- देश में प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ने के साथ-साथ, जान-माल का नुकसान बढ़ता जा रहा है। हीट वेव, चक्रवात और अन्य मौसमी मार से खेती-किसानी में भारी नुकसान हो रहा है।
- इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने हाल ही में जारी छठी आंकलन रिपोर्ट में भारत को भविष्य में मौसम सम्बन्धी आपदाओं के बढ़ने की चेतावनी दी है।
- मौसम में आने वाले बदलाव की सबसे ज़्यादा मार कृषि क्षेत्र को झेलनी पड़ती है। केवल पिछले 4 वर्षों में 200 लाख हेक्टेयर फसल-योग्य क्षेत्र को नुकसान हुआ। भविष्य की इन चुनौतियों से निपटने के लिए अनुकूलन के प्रयासों को बढ़ाने की जरूरत है।
- लेखिका सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी, एक शोध-आधारित थिंक टैंक के साथ अनुकूलन और जोखिम विश्लेषण के क्षेत्र में कार्य कर चुकी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।
अभी देश के कई राज्य खासकर उत्तर भारत का हिस्सा भीषण गर्मी की चपेट में है। मौसम विभाग न केवल हीटवेव से संबंधित अलर्ट जारी कर रहा बल्कि इससे बचने के उपाय भी बता रहा है। कुछ ऐसी ही स्थिति पिछले साल थी जब मौसम की मार ने बड़ी संख्या में लोगों को परेशान किया।
पिछले वर्ष भारत में मौसम के तीव्र बदलाव वाली घटनओं में चिंताजनक बढ़ोतरी देखी गई। दिसंबर 2021 में दक्षिण भारत में आयी भयंकर बाढ़ से काफी बड़ी संख्या में जान-माल की क्षति हुई। इसी तरह 2021 के पूर्वार्ध में आये दो चक्रवात तौकते और यास ने भारत के पश्चिमी तथा पूर्वी तटीय इलाकों को बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया। पिछले साल भी उत्तर भारत में आयी हीटवेव ने जनजीवन को बेहाल कर दिया। इसके अलावा, पश्चिमी तट पर मूसलाधार बारिश के कारण आई बाढ़ में 75 से अधिक लोग मारे गए और दर्जनों लापता हो गए, तो हिमालय के ग्लेशियर के भारी मात्रा में पिघलने से आई बाढ़ घरों को बहा ले गई, जिससे 100 से अधिक लोगों की जानें गयीं। गौरतलब है कि इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने हाल ही में जारी छठी आंकलन रिपोर्ट में भारत को भविष्य में मौसम सम्बन्धी आपदाओं के बढ़ने की चेतावनी दी है।
नई चुनौती के प्रति खुद को ढालने की जरूरत
अक्टूबर-नवंबर 2021 में ग्लासगो में आयोजित कॉप 26 शिखर सम्मलेन में भारत ने जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए पांच अमृत तत्व या ‘पंचामृत’ का जिक्र किया। इन पांचों में से 2070 तक नेट ज़ीरो के लक्ष्य को हासिल करने का भारत का संकल्प, सबसे चर्चित मुद्दा रहा। हालांकि भारत इस लक्ष्यपूर्ति के लिए कमर कस रहा है, परन्तु जलवायु परिवर्तन से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए उसे अनुकूलन प्रयासों में भी तेजी लानी होगी।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा नवंबर में जारी अडॉप्टेशन गैप रिपोर्ट 2021 ‘द गैदरिंग स्टॉर्म’ चेतावनी देती है कि अगर अनुकूलन प्रयासों को आगे नहीं बढ़ाया गया तो जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों के कारण संपूर्ण विश्व में गम्भीर क्षति होगी।
अनुकूलन को ऐसे समझा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और उसे एक सीमा में रखने की कोशिश भी हो रही है। अब स्थिति ऐसी हो गयी है कि तमाम कोशिशों के बावजूद भी पृथ्वी का तापमान कुछ न कुछ बढ़ेगा और साथ ही मौसम की मार भी बढ़ेगी। इन नई चुनौतियों का असर कम से कम हो इसके लिए जो प्रयास किए जाएंगे उसे क्लाइमेट चेंज अडैप्शन या अनुकूलन कहा जाता है।
भारत के लिए अनुकूलन प्रयासों को बढ़ावा देने के प्रमुख क्षेत्रों में कृषि, बुनियादी ढांचा, और सामाजिक सुरक्षा शामिल हैं।
कृषि क्षेत्र को मजबूत करने की जरूरत
मौसम में आने वाले बदलाव की सबसे ज़्यादा मार कृषि क्षेत्र को झेलनी पड़ती है। केवल पिछले 4 वर्षों में 200 लाख हेक्टेयर फसल-योग्य क्षेत्र को नुकसान हुआ (गृह मंत्रायल द्वारा रिपोर्ट किया गया)। अनुमान है कि 2020 में आये अब तक के सबसे विनाशकारी चक्रवात अम्फान ने 17 लाख हेक्टेयर कृषि क्षेत्र में तबाही मचाते हुए करीब 15,800 करोड़ की फसल को नष्ट कर दिया।
कृषि क्षेत्र पर बार-बार आने वाली ऐसी प्राकृतिक आपदायें एक ओर खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालती हैं तो दूसरी ओर छोटे और सीमांत किसानों की आजीविका को भारी नुकसान पहुंचाती हैं। हालांकि इस क्षेत्र के लिए उपलब्ध कई सरकारी नीतियां, जैसे राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन योजना (एनएमएसए), प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई), परंपरागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) आदि में अनुकूलन घटक शामिल हैं, लेकिन वह इस समस्या का समाधान करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। कृषि नुकसान की भरपाई करने के लिए कृषि-सलाहकार प्रणाली (जो बुवाई, सिंचाई, कटाई आदि के समय किसानों को मौसम की स्थिति के बारे में समय पर जानकारी देती है) का विस्तार करने, और निर्णय-समर्थन प्रणाली ( जो उपलब्ध डेटा का विश्लेषण कर किसानों को विभिन्न परिस्थितियों में फसल संबंधी निर्णय लेने में मदद कर सकती है) अधिक से अधिक किसानों को उपलब्ध कराने की आवश्यकता है।
व्यापक अनुकूलन के लिए यह भी महत्वपूर्ण है कि उससे सम्बन्धित सभी समूहों/ हितधारकों (किसानों से लेकर नीति-निर्माताओं तक) को कृषि के लिए सबसे उपयुक्त अनुकूलन के तरीकों से अवगत कराया जाए और उन्हें उचित प्रशिक्षण दिया जाए। अनुकूलन के लिए एक और महत्वपूर्ण कदम समुदाय-समर्थित कृषि (सीएसए) को प्रोत्साहित करना है, जहां उपभोक्ता उन किसानों के साथ सीधे सम्पर्क बनाते हैं जो अपना अनाज उगाते हैं। वे इन किसानों की उपज का एक हिस्सा खरीदते हैं, जिससे उन्हें आर्थिक सुरक्षा मिलती है। इसका एक उदाहरण बेंगलुरु में नवदर्शनम ट्रस्ट की सामुदायिक-समर्थित कृषि पहल है।
इसके अलावा मंत्रिस्तरीय कार्यक्रमों को ग्राम-मंडल स्तर पर सम्मिलित रूप से लागू करना चाहिए जिससे राष्ट्रीय अथवा राज्य स्तर के अनुकूलन कार्यक्रमों से जुड़े लाभ मिलने में आसानी हो। फसल बीमा योजनाओं की पहुंच को भी बढ़ाया जाना चाहिए, जिससे फसल उत्पादन को स्थिर किया जा सके और छोटे किसानों को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान से कुछ हद तक राहत मिले।
मजबूत बुनियादी ढांचे का निर्माण
जलवायु परिवर्तन बुनियादी ढांचे (बिजली, परिवहन, गृहनिर्माण इत्यादि) को भी प्रभावित करता है । कर्नाटक सरकार और एक अंतर-मंत्रालयी केंद्रीय टीम (आईएमसीटी) के आंकलन के अनुसार तौकते चक्रवात से 1047 किमी सड़कें, 473 आवास, 71 सरकारी इमारतें, 29 छोटी सिंचाई योजनाएं, 79 ट्रांसफार्मर, और 107 किमी बिजली की तारें क्षतिग्रस्त हुई। इसके मद्देनज़र भारत को क्लाइमेट प्रूफिंग अर्थात् जलवायु-परिवर्तन शमन और अनुकूलन उपायों का एकीकरण को अपनी बुनियादी-ढांचा के विकास संबंधित योजनाओं में शामिल करना जरुरी है। तथा आगे चलते हुए, जलवायु प्रक्षेपण, बुनियादी ढांचा निर्माणस्थल एवं डिज़ाइन, और आज तक घटी मौसम सम्बन्धी चरम घटनाओं के डेटा पर आधारित एक रेसिलिएंस इन्डेक्स (सहनशीलता सूचकांक) विकसित करने की आवश्यकता है। अन्य अनुकूलन उपायों में ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर (हरित बुनियादी ढांचा) को अपनाना और चरम घटनाओं के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए बीमा योजनाओं की शुरूआत शामिल हैं।
मजबूत सामाजिक सुरक्षा
अगर देश में एक मजबूत सामाजिक सुरक्षा का वातावरण हो तो उपरोक्त क्षेत्रों में अनुकूलन उपायों को और प्रभावी बनाया जा सकता है। इसके लिए, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) जैसे सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों को मजबूत करने की आवश्यकता है, जो लाभार्थी परिवारों को सामाजिक सुरक्षा कवच के साथ-साथ अनुकूलन लाभ भी प्रदान करते हैं। इस योजना का प्राकृतिक-संसाधन-प्रबंधन घटक भूजल उपलब्धता और मिट्टी की उर्वरता को सुधार कर, वृक्षों के आवरण को बढ़ा कर, और सूखा तथा बाढ़-प्रूफ उपायों को लागू कर, जलवायु परिवर्तन प्रभावों को झेलने की क्षमता विकसित की जा सकती है।
क्या हो आगे का रास्ता
हालांकि भारत ने कॉप 26 में जलवायु-परिवर्तन से निपटने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धताएं दिखाई है पर उस पर अमल करने के लिए एक मजबूत अनुकूलन रणनीति की भी आवश्यक होगी। जर्मनवॉच के ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स (वैश्विक जलवायु जोखिम सूचकांक) 2021 में भारत सातवें पायदान पर है। इसको देखते हुए यह ज़रूरी है की भारत तत्काल अपने अनुकूलन प्रयासों में तेज़ी लाये।
बैनर तस्वीरः चक्रवाती तूफान नीलम के बाद तमिलनाडु के एक समुद्री तट का दृश्य। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को रोकने के लिए संसाधन जुटाना भारत के महत्वपूर्ण लक्ष्यों में शामिल है। तस्वीर– विनोथ चंदर/विकिमीडिया कॉमन्स