- मैक्रोप्लास्टिक प्रदूषण से होने वाले उत्सर्जन पर एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि भारत हर साल लगभग 9.3 मिलियन टन मैक्रोप्लास्टिक कचरे का उत्सर्जन करता है। भारत के बाद नाइजीरिया, इंडोनेशिया और चीन का नंबर आता है।
- मैक्रोप्लास्टिक उत्सर्जन का अर्थ है – 5 मिलीमीटर से बड़े प्लास्टिक के टुकड़ों का ऐसी जगहों से निकलकर, जहां उसे नियंत्रित किया जा रहा था (जैसे कूड़ेदान, कचरा जमा करने की जगह, भले ही वह ठीक से प्रबंधित न हो) ऐसी जगह पहुंच जाना जहां उन पर कोई नियंत्रण नहीं होता है।
- इस अध्ययन में दुनिया भर की 50,702 नगर पालिकाओं में उत्सर्जन के हॉटस्पॉट की पहचान की गई। यह उत्सर्जन जमीन पर प्लास्टिक कचरे के पांच स्रोतों से होता है।
- ‘ग्लोबल साउथ’ में कुल प्लास्टिक कचरा उत्सर्जन का 68% हिस्सा उस कचरे से आता है जिसे इकट्ठा नहीं किया जाता है।
नेचर जर्नल में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि प्लास्टिक प्रदूषण से होने वाला उत्सर्जन भारत में सबसे अधिक है। दुनिया भर में होने वाले कुल प्लास्टिक उत्सर्जन का लगभग पांचवां हिस्सा (करीब 20%) भारत से ही होता है। लीड्स यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए इस अध्ययन ने ‘मैक्रोप्लास्टिक प्रदूषण की पहली वैश्विक सूची’ बनाई है।
स्टडी के अनुसार, प्लास्टिक प्रदूषण से होने वाले उत्सर्जन के सबसे बड़े कारण हैं – ‘इकट्ठा न किया गया और बिना रोक-टोक के जलाया जाने वाला प्लास्टिक कचरा’। इस सूची में भारत सबसे ऊपर है, जो हर साल लगभग 9.3 मिलियन टन (MT) मैक्रोप्लास्टिक कचरे का उत्सर्जन करता है। इसके बाद नाइजीरिया (3.5 MT), इंडोनेशिया (3.4 MT), और चीन (2.8 MT) का नंबर आता है।
इस अध्ययन के मुताबिक, मैक्रोप्लास्टिक उत्सर्जन का अर्थ है – 5 मिलीमीटर से बड़े प्लास्टिक के टुकड़ों का ऐसी जगहों से निकलकर, जहां उसे नियंत्रित किया जा रहा था (जैसे कूड़ेदान, कचरा जमा करने की जगह, भले ही वह ठीक से प्रबंधित न हो) ऐसी जगह पहुंच जाना जहां उन पर कोई नियंत्रण नहीं होता है। यह उत्सर्जन को दो श्रेणियों में वर्गीकृत करता हैः मलबा: यानी प्लास्टिक के वो टुकड़े जो 5 मिमी से बड़े हैं और कचरे के रूप में यहां-वहां फैले हैं और दूसरा है कचरे को खुले में बिना नियंत्रण के जलाना।
अध्ययन की कार्यप्रणाली के अनुसार, भारत अपने कचरा संग्रहण कवरेज का अत्यधिक अनुमान लगाता रहा है और अपनी आधिकारिक कचरा उत्पादन दर को कम आंकता रहा है। लेखकों का मानना है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि आधिकारिक आंकड़ों में ग्रामीण क्षेत्रों, इकट्ठा न किए गए कचरे का खुले में जलाना या फिर अनौपचारिक रूप से रीसाइकिल किया जाने वाले कचरे को शामिल नहीं किया जाता है।
बढ़ता प्लास्टिक कचरा
इस अध्ययन का पूरा फोकस सिर्फ मैक्रोप्लास्टिक उत्सर्जन पर था। लेखकों का कहना है ” हालांकि प्लास्टिक प्रदूषण कई रूपों में मौजूद है (मैक्रोप्लास्टिक मलबा, वायु प्रदूषण, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, रसायन और माइक्रोप्लास्टिक), लेकिन इन सभी का एक ही अध्ययन में मात्रात्मक मूल्यांकन करना अव्यावहारिक रहता।”
अध्ययन में कंस्ट्रक्शन और डेमोलिएशन, औद्योगिक प्लास्टिक अपशिष्ट व सीवेज ट्रीटमेंट, कपड़ा उद्योग, बिजली व इलेक्ट्रॉनिक उपकरण अपशिष्ट और समुद्र में उत्पन्न अपशिष्ट से होने वाले उत्सर्जन को शामिल नहीं किया गया है।
प्लास्टिक के पूरे जीवन चक्र (शुरू से अंत तक) को समझने के लिए हमें इसके तीन हिस्सों को जानना होगा-अपस्ट्रीम, मिडस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम। यह अध्ययन प्लास्टिक प्रदूषण के सिर्फ आखिरी हिस्से पर ध्यान देता है, जिसे ‘डाउनस्ट्रीम’ कहते हैं। प्लास्टिक जीवनचक्र की भाषा में, ‘अपस्ट्रीम’ शब्द का प्रयोग आमतौर पर कच्चे माल के निष्कर्षण (जैसे तेल और गैस) और प्लास्टिक उत्पादन के चरण से संबंधित गतिविधियों के लिए किया जाता है। ‘मिडस्ट्रीम गतिविधियों’ में डिजाइन, निर्माण, पैकेजिंग, वितरण और उपयोग शामिल हैं और ‘डाउनस्ट्रीम गतिविधियां’ प्लास्टिक के इस्तेमाल के बाद बेकार हो जाने के बाद उसके प्रबंधन पर केंद्रित होती हैं, जैसे कि पृथक्करण (अलग करना), संग्रहण (इकट्ठा करना), छंटाई, रीसाइक्लिंग और निपटान।
इस अध्ययन में एक बॉटम-अप तरीका अपनाया गया है, यानी नगरपालिका स्तर पर जानकारी लेकर यह पता लगाया गया है कि प्लास्टिक कचरा कैसे फैलता है। यह घरों, कमर्शियल, बिजनेस, छोटे व्यवसायों, ऑफिस बिल्डिंग और इंस्टीट्यूट (स्कूल, अस्पताल, सरकारी भवन) से निकलने वाले कचरे पर ध्यान देता है।
मशीन लर्निंग और संभाव्य सामग्री प्रवाह विश्लेषण का इस्तेमाल करके, इस अध्ययन ने दुनिया भर की 50,702 नगर पालिकाओं में उन जगहों (हॉटस्पॉट) की पहचान की है, जहां से सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा जमीन के रास्ते पर्यावरण में फैल रहा है यानि असंग्रहित कचरा, लिटरिंग, कचरा इकट्ठा करने की व्यवस्था, अनियंत्रित निपटान और छंटाई से निकले अपशिष्ट (रीसायकलिंग सिस्टम)।
शोधकर्ताओं ने इस अध्ययन में विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र के डेटा सहित चार अलग-अलग वैश्विक डेटासेट और दो राष्ट्रीय डेटाबेस का उपयोग करके, वैश्विक कवरेज वाला एक शहर-स्तरीय ठोस अपशिष्ट प्रबंधन डेटाबेस बनाया। लेखकों ने कहा, “चीन और इंडोनेशिया के लिए सैंपल (नमूने) का आकार बढ़ाने के लिए दो राष्ट्रीय डेटाबेस का उपयोग किया गया, जहां नगरपालिका स्तर के डेटा की कमी थी। इन्हें शामिल करने से मशीन लर्निंग मॉडल के लिए एक अधिक प्रतिनिधिक सैंपल बनाना संभव हुआ।”

एकत्रित न किया गया और जलाया गया प्लास्टिक कचरा भारी उत्सर्जन का कारण
इस अध्ययन के लेखकों जोशुआ कॉटम, एड कुक और कोस्टास वेलिस के अनुसार, “शहर या नगरपालिका के स्तर पर अध्ययन का मॉडल बनाने से हमें उसी स्तर पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलती है, जहां असल में कचरे का प्रबंधन होता है और अपशिष्ट डेटा मापा जाता है। शहर/नगरपालिका में कचरे की मात्रा का पता लगाना वहीं से शुरू होता है, जहां कचरा पैदा होता है।”
लेखकों ने बताया, “ग्लोबल साउथ में, कचरा उत्पादन का अनुमान अक्सर निपटान स्थलों (डिस्पोजल साइट्स) में प्रवेश करने वाले ट्रकों की गिनती करके और कुछ अनुमानों के आधार पर लगाया जाता है। यह तरीका गलत तो है ही, साथ ही इसमें एक और बड़ी कमी है।” वे आगे कहते हैं, “इस तरीके में यह पता नहीं चल पाता कि कचरा और किन-किन तरीको से निपटाया जा रहा है।” उदाहरण के लिए, जो कचरा इकट्ठा नहीं किया गया है उसे अक्सर जला दिया जाता है, डंप कर दिया जाता है, जलमार्गों में फेंक दिया जाता है या भूमि की सतह पर जमा कर दिया जाता है। अनौपचारिक रीसाइकलिंग सेक्टर भी मूल्यवान सामग्री एकत्र करता है, कभी-कभी उस घर या व्यवसाय के परिसर से निकलने से पहले ही, जहां वे उत्पन्न हुए थे।”
कुल मिलाकर, अध्ययन में पाया गया कि ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ देशों के बीच प्लास्टिक कचरे के उत्सर्जन में अंतर बहुत ज्यादा है। जहां ग्लोबल नॉर्थ में कूड़ा इधर-उधर फेंकना (लिटरिंग) एक बड़ी समस्या है, वहीं ग्लोबल साउथ में इकट्ठा न किया गया कचरा और अनियंत्रित दहन (जलाना) बड़ी समस्याएं थीं। अध्ययन यह भी इंगित करता है कि ग्लोबल साउथ में इकट्ठा न किया गया कचरा सभी प्लास्टिक कचरा उत्सर्जन का 68% और सभी मलबा उत्सर्जन का 85% हिस्सा है।
लेखकों के मुताबिक, प्लास्टिक उत्सर्जन के तंत्र को समझना और प्लास्टिक प्रदूषण की प्रकृति, पैमाने और कारणों के बारे में जानकारी प्राप्त करना, राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तरों पर हमारे पर्यावरण से प्लास्टिक को खत्म करने के लिए साक्ष्य-आधारित कार्य योजनाएं बनाने में मदद करेगा। वे आगे कहते हैं, “हमारा अध्ययन उस स्थानिक स्थान पर प्रकाश डालता है जहां प्लास्टिक मानव-नियंत्रित प्रणालियों से निकलकर पर्यावरण में जाता है। हमारे आंकड़े देशों को अपने संसाधनों को उन जगहों पर लक्षित करने में सक्षम बनाएंगे जहां समस्याएं सबसे गंभीर हैं।”

अध्ययन में कथित कमियां
प्लास्टिक प्रदूषण के खिलाफ काम करने वाले एक वैश्विक गैर-लाभकारी संगठन ‘ब्रेक फ्री फ्रॉम प्लास्टिक’ (BFFP) ने इस अध्ययन की आलोचना की है। BFFP का आरोप है कि यह अध्ययन प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या के लिए ‘ग्लोबल साउथ’ को दोषी ठहराता है,जबकि इस समस्या को बढ़ाने में ‘ग्लोबल वेस्ट ट्रेड’ की भूमिका को नजरअंदाज करता है। इस संगठन ने अपनी वेबसाइट पर जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि ‘बेसल एक्शन नेटवर्क’ (BAN) के आंकड़े दिखाते हैं कि मलेशिया, इंडोनेशिया, भारत और अन्य कम औद्योगिक देश उन शीर्ष जगहों में शामिल हैं, जहां ‘ग्लोबल नॉर्थ’ से उत्पन्न प्लास्टिक कचरा भेजा जाता है। फिर इन्हीं देशों पर शीर्ष प्लास्टिक प्रदूषक होने का दोष मढ़ दिया जाता है।
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लेखकों ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “हमारा ‘बॉटम-अप’ तरीका हमें शहर/नगरपालिका स्तर पर होने वाली जटिल प्रक्रियाओं को ज्यादा सटीकता से समझने में मदद करता है। चूंकि यह तरीका शहर के स्तर पर काम करता है, इसलिए इसमें राष्ट्रीय स्तर की चीजों को शामिल करना संभव नहीं है, जैसे – देशों में कचरे का आयात-निर्यात या देश में कुल प्लास्टिक उत्पादन।” उन्होंने समझाया कि उनके अध्ययन में पहले ही बताया दिया गया था कि इसमें आयात-निर्यात को शामिल नहीं किया गया है। उन्होंने माना कि ऐसा करने से शायद कुछ अमीर देशों से होने वाले उत्सर्जन का आंकड़ा कम लग सकता है। वे कहते हैं, “हमने ऐसे आंकड़े भी पेश किए हैं जो साफ दिखाते हैं कि अगर कचरे के आयात-निर्यात से होने वाले उत्सर्जन को शामिल कर भी लिया जाए, तो भी दुनिया भर में होने वाले कुल प्लास्टिक उत्सर्जन की तुलना में इसका असर बहुत कम होगा।” उन्होंने आगे कहा, “हम जानते हैं कि इंटरनेशनल पोल्यूटेंट एलिमिनेशन नेटवर्क (IPEN) ने रिसर्च की है जो बताती है कि प्लास्टिक कचरे के निर्यात के आधिकारिक आंकड़े (HS3915 कोड वाले) पूरी तस्वीर नहीं दिखाते। लेकिन, अगर हम उनके मॉडल के अनुमान के अनुसार बढ़ी हुई मात्रा को मान भी लें, तब भी निर्यात से होने वाले कुल उत्सर्जन के बोझ में कोई खास बढ़ोतरी नहीं होगी।”
अध्ययन के लेखक दृढ़ता से अपने शोध के उपयोग की सिफारिश करते हैं ताकि ग्लोबल नॉर्थ (उदाहरण के लिए, विस्तारित उत्पादक जिम्मेदारी स्कीम के माध्यम से प्लास्टिक के उत्पादन और खुदरा बिक्री में शामिल सभी लोग) से आवश्यक संसाधनों को जुटाया जा सके। बीएफएफपी की आलोचना के जवाब में उन्होंने कहा, “हम दृढ़ता से सुझाव देंगे कि बीएफएफपी पूरी तरह से अपने दृष्टिकोण को संशोधित करे और देशों, नागरिकों, जमीनी स्तर के संगठनों और कानूनी विचारों को नए अंतर्दृष्टि और बड़े पैमाने पर प्लास्टिक प्रदूषण को कम करने के लिए तंत्र प्रदान करने के लिए हमारे शोध का उपयोग करे।”
वो आगे कहते हैं, “काफी सोचने-समझने के बाद, हम मानते हैं कि हमारी शुरुआती प्रेस विज्ञप्ति के कुछ हिस्सों को और बेहतर तरीके से लिखा जा सकता था। हम सटीकता को बहुत महत्व देते हैं और इसलिए हमने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में सुधार किया है।” (शुरुआती प्रेस विज्ञप्ति में ‘ग्लोबल साउथ’ देशों से संबंधित वाक्यों में लिखने की कुछ गलतियों को ठीक करने के लिए अपडेट किया गया था )
यह अध्ययन ऐसे समय में आया है जब प्लास्टिक प्रदूषण पर एक वैश्विक संधि पर 5 नवंबर, 2024 को एक वार्ता होने वाली है। इस अध्ययन का वार्ता पर प्रभाव पड़ने की संभावना है।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 28 अक्टूबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: कचरा इकट्ठा करने वाला ट्रक। तस्वीर- अर्ने हकेलहेम, विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 3.0)