- बढ़ती गर्मी और अनियमित बारिश ने मिट्टी के बर्तन बनाने वाले ऐसे पारंपरिक कुम्हार जो कच्चे माल के लिए प्रकृति पर निर्भर होते हैं, के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं।
- महँगी लागत और मशीन से बने बर्तनों की वजह से बढ़ती प्रतिस्पर्धा की वजह से कई कुम्हार या तो सिलाई या ईंट भट्टों में काम कर रहे हैं।
- विशेषज्ञों के अनुसार सहकारी समितियों का गठन और इस पारंपरिक शिल्प की आय को बढ़ावा देने से इसकी विरासत को बचाया जा सकता है।
मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के रानापुर शहर का कुम्हार मोहल्ला घरों के सामने सजे मिट्टी के बर्तनों के लिए जाना जाता है। लेकिन इस मोहल्ले की अंदरूनी गलियों में जाते हुए इन बर्तनों की चमक फीकी पड़ने लगती है। कुछ घर जो पहले काम लगे कुम्हारों की आवाजों से गूंजा करते थे, अब बंद पड़े हैं। यही अंतर एक समय लोगों की आजीविका के साधन रहे मिट्टी के बर्तनों के अस्तित्व के विलुप्त हो जाने की कहानी दर्शाता है। बहुत से घरों में बर्तनों की कतारों की जगह सिलाई मशीन ने ले ली है।
यह कहानी सिर्फ रानापुर की नहीं, बल्कि मध्य प्रदेश के अलीराजपुर और झाबुआ जिलों के कई कस्बों की है। गुजरात की सीमा से लगे इन दोनों जिलों में मिट्टी के बर्तन एक सांस्कृतिक आधारशिला रहे हैं। इन जिलों और आसपास के इलाकों में रहने वाले भील जनजाति के लोग पारम्परिक तौर से अपने दैनिक जीवन और धार्मिक प्रथाओं के लिए मिट्टी के बर्तनों पर निर्भर रहे हैं। यहाँ के गावों में भीलों के साथ रहने वाला प्रजापति समुदाय बर्तन बनाने का काम करता आया है।
पुराने ज़माने में ये कारीगर अपने हाथ के बने मटकों और बर्तनों के बदले में आदिवासी समुदाय से अनाज और जरूरत के दुसरे सामान का आदान प्रदान करते थे। हालांकि बदलती जलवायु, आर्थिक कठिनाइयों और मशीन से बने मिट्टी के बर्तनों के आने के कारण कई परिवारों के लिए बर्तन बनाने का काम एक आजीविका के रूप में बहुत कठिन हो गया है।
बढ़ती गर्मी और कम होती रूचि
मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए गर्मी के महीने बहुत ही उपयुक्त होते हैं, लेकिन अब गर्मी में मौसम में तापमान असहनीय हो गया है। भारत में पिछले साल गर्मी के मौसम में तापमान अपने चरम पर था।
मिट्टी के बर्तन बनाने में तकरीबन सात चरण होते हैं – मिट्टी लाना, मिट्टी तैयार करना, बर्तन बनाना, धूप में सुखाना, रंगना, पकाना और बेचना। इनमे से पांच चरणों का काम बाहर धूप में किया जाता है।
“तपती धूप में काम करना अब मुश्किल होता जा रहा है। हम तकरीबन सात से आठ घंटे धूप में काम करते हैं। बढ़ती गर्मी से न सिर्फ हमारे स्वास्थ्य पर असर पड़ता है बल्कि इससे मटकों की गुणवत्ता भी ख़राब होती है,” अलीराजपुर के बोरझड़ गांव के एक कुम्हार, नानुजी प्रजापति (36), ने बताया।रानापुर की गलियों में सजे मिट्टी से बने बर्तन और कलाकृतियां। तस्वीर – ऐश्वर्या मोहंती।
“मिट्टी को स्थिर रखने के लिए एक आदर्श तापमान की आवश्यकता होती है, हम मिट्टी में पानी उस ही हिसाब से मिलाते हैं। लेकिन गर्मी का हर दिन नया रिकॉर्ड बन रहा है ऐसे में मिट्टी और पानी के मिश्रण का अंदाजा ठीक से नहीं बैठ पाता और बर्तन कच्चे रह जाते हैं,” उन्होंने बताया।
नानुजी ने 12 साल की उम्र में उनके पिता को लकवा मार जाने के बाद बर्तन बनाने का काम शुरू किया था। लेकिन वो नहीं चाहते कि उनके बाद उनका बेटा इस पेशे को अपनाये। “मेरे पिता नहीं चाहते थे कि मैं यह काम करूं, लेकिन मेरे पास और कोई चारा नहीं था। लेकिन मेरे बेटे के पास विकल्प है। मैं नहीं चाहता कि वह धूप में अपना पसीना बहाये और उसके बाद भी उसके पास घर चलाने के पैसे न हों,” उन्होंने कहा।
बारिश के मौसम काम और ज़्यादा प्रभावित होता है, नमी और बारिश के कारण काम बंद अधिकतर बंद रहता है। “मानसून आने के बाद, हम अपने बर्तनों को सुखाने के लिए बाहर नहीं रख सकते हैं, न ही उन्हें भट्टियों में नहीं पका सकते हैं। लेकिन अब, बारिश या तो देरी से हो रही है या बेमौसम हो रही है, जिससे काम करना और भी मुश्किल हो गया है,” रानापुर की जयंतीबाई प्रजापति (40) कहती हैं।
“अक्सर हम ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां लोगों की आजीविका तेजी से खतरे में आ रही है, जलवायु परिवर्तन के जमीनी प्रभावों को नजरअंदाज कर देते हैं। कुम्हार समुदायों वाले गांवों में, परिवार पारंपरिक रूप से मिट्टी के बर्तनों के उत्पादन पर केंद्रित एक पारिस्थितिकी तंत्र बनाते हैं। हालांकि, बदलते मौसम और बाज़ारों के केंद्रीकरण ने उपलब्ध मिट्टी के बर्तनों के प्रकारों पर गहरा प्रभाव डाला है। मिट्टी के बर्तन बनाने की पूरी प्रक्रिया काफी हद तक प्राकृतिक कच्चे माल पर निर्भर करती है, जिससे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है,” असर सोशल इम्पैक्ट एडवाइजर्स में स्टेट क्लाइमेट एक्शन के प्रमुख मुन्ना झा ने कहा।
“पानी की कमी, बेमौसम बारिश और बढ़ता तापमान मिट्टी को भिगोने और सुखाने जैसे महत्वपूर्ण कदमों को प्रभावित करता है। इन कारणों से मिट्टी में दरारें पड़ सकती हैं, जिससे कारीगरों के लिए यह काम और भी कठिन हो जाएगा। इस ही वजह से कुम्हार समुदाय के कई लोगों के लिए इस पारंपरिक शिल्प को जारी रखना मुश्किल हो रहा है। ऐसे में कुछ लोग पलायन कर रहे हैं या अन्य व्यवसायों को अपना रहे हैं, ”उन्होंने आगे बताया।मेघनगर में एक अधेड़ और अपने परिवार का आखिरी कुम्हार काम करते हुए। तस्वीर – ऐश्वर्या मोहंती।
बढ़ती लागत
मिट्टी और पानी बर्तन बनाने के लिए मुख्य कच्चा माल है। इसके लिए मिट्टी करीब 30 किलोमीटर के आसपास के गावों के खेतों से लाई जाती है। हालांकि पिछले कुछ सालों में खेतों की मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट आई है, लेकिन जानकारों का कहना है कि यह बर्तन बनाने के लिए उपयुक्त है।
पहले कुम्हार गधों पर मिट्टी ढोकर लाते थे। गधों को 150 किलोमीटर दूर उज्जैन के मेले से खरीदा जाता था। हालाँकि इन मेलो में अब गधों का व्यापार नहीं होता। कुछ परिवारों के पास अभी भी गधे हैं, लेकिन अधिकतर लोग मिट्टी लाने के लिए ट्रैक्टर किराए पर लेते हैं। ट्रैक्टर से करीब 30 किलोमीटर से मिट्टी लाने का खर्च करीब 1500 से 2500 रुपए आता है।
एक बार में लाई गई मिट्टी लगभग 200 बर्तन बनाने के काम आती है जिनकी कीमत 50 रुपए से 200 रुपए तक होती है। इसके अलावा कुम्हारों को लकड़ी जैसे कच्चे माल की भी जरूरत होती है जिसकी लागत करीब 500 रुपए प्रति क्विंटल होती है। उन्हें रजाई की भी जरूरत होती है जो वे पड़ोसी राज्य गुजरात के मोडासा से खरीदते हैं।
“हम कच्चे माल पर साल में करीब 1.5 लाख से 2 लाख रुपए खर्च करते हैं। सारा माल बिकने पर भी हम शायद ही कोई मुनाफा कमा पाते हैं,” रानापुर के सबुर प्रजापति (50) ने कहा। अपने तीन भाइयों में से अब सिर्फ वो ही इस काम को कर रहे हैं, उनके भाइयों ने अब अलग पेशे अपना लिए हैं।
“मैं अपने पिता की विरासत को संभाले रखना चाहता था। लेकिन अगर यह आपके परिवार का भी पेट नहीं भर सकता है तो हम इसे कैसे चालू रख सकते हैं? मेरे भाइयों ने बेहतर और सुरक्षित नौकरियाँ चुनीं। मेरे बेटे, जो अब स्कूल खत्म कर रहे हैं, भी आगे पढ़कर सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन करेंगे। मैंने उन्हें मिट्टी के बर्तन बनाने का कौशल नहीं सिखाया है और भविष्य में भी ऐसा नहीं करना चाहता,” उन्होंने कहा।मेघनगर के अनिल प्रजापति अपने चाक पर गुल्लक बनाते हुए। तस्वीर – ऐश्वर्या मोहंती।
सबुर के परिवार की ही तरह, कई लोगों ने या तो अपना काम कम कर दिया है या उसे पूरी तरह से बंद करके सिलाई या ईंट भट्टों जैसे बेहतर कमाई वाले पेशे अपना लिए हैं।
मशीन से बने बर्तन और कम कमाई
वैश्वीकरण के इस दौर में मशीनों से बने सस्ते सामान ने घरेलु कारखानों में बनने वाले परम्परागत सामान की जगह ले ली है।
इन इलाकों में भी कुछ लोगों अब गुजरात से आये मशीन से बने बर्तनों का इस्तेमाल करते हैं। संगठित क्षेत्र के मशीन से बने सस्ते उत्पाद असंगठित घरेलू उद्योगों के मिट्टी के बर्तनों के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं।
“मैं दोनों तरह का सामान बेचता हूं, लेकिन मशीन से बने सामान हमारे लिए सस्ते होते हैं और हमारी ओर से कोई प्रयास किए बिना बेहतर कीमतों पर बिकते हैं। मैंने हाथ से बने मिट्टी के बर्तनों को केवल कस्टम ऑर्डर तक ही सीमित रखा है। मैं जल्द ही अपनी वर्कशॉप बंद करने की योजना बना रहा हूं, क्योंकि मेरे बाद कोई भी इस काम को सीखने या जारी रखने को तैयार नहीं है,”झाबुआ के मेघनगर के अनिल प्रजापति (42) ने कहा।
हालाँकि, एक तबका ऐसा भी है जो इस परंपरा को जीवित रखने की कोशिश कर रहा है। “यदि आप आमतौर पर बाजार में उपलब्ध मिट्टी के बर्तनों को देखें तो वो बहुत महंगे हैं। हालांकि, इसका लाभ कारीगरों को समान रूप से नहीं मिलता है, और इसका मुख्य कारण खरीददारों में जागरूकता की कमी है। अगर ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को मिट्टी के बर्तनों के रखरखाव और सही उपयोग के बारे में पता हो तो वे सीधे कुम्हारों से खरीदारी करना शुरू कर देंगे,” महुआबाण लोक फाउंडेशन की संस्थापक जया जैन ने कहा। उनका फाउंडेशन मिट्टी पर आधारित लोक कला को संरक्षित करने और कारीगरों को शहरी उपभोक्ताओं के साथ जोड़ने की दिशा में काम करता है।
विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि कुम्हार समुदायों के लिए सहकारी समितियों और और राज्य द्वारा प्रोत्साहन की कमी ने ग्रामीण आजीविका को और अधिक संकट में डाल दिया है।रानापुर में बिक्री के लिए बर्तनों को सजाती एक महिला। तस्वीर – ऐश्वर्या मोहंती।
“वर्तमान में, मिट्टी के बर्तनों का बाजार सीमित है जो इसे केवल इसके दिखावट के लिए खरीदता है। एक उचित स्थानीय बाज़ार के अभाव में इसकी लागत बढ़ जाती है। कुम्हारों के लिए हर कच्चा माल अलग अलग जगह से खरीदने से लागत और बढ़ जाती है। इसके समाधान और ग्रामीण आजीविका को बचाने के लिए सरकार को कदम उठाना चाहिए और सब्सिडी देनी चाहिए,” पारिस्थितिकी कार्यकर्ता राहुल बनर्जी ने कहा। वे इस जिले में पिछले दो दशकों से आजीविका, पारिस्थितिकी और समुदायों के सांस्कृतिक ज्ञान के संरक्षण पर काम कर रहे हैं।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 22 अगस्त, 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: बर्तनों को इकट्ठा करके धूप में सुखाया जाता है। लगातार बढ़ती गर्मी मजदूरों के लिए असहनीय होती जा रही है और इससे बर्तनों की गुणवत्ता पर भी प्रभाव पड़ रहा है। तस्वीर – ऐश्वर्या मोहंती।