- 21 मई 2024 मुंबई के वर्ली कोलीवाड़ा में 200 से अधिक कृत्रिम रीफ स्थापित की गईं, इनका उद्देश्य बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के प्रभावों के बीच मछलियों की आबादी को बढ़ावा देना और मछुआरों की आजीविका का समर्थन करना है।
- कृत्रिम रीफ समुद्री वनस्पतियों और जीवों को बढ़ावा देने के लिए उपयोग की जाती हैं। प्राकृतिक रीफ की तरह दिखने वाले ये कृत्रिम ढांचे मछलियों को इकट्ठा होने, अंडे देने और भोजन के अवसर प्रदान करती हैं।
- हालांकि कृत्रिम रीफ कई राज्यों में समुद्री आवासों को बेहतर बनाने और मछली पकड़ने में मछुआरों की मदद करने में सफल रही हैं, लेकिन उनके लंबे समय तक समुद्र में बने रहने से प्रदूषण और आक्रामक प्रजातियों के प्रसार को लेकर चिंताएं भी हैं।
मुंबई में इस साल फरवरी में वर्ली कोलीवाड़ा में 200 से अधिक आर्टिफिशियल रीफ यानी कृत्रिम रीफ का पहला सेट स्थापित किया गया। ये कृत्रिम संरचनाएं प्राकृतिक रीफ की तरह दिखती हैं और इन्हें स्थापित करने का उद्देश्य मछली पकड़ने में आ रही गिरावट को रोकना और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के प्रभाव के बीच आजीविका के रूप में मछली पकड़ने की स्थिरता में सुधार करना है। हालांकि भारत भर में कृत्रिम रीफ सफलता की कहानी लिख रही हैं, लेकिन कुछ वैज्ञानिक उनके दीर्घकालिक प्रभाव को लेकर अनिश्चित हैं।
पुडुचेरी के एक एनजीओ ‘कुडल लाइफ’ फाउंडेशन के संस्थापकों में से एक पुनीत ढांढनिया ने बताया, “कुल मिलाकर, कृत्रिम रीफ सफलता की कहानी लिख रही हैं क्योंकि कई अन्य संरक्षण परियोजनाओं के विपरीत, यह न केवल मछली के आवास को होने वाले नुकसान को धीमा करती है बल्कि उनके लिए नए आवास भी बनाती हैं।” कुडल लाइफ फाउंडेशन पिछले चार सालों से पुडुचेरी में इन कृत्रिम रीफ को स्थापित करने का काम कर रहा है।
अगस्त 2023 में केंद्रीय मत्स्य विभाग ने अगले दो से तीन सालों में महाराष्ट्र सहित भारत भर के 3,477 मछली पकड़ने वाले गांवों में कृत्रिम रीफ लगाने की घोषणा की। इस राष्ट्रव्यापी पहल के तहत कृत्रिम रीफ को स्थापित करने का कार्यक्रम केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान (CMFRI) द्वारा क्रियान्वित किया जा रहा है। इसका मुख्यालय कोच्चि, केरल में है। इसका उद्देश्य विशेष रूप से छोटे मछुआरों के लिए स्थायी मत्स्य पालन और आजीविका को बढ़ावा देना है।
CMFRI के पूर्व प्रमुख वैज्ञानिक और भारत में कृत्रिम रीफ परियोजना में अहम भूमिका निभाने वाले हुसैन मोहम्मद कासिम कहते हैं, “हमें न केवल अपने जल में मछलियों की आबादी बढ़ाने के लिए बल्कि जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते चक्रवातों और तुफानों की संख्या को कम करने के लिए भी कृत्रिम रीफ की जरूरत है।” वे पिछले तीन दशकों से इन पर काम कर रहे हैं।

मुंबई में हाल ही में कुडल फाउंडेशन ने कृत्रिम रीफ को स्थापित किया है। इससे उन मछुआरों को कुछ राहत मिलने की उम्मीद है, खासकर छोटे मछुआरों को, जो शहर के पानी में बने बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं से प्रभावित हुए हैं। मुंबई के समुद्र में बनने वाले बड़े पुलों और सड़कों ने मछुआरों की रोजी-रोटी पर बुरा असर डाला है। 2009-10 में बने बांद्रा-वर्ली सी लिंक से लेकर 2024 में बनने वाले मुंबई ट्रांस हार्बर लिंक और अब बन रहे तटीय सड़क के कारण शहरी मछुआरों के लिए मछली पकड़ना आसान नहीं रह गया था।
57 वर्षीय दीपक पाटिल, वर्ली कोलीवाड़ा के 5,000 मछुआरों में से एक हैं, जिन्होंने इस प्रभाव को देखा है। उनका परिवार चार पीढ़ियों से मछली पकड़ने के व्यवसाय में है। वह याद करते हैं कि 1980 के दशक में समुद्री तट पर आसानी से मछली मिल जाया करती थीं। लेकिन अब, अधिकतर दिनों में उन्हें और अन्य मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए कम से कम दो से तीन किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। तटीय सड़क निर्माण से होने वाले शोर, मार्ग बंद होने और कचरे के कारण, मछली पकड़ना बहुत मुश्किल हो गया है। दीपक कहते हैं, “कई दिन तो ऐसे होते हैं जब हमारे जाल में 60% कचरा और सिर्फ 40% मछली आती है, खासकर उच्च ज्वार के समय में।”
2023 में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज ने बृहन्मुंबई महानगरपालिका के लिए एक अध्ययन किया। इस अध्ययन में पाया गया कि तटीय पुल निर्माण शुरू होने यानी अक्टूबर 2018 से पहले, बिना मशीनों वाले नाव मालिकों की रोजाना पकड़ 14 किलो थी, जो उसके बाद घटकर 7 किलो रह गई। यह रिपोर्ट 680 परियोजना प्रभावित मछुआरों (PAF) से मिले जवाबों के आधार पर तैयार की गई थी। इनमें से 560 वर्ली कोलीवाड़ा के थे और 120 लोटस जेट्टी (हाजी अली) के थे।
मछली की आबादी और जैव विविधता को बढ़ावा देना
2023 में CMFRI की एक रिपोर्ट के अनुसार, कृत्रिम रीफ समुद्री वनस्पतियों और जीवों के समुदायों को बेहतर बनाने के लिए उपयोग की जाती हैं। ये संरचनाएं प्राकृतिक आवासों की तरह काम करती हैं, जहां मछलियों के समूह बनते हैं और उन्हें प्रजनन और भोजन के अवसर मिलते हैं। मछुआरे फिर इन संरचनाओं के आसपास के क्षेत्रों में जाकर यहां पल रही मछलियों को पकड़ सकते हैं।
मछलियां समुद्र में किसी भी वस्तु की ओर आकर्षित होती हैं, चाहे वो पुलों के डूबे हुए खंभे हों या नावों के तले। कासिम के अनुसार, सैकड़ों साल पहले, मछुआरे मछलियों को आकर्षित करने के लिए लकड़ी के बड़े-बड़े लट्ठे इस्तेमाल करते थे। हालांकि, ये लट्ठे जल्दी खराब हो जाते थे। लेकिन जब खास तौर पर डिजाइन किए गए कंक्रीट के ढांचों को सही जगह पर रखा जाता है, तो वे सालों तक टिक सकते हैं, जिनमें मछलियों के रहने के लिए छेद और दरारें होती हैं। समय के साथ, आमतौर पर तीन से छह महीनों में, समुद्री परिस्थितियों के आधार पर, इन ढांचों पर एक बायोफिल्म उगती है, जो लार्वा, प्लैंकटन और अन्य जीवों को आकर्षित करती है। और फिर इसकी वजह से छोटे जीव और मछलियां भी इस ओर खिंची चली आती हैं, जिससे एक समृद्ध समुद्री आवास बनता है। कासिम इसे पानी के नीचे एक पूरी तरह से स्टॉक की गई रसोई की तरह देखते हैं, जहां सभी आकार की मछलियां खाने के लिए आती हैं।
पुडुचेरी के चिन्न मुदलियार चावड़ी गांव के मछुआरों को एक साल पहले कुडल लाइफ फाउंडेशन द्वारा तटों के पास लगाए गए कृत्रिम रीफ से काफी फायदा हुआ है। पहले उन्हें मछली पकड़ने के लिए किनारे से कम से कम 10 से 15 किलोमीटर दूर जाना पड़ता था। लेकिन आज किंगफिश, ट्यूना, रेड स्नैपर, केकड़ा, झींगा, स्क्विड और कभी-कभी ऑक्टोपस भी अच्छी मात्रा में मिल जाते हैं वो भी किनारे से सिर्फ 2.5 किलोमीटर दूर। 37 वर्षीय मछुआरे मूर्ति याद करते हुए बताते हैं कि आखिरी बार उन्हें तट के इतने करीब मछली तब मिली थी, जब लगभग दो दशक पहले वह अपने पिता के साथ मछली पकड़ने के लिए समुद्र में उतरे थे। समय के साथ, मछलियों की संख्या कम होती गई और उन्हें कम से कम 15 किलोमीटर दूर समुद्र में जाना शुरू कर दिया। लेकिन अब ऐसा नहीं है, क्योंकि कृत्रिम रीफ के कारण मछलियां फिर से पास के पानी में वापस आ गई हैं। इससे मूर्ति और गांव के अन्य मछुआरों को ईंधन की लागत में भी बचत हुई है। उन्हें 2.5 किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए सिर्फ 250 रुपये ही ईंधन पर खर्च करने पड़ते हैं, जबकि इससे पहले 15 किलोमीटर की दूरी तय करने में उनके 1,500 रुपये लग जाया करते थे। गांव के एक अन्य मछुआरे, 29 वर्षीय प्रभाश कहते हैं, “ज्यादा बचत का मतलब है ज्यादा मुनाफा।” इसके अलावा, रीफ के आस-पास का सफर अकसर सफल रहता हैं और मछुआरे समुदाय को अच्छी पकड़ मिलना तय है।
CMFRI की रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले तीन दशकों में केरल, आंध्र प्रदेश और गुजरात में भी इसी तरह के कृत्रिम रीफ के निर्माण से सकारात्मक परिणाम मिले हैं। तमिलनाडु में सबसे ज्यादा सफलता मिली है। 2006 से, राज्य के मत्स्य विभाग ने तट के साथ दस जिलों में फैले 125 तटीय स्थलों पर कृत्रिम रीफ लगाई हैं। अंतर्राष्ट्रीय कृषि विकास कोष द्वारा समर्थित सुनामी के बाद टिकाऊ आजीविका कार्यक्रम (PTSLP) के तहत तमिलनाडु महिला विकास निगम (TNCDW) ने तमिलनाडु के तट पर कृत्रिम रीफ स्थापित की हैं, जिनमें केंद्रीय समुद्री मत्स्य पालन अनुसंधान संस्थान (CMFRI) ने 18 और NIOT ने 42 ऐसी रीफ स्थापित की हैं। CMFRI रिपोर्ट में बताया गया है कि 2000 से 2020 तक, राज्य के 22 अन्य स्थलों पर अन्य गैर-सरकारी संगठनों और एजेंसियों ने मिलकर कृत्रिम रीफ स्थापित की हैं।

कृत्रिम रीफ किसी क्षेत्र की जैव विविधता को भी बढ़ाने के लिए जानी जाती हैं, खासकर उन क्षेत्रों में जहां प्राकृतिक रूप से कोरल या रॉकी रीफ नहीं होती हैं। कंक्रीट की रीफ की सख्त सतह शैवाल, अन्य पौधों और कोरल, मोलस्क या क्रस्टेशियन जैसे अकशेरुकी जीवों के विकास को बढ़ावा देती है, जो विभिन्न जीवन अवस्थाओं में विभिन्न मछलियों को आश्रय प्रदान करते हैं। कासिम CMFRI रिपोर्ट के लेखकों में से एक हैं। उनके मुताबिक, कृत्रिम रीफ विभिन्न प्रजातियों के लिए वयस्क या उप-वयस्क आवासों के रूप में काम कर सकती हैं। इससे जैव विविधता को बढ़ावा मिलता है और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए मनोरंजक डाइविंग के अवसर भी मिलते हैं।
कासिम के मुताबिक, कृत्रिम रीफ समुद्री तल के क्षेत्रफल को बढ़ाने में मदद करती हैं। जब समुद्र में एक दीवार बनाई जाती है, तो वह उतना ही क्षेत्रफल घेर लेती है, जितना उस दीवार की लंबाई होती है। लेकिन कृत्रिम रीफ अपनी लंबाई के अनुसार समुद्री तल का क्षेत्रफल बढ़ाती हैं। यह इसलिए है क्योंकि ये संरचनाएं तीन-आयामी होती हैं और उनमें कई छेद और दरारें होती हैं, जो मछलियों और अन्य समुद्री जीवों के लिए रहने की जगह बनाती हैं। कासिम कहते हैं, ज्यादा क्षेत्र का मतलब है ज्यादा जीव।
इसके अलावा, कृत्रिम रीफ समुद्र से तेल रिसाव को दूर करने में भी उपयोगी साबित हुई हैं। अरब देशों में, कृत्रिम रीफ तेल रिफाइनरियों के पास रखी जाती हैं। इन संरचनाओं पर उगाए गए कुछ शैवाल, लार्वा और मछलियां तेल के कणों को अवशोषित कर सकती हैं और पानी को साफ कर सकती हैं। इसी तरह, कृत्रिम रीफ का इस्तेमाल किसी क्षेत्र में समुद्री प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए भी किया जा सकता है, क्योंकि कुछ समुद्री जीव जो प्रवाल भित्तियों पर उगते हैं, उनमें कुछ प्रदूषक पदार्थों को साफ करने वाले गुण होते हैं। कासिम कहते हैं कि भारत में अभी तक ऐसी कोई परियोजना शुरू नहीं की गई है।
कासिम का दावा है कि कृत्रिम रीफ चक्रवातों और सुनामी के प्रभाव को भी कम करने में सहायक हो सकती हैं।
कंक्रीट की चिंताएं
हालांकि भारत कृत्रिम रीफ के निर्माण में बहुत उत्साही है, लेकिन दुनियाभर के अनुभव बताते हैं कि ऐसी योजनाओं को सावधानीपूर्वक बनाना जरूरी है। फ्रांस के राष्ट्रीय वैज्ञानिक अनुसंधान केंद्र की फैलो फ्रांसीसी वैज्ञानिक कैटेल गुइजियन ने उत्तरी पश्चिमी भूमध्य सागर में कृत्रिम रीफ के स्थलों का पता लगाया है और उनका मूल्यांकन किया। उनके शोध का उद्देश्य पिछले दस से तीस सालों में समुद्र में लगाए गए रीफ और उन पानी के प्राकृतिक आवास के साथ उनके संबंध की जांच करना था। फ्रांसीसी कानून के अनुसार, इन कृत्रिम रीफ को निर्धारित समय समाप्त होने पर हटा दिया जाना चाहिए, लेकिन कई कंपनियों के बंद हो होने के कारण कुछ संरचनाएं समुद्री तल में ही रह गई।
मोंगाबे इंडिया से बात करते हुए गुइजियन ने बताया कि उनका अध्ययन तब शुरू हुआ जब समुद्र में पवन टर्बाइनों के आसपास बेंटिक अकशेरुकी जीवों की दुर्लभ प्रजातियों (जैसे कोरल और अन्य अकशेरुकी जीव जो पानी के सबसे निचले स्तर, बेंटिक जोन में रहते हैं) का पता चला। सरकार ने इन पवन टर्बाइनों को बंद करने की योजना बनाई है। इससे वैज्ञानिकों को यह जानने में रुचि हुई कि क्या लंबे समय तक समुद्र में छोड़ी गई कृत्रिम संरचनाएं भी प्रजातियों के कार्यात्मक संबंध को बदल देती हैं।

गुइजियन ने निष्कर्ष निकाला कि रीफ के विकास के लिए उम्र या आकार महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि स्थान बहुत जरूरी है। कुछ रीफ पर, उन्हें कई प्रकार के बेंटिक अकशेरुकी जीव मिले, लेकिन कुछ पर सिर्फ एक ही प्रजाति थी। उनका मानना है कि यह समस्या हो सकती है। कुछ बेंटिक अकशेरुकी जीव दूसरों की तुलना में तेजी से प्रजनन करते हैं, दूसरों के लिए पनपने के लिए कोई जगह नहीं छोड़ते। वे तेजी से रीफ पर्यावरण पर हावी हो सकते हैं और प्राकृतिक पर्यावरण में फैल सकते हैं, जिससे समुद्र की जैव विविधता नकारात्मक रूप से प्रभावित हो सकती है। गुइजियन मोंगाबे इंडिया से कहती हैं, “इसके अलावा, किसी भी प्राकृतिक पर्यावरण में आपको सिर्फ एक प्रकार का बेंटिक अकशेरुकी जीव कभी नहीं मिलेगा।“
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इसके अलावा, गुइजियन के शोध से पता चला है कि 30 साल बाद भी सभी कृत्रिम रीफ परिपक्व नहीं हुई हैं, जिसका सीधा सा मतलब है कि वे प्राकृतिक रीफ की तरह विकसित नहीं हुई हैं। एक और चिंता यह है कि कृत्रिम रीफ विदेशी, आक्रामक कोरल और मछलियों के प्रजनन स्थल बन सकती हैं, जिससे स्थानीय पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंच सकता है। कंक्रीट, जिसे दुनिया भर में कृत्रिम रीफ के लिए सबसे अच्छी सामग्रियों में से एक माना जाता है, फिर भी कुछ हद तक समुद्र को प्रदूषित करता है क्योंकि यह विषाक्त पदार्थ छोड़ता है।
पुनीत ढांढानिया कहते हैं “इसके अलावा, कृत्रिम रीफ की एक एक्सपायरी डेट होती है और तीन दशकों के बाद उनकी प्रभावशीलता कम हो सकती है, संभावित रूप से ये खाली संरचना बन जाएं। वैसे इस क्षेत्र में पर्याप्त शोध नहीं होने के कारण अनिश्चितता बनी हुई है।”
कृत्रिम रीफ की भी कुछ सीमाएं हैं। उन्हें रेतीली जमीन की जरूरत होती है और साथ ही ये स्थानीय आवासों को नुकसान पहुंचाने वाली न हों। समुद्र में तेजी से गति के कारण वे रेत में डूब सकती हैं या कोरल को नुकसान पहुंचा सकती हैं। इसके अतिरिक्त, इन संरचनाओं को बायोफिल्म बनाने के लिए सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है, जो उन्हें गहरे समुद्र में स्थापित करने के लिए अनुपयुक्त बनाता है। कासिम कहते हैं कि ये ट्रॉलरों में भी बाधा उत्पन्न कर सकते हैं, जिससे मुख्य रूप से छोटे मछुआरों के लिए चुनौतियां पैदा होती हैं।
भले ही फ्रांस जैसे कुछ देशों में निर्धारित सालों के बाद कृत्रिम रीफ को हटाने का नियम है, लेकिन कासिम का मानना है कि भारतीय जल में मौजूद रीफ को नहीं हटाया जाना चाहिए।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 21 मई 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: कृत्रिम रीफ लगाते हुए। 2023 में, केंद्र सरकार ने मछली की आबादी को बढ़ावा देने के लिए भारत के समुद्र तट पर कृत्रिम रीफ लगाने की घोषणा की थी। तस्वीर- कुडल लाइफ फाउंडेशन