- भारत में घास के मैदान ही भेड़ियों के रहने का ठिकाना हैं। पर इनका यह आवास भी तेजी से खत्म हो रहा है।
- घास के मैदानों को खाली या बंजर समझकर यहां विकास की योजनाएं शुरू कर दी जाती हैं। साथ ही, कहीं पेड़ काटे जाते हैं तो उसके एवज में खाली मैदानों में पौधे भी लगाए जाते हैं। इन गतिविधियों से भेड़ियों के लिए रहने का स्थान खत्म हो रहा है।
- अगर भेड़ियों की गणना की जाए तो संरक्षण के प्रयासों को बल मिल सकेगा। हालांकि, इनके तेजी से इधर-ऊधर आने जाने की वजह से इन्हें गिनना एक मुश्किल काम है। भविष्य में गणना का एक तरीका हो सकता है इनकी आवाज को पहचानकर इनकी गिनती की जाए।
- अगर आवाज से गणना की जानी है तो इसके लिए इस तकनीक में सुधार की जरूरत है। भारत के घास के मैदानों में अद्वितीय जैव विविधता देखने को मिलती है। पर इसपर काफी दबाव भी है। ऐसे में गणना का काम काफी जरूरी है।
भेड़िया दिखने में एक दूसरे से इतने करीब होते हैं कि उनकी अलग-अलग पहचान करना मुश्किल है। इसकी गणना के लिए अध्ययनकर्ता तरह-तरह के तरीके अपनाते हैं। जैसे पुणे के मिहिर गोडबोले कहते हैं कि किसी भेड़िया की टांग टूटी हो या पूंछ टूटी हो तो एक दूसरे से अंतर किया जा सकता है। गोडबोले पुणे शहर से लगभग 31 किलोमीटर जूर सासवड में भेड़ियों पर अध्ययन करते हैं। वह एक फिल्म निर्माता और संरक्षणवादी हैं, साथ ही द ग्रासलैंड ट्रस्ट के संस्थापक भी हैं।
पुणे के बाहरी इलाके में भेड़ियों पर काम करने का उनका एक दशक का अनुभव है। इस अनुभव के सहारे वह इलाके में 62 अलग-अलग भेड़ियों की पहचान ऐसे अनूठी विशेषताओं के आधार पर कर सकते हैं।
सौगत साधुखान के अनुसार घास के मैदानों में घूमने वाले अज्ञात भेड़ियों की पहचान करना एक मुश्किल काम है। वह भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) में पीएचडी के छात्र हैं और पिछले साल उन्होंने एक अध्ययन में सह लेखक की भूमिका निभाई थी। इस अध्ययन में भारतीय भेड़ियों की पहचान गैर आक्रामक जानवर के रूप में की गई थी। साधुखान के अनुसार भेड़ियों की पहचान उनके हाउल (भेड़िया की आवाज) से भी की जा सकती है।
जब गोडबोले ने पहली बार भेड़ियों की तलाश शुरू की, तो उन्हें पहचानना मुश्किल था। इसकी वजह है उनका घास के मैदान में इधर-उधर विचरण करते रहना। भेड़िये चंचल प्रवृत्ति के होते हैं और किसी एक इलाके में टिक कर नहीं रहते। इससे उनका दस्तावेजीकरण और अध्ययन करना कठिन हो जाता है।
इस क्षेत्र के स्थानीय लोगों और गड़रियों ने भेड़ियों के साथ शांतिपूर्ण संबंध रखा है। गोडबोले ने घास के मैदानों विशेषकर भेड़ियों की जैव विविधता का दस्तावेजीकरण करना शुरू किया।
पारिस्थितिक विज्ञानी अबी वनक जिन्होंने भारत के खुले प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र का मानचित्रण किया है, कहते हैं, “भारत में घास के मैदान ही वो पारिस्थितिक तंत्र है जिसका सबसे कम मूल्यांकन हुआ है।” इनपर दबाव बढ़ता ही जा रहा है।
उन्होंने आगे कहा, “जमीन का कोई खाली हिस्सा दिखता है तो उसे पेड़ लगाने के लिए उपयुक्त मान लिया जाता है। किसी विकास परियोजना की वजह से कटे पेड़ों के एवज में ऐसे घास के मैदानों पर पौधे लगाए जाते हैं।”
उन्होंने बताया कि तेंदुए जैसी प्रजाति को पेड़ लगने से फायदा होता है लेकिन घास के मैदान में रहना पसंद करने वाले भेड़ियों का आवास छिनता जा रहा है। देसी प्रजाति के भेड़ियों को विस्थापित होना पड़ता है।
सिर्फ तेंदुए ही नहीं, आवारा कुत्ते भारतीय भेड़ियों के लिए और भी बड़ा खतरा हैं। आवारा कुत्ते भेड़ियों के इतने करीब रहते हैं कि कोई बीमारी फैला सकते हैं। उनके साथ संभोग कर सकते हैं। इन बढ़ती मुश्किलों की वजह से भेड़ियों की आबादी खत्म हो सकती है और भारत के अनोखे भेड़ियों को लंबे समय में नुकसान हो सकता है। इन वजहों से भारत में खतरा झेल रही भेड़ियों की आबादी की गणना और दस्तावेजीकरण बहुत जरूरी है।
भारतीय ग्रे वुल्फ (कैनिस ल्यूपस पल्लीप्स) भारत के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (1972) के तहत संरक्षित है। पर यह जीव आमतौर पर संरक्षित क्षेत्रों के बाहर पाए जाता है। वैज्ञानिक अलग-अलग भेड़ियों को पहचानने के तरीकों पर काम कर रहे हैं। इसमें ध्वनि-आधारित निगरानी एक ऐसी ही उभरती हुई तकनीक है। अगर इसमें सफलता मिलती है तो वैज्ञानिक भारत की ग्रे वुल्फ आबादी की जनगणना कर सकते हैं। इससे संरक्षण में सहायता मिलेगी।
भेड़ियों के आवाज की पहचान
साधुखान भेड़ियों पर अध्ययन, एक खास मकसद से कर रहे हैं। इसके तहत उन्होंने भेड़ियों के डेन या रहने के स्थानों की तलाश की। साथ ही, वह भेड़ियों के स्कैट की पहचान भी की जो वह अपना इलाका निर्धारित करने के लिए छोड़ते हैं। उन्होंने कहा, “यह पता लगाना था कि भेड़िये मानव बाहुल्य वाले इलाकों में कैसे रहते हैं।” इस परियोजना के हिस्से के रूप में साधुखान ने भेड़ियों की रिकॉर्डिंग भी एकत्र की। जब उन्होंने 2016 में एक वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्लूआईआई) की एक संगोष्ठी में इन रिकॉर्डिंग को प्रस्तुत किया, तो उन्हें अहसास हुआ कि इनकी आवाज अलग-अलग है और इन रिकॉर्डिंग्स का उपयोग भेड़ियों की पहचान करने के लिए किया जा सकता है।
वह कहते हैं कि उस समय यह डेटा पर्याप्त नहीं था। इसलिए भेड़ियों के स्थानों के बारे में जानकारी के लिए लोगो की मदद ली। द ग्रासलैंड ट्रस्ट और वन रक्षकों की मदद से उन्होंने महाराष्ट्र में भेड़ियों की आवाज़ का अध्ययन शुरू किया।
कई अन्य ध्वनियों में भेड़िये चीख़ना, रोना, फुसफुसाते हुए गुर्राना जैसे हाउल की पहचान की। भेड़िया स्वयं इसका उपयोग आपसी बातचीत के लिए करते हैं। वे अपने क्षेत्रों की रक्षा करने और दूसरे भेड़ियों का पता लगाने के लिए हाउल्स या आवाजों का उपयोग करते हैं।
इस बीच वनक की रुचि घास के मैदानों में मांसाहारियों की आवाजाही को लेकर हुई। वह कहते हैं, “हाउल या कॉल-बैक सर्वेक्षण व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाला एक उपकरण है। किसी क्षेत्र में जानवरों की संख्या को समझने के लिए काफी उपयोगी हो सकते हैं। अक्सर आप बता सकते हैं कि कितने जानवर बोल रहे हैं। हालांकि यह आपको कुल जानवरों की संख्या के बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं देता। क्योंकि सारे भेड़िया हर कॉल में भाग नहीं भी ले सकते हैं।
लेकिन यह तब और जटिल हो जाता है जब भेडिया तितर-बितर होकर दूर चले जाते हैं।
साधुखान का हाउल्स के माध्यम से पहचान करने का लक्ष्य न केवल भेड़ियों की पहचान करने के लिए उपयोगी हो सकता है, बल्कि यह भी पता लगाने के लिए कि वे कहां-कहां विचरण करते हैं। हाउल्स को काफी लंबी दूरी पर सुना जा सकता है जिससे उन्हें आगे के विश्लेषण के लिए रिकॉर्ड करना आसान हो जाता है।
“जब भी कोई भेड़िया कॉल देता है तो उस इलाके में मौजूद दूसरा भेड़िया उसका जवाब देता है,” उन्होंने कहा।
जाने-माने भेड़ियों के हाउल्स रिकॉर्ड करने के बाद उन्होंने इन रिकॉर्डिंग्स पर एक मॉडल विकसित किया।
उन्होंने समझाया कि इन आवाजों का इस्तेमाल मॉडल विकसित करने में किया जाता है। डेटा के आधार पर, हमारा मॉडल 98% सटीक साबित हुआ।
इसका मतलब यह है कि यदि किसी ज्ञात भेड़िया की आवाज दोबारा रिकॉर्ड की गई तो यह मॉडल उसे पहचान गया। इससे हमें पता चल सकता है कि यह किस भेड़िये की आवाज है। लेकिन क्या यह किसी अज्ञात भेड़िया की पहचान कर सकता है?
यह देखने के लिए कि क्या मॉडल सफलतापूर्वक एक भेड़िये के हाउल्स को अलग कर सकता है जिसे उसने पहले कभी नहीं सुना गया हो। उन्होंने इस मॉडल में भेड़ियों के एक अलग समूह का हाउल्स डाला।
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वह कहते हैं कि इस बार हमने मॉडल को यह नहीं बताया कि कौन सा हाउल किस भेड़िये का है। ऐसे में मॉडल 75 प्रतिशत सटीक साबित हुआ। तो मॉडल ठीक काम कर रहा है और 75 प्रतिशत के हिसाब से यह 4 नए भेड़ियों में से 3 की पहचान कर सकता है। यह जनसंख्या अनुमानों के लिए पर्याप्त नहीं है, लेकिन यह मौजूदा विकल्पों से बेहतर हो सकता है।
मानव वर्चस्व वाले इलाकों में कैमरा ट्रैप चोरी हो सकते हैं। लेकिन शायद इससे भी बड़ी समस्या भेड़ियों की इंसानों से दूर रहने की प्रवृत्ति है। साधुखान ने समझाया, भले ही कुछ भेड़ियों की कैमरा ट्रैप में फोटो आ गई लेकिन उनके शरीर के पैटर्न की मदद से उन्हें पहचानना बहुत मुश्किल हो सकता है। उन्हें पकड़ना और टैग करना भी दूर से हाउल रिकॉर्ड करने की तुलना में बहुत कठिन है।
इसके अलावा अधिक डेटा एकत्र करके हाउल की पहचान वाले मॉडल को और बेहतर बनाया जा सकता है।
साधुखान के पास शोध के दौरान अधिक डेटा नहीं था। वह कहते हैं कि तकनीक में सुधार के साथ अधिक डेटा एकत्र करना बहुत आसान हो सकता है। कॉलर टैंगिग वाले भेड़ियों पर लगी मशीनों से आवाज हमेशा रिकॉर्ड की जा सकती है। अधिक डेटा के साथ 5-10 वर्षों के भीतर भेड़ियों की आबादी का अनुमान लगाना संभव है।
घास के मैदान और भेड़ियों का संरक्षण
वनक को जैसा अनुमान था वही सामने आया। घास के मैदान में अतिक्रमण हो रहा है। गोडबोले ने कहा, “तेंदुए और जंगली सूअर यहां देखे जा सकते हैं। इन जीवों का मानव के साथ अधिक संघर्ष होता है। ग्रासलैंड ट्रस्ट स्थानीय लोगों को इन अतिक्रमणकारियों से निपटने में मदद करने के लिए महाराष्ट्र राज्य वन विभाग के साथ काम कर रहा है।
यह संस्था स्थानीय लोगों को आपात स्थिति में निपटने के लिए तैयार कर रहे हैं।
घास के मैदान न केवल मानव गतिविधि की अधिकता के कारण पारंपरिक संरक्षण दृष्टिकोणों को चुनौती देते हैं। वनक कहते हैं, “घास के मैदान को बनाए रखने में चराई और आग एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, और चराई और जलने को सीमित करने के लिए अब तक चला रहा रहा संरक्षण का तरीका वास्तव में चरागाह संरक्षण के लिए हानिकारक होगा।”
भारत के उपेक्षित घास के मैदानों की अद्वितीय जैव विविधता और गतिशील पारिस्थितिकी का खुलासा करने के लिए चल रहे शोध जारी हैं। इसके शीर्ष शिकारी भेड़िया को गिनने और ट्रैक करने के नए तरीके इन भेड़ियों और उनके आवास के संरक्षण में मददगार हो सकते हैं।
बैनर तस्वीरः महाराष्ट्र के पुणे जिले स्थित मयूरेश्वर वन्यजीव अभयारण्य में भारतीय भेड़िया। तस्वीर– रुद्राक्ष चोडनकर/विकिमीडिया कॉमन्स