- छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में उगने लगी चाय। एक दशक के परिश्रम के बाद इस वर्ष बागान की पहली फसल बाजार में उपलब्ध है।
- दार्जिलिंग में पाई जाने वाली चाय की किस्मों को वन विभाग ने जशपुर के बंजर और बेकार पड़ी जमीनों पर उगाने में सफलता पायी है। इन बागानों का संचालन महिला स्वयं-सहायता समूह करते हैं।
- झारखंड से प्रेरित है छत्तीसगढ़ में चाय उगाने की कवायद, लेकिन अब झारखंड से ही चाय की फसल गायब हो चुकी है। ऐसे में छत्तीसगढ़ चाय बागान की राह कितनी आसान होगी!
- ऐसे समय में जब जलवायु परिवर्तन से पूरे देश के चाय बागान प्रभावित हो रहे हैं, इस चुनौती को लेकर छत्तीसगढ़ की क्या तैयारी है?
चाय पीने वालों की दुनिया में असम या दार्जिलिंग की चाय का नाम ही काफी है। कुछ ऐसा कि बड़ी-बड़ी कंपनियां भी प्रचार में यह बताना नहीं भूलतीं कि उनकी चाय सीधे असम के चाय बागानों से लाई गयी है। लेकिन अगर वही ताजगी आपको मनोरमा, लावा, मधेश्वर, वन देवी और सारूडीह चाय में मिलने लगे तो!
पढ़कर थोड़ी हैरानी होगी पर ये सब असम चाय की ही किस्में हैं जिन्हें छत्तीसगढ़ के घने जंगलों और हरियाली की चादर ओढ़े सुंदर पठारों से घिरे जशपुर जिले में उगाया जा रहा है। इनके नाम भी इसी जिले से उठाए गए हैं। जैसे मनोरमा, लावा, मधेश्वर और वन देवी- जशपुर से गुजरने वाली चार नदियां हैं तो सारूडीह वहां का एक गांव जहां चाय की खेती होती है।
छत्तीसगढ़ वन विभाग की पहल पर 20 एकड़ में चाय-बागान लगाया गया था, जिसकी पहली फसल 2020 में ही आयी है। इस चाय का नाम विभाग ने सारूडीह गांव के नाम पर रखा है। इस पहली फसल से दो लाख रुपए की आमदनी हुई है। लक्ष्मी स्वयं -सहायता समूह और सारूडीह स्वयं-सहायता समूह से जुड़ी 18 महिलाओं के हाथ में इस चाय बागान की बागडोर है।
चाय की खेती की शुरुआत यहां 10 साल पहले हो गयी पर प्रोसेसिंग की सुविधा न होने की वजह से बागान 2017 तक बंद रहा।
फसल की पहली खेप के बाजार में आने से इससे जुड़े लोगों के मन में उत्साह है। लक्ष्मी स्वयं-सहायता समूह की सचिव पूर्णिमा बताती हैं, “करीब 20 एकड़ के बागान से हमने इस साल 10 क्विंटल चाय की पत्तियां तोड़ी हैं। पांच किलो हरी पत्ती सूखकर लगभग एक किलो चाय बनती है। इस हिसाब से हमने दो क्विंटल चाय तैयार किया।” पूर्णिमा के मुताबिक महिलाओं के समूह ने हाथ से ग्रीन टी के बैग और प्लांट में मशीनों की मदद से सीटीसी (क्रश, टियर, कलर) चायपत्ती तैयार किए।
पूर्णिमा ने बताया,”ग्रीन टी को दो हजार रुपए प्रति किलो और सीटीसी चाय को 400 रुपए प्रति किलो थोक भाव मिल रहा है। इसकी गुणवत्ता अच्छी है, जिसकी वजह से हमें इसे बेचने में आसानी होती है।”
राज्य का वन विभाग अब जिले के दूसरे हिस्सों में भी चाय बागान लगाने की तैयारी में जुटा है। जशपुर के बालाछापर में चाय की प्रोसेसिंग के लिए प्लांट भी लगाया गया है।
झारखंड से प्रेरित पर असम की ताजगी लिए हुए है छत्तीसगढ़ की चाय
हालांकि, देश के शीर्ष 13 चाय उत्पादक राज्यों में छत्तीसगढ़ के चाय बागान शामिल नहीं हैं और फिलहाल इसकी गुणवत्ता का दस्तावेजीकरण भी नहीं हुआ है पर वन विभाग का दावा है कि दार्जिलिंग में भी इसी किस्म के पौधे लगे हुए हैं। जशपुर के उप मंडल अधिकारी सुरेश कुमार गुप्ता का मानना है कि जशपुर में बनी ग्रीन टी विश्व स्तरीय है, जबकि सीटीसी चाय दार्जिलिंग और असम के स्तर का है।
जशपुर में चाय की किस्म 463 और 520 की खेती हो रही है जिन्हें कम पानी की जरूरत होती है। ये किस्में दार्जिलिंग के पहाड़ी इलाकों में लगाई जाती हैं।
वन विभाग के इस पहली फसल के पूर्व भी छत्तीसगढ़ में चाय उगायी जा रही थी। इसकी शुरुआत की सोगड़ा आश्रम के गुरु संभव राम ने, जब उन्होंने वर्ष 2010 में पड़ोसी राज्य झारखंड में चाय का एक बागीचा देखा। उन्हें लगा कि जशपुर की संरचना भी चाय की खेती के अनुकूल है। यह भी पठारी इलाके में बसा है। चाय के पौधों को ऐसी जमीन चाहिए जिसमें जल जमाव न हो। यहां बारिश और सिंचाई का पानी जड़ों से गुजरकर बह जाता है। इस वजह से चाय की खेती के लिए यह इलाका अनुकूल है।
वर्तमान में सोगड़ा आश्रम के करीब 8 एकड़ में फैले बागान से तैयार चार किस्म की चाय यहां के स्थानीय बाजार में बिकती है। इस बागान का निर्माण सिलीगुड़ी के वरिष्ठ चाय अनुसंधान वैज्ञानिक डॉ. आईडी सिंह की देखरेख में हुआ था। आश्रम से प्रेरणा लेकर वन विभाग ने वर्ष 2011 में चाय की खेती शुरू की थी।
उप मंडल अधिकारी गुप्ता ने बताया कि उन्होंने वर्ष 2017 में फिर से बागान में खेती शुरू करायी।
झारखंड में चाय बना इतिहास
छत्तीसगढ़ को चाय उगाने की प्रेरणा झारखंड से मिली। पर झारखंड के चाय के बागान अब खत्म हो चुके हैं।
झारखंड और असम के इलाके में तकरीबन एक साथ ही चाय के बागान लगे थे। वर्ष 1839 में अंग्रेज व्यापारी स्टेनवर्थ ने रांची में कहवा और चाय की खेती शुरू की थी। अंग्रेजों ने 150 साल पहले रांची और झारखंड के दूसरे हिस्सों से मजदूरों को असम में चाय की खेती के लिए भी भेजा था। वे वहीं बस गए और उनकी नई पीढ़ी भी चाय बागानों में ही काम कर रही है।
एक समय रांची में ओरमांझी, रातू, नामकुम और होटवार को मिलाकर कुल 1,600 एकड़ में चाय की खेती होती थी। यहां का मौसम पूर्वोत्तर राज्यों जैसा ही था, जहां गर्मियों में भी बारिश होती थी। रांची में 70 के दशक तक चाय के कुछ बागान बचे हुए थे। समय बीतने के साथ अब यहां का मौसम चाय के लिए अनुकूल नहीं रह गया है।
रांची विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और पर्यावरणविद डॉ नीतीश प्रियदर्शी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि रांची में चाय की खेती खत्म होने की बड़ी वजह मौसम में बदलाव है। “रांची में चाय बागान नाम का इलाका आज भी है, लेकिन अब यहां चाय का नामोनिशान तक नहीं। रांची अंग्रेजों का समर कैपिटल हुआ करती थी। यहां का मौसम गर्मियों में भी 25 डिग्री सेल्सियस के पास होता था और तापमान 30 से 35 डिग्री सेल्सियस होते ही बारिश हो जाती थी,” प्रियदर्शी कहते हैं।
मौसम में आए बदलाव की वजह से रांची की चाय की गुणवत्ता खराब होने लगी। प्रियदर्शी ने आगे बताया, “चाय की गुणवत्ता में मौसम का बड़ा योगदान है। उस समय रांची की चाय की मांग कम होने लगी और लोग खेती छोड़कर पलायन करने लगे। चाय बागानों को बेचकर वहां इमारते खड़ी होने लगी।”
प्रियदर्शी बारिश के मिजाज में परिवर्तन को भी चाय बागानों की दुर्दशा की वजह बताते हैं। इनके अनुसार, “रांची में बारिश की मात्रा कम नही हुई लेकिन उसका मिजाज बदल गया। पहले बारिश समान रूप से होती थी और बौछार काफी धीमी होती थी। अब अचानक तेज बौछार के साथ बारिश होती है। इससे चाय उत्पादन के लायक मिट्टी का कटाव हो गया और खेत खराब होते गए।”
पिछले कुछ दशकों में झारखंड सरकार ने चाय बागानों को फिर से जीवित करने की कोशिश की है पर सारी योजनाएं अभी कागज तक ही सीमित लगती हैं।
जैसे झारखंड की कृषि योजना 2008-09 से 2011-12 तक में चाय की खेती को प्रमुखता से शामिल किया गया था। वर्ष 2011-12 में झारखंड सरकार ने अपना स्टेट प्रोफाइल जारी किया जिसमें चाय की खेती और प्रोसेसिंग पर खासा जोर दिया गया था। झारखंड सरकार की खेती आधारित उद्योग विभाग की योजना में भी चाय की खेती के लिए निवेश लाना शामिल है। हालांकि, इन योजनाओं के बावजूद यहां जमीन पर कोई बड़ा बागान देखने को नहीं मिलता।
हजारीबाग स्थित डेमोटांड़ कृषि अनुसंधान केन्द्र में वर्ष 2005 में अनुसंधान के तौर पर लगभग ढाई एकड़ में चाय की खेती की गयी। अब संस्थान के पास प्रोसेसिंग यूनिट भी है। झारखंड सरकार ने वर्ष 2012 में सरायकेला में प्रयोगात्मक रूप से 2,700 पौधे लगाने की कोशिश की। लेकिन इसे व्यावसायिक स्तर पर नहीं पहुंचाया जा सका।
झारखंड के इन अनुभवों के आधार पर गुप्ता कहते हैं कि हाल में जशपुर में अच्छी बारिश हुई है, लेकिन चाय की फसल के लिए मौसम के भरोसे नहीं रहा जा सकता है। “चाय बागान के लिए हमने सबसे पहले सिंचाई की ही सुविधा सुनिश्चित की है। सिंचाई के लिए नए बागान में ड्रिप एरीगेशन सिस्टम लगाया गया है। बागान के समीप बहने वाले नाले पर बांध बनाकर पानी की व्यवस्था की गयी है,” गुप्ता ने बताया।
देश के चाय बागानों पर जलवायु परिवर्तन का असर, कितनी मुश्किल छत्तीसगढ़ की राह
छत्तीसगढ़ की इस महत्वाकांक्षी परियोजना के सामने सबसे बड़ी चुनौती जलवायु परिवर्तन की है। हाल के वर्षों में देश के कई चाय-उत्पादक राज्य इस चुनौती से जूझ रहे हैं और वहां उत्पादन में कमी भी देखी जा रही है। वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने फरवरी 2020 में ऱाज्यसभा में एक सवाल के लिखित जवाब में कहा कि दक्षिण भारतीय राज्यों (तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक) में चाय का उत्पादन 2018 में 22.487 करोड़ किलोग्राम से घट कर साल 2019 में 21.904 करोड़ किलोग्राम रह गया। यह गिरावट 2.59% की है। उत्पादन में इस गिरावट के पीछे बारिश में असमानता और स्थानीय कीट को जिम्मेदार माना जा रहा है।
इस वर्ष असम के चाय बागानों को बाढ़ का सामना करना पड़ा। कोविड-19 की वजह से भी काम प्रभावित हुआ। इस वर्ष अनुमान लगाया जा रहा है कि चाय के उत्पादन में 13 फीसदी की कमी होगी।
और पढ़ें- भारत में रंगीन कपास पर तीन दशक से चल रहा प्रयोग, अगले साल तक खेतों में लहलहा सकती है फसल
असम में पिछले एक दशक से चाय बागानों को नए-नए कीटों का सामना करना पड़ा रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक यहां बारिश में कमी आई है और तापमान बढ़ गया है। ऐसा मौसम लोफर कैटरपिलर और चाय पर लगने वाले मच्छरों के लिए मुफीद होता है। ये कीट चाय की नई पत्तियां खा जाते हैं। अनुमान के मुताबिक असम के 800 चाय बागानों में कीटनाशकों की मात्रा दो गुना बढ़ानी पड़ी है। इससे चाय उत्पादन की लागत बढ़ रही है। भारत सरकार की संस्था टी बोर्ड ने जलवायु परिवर्तन पर एक चर्चा रखी थी। इस चर्चा में यह जिक्र किया गया कि तेज बारिश की वजह से चाय बागान की मिट्टी बह रही है। मिट्टी का पोषण बरकरार रखने के लिए खाद की मात्रा बढ़ानी पड़ रही है जिससे चाय उत्पादन की लागत बढ़ रही है।
जलवायु परिवर्तन से छत्तीसगढ़ भी अछूता नहीं है। छत्तीसगढ़ में जलवायु परिवर्तन का असर साफ देखा जा सकता है।
चाय उत्पादन में विश्व में भारत दूसरे स्थान पर, लाखों लोग आश्रित
भारत, चीन के बाद विश्व का सबसे बड़ा चाय उत्पादक देश है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2019 में भारत ने 139.008 करोड़ किलो चाय का उत्पादन किया। इसमें से 25. 215 करोड़ किलो चाय का निर्यात कर देश चाय निर्यातक देशों में चौथे स्थान पर रहा। चाय बागानों से सीधे तौर पर 11 लाख से अधिक लोगों को रोजगार मिलता है जिसमें आधी हिस्सेदारी महिलाओं की है।
बैनर तस्वीर- छत्तीसगढ़ की चाय इसी बागान से आती है। यह बागान वन विभाग द्वारा जशपुर के सारूडीह गांव में एक दशक पहले लगाया गया था। फोटो- वन विभाग