- जुलाई 2025 को गांधी सागर वन्यजीव अभयारण्य में एक स्याहगोश (कैराकल) को तीन बार कैमरा ट्रैप में रिकॉर्ड किया गया।
- इस घटना ने उस इलाके के सूखे पर्यावासों की ओर ध्यान खींचा है, जहां कभी स्याहगोश पाए जाते थे, लेकिन अब बहुत कम रिकॉर्ड होते हैं।
- गांधी सागर अब बड़े संरक्षण प्रयासों का हिस्सा बन गया है। अप्रैल 2025 में यहां दो चीतों को छोड़ा गया था, और अभयारण्य की सूखी और खुली ज़मीन को काराकल और चीतों जैसी प्रजातियों के लिए उपयुक्त माना गया है।
- विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि आवास का नुकसान और सुरक्षा की कमी अब भी सूखे इलाकों के वन्यजीवों के लिए खतरा बनी हुई है। वे इन इलाकों को बहाल करने, निगरानी बेहतर करने और देसी प्रजातियों पर केंद्रित संरक्षण रणनीति की मांग कर रहे हैं।
इस साल जुलाई महीने में मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में स्थित गांधी सागर वन्यजीव अभयारण्य में एक वयस्क नर कैराकल (स्याहगोश) कैमरा ट्रैप में रिकॉर्ड हुआ। मध्य प्रदेश सरकार की आधिकारिक विज्ञप्ति के अनुसार, इस जानवर की तस्वीरें एक ही स्थान पर तीन बार ली गईं: सुबह 2:35 बजे, रात 10:05 बजे और फिर 11:38 से 11:39 बजे के बीच।
स्याहगोश, जिसे स्थानीय रूप से ‘सियाह गोश’ (काले कान वाला) कहा जाता है, भारत में अत्यधिक संकटग्रस्त प्रजाति मानी जाती है। इस खोज ने मध्य भारत में स्याहगोश की स्थिति को लेकर नई रुचि जगा दी है।
मध्य प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव) सुभरंजन सेन ने इसे देखे जाने को एक महत्वपूर्ण घटना बताया। उन्होंने कहा, “यह राज्य के लिए गर्व की बात है और भारत के संरक्षण परिदृश्य में एक अहम पड़ाव भी।”
सेन ने बताया कि स्याहगोश एक अकेला रहने वाला मांसाहारी जीव है जो आमतौर पर सूखी घासभूमि, झाड़ियों, चट्टानी इलाकों और खुले वन क्षेत्रों में पाया जाता है। उन्होंने कहा, “इस दुर्लभ शिकारी की उपस्थिति गांधी सागर की पारिस्थितिक समृद्धि और उसके पर्यावास की मजबूती को दर्शाती है, जो अब भी कम जानी-पहचानी लेकिन संकटग्रस्त प्रजातियों को सहारा दे रहा है।”

स्थायी आबादी नहीं
वन्यजीव वैज्ञानिक शेखर कोलिपका भारत में छोटी जंगली बिल्ली प्रजातियों और सूखे पर्यावासों पर दो दशक से ज़्यादा समय से काम कर रहे हैं। उनका कहना है कि गांधी सागर में रिकॉर्ड हुआ स्याहगोश शायद एक अकेला भटकता हुआ नर है।
कोलिपका ने कहा, “गांधी सागर में देखा गया स्याहगोश संभवतः एक युवा नर है, जो विस्थापन की प्रक्रिया में है। उसके शारीरिक विकास से यह साफ लगता है कि वह विस्थापन की शुरुआती अवस्था में है। ऐसे अकेले घूमना नर बिल्लियों में सामान्य बात है, खासकर स्याहगोश जैसी प्रजातियों में, जहां युवा नर अक्सर अपने जन्मस्थान से बहुत दूर इलाके और जोड़ीदार की तलाश में निकलते हैं।”
उन्होंने आगाह किया कि इस देखे जाने को स्थायी आबादी का प्रमाण नहीं मान लेना चाहिए। “यह गांधी सागर में किसी स्थायी आबादी का संकेत नहीं है। अगर स्याहगोश वास्तव में यहां स्थापित होते, तो वे पहले ही रिकॉर्ड हो चुके होते, क्योंकि इस क्षेत्र की नियमित निगरानी होती है।”
टाइगर वॉच से जुड़े संरक्षण जीवविज्ञानी धर्मेंद्र खंडाल का कहना है कि इस इलाके में इस प्रजाति की मौजूदगी कोई नई बात नहीं है। उन्होंने कहा, “यह इलाका इस प्रजाति के लिए बहुत उपयुक्त है, और मुझे यहां इसके संरक्षण को लेकर काफी उम्मीद है। मेरे पास 2006 का एक रिकॉर्ड है, जो इस स्थान से सिर्फ 30 किलोमीटर दूर है, हालांकि वह राजस्थान की तरफ है। यह इस क्षेत्र में इसकी मौजूदगी को और मज़बूती देता है। मुझे हमेशा विश्वास था कि इस दिशा में स्याहगोश मौजूद हैं।”
वे ईशान धर के साथ लिखी गई किताब ‘Caracal: An Intimate History of a Mysterious Cat’ के सह-लेखक भी हैं।

प्रजनन आबादी का कोई सबूत नहीं
कोलिपका ने कहा कि मध्य प्रदेश में स्याहगोश को देखे जाने की घटनाएं हमेशा ही दुर्लभ और अलग-थलग रही हैं। “कभी-कभार उत्तर मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों से इसकी सूचना मिलती है, लेकिन किसी स्थायी या प्रजनन करने वाली आबादी का ठोस प्रमाण नहीं है। जो भी रिकॉर्ड हुए हैं, वे ज़्यादातर ऐसे जानवरों के हैं जो इधर-उधर भटक रहे थे, न कि किसी स्थापित समूह के।”
उन्होंने बताया कि राजस्थान के कुछ हिस्सों जैसे राणा प्रताप सागर और चंबल बेसिन में स्याहगोश की स्थायी आबादी की पुष्टि हुई है। वहां से कुछ जानवर विस्थापित होकर मध्य प्रदेश की तरफ आते हैं। लेकिन अगर उन्हें यहां सही आवास नहीं मिला तो वे खतरे में पड़ जाते हैं।
कोलिपका ने समझाया, “मध्य प्रदेश में स्याहगोश हमेशा ही कभी-कभार और बिखरे हुए रूप में दिखाई दिए हैं। दुर्भाग्य से, मध्य प्रदेश के कई पर्यावास अब पारिस्थितिक रूप से इतने बिगड़ चुके हैं कि उन्हें इकोलॉजिस्ट ‘हैबिटैट सिंक’ कहते हैं। ऐसे क्षेत्र जहां वन्यजीवों का जीवित रहना मुश्किल होता है, क्योंकि वहां मृत्यु दर अधिक होती है और पारिस्थितिक सहयोग कम।”
उन्होंने कहा, “नर स्याहगोश तब तक घूमते रहते हैं जब तक उन्हें मादा के साथ उपयुक्त इलाका नहीं मिल जाता। जितना ज़्यादा वे बिगड़े हुए इलाकों से गुजरते हैं, उतना ही ज्यादा खतरे में पड़ते हैं।”
सूखे वनों के बिगड़ते हालात
कोलिपका ने मध्य भारत में सूखे इलाकों के आवास के बड़े स्तर पर हो रहे नुकसान की ओर ध्यान दिलाया। यही वो इलाके हैं जिन पर स्याहगोश जैसे जानवर निर्भर करते हैं।
कोलिपका ने कहा, “फिलहाल मध्य प्रदेश में बहुत कम ऐसे इलाके हैं जो स्याहगोश के लिए उपयुक्त माने जा सकते हैं। इतिहास में यह पूरा भू-भाग, खासकर विन्ध्य पर्वत तक का क्षेत्र, इनके लिए काफी अनुकूल था। लेकिन आज ज़्यादातर इलाके या तो बिगड़ चुके हैं या छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गए हैं, और अब इनके लिए सही नहीं हैं।”
उन्होंने आगे बताया, “स्याहगोश उन जानवरों में से हैं जिन्हें खुले, सूखे और अर्ध-शुष्क इलाके पसंद होते हैं, न कि घने जंगल। मध्य प्रदेश में अधिकांश संरक्षित क्षेत्र घने जंगलों में हैं, जबकि जो इलाके स्याहगोश को पसंद हैं जैसे पन्ना, सागर, सतना, गुना, ग्वालियर, भिंड, मुरैना, शिवपुरी और यहां तक कि गांधी सागर भी, अब तक औपचारिक संरक्षण के दायरे में नहीं आते।”

कोलिपका ने इन पर्यावासों में बढ़ रहे खतरों का भी ज़िक्र किया। “बकरी पालक अपने जानवरों को चारा देने के लिए पेड़ काट देते हैं, जिससे स्याहगोश को छुपने के लिए कोई जगह नहीं बचती। गांवों में घूमने वाले कुत्ते एक और बड़ा खतरा हैं। वे जंगली जानवरों का पीछा करते हैं और उनके साथ जगह के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। ज़्यादा चराई के कारण मिट्टी अब इतनी खराब हो गई है कि वहां चूहे, सरीसृप और पक्षी नहीं पनपते जो स्याहगोश के भोजन का हिस्सा होते हैं।”
उन्होंने कहा, “आवास का नुकसान, अनियंत्रित चराई, आवारा कुत्तों का दखल और सुरक्षा की कमी सिर्फ स्याहगोश ही नहीं बल्कि गोड़ावन(ग्रेट इंडियन बस्टर्ड), भेड़िया और चिंकारा जैसे दूसरे अहम सूखा क्षेत्रीय जीवों को भी नुकसान पहुंचा रही है।”
दो दुर्लभ बिल्लियों के लिए साझा इलाका
अतिरिक्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक और प्रोजेक्ट चीता के निदेशक हैं यू.के. शर्मा ने पहले मंदसौर में डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर के रूप में गांधी सागर वन्यजीव अभयारण्य के लिए दस साल की एक प्रबंधन योजना तैयार की थी। इस योजना में उन्होंने वन्यजीवों के सामने मौजूद मुख्य खतरों की पहचान की थी, जैसे अत्यधिक चराई, पेड़ों की कटाई और राजस्थान से हर साल आने वाले मौसमी मवेशी।
उन्होंने यह भी उल्लेख किया था कि पहले के संरक्षण प्रयास इसलिए असफल रहे क्योंकि लोगों में जागरूकता की कमी थी और जंगलों पर निर्भरता बहुत अधिक थी।
इस योजना में आवास की बहाली, सीमाओं का निर्माण, और वन्यजीवों की निगरानी के लिए वैज्ञानिक संस्थानों के साथ साझेदारी का सुझाव दिया गया था। इसके साथ ही, जल संरक्षण को बेहतर करने और चराई पर सख्त नियंत्रण की सिफारिश भी की गई थी।
इस साल अप्रैल में गांधी सागर मध्य प्रदेश का दूसरा ऐसा स्थल बना जहां चीतों को छोड़ा गया। यहां दो चीतों को लाया गया ताकि अभयारण्य की पारिस्थितिक स्थिति को बेहतर किया जा सके। यह खुला और सूखा इलाका चीतों के साथ-साथ स्याहगोश जैसी अन्य प्रजातियों के लिए भी फायदेमंद हो सकता है।
समन्वित प्रयास की जरूरत
कोलिपका ने कहा कि और वैज्ञानिक सर्वेक्षण की ज़रूरत है, लेकिन सिर्फ़ शोध से बात नहीं बनेगी। “सर्वे चल रहे हैं, लेकिन ये काफी नहीं हैं। हमें सूखे और अर्ध-शुष्क इलाकों की बहाली के लिए एक व्यापक और ठोस कार्यक्रम की जरूरत है। इसमें बिना नियंत्रण वाली मवेशियों की चराई को पूरी तरह रोकना, पेड़ों की कटाई जैसी हानिकारक गतिविधियों को बंद करना, आवारा कुत्तों को नियंत्रित करना या हटाना, और देशी वनस्पति और शिकार प्रजातियों को फिर से विकसित करना शामिल है। हां, यह एक बड़ी चुनौती है, लेकिन नामुमकिन नहीं,” उन्होंने कहा।

उन्होंने यह भी बताया कि ऐसे कार्यक्रम के लिए किन तरह के सहयोग की ज़रूरत होगी। “आगे बढ़ने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों के बीच तालमेल ज़रूरी है। इसमें मज़बूत राजनीतिक नेतृत्व, नौकरशाही की प्रतिबद्धता, वैकल्पिक चराई व्यवस्था और बहाली पर काम करने वाले रचनात्मक एनजीओ, और स्थानीय समुदायों की मज़बूत भागीदारी चाहिए, खासकर चरवाहों, धार्मिक नेताओं और ग्राम समाज के नेताओं की। साथ ही, प्रमुख वैज्ञानिक संस्थानों से सहयोग जरूरी है, ताकि पर्यावास और प्रजातियों की बहाली सही दिशा में हो सके।”
उन्होने कहा, “हमने ऐसा पहले बाघों के साथ होते देखा है, और यहां तक कि एशियाटिक शेर के साथ भी। कोई कारण नहीं कि हम स्याहगोश के साथ ऐसा न कर सकें। अगर हम समन्वित और केंद्रित तरीके से प्रयास करें, तो यह बिल्ली भारत के सूखे इलाकों में फिर से अपनी जगह बना सकती है।”
विदेशी के बजाए देसी स्याहगोश पर ध्यान देना जरूरी
हाल ही के कुछ नीतिगत प्रस्तावों ने संरक्षण विशेषज्ञों के बीच चिंता बढ़ा दी है। धर्मेंद्र खंडाल ने बताया कि एक राष्ट्रीय योजना के तहत भारत में स्याहगोश की एक विदेशी उपप्रजाति को कैप्टिव ब्रीडिग (निगरानी में प्रजनन) के लिए लाने पर विचार किया गया था। उन्होंने कहा, “सिर्फ पिछले साल, राष्ट्रीय स्तर पर एक योजना बनी थी जिसमें एक विदेशी स्याहगोश को भारत लाने की बात थी। उस समय एक उच्च स्तरीय बैठक में मैंने इस प्रस्ताव का विरोध किया और ज़ोर देकर कहा कि किसी भी विदेशी प्रजाति को लाने से पहले हमें अपनी देसी स्याहगोश आबादी की स्थिति को ठीक से समझना चाहिए। इस नजरिए से गांधी सागर में हालिया दिखना वास्तव में एक अहम कदम है।”
हालांकि इस योजना को कभी आधिकारिक रूप से मंजूरी नहीं मिली, लेकिन विदेशी जानवरों को लाकर प्रजनन केंद्र स्थापित करने की इस पहल पर चर्चा जरूर हुई थी। बाद में वन्यजीव वैज्ञानिकों और संरक्षणवादियों के विरोध के कारण इसे छोड़ दिया गया।
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खंडाल ने यह भी ज़ोर देकर कहा कि लंबे समय तक किसी प्रजाति का संरक्षण केवल सरकारी कार्यक्रमों के भरोसे नहीं चल सकता। “स्याहगोश को बचाने के लिए निजी लोगों की भागीदारी और प्रतिबद्धता बेहद ज़रूरी है। लेकिन नौकरशाही ढांचे में यह काम आसान नहीं होता।”
उन्होंने यह भी जोड़ा कि स्याहगोश का मध्य भारत से गहरा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्ता रहा है। “मेरी किताब में मध्य भारत से प्रेरित कई कहानियां और चित्र शामिल हैं,” उन्होंने कहा।
स्याहगोश के ऐतिहासिक रिकॉर्ड और सांस्कृतिक निशान
खंडाल की किताब में मध्य भारत और राजस्थान के कई हिस्सों में स्याहगोश के देखे जाने और उससे जुड़ी सांस्कृतिक बातों को दस्तावेज के रूप में संकलित किया गया है। इस किताब में 1990 में पन्ना नेशनल पार्क में स्याहगोश देखे जाने का जिक्र है। साल 1997 में चित्तौड़गढ़ के पास पीपल्या गांव के चरवाहों द्वारा इस जानवर को देखने का दावा किया गया था।
इस किताब में कुछ पुराने फोटो और टिप्पणियां भी शामिल हैं, जो यह संकेत देते हैं कि पहले यह प्रजाति इस क्षेत्र में ज़्यादा दिखाई देती थी, खासकर राजघरानों के शिकार क्षेत्रों में। एक रिकॉर्ड में बताया गया है कि रीवा के महाराजा को एक स्याहगोश उपहार में दिया गया था। एक अन्य विवरण में जावरा के नवाब (जिनकी जागीर मंदसौर से लगभग 30 किलोमीटर दूर थी) द्वारा स्याहगोश को भेंट में देने का ज़िक्र है। ये घटनाएं इस इलाके में स्याहगोश की पूर्व उपस्थिति और सांस्कृतिक महत्त्व को दर्शाती हैं।

किताब की अन्य प्रविष्टियां गुना और शिवपुरी के बीच स्थित शुष्क भू-भाग को स्याहगोश और अन्य सूखा क्षेत्रीय प्रजातियों के लिए ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण आवास के रूप में चिन्हित करती हैं। खंडाल और इशान धर का यह दस्तावेजीकरण इस सोच को मज़बूती देता है कि गांधी सागर में हालिया दिखा स्याहगोश इस इलाके में मौजूद उसके एक लंबे, भले ही कम दर्ज, इतिहास का हिस्सा है।
अतीत से मिली चेतावनी
जब धर्मेंद्र खंडाल से पूछा गया कि स्याहगोश के संरक्षण के लिए इतिहास हमें क्या सिखाता है, तो उन्होंने कहा कि इस प्रजाति की लंबे समय से अनदेखी होती रही है। उन्होंने कहा, “मैं प्रकृति की किसी भावुक या रोमांटिक कल्पना का समर्थक नहीं हूं, और सच्चाई यह है कि हमने इस प्रजाति के साथ पहले अच्छा व्यवहार नहीं किया। शायद अब समय आ गया है कि हम इसे भूलने के बजाय इससे कुछ सीखें।”
उन्होंने आगे कहा, “हमने बाघों को बचाना सीख लिया है, लेकिन दुर्भाग्य से वह सफलता बाकी कई प्रजातियों तक नहीं पहुंची है। स्याहगोश जैसी प्रजातियों का जीवित रहना तभी संभव है जब निजी लोग सच्चे मन से इसकी जिम्मेदारी लें और उसमें सक्रिय भागीदारी निभाएं। लेकिन कठोर सरकारी तंत्र के बीच ऐसा कर पाना बेहद मुश्किल हो जाता है।”
बैनर तस्वीरः 1 जुलाई 2025 को गांधी सागर वन्यजीव अभयारण्य में एक स्याहगोश कैमरा ट्रैप में रिकॉर्ड हुआ। तस्वीर साभार- मध्य प्रदेश वन विभाग