- इस साल कोंकण के हापुस (अल्फांसो) आमों की पैदावार कम हुई है और गुणवत्ता भी खराब हो रही है।
- स्पंजी टिशू, समय से पहले फल का गिरना और इसका आकार छोटा रह जाना बड़ी चिंताएं हैं।
- कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि तापमान में लगातार बढ़ोतरी अब सामान्य हो गई है, ऐसे में जलवायु सहनशील किस्में तैयार करने के लिए हाइब्रिड तकनीकों जैसी वैज्ञानिक विधियों पर काम करना चाहिए।
महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग ज़िले के एक छोटे से गांव, कसाल में ज़मीन सूखी पड़ी है। पूरे कोंकण की तरह, कसाल में भी इस साल फरवरी से लगातार हीटवेव चल रही है। तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया है, जो सामान्य से काफी ज़्यादा है। अब्राव फर्नांडिस के घर के पीछे के आंगन में छोटे-छोटे अधपके आम गिरे हुए हैं। वहीं आम के पेड़ों पर लगे हुए फूल भी झुलसे हुए हैं।
अब्राव, भले ही रजिस्टर्ड किसान नहीं हैं, लेकिन पहले वो आम बेचते थे।
“तब आम खूब लगते थे। पड़ोसियों, रिश्तेदारों और हमारे खुद के लिए भी भरपूर होते थे, और फिर भी बेचने लायक आम बच जाते थे,” वो 10 साल पहले की बात करते हुए कहते हैं।
“तब सिर्फ़ ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ शब्द सुनते थे। अब उसे अपनी आंखों से देख रहे हैं। यहां पहले कभी इतनी गर्मी नहीं हुई थी,” वो मोंगाबे इंडिया से कहते हैं।
आम के पेड़ को फूल आने, फल बनने और फलों के पकने के लिए बहुत खास किस्म की जलवायु की ज़रूरत होती है। इस पेड़ के विकास के लिए उष्णकटिबंधीय या उपोष्णकटिबंधीय जलवायु में 24 से 30 डिग्री सेल्सियस का तापमान आदर्श रहता है।
जलवायु में गड़बड़ी आम की पैदावार और गुणवत्ता दोनों पर असर डालती है। इसका असर कई रूपों में दिखता है—कलियों का पत्तियों में बदल जाना, जल्दी या बहुत देर से फूल आना, फलों का असामान्य होना और उनका नुकसान, और स्पंजी टिशू जैसी समस्याएं।
कोंकण में 1.82 लाख हेक्टेयर में आम की खेती होती है, जो भारत के कुल आम उत्पादन क्षेत्र का 7.28% हिस्सा है। यहां हेक्टेयर के हिसाब से औसत पैदावार करीब 2,200 किलो है। यह इलाका आमों का राजा कहे जाने वाले ‘हापुस’ यानी अल्फांसो आम के लिए जाना जाता है।
देशभर में करीब 25 लाख हेक्टेयर में आम की खेती होती है, जिसकी औसत उत्पादकता लगभग 7,200 किलो प्रति हेक्टेयर है। भारत के आम उत्पादन का लगभग एक चौथाई हिस्सा उत्तर प्रदेश से आता है।

कम फसल, खराब आम
अब्राव फर्नांडिस के घर से करीब पाँच किलोमीटर दूर, मोहन शांताराम गाड घास की चारपाई पर बैठे हुए ताज़ा तोड़े गए हापुस आम छांट रहे हैं और उन्हें ‘देवगढ़ हापुस आम’ के लेबल वाले डिब्बों में सलीके से पैक कर रहे हैं।
गाड पिछले 40 सालों से आम की खेती कर रहे हैं। उनके पास 300 से ज़्यादा आम के पेड़ हैं, जिनमें ज़्यादातर हापुस हैं, लेकिन साथ में केसर, रत्ना और सिंधु किस्में भी हैं। वो एक रजिस्टर्ड किसान हैं। इस साल, उनकी पैदावार करीब 50% तक गिर गई है।
“पहले एक पेड़ से करीब 15-16 कैरेट आम निकलते थे। इस साल औसतन 6-7 कैरेट ही मिल रहे हैं,” गाड बताते हैं। एक कैरेट में करीब 5 से 6 दर्जन आम आते हैं।
खाद पर ही उन्होंने लगभग 50,000 रूपए खर्च किए, इसके अलावा मज़दूरी का खर्च अलग। पेड़ों की छंटाई के लिए उन्होंने कॉमन सर्विस सेंटर (CSC) में ग्रांट के लिए आवेदन किया था। उन्हें 1,000 रुपए प्रति पेड़ देने का वादा किया गया था। दो महीने बीतने के बाद भी वो रकम अभी तक नहीं मिली है। इस बीच उन्होंने कुछ पेड़ों की छंटाई पर 8,500 रूपए खुद से खर्च कर दिए।
डापोली कृषि कॉलेज में बागवानी विशेषज्ञ और सहायक प्राध्यापक महेश मनोहर कुलकर्णी के अनुसार, आम के पेड़ की आदर्श ऊंचाई करीब 25 फीट होनी चाहिए।
गाड को डर है कि जैसे पैदावार गिरी है, वैसे ही उनकी आमदनी भी पिछले साल की तुलना में काफी घटेगी।
“पैदावार ही नहीं, बल्कि तेज़ तापमान आम के आकार को छोटा कर देता है और उनकी गुणवत्ता भी गिरा देता है। इससे रंग, बनावट और छिलके पर असर पड़ता है,” वो कहते हैं। “इस साल तो अच्छे आमों से ज़्यादा खराब आम निकले हैं।”
वो आगे बताते हैं, “छोटे और खराब आमों के लिए ग्राहक उतनी कीमत नहीं देते। ऐसे आम कम से कम 100-200 रुपए प्रति दर्जन सस्ते बिकते हैं।”

कोंकण के कई किसान परेशान
कोंकण के कसाल गांव के एक और किसान, दिलीप वामन चिंडारकर भी ऐसी ही समस्या से जूझ रहे हैं। उनके पास आम के लगभग 50 पेड़ हैं और वो छोटे पैमाने पर खेती करते हैं। पिछले साल उन्होंने करीब 60-70 कैरेट आम बेचे थे, लेकिन इस साल उनकी फसल में स्पंजी टिशू की समस्या बहुत ज़्यादा दिख रही है।
हालाँकि उनके पेड़ों में फूल अच्छी तरह से आए थे, लेकिन लगातार चल रही हीटवेव के कारण फल सही तरीके से विकसित नहीं हो पाए। वो सिर्फ़ हापुस आम की खेती करते हैं, साथ ही कुछ काजू के पेड़ भी हैं, जो गर्मी से प्रभावित हुए हैं।
“इस साल के आम छोटे हैं, उनके छिलके पर दाग हैं और उनमें स्पंजी टिशू है। ऐसे आम बेचने लायक नहीं हैं,” वो मोंगाबे इंडिया को बताते हैं। जो थोड़े बहुत आम निकले हैं, उनमें भी गर्मी की मार साफ़ दिख रही है।
वेंगुर्ला स्थित क्षेत्रीय फल अनुसंधान केंद्र के पैथोलॉजी विभाग प्रमुख और डापोली कृषि महाविद्यालय के सहायक प्राध्यापक डॉ. यशवंतराव रघुनाथ गोवेकर बताते हैं, “गर्मी और जलवायु परिवर्तन का आमों पर सबसे बड़ा असर स्पंजी टिशू बनने के रूप में दिखता है। हापुस आम इस बीमारी के प्रति दूसरी किस्मों से ज़्यादा संवेदनशील हैं।”
गोवा के हॉर्टिकल्चर विशेषज्ञ मिगुएल ब्रागांज़ा इस मुद्दे को और विस्तार से समझाते हैं: “गर्मी उस एंजाइम को ख़राब कर देती है जो कच्चे सफेद गूदे को पके हुए पीले गूदे में बदलता है। इस वजह से आम का कुछ हिस्सा सफेद ही रह जाता है और वहीं स्पंजी टिशू बनता है,” वो कहते हैं।
“तेज़ तापमान और गर्म हवाएं पेड़ों में एब्सिसिक एसिड (Abscisic Acid) की मात्रा बढ़ा देती हैं, जिससे फल समय से पहले ही गिरने लगते हैं।”
तापमान से प्रभावित होता परागण
सिर्फ आम ही नहीं, बल्कि कोकम, जामुन, करवंद और काजू जैसे स्थानीय फलों पर भी तेज़ तापमान का बुरा असर पड़ा है।
“कोंकण के ज़्यादातर हिस्सों में हमने देखा कि फूल तो अच्छे आए, लेकिन फल बनने की प्रक्रिया कमजोर रही,” डापोली के क्षेत्रीय फल अनुसंधान केंद्र में हॉर्टिकल्चरिस्ट हैं और कृषि महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक, एम.पी. सानस, बताते हैं। “हमारी प्रारंभिक जांच के आधार पर लगता है कि ज्यादा तापमान ने मक्खियों और मधुमक्खियों जैसे परागण में मददगार कीटों को प्रभावित किया है। यह बाधा शायद फलों के कम बनने की वजह है। हालांकि इस संबंध में और गहन शोध की ज़रूरत है।”
सिंधुदुर्ग में ज़्यादातर किसान केवल एक ही किस्म की फसल उगाते हैं, जिससे मोनोकल्चर बनता है।
“आम की उपज पर-परागण (cross-pollination) से बेहतर होती है,” सानस आगे कहते हैं।
“अगर खेतों में आम के साथ-साथ फूलों वाले पौधे या दूसरी किस्में भी लगाई जाएं, तो उत्पादन बढ़ता है।” इस संबंध को कई अध्ययनों ने भी साबित किया है।
डापोली कृषि महाविद्यालय और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR), एला, गोवा द्वारा की गई एक संयुक्त शोध में जलवायु सहनशील किस्मों की पहचान की गई, जैसे कि केसर और हापुस के हाइब्रिड—‘सम्राट’ और ‘रत्ना’।
लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि किसान इन्हें कम ही अपनाते हैं। बाज़ार की मांग अब भी हापुस पर केंद्रित है, और इसी वजह से इसकी खेती व्यापक रूप से होती है।

“एक दर्जन हापुस आम 400-450 रुपए में बिकते हैं, जबकि दूसरी किस्मों के आम 200-250 रुपए प्रति दर्जन में ही बिकते हैं — लगभग 50% कम,” कसाल के किसान गाड बताते हैं।
वेंगुर्ला के क्षेत्रीय फल अनुसंधान केंद्र के गोवेकर कहते हैं, “हापुस आमों में मिठास और खटास का संतुलन बिल्कुल सही होता है, यही कारण है कि ये आम हर तरह के उपभोक्ताओं को पसंद आते हैं और इनकी मांग बहुत ज़्यादा रहती है।”
“जबकि मंझुराद और केसर जैसी दूसरी किस्मों में शक्कर की मात्रा काफी ज़्यादा होती है।”
टिकाऊ खेती की कोशिशें
“इस साल तो पैदावार पहले से ही कम है। अगर तापमान यूं ही बढ़ता रहा, तो हापुस आम शायद जिंदा न बच सके,” गोवा के हॉर्टिकल्चर विशेषज्ञ मिगुएल ब्रागांज़ा चेतावनी देते हैं।
गाँव और तालुका स्तर पर नियुक्त ‘कृषि सेवक’ किसानों को समय रहते एहतियाती सलाह देते हैं।
“हर हफ्ते तापमान और नमी को लेकर एडवाइजरी तैयार की जाती है, जिसमें बचाव के उपाय भी शामिल होते हैं। ये जानकारी किसानों को व्हाट्सऐप ग्रुप्स के ज़रिए भेजी जाती है,” एम.पी. सानस बताते हैं।
“जैसे, फूल आने और फल बनने से पहले अगर नमी कम हो और तापमान बढ़े, तो सिंचाई बढ़ाने की सलाह दी जाती है। वहीं, अगर फल बन चुका है और तापमान बढ़ता है, तो समय से पहले फल गिर सकता है—ऐसे में भी पानी बढ़ाना ज़रूरी होता है।”
एक और तरीका है कि आम के पकने से पहले ही उन्हें तोड़कर ठंडी जगहों पर रखा जाए।
“इससे फल का अंदरूनी तापमान कम होता है और वो धीरे-धीरे प्राकृतिक रूप से पकते हैं। लेकिन ऐसी कोल्ड स्टोरेज सुविधाएं फिलहाल सिर्फ़ देवगढ़ और कुडाल में ही मौजूद हैं,” ब्रागांज़ा बताते हैं।
हालांकि वो आगाह करते हैं, “अगर तापमान यूं ही चढ़ता रहा और 50% से ज़्यादा फलों में स्पंजी टिशू बनने लगे, तो किसान उन आमों को नहीं बेच पाएंगे। उन्हें विकल्प तलाशने ही होंगे।”
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एक और समाधान है—ऐसे हाइब्रिड तैयार करना जो गर्मी से जुड़ी समस्याओं से लड़ सकें, लेकिन हापुस आम की गुणवत्ता को भी बनाए रखें।
“‘रत्ना’ ऐसी ही एक किस्म है, जो हापुस और दक्षिण भारत के नीलम आम का हाइब्रिड है। ये स्पंजी टिशू के खिलाफ़ ज़्यादा सहनशील है।”
ब्रागांज़ा आगे कहते हैं, “हमें हापुस और उत्तर भारतीय किस्मों के बीच भी हाइब्रिडाइजेशन पर काम करना चाहिए, ताकि वे 40 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा तापमान सह सकें। मौसम अब अस्थिर रहेगा, ये तय है। हमें ऐसी किस्में विकसित करनी होंगी जो इस बदलते मौसम को झेल सकें—चाहे वो जेनेटिक इंजीनियरिंग हो या पारंपरिक ब्रीडिंग तकनीक।”
इस बीच, कसाल के किसान जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते बढ़ती गर्मी से वे लड़ नहीं सकते।
गाड एक कोंकणी उत्पादों की दुकान चलाते हैं, जिससे उनका और उनके परिवार का गुज़ारा होता है। चिंडारकर को उनके डॉक्टर बेटे का सहारा है।
जब उनसे आम की खेती के भविष्य के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने मालवणी में मायूसी से जवाब दिया—“काय ते करपाक जाता? सगळं नाश जातले (क्या कर सकते हैं? सब कुछ बर्बाद हो जाएगा।)”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 20 मई 2025 प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: एक फल की दुकान जिसमें आम की अलग-अलग किस्में बिक रही हैं। फल बनने के मौसम में तापमान ज़्यादा होने से आम का रंग, बनावट और आकार सब प्रभावित होते हैं। किसान बताते हैं कि छोटे और खराब आमों के लिए ग्राहक उतनी कीमत नहीं चुकाते, जिससे उन्हें भारी नुकसान होता है। प्रतीकात्मक तस्वीर: दिव्या किलिकर / मोंगाबे