- समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण और सतत मत्स्य पालन के लिए ओडिशा अपने समुद्र तट पर 93 कृत्रिम रीफ स्थापित कर रहा है।
- राज्य ने पहले ही सर्वे और अध्ययन कर लिए हैं, ताकि पुरानी गलतियां फिर से न दोहराई जा सकें।
- विशेषज्ञों का कहना है कि कृत्रिम रीफ प्रोजेक्ट को सफल बनाने के लिए सामुदायिक भागीदारी आवश्यक है।
भारत के पूर्वी तट पर स्थित ‘ओडिशा’ जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली प्राकृतिक आपदाओं से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले राज्यों में से एक है। यहां का भूगोल और जलवायु ऐसी है कि यह राज्य अक्सर प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होता रहता है। तटीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ रहा है, जिससे यहां की नाजुक समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र, जैव विविधता और तटीय आवासों को भी नुकसान पहुंच रहा है। इन समस्याओं से निपटने के लिए, ओडिशा सरकार अपनी 480 किलोमीटर लंबी तटरेखा पर 93 आर्टिफिशियल रीफ बनाने की योजना बना रही है।
आर्टिफिशियल रीफ (कृत्रिम रीफ) ऐसी संरचनाएं हैं जो समुद्र में कोरल रीफ और अन्य प्राकृतिक आवासों की तरह ही काम करती हैं। ये दुनिया भर में समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल रखने और मछलियों की आबादी बढ़ाने के लिए जानी जाती हैं। इन्हें कंक्रीट, चट्टानों या खास तरह के पदार्थों से बनाया जाता है। इन्हें समुद्र तल पर रखा जाता है, जहां ये मछलियों और अन्य जलीय जीवों को आश्रय, भोजन और प्रजनन स्थल प्रदान करते हैं, जिससे खराब हो चुके समुद्री वातावरण को ठीक करने में मदद मिलती है।
ओडिशा को इन रीफ की जरूरत क्यों?
ओडिशा की यह पहल कोई नई नहीं है। अगस्त 2023 में, मत्स्य विभाग ने पूरे देश के 3,477 मछली पकड़ने वाले गांवों में कृत्रिम रीफ लगाने की योजना बनाई, जिसका नेतृत्व केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान (सीएमएफआरआई) कर रहा है। इसके बाद नवंबर 2024 में, मत्स्य विभाग, मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय ने प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत ओडिशा के तट पर जलवायु परिवर्तन को कम करने, मछली के स्टॉक को बढ़ाने और टिकाऊ समुद्री मत्स्य पालन को बढ़ावा देने के लिए 93 कृत्रिम रीफ यूनिट स्थापित करने की मंजूरी दी, जिसकी अनुमानित लागत 29 करोड़ रुपये (290 मिलियन रुपये) है। कुल निवेश का 60% केंद्र सरकार देगी, जबकि बाकी की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होगी।
भारत के कई तटीय राज्यों ने पहले ही समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को बहाल करने और मछली पालन को बेहतर बनाने के लिए कृत्रिम रीफ परियोजनाएं शुरू कर दी हैं। तमिलनाडु इस दृष्टिकोण को अपनाने वाला पहला राज्य था, जिसके बाद केरल ने इसे अपनाया और अच्छे परिणाम सामने आए। हाल ही में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में भी इसी तरह की परियोजनाएं शुरू की गई हैं।

ओडिशा के तटीय पारिस्थितिकी तंत्र लगातार नुकसान झेल रहे हैं, क्योंकि चक्रवात, तूफानी लहरें, तटीय जल भराव और समुद्र के स्तर में वृद्धि अब आम हो गई है। अध्ययनों से पता चला है कि कृत्रिम रीफ तटीय कटाव को कम करने और तेज व तूफानी लहरों के प्रभाव से तटरेखाओं की रक्षा करने में बाधा का काम कर सकते हैं। बेरहामपुर यूनिवर्सिटी के समुद्री विज्ञान विभाग के प्रमुख और समुद्र विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर तमोग्ना आचार्य कहते हैं, “अगर रीफ को रणनीतिक रूप से रखा जाता है, तो वे बड़े चक्रवातों के प्रभाव को कम करने में मदद कर सकते हैं। इन रीफ को तूफानी लहरों की ताकत और तटीय क्षेत्रों में बाढ़ को कम करने के लिए डिजाइन किया जाता है।”
प्रदूषण के साथ-साथ, जलवायु परिवर्तन की घटनाओं ने भी राज्य के समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। समुद्री जीवविज्ञानी दिनाबंधु साहू ने बताया, “कृत्रिम रीफ समुद्री शैवाल और समुद्री पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देते हैं, जो कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं, जिससे समुद्र के अम्लीकरण और जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद मिलती है।” उन्होंने 2024 में चिल्का झील, जो एशिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झील है, में इसी तरह की एक परियोजना शुरू की थी। उनके और इंजीनियर संयुक्ता साहू के नेतृत्व में, इस परियोजना में 200 मीटर लंबी रीफ बनाने के लिए 100 कंक्रीट संरचनाओं को लगाना शामिल था। वह कहते हैं, “इसे स्थापित करने के कुछ ही महीनों के भीतर, रीफ ने युवा केकड़ों, झींगों और मछलियों को आकर्षित करना शुरू कर दिया, जिससे इसकी सफलता का प्रारंभिक संकेत मिला।”
मत्स्य पालन और पशु संसाधन विकास विभाग की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, ओडिशा देश का चौथा सबसे बड़ा मछली उत्पादक राज्य है, जो भारत के कुल मछली उत्पादन में छह प्रतिशत का योगदान देता है। रिपोर्ट के अनुसार, समुद्री मत्स्य पालन क्षेत्र में, ओडिशा ने 2000-01 में 1.2 लाख मीट्रिक टन से 2023-24 में 2.27 लाख मीट्रिक टन तक उत्पादन में वृद्धि देखी है। हालांकि, यह अभी भी अपने अधिकतम टिकाऊ उत्पादन से कम है, जो 2.93 लाख मीट्रिक टन है।
बेहतर प्रबंधन की जरूरत
खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, कृत्रिम रीफ खराब हो चुके क्षेत्रों में मछली उत्पादन को 400% तक बढ़ा सकते हैं। पर्यावरणीय लाभों के अलावा, कृत्रिम रीफ पहल ओडिशा के तटीय समुदायों की आजीविका में सुधार करने की भी अपार क्षमता रखती है। साहू कहते हैं, “निर्माण चरण में रोजगार के अवसर पैदा होंगे, जबकि वहां पनपते हुए पारिस्थितिकी तंत्र पीढ़ियों तक मत्स्य पालन को बनाए रखेंगे।” उन्होंने आगे बताया कि ये रीफ “समुद्री जंगलों” में बदल जाएंगे, जिससे कई तरह की आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण प्रजातियों को पनपने में मदद मिलेगी और समुद्र में ठंडक बनी रहेगी।

हालांकि, इस परियोजना और इसकी सफलता को लेकर कुछ चिंताएं हैं। गंजाम में (जहां सबसे पहले इन्हें स्थापित किए जाने की उम्मीद है) फिशर एसोसिएशन ने राज्य सरकार को एक ज्ञापन सौंपा है, जिसमें चिंताएं जताई गई हैं। ओडिशा मरीन रिसोर्सेज कंजर्वेशन कंसोर्टियम के कोऑर्डिनेटर के. अलेया कहते हैं, “यह पहली बार नहीं है जब यहां कृत्रिम रीफ स्थापित करने की तैयारी हो रही है। पहले भी ऐसा हुआ था लेकिन विफलता हाथ लगी थी और उन पर कोई फॉलो-अप भी नहीं हुआ। यह ओडिशा के समुद्रों के लिए अनुकूल नहीं है। जाल के इस्तेमाल पर रोक के कारण छोटे मछुआरों को नुकसान होगा और उस स्थिति में मछली पकड़ना एक तरह से किसी फैक्टरी लगाने जैसा हो जाएगा।”
वह आगे कहते हैं, “समुद्री वातावरण में इन संरचनाओं को बार-बार लगाने से प्रबंधन के लक्ष्य अक्सर पूरे नहीं हो पाते, जिससे पारिस्थितिक, पर्यावरणीय और सामाजिक-आर्थिक परिणाम भुगतने पड़ते हैं। कृत्रिम रीफ की सफलता रीफ के डिजाइन और उसे लगाने की जगह जैसे कारकों पर निर्भर करती है। बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए, उन जोखिमों का आकलन करना जरूरी है जो इन परियोजनाओं को विफल कर सकते हैं।”
विफलताओं से सीख
ओडिशा ने 2015 में 20 कृत्रिम रीफ यूनिट स्थापित करने की कोशिश की थी, लेकिन असफलता ही हाथ लगी। मत्स्य पालन विभाग के उप निदेशक रबीनारायण पटनायक के मुताबिक, कृत्रिम रीफ लगाने में कई चुनौतियां हैं। वह कहते हैं, “हमें जिन प्रमुख समस्याओं का सामना करना पड़ा, उनमें से एक थी ओडिशा के तट पर आने वाली तेज समुद्री धाराएं, जिसकी वजह से संरचनाओं को स्थिर रखना मुश्किल हो गया।” वह आगे कहते हैं: “इस बार, इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए, व्यापक प्री-डिप्लॉयमेंट सर्वे (तैनाती से पहले की जांच) और गहन अध्ययन किए गए। नई योजना में इनके निष्कर्षों को शामिल किया गया है ताकि रीफ की स्थायित्व और प्रभावशीलता को बढ़ाया जा सके और वे तटीय परिस्थितियों का सामना कर सकें।”
कृत्रिम रीफ का पहला सेट गंजाम जिले के गोपालपुर बीच पर लगाया जाएगा। पटनायक के अनुसार, प्री-डिप्लॉयमेंट कार्य के हिस्से के रूप में हाइड्रोलॉजिकल अध्ययन के बाद, उपयुक्त स्तर पर पानी की गहराई को ध्यान में रखते हुए इस क्षेत्र को रणनीतिक रूप से चुना गया है।
साहू इस बात से सहमत हैं कि “मौजूदा पारिस्थितिक तंत्र में कम से कम बाधा डालने और समुद्री गतिविधियों के साथ अनुकूलता सुनिश्चित करने के लिए साइट का चुनाव जरूरी है। रीफ के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री पर्यावरण के लिए सुरक्षित और समुद्री परिस्थितियों के अनुकूल होनी चाहिए। रीफ के पारिस्थितिक प्रभाव और प्रभावशीलता का आकलन करने के लिए नियमित वैज्ञानिक निगरानी भी जरूरी है।”

आचार्य रीफ की सफलता के लिए सही आकार और दूरी पर जोर देते हैं। उन्होंने कहा, “रिसर्च से पता चलता है कि मध्यम आकार के रीफ ज्यादा प्रभावी होते हैं, क्योंकि उनसे छोटी या बड़ी रीफ के मुकाबले ज्यादा मछलियां पकड़ी जाती हैं। इसी तरह, रीफ की ऊंचाई भी महत्वपूर्ण है – ऊंचाई जितनी अधिक होगी, मछलियों का उत्पादन उतना ही अधिक होगा।” वह विस्तार से बताते हैं कि रीफ को इस तरह से लगाना चाहिए कि वो एक दूसरे की मदद करें, न कि एक दूसरे के काम में बाधा डालें। उन्होंने कहा, “सामग्री ऐसी होनी चाहिए जो प्राकृतिक सतहों जैसी हो, ताकि वो अच्छे से काम कर सकें। ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में 3D-प्रिंटेड कोरल रीफ का इस्तेमाल हो रहा है, ताकि प्राकृतिक परिस्थितियां बनी रह सकें। ये कारक कृत्रिम रीफ परियोजनाओं की सफलता के लिए काफी मायने रखते हैं।”
साहू आगे कहते हैं, “इन पहलों को क्षेत्र की खास जरूरतों और परिस्थितियों के अनुसार ढालने के लिए नए तरीके अपनाने और स्थानीय हितधारकों के साथ सहयोग करना जरूरी है। ऐसा करके, हम उनकी दीर्घकालिक सफलता सुनिश्चित कर सकते हैं और पर्यावरण व उन समुदायों को लाभ पहुंचा सकते हैं जो इस पर निर्भर हैं।”
मछुआरों की भागीदारी
एक समुद्री शोधकर्ता और तटीय स्वदेशी नागरिक समाज संगठन ‘फ्रेंड्स ऑफ मरीन लाइफ’ के प्रमुख रॉबर्ट पनिपील्ला का कहना है कि कृत्रिम रीफ बनाने से पहले, संबंधित अधिकारियों को यह आकलन करना चाहिए कि कितने गांव मुख्य रूप से हुक-एंड-लाइन फिशिंग (कांटे और धागे से मछली पकड़ना) में लगे हुए हैं। वह कहते हैं, “अगर कृत्रिम रीफ उन क्षेत्रों में लगाए जाते हैं जहां जाल से मछली पकड़ने का काम होता है, तो उनके बेकार पड़े भूतिया जालों (घोस्ट नेट) के अड्डे बनने का खतरा हो जाएगा, जो समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं। ये भी समझना जरूरी है कि कृत्रिम रीफ से मछलियों के प्रजनन में मदद नहीं मिलती, बल्कि वे दूसरी तरह के सुस्त जीवों को आकर्षित करते हैं। अगर रीफ को उन जगहों पर लगाया गया जहां मशीन से मछली पकड़ी जाती है, तो इन रीफ की वजह से भूतिया जालों से होने वाला प्रदूषण बढ़ सकता है, जिससे समुद्र के जीवों को और ज्यादा नुकसान होगा।”
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पनिपील्ला को 1980 के दशक का वो समय याद है जब ट्रॉलर्स की वजह से समुद्र के इकोसिस्टम पर बुरा असर पड़ा था और पारंपरिक व मशीनी तरीके से मछली पकड़ने वालों के बीच तनाव पैदा हो गया था। उस समय, वहां के मछुआरों ने पेड़ की टहनियों और नारियल के छिलकों जैसी चीजों से आर्टिफिशियल रीफ बनाना शुरू कर दिया। यह जब तक चलता रहा, जब तक कि एक स्थानीय एनजीओ ने आकर आर्टिफिशियल रीफ बनाने का एक बेहतर तरीका नहीं सिखाया।
वह बताते हैं, “मछुआरे हर काम में शामिल थे – सामान खरीदने से लेकर, रीफ बनाने, उन्हें ले जाने, लगाने की सही जगह तय करने और मछली पकड़ने के लिए सही उपकरण चुनने तक। ये सब मिल कर किया गया था और सफल भी रहा। लेकिन जब सरकार ने ये काम संभाला, तो ये ठेकेदारों को दे दिया गया, जिससे स्थानीय लोगों का इसमें शामिल होना कम हो गया।” वह आगे कहते हैं, “अब रीफ कहां लगाना है और किस चीज से बनाना है, ये सब ठेकेदार तय करते थे, जिनके पास रीफ को सही तरीके से लगाने के लिए जरूरी स्थानीय ज्ञान तक नहीं है।”
पनिपील्ला का मानना है कि कृत्रिम रीफ परियोजनाओं की सफलता के लिए समुदाय की भागीदारी जरूरी है। वह बताते हैं, “मछुआरों को रीफ बनाने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए और उन्हें हर कदम में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये संरचनाएं अपने उद्देश्य को पूरा करें और साथ ही समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को भी सुरक्षित रखें।”
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 12 जनवरी 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: समुद्री जीवविज्ञानी दीनबंधु साहू और इंजीनियर संजुक्ता साहू ने चिल्का झील के किनारे कृत्रिम रीफ स्थापित कीं। 200 मीटर लंबी रीफ बनाने के लिए ऐसी 100 संरचनाओं को तैनात किया गया और कुछ ही महीनों के भीतर, ये रीफ युवा केकड़ों, झींगों और मछलियों को आकर्षित करने लगीं। तस्वीर- दीननबंधु साहू