि या सामुदायिक वन भूमि शामिल हैं, जिन पर कानून के प्रावधान लागू होंगे।” भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुसार, गैर-वर्गीकृत वन वे हैं जो “वन के रूप में दर्ज हैं, लेकिन आरक्षित या संरक्षित वन श्रेणी में शामिल नहीं हैं।” ऐसे वनों का मालिकाना हक अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होता है।”
सरकार और अदालत के बीच
अपने अंतरिम आदेश में, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि वन क्षेत्रों (जो संरक्षित क्षेत्रों के बाहर आते हैं) में उसकी पहले से अनुमति के बिना किसी भी सफारी और चिड़ियाघर की अनुमति नहीं दी जा सकती है। संशोधित कानून कहता है कि चिड़ियाघर और सफारी संरक्षण कोशिशों में “सहायक” हैं, जिसे याचिका दायर करने वालों ने चुनौती दी थी।
स्वतंत्र कानूनी पर्यावरण विशेषज्ञ कांची कोहली ने कहा, “गोडावर्मन मामले के इतिहास से पता चला है कि जब किसी कार्यकारी कार्रवाई में मध्यस्थता करने या उसे उलटने के लिए शीर्ष अदालत से संपर्क किया जाता है, तो विचार-विमर्श केंद्रीकृत रहता है। ऐसा खास तौर पर तब होता है जब कानूनी और नीतिगत मामलों पर सिर्फ अदालतों और सरकारों के बीच बातचीत होती है।” उन्होंने कहा, “संशोधित वन (संरक्षण) कानून की चुनौती फीडबैक लूप बनाकर फैसला लेने की प्रक्रियाओं को फिर से डिजाइन और लोकतांत्रिक बनाने का एक अवसर भी है। इससे वनवासियों और आश्रित समुदायों की करीबी भागीदारी के जरिए प्रवर्तन चुनौतियों की समझ विकसित करने और नियमों को आकार देने में मदद मिलेगी, जिन पर इन फैसलों का सीधा असर होता है।”
जानकारों ने पहले मोंगाबे-इंडिया को बताया था कि संशोधित कानून स्पष्ट रूप से भूमि पर वन में रहने वाले समुदायों के अधिकारों की रक्षा नहीं करता है, जिसका इस्तेमाल विकास परियोजनाओं के लिए किया जा सकता है, क्योंकि परियोजना को वन मंजूरी देने से पहले सहमति की जरूरत नहीं होती है।
याचिका में अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के 100 किलोमीटर के भीतर “सुरक्षा के लिए बुनियादी ढांचे” और “राष्ट्रीय महत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित रणनीतिक लीनियर परियोजना” के निर्माण के लिए दी गई छूट को भी चुनौती दी गई है। सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर अपना अंतिम फैसला जुलाई में सुनाएगा।
याचिकाकर्ताओं ने लिखा, “ऐसा कानून जो अपने दायरे में इतना स्पष्ट रूप से मनमाना है, इस माननीय न्यायालय द्वारा अपनाए गए कानून की व्याख्या को दरकिनार करने के अपने इरादे में स्पष्ट है और देश की पारिस्थितिकी और खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल देगा, उसे खत्म किया जाना चाहिए।”
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बैनर तस्वीर: केरल का एक जंगल। तस्वीर – गो ग्रीन केरल हॉलीडेज/ पिक्सल्स।