- दक्षिण-पश्चिम मॉनसून जून के पहले सप्ताह के आसपास केरल में पहली बार दस्तक देता है। यह घटना वर्ष की सबसे अधिक प्रत्याशित घटनाओं में से एक है, क्योंकि इसी मॉनसून के साथ भारत में पूरे साल का 70 से 90 प्रतिशत तक बारिश का कोटा पूरा होता है।
- मॉनसून की राह सुगम बनाने में विभिन्न कारक अपनी भूमिका अदा करते हैं। इसमें वातावरण में ऊर्जा की उपलब्धता, अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र इत्यादि की बड़ी भूमिका होती है।
- भारतीय मॉनसून को लेकर 1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में कई महत्वपूर्ण चीजों की जानकारी सामने आई। बावजूद इसके यह माना जाता है कि अभी बहुत सारी चीजों की जानकारी नहीं है जिससे मॉनसून प्रभावित होता है।
जून का पहला सप्ताह यानी इस समय अरब सागर के ऊपर आसमान में घुमड़ते बादलों का समूह केरल की तरफ बढ़ता है। और केरल में मूसलाधार बारिशों का दौर शुरू हो जाता है। धीरे-धीरे दक्षिण-पश्चिम मॉनसून हावी होता जाता है और पूरे राज्य में भीषण बारिश होने लगती है। इस मॉनसून को गर्मियों वाला मॉनसून या ग्रीष्म मॉनसून भी कहते हैं।
जून से सितंबर तक मॉनसून की वजह से देश-भर में बारिश होती है। इस दौरान भारत में पूरे सालभर की बारिश का 70 से 90 फीसदी बारिश होती है। ठंड में अक्टूबर से नवंबर तक मॉनसून के वापस जाने का समय होता है, जिसे पूर्वोत्तर मॉनसून भी कहते हैं। इस वजह से भारत के पूर्वी तट पर विशेष रूप से तमिलनाडु में अच्छी-खासी बारिश होती है।
दक्षिण-पश्चिम या ग्रीष्म मानसून का क्या कारण है?
इस मॉनसून को लेकर समझ विकसित करने हेतु पहले कई सारे सिद्धांत दिए जा चुके हैं। इन्हीं पुराने सिद्धांतों में 17वीं शताब्दी में सर एडमंड हैली ने तर्क दिया कि भूमि और पानी के बीच तापमान में अंतर से भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून बनता है। उनके अनुसार गर्मियों में एशियाई भूमि गर्म हो जाती है जिससे एक कम दबाव का क्षेत्र बनता है। इससे अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से हवा आकर्षित होकर आती है। इस हवा का तापमान कम होता है इसलिए दबाव अधिक होता है।
“लेकिन इन सिद्धांतो में यह नहीं बताया जाता है कि पृथ्वी के कुछ खास क्षेत्र जैसे भारत के लिए ही मॉनसून अनोखा कैसे या क्यों है। न ही यह बताता है कि मानसून कैसे अचानक आ जाता है,” भारतीय विज्ञान संस्थान में सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक एंड ओशनिक साइंसेज (CAOS) के प्रोफेसर अरिंदम चक्रवर्ती कहते हैं। ये भारतीय मानसून पर काम करते हैं।
मानसून का ‘ऊर्जा‘ सिद्धांत क्या है?
चक्रवर्ती कहते हैं, “ पुराने सिद्धांत की जगह अब आधुनिक ‘ऊर्जा‘ सिद्धांत अधिक चर्चित है। यह मॉनसून के विकास में वातावरण में मौजूद ऊर्जा की भूमिका की बात करता है।”
भारतीय ग्रीष्म मानसून की भौतिकी न केवल सूर्य से उपलब्ध ऊर्जा की मात्रा से प्रभावित होती है, बल्कि यह भी कि हवा में कितना जलवाष्प उपलब्ध है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि बादलों को बनाने के लिए जलवाष्प को कितनी अच्छी तरह ऊपर की ओर उठाया जा सकता है।
पृथ्वी की अपनी धुरी में घूमते रहने के कारण इसके अलग -अलग हिस्सों वर्ष के अलग-अलग समय में सूर्य से सीधी किरणें आती हैं। उत्तरी गोलार्ध में गर्मियों के दौरान, कर्क रेखा सूर्य से सीधी किरणें प्राप्त करती है। इस गोलार्ध में महाद्वीपीय भूमि महासागरों की तुलना में काफी अधिक गर्म होती है, जिससे भारत और मध्य एशिया पर कम दबाव का क्षेत्र बनता है। यह अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) के कारण बनता है। इस क्षेत्र का मतलब भूमध्य रेखा के पास के उस क्षेत्र से है जो प्रायः सतत कम वायु दाब वाले होते हैं।यह क्षेत्र दक्षिण-पूर्व और उत्तर-पूर्व ट्रेड विंड्स या सतही हवाओं के मिलन पर बनता है। यह पृथ्वी की सतह के करीब की हवा हैं जो भूमध्य रेखा के उत्तर और दक्षिण में पूर्व से पश्चिम की ओर चलती हैं। क्योंकि पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर घूम रही होती है।
जब यह बदलाव होता है, तब आईटीसीजेड भारत के नीचले हिस्से से उत्तर की ओर बढ़ना शुरू करता है और भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद निम्न दबाव को और मजबूत करता जाता है। उसी समय, दक्षिण-पूर्वी ट्रेड विंड्स जो इस गति के कारण भूमध्य रेखा को पार करती हैं और पूर्व की ओर निकल जाती है या विक्षेपित हो जाती है। यह कोरिओलिस प्रभाव की वजह से होता है। कोरिओलिस प्रभाव वह बल है जिसके कारण हवा और पानी मिलकर एक तरल पदार्थ बनता है और पृथ्वी की सतह पर घूमता है। ये विक्षेपित हवाएं दक्षिण-पश्चिम से भारत की ओर चलने लगती है। इससे अरब सागर से बड़ी मात्रा में नमी उठती है। जैसे ही वे भारतीय प्रायद्वीप से टकराते हैं, वे दक्षिण-पश्चिम या भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून का कारण बनते हैं।
ग्रीष्म मानसूनी हवाएं दो भागों में विभाजित हो जाती हैं, जिनमें से एक अरब सागर के ऊपर से गुजरती है, जबकि दूसरी बंगाल की खाड़ी के ऊपर चलती है। अरब सागर की शाखा भारत के पश्चिमी तट पर वर्षा का कारण बनती है। बंगाल की खाड़ी पूर्वी तट को पार करती है और बंगाल की खाड़ी के ऊपर बंगाल तट से टकराती है और शिलांग पठार के दक्षिणी ढलानों पर बारिश लाती है। हिमालय, जो इस भाग के आगे एक बाधा के रूप में कार्य करता है, इसे उत्तरी भारत की ओर झुकाता है। जुलाई के मध्य तक दोनों हवाएं पंजाब और हिमाचल प्रदेश में मिल जाती हैं।
पीछे हटने वाले मानसून या पूर्वोत्तर मानसून से चेन्नई में वर्षा होती है। तस्वीर– मैके सैवेज / विकिमीडिया कॉमन्सभारतीय ग्रीष्म मानसून की व्याख्या करने के लिए ‘वायु द्रव्यमान‘ सिद्धांत को 1980 के एक अध्ययन में भी झलक मिली थी। इस अध्ययन को डी.आर. सिक्का और सुलोचना गाडगिल ने किया था। उन्होंने रोजाना उपग्रह से मिली बादलों की तस्वीरों का विश्लेषण किया। निष्कर्ष निकाला कि भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून के दौरान तीव्र बादल निर्माण और यहां तक कि विभिन्न वर्षों में वर्षा में भिन्नता समय और स्थान में आईटीसीजेड की गति से जुड़ी हुई थी।
हालांकि, यहां कहानी पूरी नहीं होती। आईटीसीजेड का मौसमी प्रवास न केवल सतही हवाओं (ट्रेड विंड्स) को प्रभावित करता है, बल्कि वातावरण के ऊपरी स्तरों में भी कई घटनाओं को गति देता है।
इन घटनाओं में जेट स्ट्रीम शामिल हैं, जो वातावरण के ऊपरी स्तर (समुद्र तल से 9 किमी और 16 के बीच) में संकीर्ण, घूमने वाली और तेज़ गति वाली हवाओं (आमतौर पर 100-200 किमी/घंटा लेकिन 400 किमी/घंटा तक जा सकती हैं) के बैंड हैं। माना जाता है कि तीन जेट धाराएं भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून को प्रभावित करती हैं। वह धाराएं हैं उपोष्णकटिबंधीय पश्चिमी, उष्णकटिबंधीय पूर्वी, और सोमाली या क्रॉस-इक्वेटोरियल जेट स्ट्रीम।
उपोष्णकटिबंधीय, उष्णकटिबंधीय पूर्वी और सोमाली जेट धाराएँ क्या हैं? वे दक्षिण-पश्चिम मॉनसून को कैसे प्रभावित करते हैं?
उपोष्णकटिबंधीय जेट स्ट्रीम तब बनती है जब भूमध्य रेखा से चलने वाली गर्म हवा, ध्रुवीय क्षेत्रों से ठंडी हवा से मिलती है और पश्चिम से पूर्व की ओर बहती है। उत्तरी गोलार्ध में गर्मियों के दौरान, जैसे ही कर्क रेखा को सूर्य की सीधी किरणें मिलने लगती हैं, तब दो घटनाएं होती है। भारतीय ग्रीष्म ऋतु के दौरान ताप पैटर्न में उत्तर की ओर बदलाव के जवाब में, उपोष्णकटिबंधीय जेट स्ट्रीम मध्य भारत पर अपनी स्थिति से तिब्बती पठार के ठीक उत्तर की ओर बढ़ती है।
जैसे ही तिब्बती पठार गर्म होना शुरू होता है, हवा उपोष्णकटिबंधीय पश्चिमी जेट स्ट्रीम से मिलने के लिए ऊपर उठती है; इन दोनों धाराओं का आपस में मिलना कोरिओलिस बल से प्रभावित होता है, जो नया नया तैयार उष्णकटिबंधीय जेट स्ट्रीम को पश्चिम की ओर ले जाता है। उष्णकटिबंधीय जेट धारा भारत भर में पूर्व-से-पश्चिम (गंगा के मैदानों से 10-12 किमी ऊपर) से बहती है, और हिंद महासागर के ऊपर कम हो जाती है। यहां यह दक्षिण-पश्चिम मॉनसून को को अतिरिक्त ऊर्जा देता है और इस तरह मॉनसून को भारत की ओर धकेलता है।
सोमाली जेट स्ट्रीम में नमी होने और बंगाल की उत्तरी खाड़ी के ऊपर हवा के गर्म होने के कारण भूमध्यरेखीय हिंद महासागर से भारतीय उपमहाद्वीप की ओर हवाएं आकर्षित होती हैं। इससे अरब सागर के ऊपर निम्न-स्तरीय पश्चिमी हवाओं (पूर्व में मध्य अक्षांश में पश्चिम की ओर से चलने वाली हवाओं) का निर्माण करती है। इन पश्चिमी हवाओं को पछुआ हवा भी कहते हैं।
पीछे हटने वाला मॉनसून या पूर्वोत्तर मॉनसून क्या है?
जैसे ही उत्तरी गोलार्ध में गर्मी कम होती है, आईटीसीजेड भूमध्य रेखा के दक्षिण की ओर बहने लगती है। इसकी वजह से सतही हवाएं उलटी दिशा में बहना शुरू करती हैं। इसके बाद भारत सहित एशियाई भूभाग तेजी से ठंडा होता है, और उच्च दबाव का एक बड़ा क्षेत्र बनाता है। जबकि महासागर, जो धीमी गति से ठंडा होते हैं, निम्न दबाव क्षेत्र बनाते हैं। यह महाद्वीप से शुष्क और ठंडी हवा के बहने का कारण बनता है जिससे पीछे हटने वाले मॉनसून या उत्तर-पूर्वी मानसून का कारण बनता है।
उत्तर पश्चिम भारत में मानसून सितंबर तक तेजी से और पूरी तरह से वापस आ जाता है। लेकिन दक्षिण पूर्व भारत में यह वापसी अधिक क्रमिक है क्योंकि पीछे हटने वाला मानसून बंगाल की खाड़ी से नमी लेता है। इससे तमिलनाडु के तट पर दिसंबर की बारिश आती है।
भारतीय मानसून को और कौन से कारक प्रभावित करते हैं?
“भारतीय मानसून एक अत्यंत जटिल जलवायु पैटर्न है जो कई कारकों से प्रभावित होता है, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध अल नीनो और ला नीना, हिंद महासागर द्विध्रुव (IOD), और इक्विनो (EQUINOO -भूमध्यरेखीय हिंद महासागर दोलन) हैं” चक्रवर्ती कहते हैं।
अल नीनो और ला नीना भूमध्य रेखा के आसपास मध्य और पूर्व-मध्य प्रशांत महासागर के साथ समुद्र की सतह की बड़े पैमाने पर गर्म या ठंडा करने की प्रक्रिया है। इससे भारत में आने वाले मॉनसून काफी प्रभावित होता है। पिछले 30 वर्षों के दौरान, भारतीय ग्रीष्म मानसून को समझने में काफी प्रगति हुई है, दो प्रमुख कारक – आईओडी और इक्विनो – की खोज 1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में की गई थी।
“जैसा कि इस तरह की जटिल प्रणालियों में होता है, हम अभी भी सिस्टम को पूरी तरह से समझने से बहुत दूर हैं। भारतीय मानसून के बारे में बहुत कुछ जांचने और तलाशने की जरूरत है, ”चक्रवर्ती कहते हैं।
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बैनर तस्वीरः घूमते हुए भूरे बादलों का विशाल विस्तार अरब सागर से आगे बढ़ता है और केरल में जून के पहले सप्ताह के आसपास, दक्षिण-पश्चिम मानसून के मौसम की शुरुआत करता है। तस्वीर– हर्ष मंगल/विकिमीडिया कॉमन्स