- आईआईटी खड़गपुर के अध्ययन में सामने आया कि सतही ओजोन प्रदूषण से गेहूं, चावल और मक्का की उपज को भारी नुकसान हो सकता है।
- जलवायु परिवर्तन ओजोन के प्रभाव को और बढ़ा रहा है, जिससे स्थिति और गंभीर हो रही है।
- इस अध्ययन में सामने आया कि साल 2050 के बाद गेहूं की उपज में 20% तक की गिरावट की आशंका ह। इसके अलावा धान और मक्के की फसल को भी नुकसान हो सकता चावल और मक्का में भी नुकसान की आशंका है।
- समाधान के तौर पर वैज्ञानिक सख्त प्रदूषण नियंत्रण, स्वच्छ ऊर्जा और पर्यावरण के अनुकूलन रणनीतियाँ अपनाने की सुझाव दे रहे हैं।
असामान्य मौसम की वजह से हर साल गेहूं की खेती करने वाले किसान कई चुनौतियों का सामना कर रहे है, लेकिन भविष्य में फसल के साथ चुनौतियां बढ़ने की वाली है। आईआईटी खड़गपुर के एक नए अध्ययन (Surface ozone pollution-driven risks for the yield of major food crops under future climate change scenarios in India) के मुताबिक फसलों के लिए सतही ओजोन प्रदूषण एक नई चुनौती पेश करने वाला है। आईआईटी खड़गपुर की सेंटर फॉर ओशन, रिवर, एटमॉस्फियर एंड लैंड (कोरल) की ओर से हुए नए अध्ययन में सामने आया है कि साल 2050 के बाद गेहूं की उपज में लगभग 20% की गिरावट हो सकती है। इस अध्ययन में मॉडल्स का उपयोग कर भविष्य की फसल उपज का अनुमान लगाया गया है। यदि प्रदूषण में कमी नहीं लाई गई, तो फसलों में भारी नुकसान हो सकता है। आईआईटी कानपुर के कोरल के असोसिएट प्रोफेसर जयनारायणन कुट्टिप्पुरथ और रिसर्च फेलो के.एस. अनघा के इस अध्ययन में चावल और मक्का की उपज में लगभग 7% की कमी की आशंका जताई गई है।
ओजेन की मात्रा को मापने के लिए AOT40 नाम का एक तरीका इस्तेमाल किया गया है। इससे पता चलता है कि ओजोन से फसल की उपज कितनी कम होगी। AOT40 का मतलब है, फसल के बढ़ने के समय में, 40 पार्ट्स प्रति बिलियन (या 0.04 पार्ट्स प्रति मिलियन) से ज्यादा ओजोन जमा होना।

सतही ओजोन का खतरा
ओजोन वातावरण में तब बनता है जब नाइट्रोजन ऑक्साइड्स और वोलाटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड्स जैसे प्रदूषक सूर्य के प्रकाश में आपस में प्रतिक्रिया करते हैं। ओजोन पौधों में छोटे छिद्रों (स्टोमेटा) के माध्यम से प्रवेश करता है और अंदर रिएक्टिव ऑक्सीजन स्पेसीज (ROS) बनाता है, जो प्रकाश संश्लेषण के लिए जरूरी एंजाइम को नुकसान पहुंचाता है। इससे पौधों की वृद्धि और उत्पादन क्षमता में गिरावट आती है। रिएक्टिव ऑक्सीजन स्पेसीज, ऑक्सीजन के रासायनिक तत्व होते हैं जो पौधों और जानवरों की कोशिकाओं में सामान्य प्रक्रियाओं के दौरान बनते हैं, जैसे कि प्रकाश संश्लेषण। जब इनकी मात्रा अधिक हो जाती है, तो ये कोशिकाओं को नुकसान पहुंचा सकते हैं। ROS अधिक होने से पौधों के अंदर के महत्वपूर्ण एंजाइम्स और अन्य संरचनाओं को नुकसान पहुंच सकता है, जिससे पौधों की वृद्धि रुक सकती है और फसल का उत्पादन कम हो सकता है।
अध्ययन से यह भी पता चला कि कौन से क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं। उच्च उत्सर्जन परिदृश्यों में, इंडो-गैंगेटिक मैदान और मध्य भारत में ओजोन का स्तर सुरक्षित सीमा से छह गुना अधिक हो सकता है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि जलवायु परिवर्तन सतही ओजोन के स्तर को और बढ़ा सकता है। इस प्रभाव को ओजोन-क्लाइमेट पैनल्टी कहा गया है, यानी जैसे-जैसे जलवायु बदलेगी, ओजोन प्रदूषण का असर और गंभीर होगा।

गेहूं सबसे अधिक प्रभावित क्यों?
अन्य फसलों की तुलना में गेहूं सतही ओजोन से ज्यादा प्रभावित होता है। प्रो. कुट्टिप्पुरथ ने मोंगाबे हिन्दी से बातचीत में बताया, “गेहूं के पौधे ओजोन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। गेहूं की बढ़ने की मुख्य अवधि सर्दी और प्री-मानसून में होती है, जब ओजोन का स्तर उच्च होता है। वहीं, चावल और मक्का मानसून के दौरान बोए जाते हैं, जिससे उन्हें ओजोन के असर से कुछ राहत मिलती है।”
इंडो-गैंगेटिक (सिंधु-गंगा) क्षेत्र में, हवा की स्थिरता और जलवायु से जुड़ी स्थितियां ओजोन प्रदूषण को और बढ़ाती हैं। भविष्य में तापमान और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि से यह खतरा और भी बढ़ सकता है।
ओजोन प्रदूषण भारत के सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को भी खतरे में डाल सकता है। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (IIT) खड़गपुर की रिपोर्ट के अनुसार, “तेजी से बढ़ते वायु प्रदूषण, जनसंख्या वृद्धि और क्षेत्रीय जलवायु परिवर्तन की स्थिति में, 2030 तक संयुक्त राष्ट्र के SDG 1 (गरीबी उन्मूलन) और SDG 2 (भूख से मुक्ति) को प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।”
कृषि पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
आईआईटी खड़गपुर के अध्ययन के अलावा कई अध्ययन कृषि पर जलवायु परिवर्तन की वजह से उत्पादन पर असर की आशंका जता चुके हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि पर पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) की एक नेटवर्क परियोजना ‘जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय नवाचार’ (एनआईसीआरए) ने एक आकलन किया। आईसीएआर ने जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के प्रोटोकॉल के अनुरूप 651 मुख्य रूप से देशभर के कृषि प्रधान जिलों में से 573 के जोखिम और असुरक्षा का आकलन किया। इनमें से 109 जिलों को ‘अत्यधिक’ और 201 जिलों को ‘काफी अधिक’ संवेदनशील की श्रेणी में रखा गया। कंप्यूटर सिमुलेशन मॉडलिंग अध्ययनों से पता चला है अगर समय रहते जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने पर काम नहीं हुआ तो नतीजे खराब होंगे। जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 में वर्षा आधारित धान की पैदावार में 20 प्रतिशत और 2080 में 47 प्रतिशत की कमी आ सकती है। सिंचाई आधारित धान की पैदावार 2050 में 3.5 प्रतिशत और 2080 में 5 प्रतिशत, गेहूं की पैदावार 2050 में 19.3 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। इस अध्ययन के मुताबिक 2080 तक गेहूं की पैदावार 40प्रतिशत तक कम हो सकती है। खरीफ मक्का की पैदावार 2050 और 2080 में क्रमशः 18 से 23 प्रतिशत तक घटने की आशंका है।

कार्बन बढ़ने से उपज में फायदा लेकिन तापमान से नुकसान
भोपाल स्थित आईसीएआर- भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान की प्रधान वैज्ञानिक संगीता लेंका ने मोंगाबे हिन्दी से बातचीत में बताया कि उनका अपना अध्ययन भी जलवायु परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव दिखा रहा है। लेंका का आईआईटी खड़गपुर के अध्ययन से कोई संबंध नहीं है। लेंका ने अपने अध्ययन में कार्बन डाइऑक्साइड और तापमान के संयुक्त प्रभाव का अध्ययन किया है। उनका शोध ओपन टॉप चैंबर (OTCs) के माध्यम से किया गया।
लेंका के शोध में सामने आया कि बढ़ी हुई कार्बन डाइऑक्साइड से गेहूं की उपज में 15% तक की वृद्धि हो सकती है और सोयाबीन की गुणवत्ता में सुधार हो सकता है। हालांकि, तापमान में वृद्धि से गेहूं की उपज में 6–20% और सोयाबीन की उपज में 30–56% की गिरावट हो सकती है। लेंका के शोध में कार्बन डाइऑक्साइड, तापमान और नाइट्रोजन के विभिन्न स्तरों के तहत गेहूं और सोयाबीन पर तीन साल के अध्ययन शामिल हैं।
वैश्विक स्तर पर असर
भारत दुनिया का एक प्रमुख खाद्य आपूर्तिकर्ता है। यदि भारत की कृषि उत्पादन में गिरावट आती है, तो इससे वैश्विक खाद्य आपूर्ति, कीमतें और स्थिरता प्रभावित हो सकती है।
आईआईटी खड़गपुर का अध्ययन कहता है, “फसल उत्पादन में गिरावट से वैश्विक स्तर पर खाद्य कीमतें बढ़ सकती हैं, आपूर्ति में कमी आ सकती है और उन देशों में अस्थिरता पैदा हो सकती है जो भारत से चावल और गेहूं का आयात करते हैं।” शोध से जुड़ी कोरल की जूनियर रिसर्च फेलो केएस अनघा कहती हैं, “इस अध्ययन का महत्व केवल भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वैश्विक कृषि उत्पादन के सामने आने वाली बड़ी चुनौतियों को दर्शाता है।”
शोधकर्ता जोर देते हैं कि ओजोन प्रदूषण को कम करना न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व की खाद्य सुरक्षा के लिए जरूरी है।
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प्रदूषण कम करने के लिए उठाने होंगे सख्त कदम
प्रोफेसर कुट्टीपुरथ के मुताबिक फसलों को ओजोन से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए, सरकार और कृषि योजनाकारों को कारखानों और गाड़ियों से निकलने वाले प्रदूषण को सख्ती से नियंत्रित करना चाहिए, खासकर उन इलाकों में जहां खतरा ज्यादा है, जैसे इंडो-गंगा मैदान (IGP)।
“भारत का राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) धूल और धुएं को कम करने में तो सफल रहा है, लेकिन ओजोन बनाने वाले गैसों को सीधे नहीं रोकता, खासकर गांवों में,” वह आगे कहते हैं।
उन्होंने सुझाया कि खेती में सौर ऊर्जा जैसी साफ ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाना और डीजल पंपों का कम करना मदद कर सकता है, पर इसे पानी के सही इस्तेमाल के साथ जोड़ना जरूरी है।
फसल के बचे अवशेषों को जलाने की बजाय हैप्पी सीडर जैसी तकनीक का इस्तेमाल और गांवों में ओजोन की निगरानी बढ़ाना भी जरूरी है।

किसानों को ओजोन से बचाव के तरीके सिखाना, जैसे कि सिंचाई का समय सही करना, नुकसान को तुरंत और असरदार तरीके से कम करने में मदद करेगा।
डॉ. लेंका सुझाती हैं कि भविष्य में कृषि की उत्पादकता बनाए रखने के लिए गर्मी सहने वाली किस्मों और सही तरीके से नाइट्रोजन डालने जैसी अनुकूल रणनीतियाँ अपनानी होंगी। ये बातें भारत में जलवायु के हिसाब से स्मार्ट खेती को बेहतर बनाने के लिए बहुत जरूरी हैं।
वह कहती हैं, “हालांकि, हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि मिट्टी की उर्वरता में धीरे-धीरे गिरावट आ सकती है और ओजोन व हीटवेव जैसी समस्याएं भी बढ़ सकती हैं। इसलिए भविष्य की रणनीतियों में इन समस्याओं को भी शामिल करना चाहिए।”
“फसलों में विविधता लाना, मिट्टी को फिर से उपजाऊ बनाना, सिंचाई में कुशलता बढ़ाना और हर क्षेत्र में प्रदूषण कम करना अब देश की बड़ी प्राथमिकताएं होनी चाहिए। सतह पर बढ़ता ओजोन का खतरा इस बदलाव को और जरूरी बनाता है, जिससे हमें जल्दी से जल्दी उत्सर्जन घटाने और कृषि को मौसम के अनुसार ढालने के लिए कदम उठाने होंगे,” उन्होंने कहा।
भारत सरकार ने जलवायु परिवर्तन से कृषि पर पड़ने वाले असर से निपटने के लिए राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन (NMSA) शुरू किया है। इसमें तीन मुख्य काम शामिल हैं – वर्षा आधारित खेती को बेहतर बनाना, खेतों में पानी का सही प्रबंधन करना और मिट्टी की सेहत सुधारना।
इसके अलावा मृदा स्वास्थ्य कार्ड, जैविक खेती को बढ़ावा देने की योजनाएं, ड्रिप सिंचाई (प्रति बूंद अधिक फसल) और बांस मिशन जैसे नए कार्यक्रम भी जोड़े गए हैं।
इस मिशन का मकसद खेती को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के खिलाफ मजबूत बनाना और पूरे देश में टिकाऊ खेती के तरीके अपनाना है।
बैनर तस्वीरः मध्य प्रदेश के भिंड जिले के कृपेकापुरा गांव में खेत में काम करते किसान। तस्वीर: नरवरिया, विकिमीडिया कॉमन्स (CC-BY-SA 4.0) द्वारा।