- मेघालय में मलेरिया फैलाने वाली एनोफिलिस मच्छर की प्रजाति कभी जंगलों से जुड़ी थी, अब धान के खेतों में प्रजनन कर रही है। एक हालिया अध्ययन से यह जानकारी सामने आई है।
- अध्ययन से पता चलता है कि मेघालय में मलेरिया के लिए वेक्टर प्रजातियों की संरचना बदल रही है। इसका कारण वनों की कटाई, धान की बढ़ती खेती और मच्छरदानी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो सकता है।
- अध्ययन के मुताबिक मलेरिया की रोकथाम के लिए प्रजातियों की बदलती संरचना को समझना महत्वपूर्ण है।
मलेरिया का जिक्र आते ही अक्सर घरों और आस पास भिनभिनाने वाले मच्छरों की तस्वीर हमारे दिमाग में घूमने लग जाती है। आपको ये जानकर थोड़ा हैरानी होगी कि पूर्वोत्तर भारत में मलेरिया फैलाने वाले मच्छर, जो कभी जंगलों से जुड़े थे, अब धान के खेतों में अपना बसेरा बना रहे हैं। पूर्वोत्तर राज्य मेघालय में किए गए एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि मलेरिया फैलाने के लिए जिम्मेदार जीनस एनोफिलीज में मच्छरों की कुछ प्रजातियां इस क्षेत्र में संरचना बदल रही हैं। वनों की कटाई, बढ़ती चावल की खेती और मच्छरदानी के बड़े स्तर पर इस्तेमाल इसकी एक वजह हो सकती है।
2022 में भारत, दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में सबसे अधिक मलेरिया के मामलों वाला देश था। उस दौरान अनुमानित 3,389,000 मलेरिया के मामले सामने आए थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के एक अनुमान के मुताबिक, पिछले साल दुनिया भर में मलेरिया के कुल 24.9 करोड़ मामले दर्ज किए गए और 85 देशों में इस बीमारी से 608,000 लोगों की जान गई।
अध्ययन की सह लेखिका और मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ नेचुरल साइंसेज में सीनियर लेक्चरर कैथरीन वाल्टन कहती हैं, “मेघालय में अध्ययन करने का सबसे पहला कारण यह था कि पूर्वोत्तर भारत में मलेरिया की दर हमेशा से बहुत अधिक रही है।” 2007 में इस बीमारी से राज्य में 237 मौतें हुईं थी। 2015 में यह संख्या घटकर 40 और 2021 में महज तीन रह गई थी।
2016 में भारत ने ‘नेशनल फ्रेमवर्क फॉर मलेरिया एलिमिनेशन प्रोग्राम’ (एनएफएमईपी) शुरू किया था। इसका लक्ष्य जहां एक तरफ 2030 तक चरणबद्ध तरीके से इस बीमारी को खत्म करना है, वहीं उन इलाकों को भी बीमारी से मुक्त रखना और मच्छरों को फैलने से रोकना है जहां मलेरिया खत्म हो चुका है। मेघालय की राज्य सरकार अपने स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के जरिए एनएफएमईपी को लागू करने के लिए जिम्मेदार है। इस कार्यक्रम के जरिए राज्य सरकार उच्च जोखिम वाले इलाकों की पहचान करने और मलेरिया को फैलने से रोकने का काम करती है। मलेरिया के संक्रमण को रोकने के लिए कीटनाशक के छिड़काव और कीटनाशक से उपचारित मच्छरदानी प्रभावित इलाकों में बांटी जाती है।
मलेरिया प्लाज्मोडियम परजीवी के कारण होता है जो तब फैलता है जब संक्रमित मादा एनोफिलीज मच्छर किसी इंसान को काटती है। वेक्टर एक जीवित जीव है जिसमें रोग पैदा करने वाला एजेंट होता है, जो मलेरिया के मामले में एनोफिलीज मच्छर है। वाल्टन कहती हैं, “400 से अधिक एनोफिलीज प्रजातियां हैं और वे एक-दूसरे से बेहद मिलती-जुलती नजर आती हैं। हम एनोफिलीज प्रजाति के बारे में सोचते हैं कि वो ही मलेरिया फैलाने के लिए जिम्मेदार है। लेकिन यह उन प्रजातियों की बहुत कम संख्या है जो मलेरिया फैलाती हैं।” वाल्टन कई सालों से दक्षिण पूर्व एशिया और उत्तर-पूर्व भारत में मच्छरों पर अध्ययन कर रही हैं।
मेघालय में मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों की आनुवंशिक विविधता
‘कैरेक्टराइजेशन ऑफ एनोफिलीज स्पीशीज कंपोजिशन एंड जेनेटिक डाइवर्सिटी इन मेघालय, नॉर्थ ईस्ट इंडिया, यूजिंग मॉलिक्युलर आइडेंटिफिकेशन टूल्स’ नामक अध्ययन फरवरी 2023 में इंफेक्शन, जेनेटिक्स एंड इवोल्यूशन जर्नल में प्रकाशित हुआ था। मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ (आईआईपीएच), शिलांग के वैज्ञानिकों ने इस अध्ययन पर मिलकर काम किया है। यह अध्ययन मलेरिया पर किए गए अध्ययनों के एक बड़े समूह का हिस्सा है, जो बीमारी और उसके फैलने के मामलों, राज्य में एनोफिलीज मच्छर की प्रजातियों और बीमारी से जुड़े लोगों के व्यवहार पर केंद्रित है।
आईआईपीएच, शिलांग में सहायक प्रोफेसर राजीव सरकार कहते हैं, “किस क्षेत्र में कौन सी वेक्टर प्रजातियां मौजूद हैं, इसका पता लगाकर, होने वाले जोखिम और नुकसान का आकलन करने में मदद मिलती है।” अध्ययन सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ कॉम्प्लेक्स मलेरिया इन इंडिया (सीएससीएमआई) के तहत आयोजित किए गए थे, जो इंटरनेशनल सेंटर ऑफ एक्सीलेंस फॉर मलेरिया रिसर्च (आईसीईएमआर) का एक हिस्सा है। यह उन देशों में स्थित अनुसंधान केंद्रों का एक अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क है जहां मलेरिया स्थानिक है।
मेघालय में 24 से अधिक एनोफिलीज मच्छर की प्रजातियां हैं। वन आवासों में पाए जाने वाले एनोफिलीज बैमाई और एनोफिलीज मिनिमस को पूर्वोत्तर में मलेरिया फैलाने वाले दो वेक्टर माने गए हैं। अध्ययन में पाया गया कि एनोफिलीज बैमाई और एनोफिलीज मिनिमस मच्छर दुर्लभ थे जबकि चार अन्य प्रजातियां अच्छी खासी संख्या में मौजूद थीं और चावल के खेतों में उन्होंने अपना बसेरा बनाया हुआ था। नतीजे बताते हैं कि धान के खेत एनोफिलीज मैक्यूलैटस और एनोफिलिस स्यूडोविलमोरी को पनपने के लिए बेहतर स्थितियां पैदा कर सकते हैं। ये अकेले या फिर एनोफिलीज बैमाई और/या एनोफिलीज मिनिमस के साथ मिलकर मलेरिया फैला सकते हैं।
उपासना श्यामसुंदर सिंह अध्ययन की सह-लेखिका थीं। उन्होंने अपनी पीएचडी थीसिस के एक हिस्से के रूप में यह शोध किया था। वह कहती हैं, ‘जब वैज्ञानिकों ने अध्ययन की योजना बनाई तब मेघालय में मलेरिया की दर काफी ज्यादा थी। लेकिन उन्होंने अपना शोध शुरू किया तो यह दर कम हो चुकी थी। यही कारण है कि उन्होंने यह समझने के लिए अध्ययन का फोकस बदल दिया कि अगर प्राथमिक वेक्टर कम हो रहे हैं, तो बीमारी को प्रसारित करने में अन्य वेक्टर क्या भूमिका निभा रहे थे।” मौजूदा समय में वह टेनेसी, यू.एस. में वेंडरबिल्ट यूनिवर्सिटी में पोस्ट डॉक्टरल स्कॉलर हैं।
यह रिसर्च कार्य 2018 में आईआईपीएच, शिलांग में स्टडी सेटअप तैयार करते हुए कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने के साथ शुरू हुआ। स्टडी टीम ने 2019-2022 के बीच मेघालय के तीन हिस्सों से मच्छरों के नमूने लिए। इन इलाकों में पश्चिम खासी हिल्स का नोंगलांग और पश्चिम जैंतिया हिल्स का बाराटो और नार्टियांग शामिल था। कोविड-19 महामारी के कारण इस काम को कुछ समय तक रोक दिया गया था। लोगों के घरों से 1,389 वयस्क मच्छरों के नमूने लिए गए, जबकि गांवों और आसपास की जगहों से 144 लार्वा मिले थे।
इस कीट विज्ञान अध्ययन में नमूने एकत्र करने के बाद पहला कदम उनकी संरचनात्मक पहचान था। इसके लिए माइक्रोस्कोप से मच्छरों की जांच की गई। पारंपरिक रूप से विभिन्न प्रजातियों की पहचान करने के लिए माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसके बाद मॉलिक्युलर पहचान की गई, जिसमें डीएनए बारकोडिंग पद्धति इस्तेमाल में लाई गई। बारकोडिग में डीएनए के छोटे, मानकीकृत खंडों का इस्तेमाल करके प्रजातियों की पहचान और खोज की जाती है।
प्रत्येक प्रजाति का अपना विशिष्ट बारकोड होता है। इस अध्ययन में, डीएनए बारकोडिंग में तीन चरण शामिल थे। सबसे पहले, प्रत्येक एनोफिलीज मच्छर से डीएनए निकाला गया। फिर, इस डीएनए को पोलीमरेज़ चेन रिएक्शन (पीसीआर) के साथ प्रवर्धित (एमप्लीफाइड) किया गया। उसके बाद डीएनए सिक्वेंसिंग और विश्लेषण किया गया। सैंपल लेने के बाद भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद – राष्ट्रीय जनजातीय स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान (आईसीएमआर-एनआईआरटीएच), जबलपुर को भेज दिए गए। संस्थान की एक प्रयोगशाला ने डीएनए आइसोलेशन, पीसीआर और सिक्वेंसिंग का उपयोग करके सैंपल्स को संसाधित किया। इस कदम के बाद सिंह ने मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी से ही सिक्वेंसिंग का विश्लेषण किया।
अध्ययन में दो जिलों से लिए गए 2,575 एनोफिलीज नमूनों (वयस्क और लार्वा दोनों) में से 19 प्रजातियों की पहचान की गई। सिंह कहते हैं, इनमें से दस प्रजातियां चावल के खेतों में प्रजनन कर रही थीं। विभिन्न प्रजातियां संभावित प्रजनन स्थलों का उपयोग कैसे कर रही हैं, हालांकि यह निर्धारित करने के लिए वैज्ञानिकों ने कोई पूर्ण इकोलॉजिकल लार्वा सर्वे नहीं किया था। उसके बावजूद उन्होंने चावल के खेतों में बड़ी संख्या में एनोफिलीज मैक्यूलैटस, एनोफिलीज स्यूडोविल्मोरी और एनोफिलीज जेपोरिएन्सिस को प्रजनन करते हुए पाया। वाल्टन कहती हैं, “आप कल्पना कर सकते हैं कि मेघालय के क्षेत्र में चावल के खेत काफी बड़े हिस्से में फैले हुए हैं, इसलिए वे संभावित रूप से बड़ी संख्या में मच्छरों के पनपने के लिए बड़े प्रजनन स्थल हो सकते हैं।”
मलेरिया एक पर्यावरणीय रोग
मेघालय में चावल एक प्रमुख फसल है और राज्य में चावल की खेती 100,000 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में होती है। वैज्ञानिक मध्य प्रदेश और गुजरात में किए गए अध्ययनों के साथ, दो दशकों से अधिक समय से भारत में चावल के खेतों में मच्छरों के प्रजनन और मलेरिया फैलने का अध्ययन कर रहे हैं। भारत वैश्विक स्तर पर चावल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। इसमें चावल की खेती के तहत 47 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र हैं। 2022 में प्रकाशित लैंसेट रिव्यू के अनुसार, चावल उगाने से मलेरिया का खतरा बढ़ जाता है।
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वाल्टन और सिंह के मुताबिक, अध्ययन की कुछ सीमाएं थीं, जिनमें से एक अध्ययन क्षेत्रों में मलेरिया फैलाने वाली वेक्टर प्रजातियां की पहचान न कर पाना था। इसके अलावा गांवों में लोगों के घरों के अलावा पारिस्थितिक प्रजनन आवासों से नमूने नहीं लिए गए। पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय (एनईएचयू) में जूलॉजी के प्रोफेसर एस.आर. हाजोंग हालांकि इस शोध में शामिल नहीं थे। लेकिन उनके मुताबिक यह अध्ययन “दिलचस्प” है। उन्होंने बताया कि सैंपल कलेक्शन “मेघालय के दो जिलों तक ही सीमित था”। इसलिए इस अध्ययन के निष्कर्षों को पूरे राज्य में लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि राज्य के विभिन्न जिलों में वनों की कटाई की स्थिति, भूमि उपयोग पैटर्न और जलवायु परिस्थितियां अलग-अलग हैं। उन्होंने कहा कि मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों की आबादी पर नियंत्रण पाने के लिए राज्य में मच्छर प्रजातियों के प्रजनन पैटर्न, जीवन चक्र और जीवन काल का पता लगाने के लिए आगे के अध्ययनों में मच्छर जीव विज्ञान पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
वाल्टन कहती हैं, “राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीवीबीडीसी) को अपनी निगरानी रखनी होगी और उन्हें प्रजातियों की पहचान को लेकर सजग रहना होगा। उन्हें समझना होगा बीमारी फैलाने में कौन सी मच्छर प्रजातियां शामिल हैं क्योंकि इस जानकारी के बिना मच्छरों की आबादी को नियंत्रित करना और मलेरिया को फैलने से रोकना मुश्किल हो जाएगा।” वह सार्वजनिक स्वास्थ्य, कृषि और विज्ञान में सरकारी विभागों और विशेषज्ञों के बीच एक समग्र दृष्टिकोण और आपसी बातचीत की जरूरत पर भी जोर देती हैं। वह कहती हैं, “मलेरिया एक पर्यावरणीय बीमारी है और हमें इस बारे में सोचना चाहिए कि जैव विविधता और लोगों को सेहतमंद बनाए रखने के लिए खाद्य उत्पादन के लिए पर्यावरण का टिकाऊ तरीके से इस्तेमाल कैसे करें।”
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बैनर तस्वीर: मेघालय के री भोई जिले में धान के खेत। मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों की प्रजातियां इस क्षेत्र में संरचना बदल रही हैं और चावल के खेतों में तेजी से प्रजनन कर रही हैं। तस्वीर-वंदना के.