- महाराष्ट्र के मेलघाट क्षेत्र की आदिवासी महिलाओं को पानी लाने के रोजाना कई किलोमीटर की चढ़ाई करनी पड़ती है। इससे उनकी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं बढ़ने लगी हैं।
- उनके गावों के आसपास तीन बांध और कई जल परियोजनाओं के बावजूद, वन विभाग के नियमों और बुनियादी ढांचा विकास परियोजनाओं के बीच नौकरशाही की अड़चनों के चलते गांवों तक पानी की सुविधा नहीं पहुंच पा रही है।
- गर्भवती महिलाएं दूषित पानी का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर हैं। उनके बीच संक्रमण और जलजनित बीमारियां बढ़ रही हैं, जिससे प्रसव के दौरान खतरा बढ़ा है।
महाराष्ट्र के मेलघाट क्षेत्र के पचडोंगरी गांव में पंट्टी ढांडे का पूरा दिन बस एक ही काम में बीतता है और वो है अपने परिवार के लिए पानी लाना। आठ महीने की गर्भवती होने के बावजूद पानी लाने के लिए वह रोजाना दो किलोमीटर पैदल चलती हैं और अपने सिर पर पानी से भरे दो घड़े लेकर आती हैं। इसके चलते उनकी पीठ और कमर का दर्द काफी बढ़ गया है।
ढांडे कहती हैं, “पानी का टैंकर रोजाना नहीं आता। जब आता है, तो गांव की सभी महिलाएं वहां दौड़ पड़ती हैं। यह एक बड़ा संघर्ष है। हमारे घर पर कुछ जानवर (मवेशी और पालतू जानवर) भी हैं, मुझे उनके लिए भी पानी लाना पड़ता है। मेरी पीठ और कमर का दर्द बढ़ता जा रहा है। मैं हर रात यह सोचते हुए सोती हूं कि ‘क्या कल कुएं में पानी आएगा?’ हमारे गांव की सभी महिलाएं इसी समस्या से जूझ रही हैं। सरकार को तुरंत कदम उठाने चाहिए ताकि हमें अपनी जरूरतों के लिए रोजाना पानी मिल सके।”
उनकी ये कहानी अमरावती जिले के चिखलधारा तालुका के एक गांव पचडोंगरी की हर आदिवासी महिला के रोजाना के संघर्ष औऱ दुख को बयां करती है। गांव की कुल आबादी 835 (2011 की जनगणना के अनुसार) है। मेलघाट के अन्य आस-पास के खादीमल और मखला जैसे गांव भी गंभीर जल संकट से जूझ रहे हैं।
पचडोंगरी तीन साल पहले 2022 में, तब सुर्खियों में आया था, जब पीने के पानी के लिए तरस रहे ग्रामीणों ने दूषित कुएं का पानी पी लिया और बीमार पड़ गए। इसी गांव की सुशीला धांडे वन अधिकारों पर केंद्रित एक गैर सरकारी संगठन ‘खोज’ के साथ पिछले 10 सालों से काम कर रही हैं। उन्होंने कहा, “तीन साल पहले गंदे पानी की वजह से हमारे गांव में डायरिया का प्रकोप फैल गया था। 16 लोग अस्पताल ले जाने से पहले ही मर गए।” उस साल जुलाई में डायरिया के बाद गन्दा पानी पीने की वजह से यहां अगस्त में हैजा भी फैला था।
हालांकि, इस घटना के बाद कई खबरें छपीं और वीडियो भी वायरल हुए, लेकिन पानी की समस्या आज भी जस की तस बनी हुई है। गांव का दौरा करने पर वहां के लोगों ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि तीन साल पहले पचडोंगरी और पास के कोयलारी गांव में गंदे पानी की वजह से तकरीबन 400 लोग बीमार पड़े थे, जिनमें से करीब 100 लोगों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था। ग्रामीणों का कहना है कि उस समय मीडिया ने इन आंकड़ों को कम करके दिखाया था।

मेलघाट का भूगोल और जल संकट
मेलघाट का अर्थ है “पर्वत की श्रृंखलाओं का संगम”। यह गांव महाराष्ट्र के सुदूर जनजातीय इलाके में स्थित है और राज्य के उत्तरी भाग में मध्य प्रदेश की सीमा से सटा है। इस क्षेत्र में मुख्य रूप से कोरकू जनजाति निवास करती है, जो राज्य का ग्यारहवां सबसे बड़ा जनजातीय समुदाय है। सतपुड़ा पर्वतमाला की अनोखी भौगोलिक स्थिति को “सात तह या रिज” कहा जाता है। आप इस क्षेत्र की जितना गहराई में जाएंगे, ये उतना ही दुर्गम होता चला जाएगा।
मेलघाट में फैले 320 गांवों में लगभग 3,00,000 लोग रहते हैं। यहां की 80% से अधिक आबादी जनजातीय समुदायों की है।
यह इलाका भौगोलिक रूप से बहुत दुर्गम है, जिसकी वजह से यहां पानी की कमी और विकास से जुड़ी कई चुनौतियां बनी हुई हैं। उदाहरण के लिए, जहां एक पक्की सड़क अमरावती शहर को सेमाडोह गांव से जोड़ती है, वहीं पचडोंगरी गांव तक जाने वाला 26 किलोमीटर का रास्ता कच्चा है और उस पर चलना मुश्किल है। इस अपर्याप्त बुनियादी ढांचे के कारण इन गांवों तक पहुंचना और जल संकट का समाधान निकालना दोनों ही मुश्किल हो जाता है।
यह क्षेत्र कुपोषण से होने वाली बाल मृत्यु दर, गरीबी और बड़े पैमाने पर मौसमी पलायन जैसी समस्याओं के लिए भी जाना जाता है। पिछले पांच सालों से पानी की लगातार कमी इस क्षेत्र की एक और चुनौती बन गई है।
गांव ऊंचे भूभाग पर स्थित है, तो कुएं नीचे की ओर। मखला गांव की 28 साल की संध्या जावरकर बताती हैं, “हमें पानी के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है। मई और जून के दौरान, यह बहुत मुश्किल हो जाता है। कभी-कभी तो हमें कुएं के पास बैठकर पानी की बारी का इंतजार करने में पांच घंटे बीत जाते हैं। पानी थोड़ा-थोड़ा करके भरना होता है, जिसमें पूरा दिन लग जाता है। इसकी वजह से हमारे शरीर में दर्द बना रहता है। साफ पानी न मिलने की वजह से अकसर हम बीमार पड़ जाते हैं।”
माखला गांव की आबादी लगभग 2,000 है और पूरे पांच किलोमीटर के दायरे में केवल चार कुएं हैं। पानी के लिए लोगों को बहुत संघर्ष करना पड़ता है, खासकर अप्रैल से लेकर जून तक। महाराष्ट्र सरकार, अपनी सूखा प्रबंधन कार्य योजना के तहत, पीने, नहाने और खाना पकाने सहित सभी जरूरतों के लिए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन केवल 20 लीटर पानी टैंकरों के जरिए उपलब्ध कराती है। गांव की ग्राम पंचायत गांव के निवासियों की जरूरतों का नक्शा बनाकर, ब्लॉक विकास अधिकारी को भेजती है, जो फिर गांव को टैंकर भेजकर पानी की आपूर्ति करता है।
माखला से 16 किलोमीटर दूर खादीमल गांव में भी तकरीबन 1,400 लोग रहते हैं। गांव के घर साधारण हैं, जिनकी ढलानदार छतें स्थानीय सामग्रियों से बनी हैं। गांव का कुआं पूरी तरह से सूख चुका है। पानी के टैंकर आते हैं और कुएं में पानी डालकर चले जाते हैं। महिलाओं में पानी को लेकर विवाद न हो इसके लिए उन्हें पानी को कुएं में डालना ही मुनासिब लगता है। जैसे ही कोई टैंकर दिखाई देता है, महिलाएं अपने बर्तन और बाल्टी लेकर कुएं की ओर दौड़ पड़ती हैं और पानी के नीचे की गाद को बैठने से पहले ही वहां से पानी खींच लेती हैं।
जल संकट न केवल जीवित रहने, बल्कि आजीविका को भी प्रभावित करता है। पानी के बिना, खेती नहीं हो पाती है, जिससे काम और आय का जरिया खत्म हो जाता है। मुश्किल से गुजारा करने वाले लोग शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हो जाते हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं की कमी के कारण, कई बच्चों को तालुका मुख्यालयों में रहने के लिए भेज दिया जाता है। लेकिन गरीब परिवारों के बच्चे शिक्षा से पूरी तरह वंचित रह जाते हैं।

जलवायु परिवर्तन और जल संकट
डॉ. अविनाश सातव पिछले 30 सालों से महान ट्रस्ट के तहत मेलघाट में चिकित्सा सेवाएं दे रहे हैं। उनके मुताबिक, मेलघाट में बिगड़ते जल संकट के लिए जलवायु परिवर्तन भी समान रूप से जिम्मेदार है।
उन्होंने कहा, “लगभग 10 से 15 साल पहले, मेलघाट में इतनी बारिश होती थी कि कई दिनों तक सूरज दिखाई नहीं देता था। लेकिन पिछले एक दशक में औसत वर्षा में भारी कमी आई है और बेमौसम बारिश की घटनाएं भी बढी हैं। कुछ साल पहले तक फरवरी तक कड़ाके की ठंड रहती थीं। अब, तो फरवरी के आखिरी दिनों से ही तापमान तेजी से बढ़ने लगता है। हर साल, अप्रैल और मई में तापमान के नए रिकॉर्ड बनते हैं।”
डॉ. सातव का यह आकलन जलवायु आकड़ों से मेल खाता है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर केदार कुलकर्णी के अनुसार, मेलघाट में औसत वार्षिक वर्षा में 3.9% की गिरावट आई है। 1960-1990 के बीच जहां औसत वर्षा 957 मिमी थी, वहीं 1990-2020 की अवधि में यह घटकर 920 मिमी रह गई (भारत मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार)। सूखे की घटनाएं भी 50% बढ़ गई है। 1960-1990 के बीच चार साल सूखा पड़ा था, जबकि 1990-2020 के बीच ऐसे सूखे सालों की संख्या छह हो गई। कुलकर्णी ने बताया, “वर्षा और सूखे के पैटर्न में ये बदलाव औसत वार्षिक तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि के साथ आते हैं। इसी तुलनात्मक अवधि में, क्षेत्र में औसत तापमान में लगभग 0.5°C की वृद्धि हुई। ये सभी रुझान अमरावती जिले में बदलती जलवायु का प्रमाण देते हैं।”
जलवायु परिवर्तन का स्थानीय आबादी पर सीधा और चिंताजनक प्रभाव पड़ता है। डॉ. सातव का आकलन महिलाओं और लड़कियों पर पड़ने वाले भारी बोझ के बारे में भी बताता है: “बढ़ते जल संकट के कारण, किशोरियों और महिलाओं को बेहद कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। रोजाना चार-पांच बर्तन लेकर दो से तीन किलोमीटर चलने से कंधे और पीठ दर्द जैसी शारीरिक समस्याएं पैदा हो रही हैं।” शरीर के साथ-साथ यह मानसिक रूप से भी बहुत थका देने वाला काम है। डॉ. सातव कहते हैं, “हर दिन यह चिंता बनी रहती है कि अगली सुबह पानी मिलेगा या नहीं।” यह लगातार बनी रहने वाली चिंता उनके मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रही है।

पानी की कमी से सेहत पर असर
डॉ. अविनाश सातव ने सेहत पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कहा, “मासिक धर्म के दौरान पानी की कमी के कारण महिलाओं को गंदे कपड़े इस्तेमाल करने पड़ते हैं, जिससे कई लड़कियों में संक्रमण हो रहा है।” उन्होंने पीने के पानी की गुणवत्ता से जुड़ी व्यापक समस्याओं का भी जिक्र किया, “कई गांवों में पीने का पानी साफ नहीं है और डायरिया की समस्या बहुत आम हो गई है। जब गर्भवती महिलाएं इस दूषित पानी को पीती हैं, तो उन्हें डायरिया हो जाता है, जिसका सीधा असर गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ता है।” डॉ. सातव ने इसे एक “खतरनाक चक्र” बताया, जहां दूषित पानी डायरिया और फिर कुपोषण का कारण बन रहा है। उन्होंने आगे कहा, “ज्यादातर गांवों के कुओं में गंदा पानी होता है, जिसका इस्तेमाल महिलाएं कपड़े और बर्तन धोने के लिए करती हैं। इस गंदे पानी के कारण बच्चों में त्वचा संक्रमण और लगातार खुजली के मामले भी देखे जा रहे हैं।”
उनके मुताबिक, सफाई और शौच के लिए पर्याप्त पानी न होने से महिलाओं को शौच के लिए खेतों में जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिससे उन्हें सांप के काटे जाने का खतरा भी बढ़ा है।
खादीमल की माधुरी बेठेकर कहती हैं, “हमारे गांव में रोजाना पानी के तीन टैंकर आते हैं, लेकिन ये काफी नहीं हैं। पानी की समस्या की वजह से हमारे बच्चे बीमार पड़ रहे हैं और उन्हें त्वचा की समस्याएं हो रही हैं, जैसे खुजली, चकत्ते और पूरे शरीर पर स्केबीज। सरकार को इस समस्या पर ध्यान देना चाहिए।”
मेलघाट में वन अधिकारों पर काम करने वाले एक गैर-सरकारी संगठन ‘खोज’ के निदेशक बंद्या साने जल संकट से लोगों की सेहत पर गंभीर असर की बात कहते हैं। उन्होंने बताया कि गंदे पानी और गर्भवती महिलाओं में कुपोषण से इस क्षेत्र में शिशु मृत्यु दर बढ़ गई है और बहुत से बच्चे कुपोषित पैदा हो रहे हैं। हैजा, टाइफाइड और हेपेटाइटिस जैसी जलजनित बीमारियां आम हैं। हालत तब और बिगड़ जाते हैं जब पानी के टैंकर गाद भरे कुओं में सीधा पानी डाल देते हैं, जिससे पानी और ज्यादा गंदा हो जाता है। साने के मुताबिक, इससे कम वजन वाले शिशुओं का जन्म होता है, शिशु और मातृ मृत्यु दर बढ़ रही है और कुपोषण फैलता जा रहा है।
चिखलदरा तालुका के चिकित्सा अधिकारी डॉ. आदित्य पाटिल के अनुसार, 65% महिलाएं मध्यम स्तर के एनीमिया और 8% गंभीर स्तर के एनीमिया से पीड़ित हैं, जो पानी की कमी से संबंधित स्वास्थ्य समस्याओं को और बढ़ा देती है। पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वालों के लिए सबसे नजदकी अस्पताल भी 50-60 किमी दूर है।
पानी तक पहुंचने में बाधाएं
विशेषज्ञों का कहना है कि मेलघाट में पानी की कमी केवल प्राकृतिक कारणों से नहीं बल्कि इंसानों की वजह से भी है। यह इलाका टाइगर रिज़र्व (बाघ अभयारण्य) के दायरे में आता है। ऊंचाई पर बसे गांवों तक इन बांधों से पानी पहुंचाने के लिए बिजली की जरूरत होती है। लेकिन वन विभाग के कड़े नियमों के कारण बिजली की तारें बिछाने की अनुमति मिलना मुश्किल है। क्योंकि ये बिजली की लाइनें जंगल के जानवरों के लिए खतरा बन सकती हैं, इसलिए वन विभाग कई बार इसकी मंजूरी नहीं देता।

मेलघाट के ज्यादातर गांवों में हर घर में नल लगे हैं, लेकिन ऊंचाई वाले इलाकों में बसे घरों को बिजली न होने के कारण पानी नहीं मिलता है। ये गांव वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, इसलिए यहां बिजली से जुड़ा कोई काम शुरू करने में कई समस्याए हैं। सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए सोलर पावर परियोजना शुरू की और हर घर के सामने सोलर पैनल लगाए गए। लेकिन उचित देखरेख के अभाव में ये पैनल बेकार पड़े हैं और धूल फांक रहे हैं।
पानी की कमी को दूर करने के लिए अलादोह, शाहपुर, मोथा और मडकी जैसे गांवों के लिए दो चरणों में जलापूर्ति परियोजनाएं प्रस्तावित की गई। लेकिन इनके लिए वन विभाग की मंजूरी की जरूरत है और यही सबसे बड़ी रुकावट बन जाती है। चिखलदरा के ब्लॉक विकास अधिकारी शिवशंकर भारसाकले ने मोंगाबे इंडिया को बताया, चूंकि मेलघाट एक टाइगर रिजर्व के अंदर आता है, इसलिए बिजली का बुनियादी ढांचा आसानी से विकसित नहीं किया जा सकता है। इस वजह से इन योजनाओं को अमल में लाना बहुत मुश्किल हो जाता है।
मेलघाट टाइगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर श्रीनिवासन रेड्डी ने कहा, “निजी भूमि पर विस्फोट की अनुमति देने में कोई समस्या नहीं है। वन क्षेत्रों को छोड़कर, स्थानीय निवासी कहीं भी विस्फोट कर सकते हैं। नागरिक बेवजह वन्यजीव विभाग पर आरोप लगा देते हैं।”
अमरावती की डिवीजनल कमिश्नर श्वेता सिंगल के अनुसार, “अगर ब्लास्टिंग में समस्या है, तो कम से कम जो सभी काम मैनुअल तरीके संभव हैं, उनकी अनुमति जरूर दी जानी चाहिए।”
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वहीं बंद्या साने का मानना है, “मेलघाट का जल संकट पानी की कमी के कारण नहीं है, यह शासन की विफलता है। प्राकृतिक संसाधनों और सरकारी योजनाओं के बावजूद, खराब क्रियान्वयन और जवाबदेही की कमी ने आदिवासी समुदायों को उनके मूल अधिकारों से वंचित कर दिया है।”
सरकारी अधिकारी इस मुद्दे की गंभीरता को स्वीकार करते हैं। उनके मुताबिक, इस संकट का समाधान किया जा रहा है और इसे जल्द ही सुलझा लिया जाएगा। चिखलदरा के तहसीलदार जीवन मोरनकर ने बताया, “मेलघाट का जल संकट गंभीर है। इस क्षेत्र में जल संचयन की समस्याएं हैं। पानी जमा नहीं रह पाता है, जिससे बार-बार पानी की कमी होती है। खादीमल में स्थानीय जलाशय को गहरा और चौड़ा करने के लिए विशेष प्रयास किए जा रहे हैं। इससे संकट कम होना चाहिए। महाराष्ट्र जल प्राधिकरण की कई योजनाएं फिलहाल प्रगति पर हैं। चार योजनाओं पर काम चल रहा है। अगली गर्मियों तक, मेलघाट के लोगों की पानी की समस्या का समाधान हो जाएगा।”
यह स्टोरी प्रोजेक्ट धरित्री का हिस्सा है, जो असर और बाईमाणूस का संयुक्त प्रयास है। मोंगाबे इंडिया इस प्रोजेक्ट के साथ मिलकर जलवायु और लैंगिक मुद्दों को लोगों तक पहुंचाने का काम कर रहा है।
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यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 28 अगस्त 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: कुएं के पास कपड़े धोती एक महिला। मेलघाट के अधिकांश गांवों के कुओं का पानी गंदा है, जिसका इस्तेमाल महिलाएं कपड़े और बर्तन धोने के लिए करती हैं। इससे बीमारियां और संक्रमण फैल रहा है। तस्वीर: अभिजीत तांगड़े