- उत्तर भारत में वायु प्रदूषण की समस्या अभी चरम पर है और लोगों का सांस लेना दूभर हो रहा है।
- प्रत्येक साल की तरह इस साल भी लोग सरकार से जरूरी कदम उठाने की मांग कर रहे हैं। कई लोग सरकार से नया कानून की भी मांग कर रहे हैं।
- वायु प्रदूषण से निपटने के लिए देश में करीब 40 साल पुराना एक कानून मौजूद है पर नीति-निर्माता उसे शायद भूल गए हैं।
- पुराने कानून में प्रदूषण के नए स्रोतों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है जिससे इस कानून में संशोधन की जरूरत है।
उत्तर भारत जब पूरी तरह वायु प्रदूषण के चपेट में है और लोगों का सांस लेना दूभर हो रहा है तब प्रत्येक साल की तरह, फिर से सबको इससे निपटने के लिए कानून की आवश्यकता महसूस हो रही है। ऐसे में यह जानना दिलचस्प है कि देश में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए करीब 40 साल पहले ही एक कानून बन गया था। वायु प्रदूषण रोकथाम और नियंत्रण कानून, 1981 जो वायु प्रदूषण रोकने के लिए ही लाया गया था।
देश में यह कानून 1972 के संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सम्मेलन में किए वादों को ध्यान में रखकर बनाया गया था। इस कानून के तहत केंद्र और राज्य सरकारों को हवा की गुणवत्ता नियंत्रित करने, प्रदूषण मापने और प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों को बंद करने सहित प्रदूषण के लिए जिम्मेदार व्यक्ति को जेल भेजने तक के अधिकार हासिल हैं।
वक्त बीतने के साथ कानून अपनी प्रासंगिकता खोता गया और देश वायु प्रदूषण के मामले में वैश्विक स्तर पर शीर्ष पर पहुंच गया। देश के उत्तरी राज्यों में बीते कुछ वर्षों में वायु प्रदूषण फैलाने के मामले में जो केस दर्ज हुए हैं उनकी संख्या लगभग नगण्य है। यह स्थिति तब है जब सर्दी में हर साल यहां हवा, प्रदूषण के मामले में निम्न स्तर पर चली जाती है। लोग सांस लेने में भी संघर्ष करते दिखते हैं।
आलम यह है कि देश की सर्वोच्च अदालत और सरकारें भी इस कानून को भूल गई लगती हैं। वायु प्रदूषण से निपटने के लिए हाल में उठाए गए कई कदम जैसे ऑड-इवेन और ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान इत्यादि इस कानून से संचालित नहीं होते।
जानकार इस कानून को आमतौर पर दंतहीन कानून के तौर पर देखते हैं। जब फिर प्रदूषण चरम पर है तो कई सांसद, वकील और कार्यकर्ता सलाह दे रहे हैं कि या तो इस कानून को मजबूत किया जाए या नया कानून लाया जाए। कुल मिलाकर ऐसा शक्तिशाली कानून बने जिसे सख्ती से लागू जा सके। भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस वर्ष कुछ ऐसा ही वादा किया था।
यह कानून कैसे आया अस्तित्व में
वायु प्रदूषण का कानून ऐसे समय में आया जब इंदिरा गांधी और बाद में राजीव गांधी एक के बाद एक पर्यावरण से जुड़े कानून लेकर आ रहे थे। इनमें वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972, जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम 1974, वन (संरक्षण) अधिनियम1980 और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 जैसे कानून शामिल हैं। स्टॉकहोम के सम्मेलन में वर्ष 1972 में इंदिरा गांधी ने वायु प्रदूषण को गरीबी से जोड़ते हुए जोरदार भाषण दिया था। ये कानून उसी सम्मेलन के बाद बनाए गए।
जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम 1974, देश का पहला प्रदूषण नियंत्रण करने वाला कानून था जिसके तहत राज्य और केंद्रीय स्तर पर निगरानी के लिए संस्थाएं बनाई गईं। इन संस्थाओं को वायु प्रदूषण के कानून ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में बदल दिया। इस बोर्ड के पास प्रदूषण फैलाने वाले काम बंद करने जैसे कई अधिकार हैं। बोर्ड फैक्ट्री को बंद कर सकता है या वहां पानी और बिजली की आपूर्ति को भी बाधित कर सकता है।
उदाहरण के लिए, कोई भी फैक्ट्री प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की अनुमति के बिना नहीं लगाई जा सकती है। फैक्ट्रियों को काम शुरू करने से पहले से लेकर काम के तरीके में बदलाव के वक्त, हर समय बोर्ड की मंजूरी लेनी होती है। हर मंजूरी के साथ प्रदूषण नियंत्रण से संबंधित मशीनों की स्थापना, प्रदूषण को मापने के यंत्र लगाने और नोटिस बोर्ड पर प्रदूषण का स्तर बताने जैसे निर्देश, बोर्ड जारी करता है।
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड फैक्ट्री मालिकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा भी चला सकता है जिसकी वजह से उन्हें वायु या जल प्रदूषण फैलाने के जुर्म में 7 साल तक की कैद हो सकती है।
“यह कानून छोटे और मंझौले फैक्ट्रियों पर भी प्रभावी होता है जहां अमूमन पर्यावरण मंजूरी की जरूरत नहीं होती,” पर्यावरण से जुड़ी वकील और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की फेलो शिबानी घोष का कहना है। उन्होंने इस कानून को लेकर एक नोट भी लिखा है। वह कहती हैं, “दूसरे पर्यावरण कानून जैसे पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए) नोटिफिकेशन की तुलना में वायु प्रदूषण कानून बड़ा दायरा समेटे हुए है।”
कानून से प्रदूषण फैलाने के कई स्रोत नदारद
इस कानून की सबसे बड़ी सीमा है कि यह प्रदूषण के कुछ बड़े स्रोतों जैसे फैक्ट्री और पावर प्लांट इत्यादि को ही परिभाषित करता है। इस वजह से कई बार इस कानून को आलोचना का सामना भी करना पड़ता है। जानकार मानते हैं कि प्रदूषण के दूसरे स्रोत जैसे कचरा फेंकने के मैदान, खेती, गाड़ियों और घर से निकला प्रदूषण इस कानून की जद में नहीं आता। जबकि आज के वायु प्रदूषण में इनका काफी योगदान है।
उदाहरण के लिए, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर ने 2015 में एक अध्ययन किया जिसमें सामने आया कि धूलकण संभवतः प्रदूषण के सबसे बड़े कारणों में से एक है।
शिबानी कहती हैं कि जब यह कानून 1981 में तैयार हो रहा था तब उनके सामने ये चुनौतियां नहीं थीं, लेकिन समय के साथ कानून में बदलाव लाना जरूरी था।
इस कानून में प्रदूषण मापने के नए तरीकों के बारे में भी कुछ नहीं कहा गया है। उदाहरण के लिए जिन फैक्ट्रियों को ‘रेड’ श्रेणी में रखा गया है उन्हें इंटरनेट से जुड़ा हुआ मापक यंत्र लगाना होता है। इसका आंकड़ा सीधा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को जाता है। हालांकि, यह आंकड़ा कानून में सबूत के तौर पर मान्य नहीं होता। इस कानून के तहत सबूत जुटाने के लिए अब भी अधिकारियों को फैक्ट्री पहुंचकर सैंपल लेना पड़ता है।
इन वजहों से वायु प्रदूषण के सबूत जुटाने में अधिकारियों को दिक्कत आती है। नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी के लॉ प्रोफेसर साइराम भट कहते हैं कि पानी में प्रदूषण हो तो उसे बाद में भी दिखाया जा सकता है लेकिन हवा में प्रदूषण को उसी वक्त जांचना होगा। इस वजह से सबूत इकट्ठा करना मुश्किल होता है।
भट कहते हैं कि एक जमाने में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड काफी उत्साह के साथ प्रदूषण फैलाने वालों पर कानूनी कार्रवाई करता था। इसका एक उदाहरण महाबीर कोक इंडस्ट्री का 1998 मामला है। हालांकि, अब वह उत्साह नहीं दिखता।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में उत्तर भारत में नहीं के बराबर केस दर्ज हुए हैं। दिल्ली जैसे राज्यों में तो एक भी केस दर्ज नहीं हुआ। 2017 के बाद एनसीआरबी ने वायु और जल प्रदूषण के मामलों को एकसाथ दिखाना शुरू किया। इसके बाद वायु प्रदूषण के मामलों का पता लगाना मुश्किल हो गया है।
यहां सिर्फ कम कानूनी मामलों की बात नहीं है, बल्कि देश की सरकारें भी प्रदूषण नियंत्रण के लिए इस कानून के भरोसे नहीं रहना चाहती हैं। उदाहरण के लिए गाड़ियों में भारत स्टेज-6 (बीएस-VI) और पॉल्यूशन अंडर कंट्रोल (पीयूसी) सर्टिफिकेट के मानदंड़ों को मोटर वाहन अधिनियम के तहत तैयार किया गया है। कचरा जलाने के मामलों को पर्यावरण संरक्षण कानून के तहत रखा जाता है।
वर्ष 2014 में टीएसआर सुब्रमण्यम कमेटी की स्थापना पर्यावरण से संबंधित कानूनों को परखने के लिए की गई थी। कमेटी का कहना था कि वायु प्रदूषण नियंत्रण कानून को खत्म कर इसके प्रावधानों को पर्यावरण संरक्षण कानून में जोड़ देना चाहिए।
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वर्ष 2015 में भारतीय जनता पार्टी के वरूण गांधी ने इस कानून में बदलाव के लिए एक बिल पेश किया था जिसमें देशभर में गाड़ियों से निकलने वाले धुएं का मापदंड एक करने की बात शामिल थी। 2018 में बीजू जनता दल के प्रभाष कुमार सिंह ने बिल पेश कर 1,00,000 से अधिक आबादी वाले शहरों में वायु प्रदूषण मापने की जरूरी व्यवस्था करने का प्रस्ताव दिया था। उनके इस प्रस्ताव में खनन और फैक्ट्रियों वाले शहर भी शामिल थे। हालांकि, दोनों बिल का कुछ नहीं हो सका।
नवंबर 2019 में कांग्रेस के गौरव गोगोई ने मीटिंग के दौरान वायु प्रदूषण कानून में बड़े बदलावों को लेकर बिल लाने का वादा किया, लेकिन अबतक कोई बिल नहीं आया।
कानून अब भी हो सकता है प्रभावी
ये तो रही कानून की कमियां, लेकिन कानून में ऐसी कई खूबियां भी है जिसका कभी प्रयोग ही नहीं किया गया। नई दिल्ली स्थिति स्वयंसेवी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने एक अध्ययन प्रकाशित किया जिसमें पाया गया कि कानून अब भी वायु प्रदूषण रोकने में सक्षम है। लॉ फर्म लुथरा एंड लुथरा और सीपीसीबी के पूर्व सदस्य सचिव बी सेनगुप्ता के मतों को शामिल करते हुए यह अध्ययन कहता है कि वायु प्रदूषण कानून, पराली जलाने और गाड़ियों के निकले वाले धुएं को भी नियंत्रित करने की शक्तियां रखता है।
अध्ययन में सामने आया कि राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कई बार केंद्रीय बोर्ड के निर्देशों को अमल में नहीं लाते। कई राज्य स्तरीय बोर्ड ने अब तक साफ वायु को लेकर एक्शन प्लान नहीं बनाया है।
बैनर तस्वीर- भारत में किसान धान की फसल लेने के बाद पराली को इस तरह जलाते हैं। इसकी वजह से भी प्रदूषण में काफी बढ़ोतरी होती है। फोटो- नील पाल्मर (सीआईएटी)/ विकिमीडिया कॉमन्स