- हरियाली से भरे उद्यान, जल स्रोत और सदियों पुरानी इमारतों के साथ-साथ जैव-विविधता की भरमार। आजकल देश की राजधानी दिल्ली स्थित सुंदर नर्सरी, आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।
- कभी यह जगह एक बंजर भूमि हुआ करती थी। सोलहवीं शताब्दी में मुगलों ने इस जमीन को योजनाबद्ध तरीके से हरा-भरा बनाया। फिर अंग्रेजों ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाया।
- पिछले कुछ सालों में आगा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर द्वारा पुनर्विकास किया गया। इसमें सरकार की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस नर्सरी का विकास, सरकारी और निजी प्रयासों का मिलाजुला एक नायाब नमूना है।
- ट्रस्ट ने एक दशक तक यहां कड़ी मेहनत से जैव-विविधता पार्क बनाया जिसमें 20 ऐतिहासिक स्मारक, 300 पेड़ों की प्रजातियां, 100 पक्षियों की प्रजातियां, 40 तितलियों की प्रजातियां, दो एम्फीथिएटर, एक बोन्साई का बाड़ा और एक मोर के रहने का क्षेत्र सहित बहुत कुछ है।
देश के अधिकतर शहर धीरे-धीरे कॉन्क्रीट के जंगल बनते जा रहे हैं। ऐसे ही माहौल के बीच दिल्ली में 90 एकड़ में फैली सुंदर नर्सरी, राहत की सांस देती है।
शहर के बीचोंबीच स्थित इस पार्क में 20 ऐतिहासिक इमारतें हैं जिनमें से छः को यूनेस्को द्वारा वर्ल्ड हेरिटेज स्थान का दर्जा भी मिला हुआ है। यहां 4,500 पेड़, 100 पक्षियों की प्रजाति, 40 तितलियां, बोन्साई गार्डन और राष्ट्रीय पक्षी मोर के लिए अलग इलाका मौजूद है।
न्यूयॉर्क के पार्क की तर्ज पर इस इलाके को दिल्ली का ‘सेंट्रल पार्क’ भी कहते हैं।
पार्क को आम लोगों के लिए 2018 में खोला गया। “2020 में कोविड-19 महामारी के बावजूद यहां तीन लाख लोग आए। कोविड को देखते हुए यह संख्या अच्छी-खासी मानी जा सकती है। गौर करने वाली बात यह है कि महामारी की वजह से साल 2020 में अंतरराष्ट्रीय पर्यटक नहीं आ पाए थे। लोग हरियाली से भरे ऐतिहासिक इमारतों वाले साफ-सुथरे और सुरक्षित स्थान को देखना पसंद करते हैं,” आग़ा ख़ान सांस्कृतिक ट्रस्ट (एकेटीएस) के कंजर्वेशन आर्किटेक्ट और सीईओ रतीश नंदा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
सुंदर नर्सरी की दूसरी खूबियों में नंदा, यहां के तालाब, इमारतें और जैव-विविधता गिनाते हैं।
सुंदर नर्सरी की पहले और बाद की तस्वीरें। तस्वीर- आगा खान सांस्कृतिक ट्रस्ट
इस नर्सरी का इतिहास पुराना है। इसे 16वीं सदी में मुगलों ने अज़ीम बाग के नाम से बनाया था। फिर इसको विस्तार दिया अंग्रेजों ने। सन 1923 में दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों के दुर्लभ पौधे यहां लाकर लगाए। इसीलिए, इसे नर्सरी के नाम से जाना गया। नाम में सुंदर यहां मौजूद सुंदर बुर्ज मकबरा की वजह से लगा। आगा खान ट्रस्ट ने केंद्र सरकार के केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग, दक्षिण दिल्ली नगर निगम और पुरातत्व विभाग के साथ मिलकर इसे विकसित किया।
लगभग एक दशक तक कड़ी मेहनत के बाद, यह स्थान सरकारी और निजी क्षेत्र के मिले-जुले प्रयास के नायाब नमूने के तौर पर उभरा है। यहां 300 प्रजाति के दुर्लभ पेड़ जैसे गुलाबी देवदार, कोका का पेड़, जंगली बादाम, कृष्णा अंजीर, सैटिन लीफ, डिलेनिया, पिचुरिया रोसिया और अफ्रीकी महोगनी मौजूद हैं।
2018 में इस पार्क को मशहूर टाइम मैग्जीन ने विश्व के 100 घूमने जाने वाले स्थानों में जगह दी थी। हाल ही में, 2020 में दो यूनेस्को एशिया पेसिफिक अवॉर्ड जीतने के साथ यह दिल्ली का पहला हेरिटेज कॉम्प्लेक्स बन गया। अवॉर्ड कल्चरल हेरिटज कंजर्वेशन-2020 के दौरान अवॉर्ड फॉर एक्सिलेंस (उत्कृष्टता के लिए अवॉर्ड) और स्पेशल रिकॉग्निशन फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट (टिकाऊ विकास के लिए विशिष्ट पहचान) दिया गया।
सुंदर नर्सरी की सफलता के साथ ही देश में ऐसे विकास की परियोजनाओं के साथ जुड़ी चुनौतियां भी स्पष्ट हुई हैं।
प्रतिस्पर्धा नहीं, सहयोग की भावना
सुंदर नर्सरी के कायाकल्प के पीछे कई कारकों में से एक रहा पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप। इसमें हर सहयोगी की जिम्मेदारी तय थी।
रतीश नंदा कई सरकारी और निजी संस्थानों के साथ मिलकर काम करते हैं। इनका कहना है, “सरकारी संस्थाओं में सेवा दे रहे लोगों को लगता है कि एक प्रोजेक्ट पर सिर्फ उनकी संस्था ही काम करे…यही हाल निजी संस्थानों में काम कर रहे लोगों का भी है।”
“हमारी संस्था एकेटीएस विभिन्न देशों में कम से कम 30 सरकारों के साथ काम कर रही है। दिल्ली में पार्क बनाने के पीछे हमारा मकसद था कि यहां की आबोहवा और जीवन स्तर सुधरे। साथ में स्मारकों का संरक्षण भी। हमने विशेषज्ञता के साथ इसमें लगने वाली लागत का बंदोबस्त किया तो सरकार ने कई ऐसे सहयोग किये जो हमारे लिए संभव नहीं था,” उन्होंने कहा।
किसी संरक्षण परियोजना में सरकारी एजेंसी को जोड़ने से होने वाले फायदों समझाते हुए नंदा कहते हैं, “सुंदर नर्सरी का 20 एकड़ हिस्सा अतिक्रमण का शिकार था। हमने कई केंद्रीय एजेंसी और नगर निगम के साथ अतिक्रमण हटाने के लिए काम किया। आज जो रेन वाटर हार्वेस्टिंग का क्षेत्र है वहां पहले एक निजी क्लब हुआ करता था। हम बिना सरकारी सहयोग के इसे नहीं सकते थे।”
सुंदर नर्सरी के ऊपर लगातार काम करते आए सामाजिक कार्यकर्ता विक्रमजीत सिंह ने जोर देकर कहा कि सरकार अकेले सबकुछ नहीं कर सकती।
“इस स्थान पर 174 इमारतें हैं जो कि पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पास हैं और 300-400 इमारतें दिल्ली सरकार के अधीन हैं। किसी एक स्मारक की रख-रखाव में 20 से 25 हजार रुपए खर्च होते हैं। सरकार के पास उस तरह से पैसा उपलब्ध नहीं है कि हर इमारत का रखरखाव कर सके। इन सब वजहों से सार्वजनिक स्थानों पर अतिक्रमण होना शुरू हो जाता है। किसी विरासत को बचाने का काम बिना सामुदायिक भागीदारी के नहीं हो सकता,” सिंह ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
जानकार मानते हैं कि जबतक संरक्षण के काम में सबको शामिल नहीं किया जाएगा, इनका क्षरण होता रहेगा।
उदाहरण के तौर पर सिंह बताते हैं कि मेहरौली में 72 स्मारक हैं लेकिन लोगों को सात या आठ ही देखने को मिलता है। बाकी स्थानों पर या तो अतिक्रमण है या कचरा फेंका जा रहा है।
विरासत और खाली स्थानों पर आर्थिक गतिविधियों की संभावना
नंदा ने स्मारकों के संरक्षण की जरूरत पर जोर देते हुए कहा, “हमने हूमायूं के मकबरा की मरम्मत की और नौ महीने में ही लागत निकल गई। वजह, इस दौरान काफी संख्या में लोग, इसे देखने आए। जो आमदनी हुई इससे गार्डन के रखरखाव में लगाया गया।”
उन्होंने कहा कि विरासत को जीर्ण अवस्था में नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि ये हमारे लिए आर्थिक संसाधन भी हैं। “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विरासत स्थल पर पर्यटन की संभावनाओं को हम अब तक नहीं समझ पाए हैं,” उन्होंने कहा।
नंदा कहते हैं कि सुंदर नर्सरी दिखाता है कि कैसे स्मारकों का जीर्णोद्धार भी हो जाए और करदाताओं का पैसा भी न लगे। “सुंदर नर्सरी एक आत्मनिर्भर मॉडल है। यहां एक सुंदर नर्सरी मैनेजमेंट ट्रस्ट है जो इसके रखरखाव में सक्षम है,” वह कहते हैं।
विरासत और स्मारकों के बचाने के अलावा जानकार कुदरती विरासत और स्थानीय पौधों को भी बचाने की बात करते हैं।
पर्यावरणविद् और लेखक प्रदीप कृष्ण ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि देश में 2,600 स्थानीय पेड़ों की प्रजातियां पाई जाती है। अगर आप इस संख्या की ब्रिटेन से तुलना करें तो यह काफी अधिक है, क्योंकि वहां मात्र 27 स्थानीय प्रजाति के पेड़ हैं और पूरे यूरोप में तो मात्र 1600 स्थानीय पेड़ों की ही प्रजातियां पायी जाती हैं।
उन्होंने स्थानीय पेड़ों को उगाने पर जोर दिया क्योंकि ये मौसम के अनुरूप ढल सकते हैं और इन पेड़ों को कम रखरखाव की जरूरत होती है।
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“जब हम इकोलॉजिलक रिस्टोरेशन करते हैं तो हमें दुर्लभ पेड़ों को लगाने के बजाए स्थानीय पेड़ों की प्रजाति ही लगाने की कोशिश करनी चाहिए,” कृष्ण कहते हैं।
पर्यावरणविद् कविता प्रकाश ने कृष्ण के विचारों पर सहमति जताते हुए कहा, “कई पौधों के एकसाथ लगाने से बेहतर है पौधों को प्राकृतिक माहौल में ही बढ़ने देना। इससे पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को फायदा होता है।”
प्रकाश ने उदाहरण देते हुए कहा कि यमुना जैवविविधता उद्यान में वैज्ञानिकों ने स्थानीय पौधों के माध्यम से ही वहां के पारिस्थितिकी तंत्र को बेहतर किया। इस वजह से नाइट हेरोन नामक पक्षी 17 साल बाद दिल्ली में देखा गया।
बैनर तस्वीर- वर्ष 2020 में तीन लाख से अधिक पर्यटक सुंदर नर्सरी देखने आए। कोविड महामारी के दौरान इतनी भारी संख्या में पर्यटकों का आना अच्छा संकेत है। तस्वीर- अर्चना सिंह