- झारखंड में नई कोयला खदानों के लिए भूमि आवंटन से लैंड बैंक से जुड़े मुद्दे फिर सामने आ सकते हैं।
- सामूहिक जमीन या कहें आम जमीन जिसे लोग सालों से इस्तेमाल करते आ रहे हैं, उन्हें धीरे धीरे लैंड बैंक में डाल दिया गया है। पर असली अधिकारों को दर्ज करने के लिए जमीन के भौतिक सर्वेक्षण का काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है।
- वन भूमि (लैंड बैंकों का भी हिस्सा) पर वन अधिकार कानून का प्रभावी कार्यान्वयन नहीं होना प्रभावित समुदायों की चिंता का अहम कारण है।
इस साल 15 जुलाई को झारखंड में गोंदलपुरा के निवासियों ने हजारीबाग जिला कलेक्टर कार्यालय की ओर से रखी गई जनसुवाई के दौरान ‘अडानी कंपनी वापस जाओ’ के नारे लगाए। ये सुनवाई नई खदान के लिए होने वाले भूमि अधिग्रहण से जुड़े मसलों पर चर्चा के लिए रखी गई थी। भारत सरकार ने साल 2020 में वाणिज्यिक कोयले की नीलामी के बाद हजारीबाग में गोंदलपुरा ब्लॉक अदानी इंटरप्राइजेज लिमिटेड (AEL) को बेचा था। नीलामी के दौरान, कई राज्यों में अनेक खदानों की नीलामी बड़े और छोटे उद्योगों को की गई। कई इंडस्ट्री ऐसी भी थी, जिन्होंने पहले कोयला खनन किया ही नहीं था।
गोंदलपुरा ब्लॉक के लिए खनन योजना में गैर वन भूमि 176 हेक्टेयर और वन भूमि 224 हेक्टेयर शामिल है। हालांकि, मार्च 2021 में वन मंजूरी के लिए आवेदन करते हुए, AEL ने ज्यादा जमीन की मांग की – यानी 293.53 हेक्टेयर गैर- वन भूमि और 219.65 हेक्टेयर वन भूमि। निजी कंपनी ने राज्य से लैंड बैंकों से प्रतिपूरक वनीकरण के लिए भी जमीन मांगी। प्रतिपूरक वनीकरण एक वैधानिक प्रक्रिया है जिसका अर्थ खनन, उद्योगों, बुनियादी ढांचे, और गैर-वन उपयोग के चलते जंगलों को हुए नुकसान की भरपाई करना है। इसके तहत गैर-वन भूमि पर अन्य कामों के लिए ली गई जमीन जितना ही जंगल लगाना पड़ता है या फिर खराब हुई वन भूमि के दोगुने पर वृक्षारोपण करना पड़ता है। इस भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया में पांच गांवों गोंदलपुरा, गली, बालोदर, हाहे और फूलंग के निवासियों के विस्थापित होने की आशंका है।
पूर्वी भारत के आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में जमीन अधिग्रहण जटिल और विवादास्पद मुद्दा रहा है। राज्य में 23,605 वर्ग किलोमीटर (लगभग 20 लाख हेक्टेयर) वन क्षेत्र है जो राज्य की कुल भौगोलिक भूमि का लगभग 29.6 प्रतिशत है। वहीं लैंड बैंक में भावी विकास योजनाओं के लिए सरकार या निजी संगठनों के नियंत्रण में रखी गई जमीन के बड़े हिस्से शामिल होते हैं।
भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया के लिए भारत में भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन कानून, 2013, वन भूमि के लिए वन अधिकार कानून, 2006, जैसे कानून हैं। इसके अलावा विभिन्न क्षेत्रों के संबंधित राज्यों के काश्तकारी कानून भी हैं जैसे छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, (CNT), जो 1908 से लागू है। इसके अलावा संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम, (SPT) तथा झारखंड भूमि सुधार अधिनियम, भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन (झारखंड संशोधन) अधिनियम, 2017, झारखंड भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन नियम, 2015 भी मौजूद हैं।
झारखंड के CNT कानून ने न केवल भूमि अभिलेखों को बनाने और उनके रखरखाव का प्रावधान है, बल्कि एक खास कैटेगरी “मुंडारी खुंटकट्टीदार” भी बनाई गई – यानी मुंडाओं के बीच मूल निवासी। इसमें गैर-आदिवासियों को भूमि का हस्तांतरण प्रतिबंधित है। हालांकि, गोंदलपुरा जैसी नई खनन परियोजनाओं से स्थानीय लोग चिंतित हैं कि उनकी जमीन का क्या होगा।
हालांकि यहां जिस जमीन की बात हो रही है वह वन भूमि है। इसके अलावा बहुत सी दूसरी जमीन, जिसे रैयती भूमि भी कहा जाता है, भी इसके दायरे में आ गई। रैयती भूमि वह है जिस पर जमींदारी प्रथा (जमीन का कोई मालिक होता था और किसानों को पट्टे पर दी जाती थी) के दौरान स्थानीय किसान और ग्रामीण खेती करते थे। कई बार जोतने वाले लोगों की मेहनत से बंजर भूमि भी सोना उगलने लगती थी।
रैयती वह जमीन है जिस पर लोगों को टाइटल मिल गए यानी उन्हें इस पर मालिकाना हक मिल गया। दूसरी ओर गैर-मजरुआ भूमि है, जिन पर लोगों का मालिकाना हक नहीं है और एक बार जब उन्हें इसका टाइटल मिल जाता है तो इसे दूसरों को बेचा नहीं जा सकता है।
हालांकि दोनों तरह की जमीन के बीच एक अहम फर्क है। रैयती जमीन पर टैक्स लगता है जिसे मालगुजारी कहा जाता है। मालगुजारी देने के बाद रसीद मिलती है और स्थानाय बोली में इसे रसीद कटना कहा जाता है। वास्तव में, ये रसीद महत्वपूर्ण सबूत बन गईं कि कोई खास निवासी इन भूमि का उपयोग कर रहे थे और मालिकों के समान थे। दूसरी ओर, आम भूमि पर कोई टैक्स नहीं लगाया जाता था, जिससे यह धारणा बनती थी कि भूमि सिर्फ सरकार की है, लेकिन लोग सामूहिक तौर पर इन जमीन का इस्तेमाल करते रहे हैं।
सत्तर साल के पूर्व स्कूल शिक्षक और इलाके के अनुभवी नेता देवनाथ महतो ने कहा, “हमें गैर मजरुआ के रूप में जमीन का टाइटल मिला था और हमारे पास रसीदें भी थीं, लेकिन पिछली बीजेपी सरकार ने लैंड बैंक बनाकर इन जमीनों को उसमें शामिल कर लिया।” उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि इस ब्लॉक में रैयती और खतियानी जमीन बहुत कम है। वो कहते हैं, “लेकिन गैर मजरुआ भूमि बहुत ज्यादा है, जिस पर हमारा अधिकार है।”
सामूहिक भूमि (कॉमन लैंड) का मसला
झारखंड में भूमि और राजस्व विभागों के सलाहकार और वरिष्ठ वकील रश्मि कात्यायन इस बात पर रोशनी डालते हैं कि, “गैर-मजरुआ भूमि के भीतर भी, अलग-अलग तरह की भूमि होती है। एक है ‘गैर मजरुआ आम’ जिसे आम लोगों का हिस्सा माना जाता है। दूसरी है ‘गैर मजरुआ खास’ जो झारखंड भूमि सुधार कानून, 1950 की धारा 3 के अनुसार राज्य के पास है।’
इसका अर्थ हुआ कि गैर-मजरुआ के नाम से पहचानी जाने वाली गांवों की आम भूमि, जो पहले मुंडा/मानकी या प्रधान के नाम पर दर्ज थी, को सरकारी भूमि के रूप में भूमि अभिलेखों यानी खतियानों में दर्ज किया गया। खतियान भी तीन हिस्से में बनाए गए थे – एक भूमि के प्रत्येक भूखंड पर अधिकार दिखाने वाले अधिकारों के रिकॉर्ड के साथ, दूसरा प्रथागत अधिकारों का रिकॉर्ड और तीसरा प्रत्येक गांव के सामाजिक और आर्थिक संगठन को प्रदान करने वाला एक गांव नोट। अधिकारों का निपटान करते हुए बाद वाले दो खतियानों की अनदेखी की गई।
इस प्रक्रिया के तहत सरकार को इस भूमि को खेती या किसी दूसरे उद्देश्य के लिए काम में लेने का अधिकार मिल गया। हालांकि बंदोबस्त रिपोर्टों में कहा गया है कि यह भूमि “गांव के सभी निवासियों या सामूहिक रूप से उन निवासियों के एक खास वर्ग की है।” लेकिन इसमें स्पष्टता का अभाव था और सामुदायिक अधिकारों को पहले की तरह दर्ज नहीं किया गया था। अधिकार देने की प्रक्रिया ने लोगों को उनके प्रथागत अधिकारों से वंचित कर दिया। राज्य में वन और भूमि अधिकारों पर काम करने वाले फादर जॉर्ज मोनिपल्ली ने कहा, “हालांकि लोग जमीन पर खेती कर रहे थे, प्रभावशाली या अमीर लोगों ने अपने नाम पर जमीन दर्ज करा ली। इसलिए आमतौर पर लंबे समय तक खेती करने के बावजूद जमीन के असली मालिक बेदखल कर दिए जाते हैं।”
कात्यायन ने समझाया, “1950 से पहले, पूर्व-जमींदारों के पास ऐसी ज़मीनें होती थीं ताकि वे खेती के लिए उन पर काश्तकारों को बसा सकें। CNT कानून के दो विशेष टेन्योर हैं, जिन्हें 2482 गांवों में भुईंहरी और लगभग 150 गांवों में मुंडारी खुंटकट्टी के रूप में जाना जाता है, और इन्हें भूमि सुधार कानून के प्रावधानों से छूट दी गई है। इस प्रकार इन टेन्योर की गैर मजरुआ भूमि राज्य में निहित नहीं है।”
भूमि को उसके असली मालिकों (कई मामलों में आदिवासी और सीमांत किसानों) के नाम करने की प्रक्रिया अनियमितताओं से भरी थी। मोनिपल्ली ने कहा, “चूंकि जमीन को अपने नाम कराने के लिए पैसे वसूले जाते थे, इसलिए अमीर लोग इसे अपने नाम करा लेते थे। सार्वजनिक नोटिस देने की जरूरत होने के बावजूद, इसे अंदरखाने मैनेज कर लिया जाता था, जिसमें नोटिस भूमि के असली मालिकों तक पहुंच ही नहीं पाता था।”
गैर मजरुआ आम भूमि राज्य सरकार के नियंत्रण में है और ऐसी जमीन पर हर आम व्यक्ति का अधिकार है। हालांकि, रसूखदार व्यक्तियों द्वारा अतिक्रमण के चलते, भूमि अभिलेखों में प्रविष्टियां वास्तविक दखल को नहीं दिखाती हैं, जैसा कि रिपोर्ट ऑन लैंड गवर्नेंस असेसमेंट फ्रेमवर्क, झारखंड में बताया गया है।
रांची स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ द्वारा ये रिपोर्ट तैयार की गई थी, जिसने भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के भूमि संसाधन विभाग के अनुरोध के मुताबिक विश्व बैंक से LGAF अप्रोच का इस्तेमाल करते हुए भूमि शासन मूल्यांकन में सहायता करने का अनुरोध किया था।
कात्यायन CNT कानून के एक अन्य प्रावधान पर रोशनी डालते हैं जो एक वैधानिक अधिकार है और कोरकर नाम की गांव की एक प्रथा से संचालित होता है। यह सिर्फ गांव के भीतर गैर-मजरुआ भूमि पर ही प्रयोग किया जा सकता था। यह गांव के नाम पर जारी किए गए खतियान भाग 2 नामक अधिकारों के तहत गांव के कॉमन्स रिकॉर्ड के तहत दर्ज किया गया है। महतो का कहना है कि पिछली सरकार ने उनके कोरकर अधिकारों को खत्म कर दिया था, मतलब कि उन्हें अपनी ही जमीन पर “गुलाम” बना दिया गया।
लैंड बैंक को किस तरह आगे बढ़ाया गया
वैसे तो खदानों की नीलामी साल 2020 में हुई थी, लेकिन भूमि के अधिग्रहण को “आसान” बनाने का काम कई सालों से चल रहा है। इस प्रक्रिया के हिस्से के रूप में, केंद्र सरकार ने कई राज्यों में भूमि बैंकों के निर्माण की सुविधा प्रदान की। इन भूमि बैंकों का इस्तेमाल तैयार भूमि के जरिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए किया जाना था, जिस पर अधिग्रहित की जा रही भूमि के बदले में कारोबार किया जा सकता था। कई राज्य सरकारों ने भी इस विचार को सक्रिय रूप से आगे बढ़ाया, जिसमें तब की झारखंड राज्य सरकार भी शामिल थी।
साल 2016 में तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुबर दास की अगुवाई में झारखंड सरकार ने इन बैंकों का निर्माण शुरू किया था। यह मोमेंटम झारखंड पहल के शुभारंभ से पहले शुरू हुआ था, जहां उद्योगों के साथ तीन लाख करोड़ रुपए के समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए गए थे। भूमि बैंक बनाने से पहले लोगों से न तो कोई सलाह-मशविरा किया गया और न ही भूमि का कोई भौतिक सर्वेक्षण कराया गया था।
अधिकांश भूमि जिनकी वास्तविक स्थिति स्वतंत्रता पूर्व सर्वेक्षणों के बाद से बदल गई थी, को भी भूमि बैंक में शामिल किया गया था। “1948 के बाद ही, कोरकर अधिकारों का प्रयोग करके गांव की गैर मजरुआ जमीन को धान की खेती के लिए इस्तेमाल करने के लिए जिला कलेक्टर की अनुमति को जरूरी बनाया गया। कात्यायन ने कहा, इस तरह, 1948 से पहले से ही खेती में लाई गई गैर मजरुआ भूमि, अधिकारों के रिकॉर्ड में गैर-मजरुआ जमीन के रूप में दर्ज की गई थी, और इस तथ्य की अनदेखी करते हुए इन रिकॉर्डों को पहली बार डिजिटल करते वक्त सिर्फ एक बटन दबाकर रघुबर दास सरकार ने भुइंहारी, मुंडारी, खुंटकट्टी, गैर मजरुआ भूमि समेत जमींदारी जमीन को भूमि बैंक में डाल दिया।”
इसके अतिरिक्त, मोनिपल्ली ने कहा, “जब रघुबर दास सरकार सत्ता में थी, तब 2015 से ही रसीदें एकत्र नहीं की गईं।” हालांकि, जब नई सरकार सत्ता में आई, तो उन्होंने जिला कलेक्टरों को भूमि की ताजा स्थिति की पहचान करने के लिए भूमि-आधारित सर्वेक्षण करने की शक्ति दी। ये सर्वेक्षण कई क्षेत्रों में नहीं हुए हैं और पहले के अधिकारों को दर्ज करने की प्रक्रिया अधूरी है।
कात्यायन का कहना है कि जो भूमि खेती लायक बनाई गई थी, उसे भी भूमि बैंक में डाल दिया गया था। उन्होंने कहा, “एक विवाद यह भी है कि सरना, जहेर, हरगरी, मसना और अन्य सामुदायिक आदिवासी गैर-कृषि भूमि (गैर मजरुआ) जैसी कई अन्य प्रकार की भूमि (प्रथागत उपयोग के तहत) को लैंड बैंक में शामिल कर लिया गया था।”
वन अधिकार कानून को लागू करना अब भी हकीकत से दूर
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ की एक रिपोर्ट ने भूमि अभिलेखों के डिजिटलीकरण की प्रक्रिया और इससे जुड़े नतीजों पर टिप्पणी की, “हालांकि एक बड़ी कमी यह है कि निबंधन कार्यालयों में अभी भी अप-टू-डेट भूमि रिकॉर्ड और जमीन के नक्शे नहीं हैं क्योंकि लोहरदगा और लातेहार जिलों को छोड़कर भूमि अभिलेखों के नए पुनरीक्षण सर्वेक्षण पूरे नहीं हुए हैं। निबंधन कार्यालय और स्थानीय राजस्व कार्यालयों के बीच समन्वय की कमी है जिसके कारण भूमि का फर्जी हस्तांतरण होता है।
इसके अलावा, भूमि बैंक की लगभग आधी जमीन वन भूमि है (जिसे गैर मजारुआ जंगल-झाड़ी भूमि के रूप में जाना जाता है)। वन अधिकार कानून, 2006 इस तरह की भूमि पर लागू होता है, ताकि क्षेत्र में रहने वाले लोग, विशेष रूप से मूल निवासी और अन्य पारंपरिक वनवासी, निजी और सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों का दावा कर सकें।
मोनिपल्ली ने बताया, “ज़मींदारी को खत्म करने के बाद, कई समुदायों विशेष रूप से आदिवासियों (जो इन भूमि पर खेती कर रहे थे और आसपास ही रहते थे) को भारतीय वन कानून के कारण अतिक्रमणकारियों के रूप में चिह्नित किया गया। हालांकि, यही कानून कहता है कि वे अतिक्रमण करने वाले नहीं थे, बल्कि वन भूमि पर रह रहे थे।”
लेकिन 2006 में वन अधिकार कानून लागू होने के बावजूद, इन क्षेत्रों में इसका कार्यान्वयन बहुत ढीला रहा है। “ गोंदलपुरा में कानून लागू करने के लिए बाद की सरकारों द्वारा कोई पहल नहीं की गई है। कुछ वर्ष पहले, 2018-19 में खीरागेड़ा ब्लॉक में शिविर का आयोजन किया गया था और कुछ टाइटल का वितरण किया गया था। हमें इसकी जानकारी नहीं है कि निजी वन अधिकार और सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों के तहत दायर किए गए हमारे दावों का क्या हुआ।”
कार्यान्वयन में ढिलाई के अलावा, कानून के बारे में लोगों के बीच गलत जानकारी है। गोंदलपुरा के एक अन्य निवासी परमेश्वर महतो, कई क्षेत्रों में प्रचलित एक आम धारणा की ओर इशारा करते हैं। “किसी ने हमें निजी या सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों के बारे में नहीं बताया और यहां तक कि जब हम अंचल कार्यालय गए, तो हमें बताया गया कि यह कानून केवल आदिवासियों के लिए है, यह हमारे लिए नहीं है। कहां लिखा है,” उन्होंने सवाल किया? कानून आदिवासियों और अन्य दलित-बहुजन के साथ-साथ देहाती और खानाबदोश समुदायों पर लागू होने के बावजूद, उनके अधिकारों के बारे में भ्रम हमेशा बना रहता है और राज्य सरकारें कानून के बारे में जागरूकता फैलाने में कम सक्रिय रही हैं।
महतो ने जोड़ा, “बाद की सरकारों के इरादे संदिग्ध हैं। अगर वे वन अधिकार कानून के तहत अधिकारों को मान्यता देंगे, तो वे कंपनियों को कैसे आमंत्रित कर पाएंगे? और फिर वे भूमि बैंक क्यों नहीं बनाएंगे… हमारे पूर्वजों ने जो जमीन जोती थी, अब नियम ऐसा बना दिया गया है कि उसके अनुसार वह जमीन सरकार की बताई जाती है? हमने इसे खेती के लायक बनाया है।”
कात्यायन ने राज्य में वन अधिकार कानून के कार्यान्वयन में चुनौतियों पर रोशनी डाली और कहा, “झारखंड में, स्थिति अलग है, जंगल गांवों के अंदर नहीं हैं, गांव जंगलों के अंदर हैं, यहां आम भूमि पर CFR अधिकार लागू होना चाहिए।”
उन्होंने कहा, “हालांकि, ऐसी भूमि को लैंड बैंकों में भी वर्गीकृत किया गया है, जैसे कि एक गांव की सीमाओं के भीतर राजस्व वन और उसे खतियान भाग 2 में दर्ज किया गया है।”
रांची विश्वविद्यालय में कानूनी अध्ययन संस्थान में सहायक प्रोफेसर शालिनी साबू ने जोर देकर कहा कि इस तरह की विकास परियोजनाओं से आदिवासी महिलाओं के और हाशिए पर जाने की संभावना है। राज्य में विभिन्न मूल निवासी समुदाय के बीच प्रथागत कानूनों का अध्ययन करने वाले साबू ने पाया है कि मुंडा समुदाय की आदिवासी महिलाएं, कठिन शारीरिक श्रम, कृषि गतिविधियों और घरेलू गतिविधियों में शामिल होकर घरेलू आय में ज्यादा योगदान देने के बावजूद, अभी भी अपने अधिकारों के लिए कोशिश कर रही हैं।
इस तरह के मुद्दे राज्य में लैंड बैंकों को बेहद विवादास्पद बनाते हैं।
हालांकि, सरकार इसे अलग तरह से देखती है। भूमि और राजस्व विभाग के निदेशक और पहले धनबाद के जिला कलेक्टर उमा शंकर सिंह से जब गोंदलपुरा में भूमि से जुड़ी चिंताओं के बारे में पूछा गया तो उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि ये मुद्दे “हमारे विभाग के संज्ञान में नहीं आए हैं।”
उन्होंने कहा, “यह देखना एक अच्छा विचार हो सकता है कि फिलहाल प्रक्रिया कहां तक पहुंची है, और देखें कि रैयतों की चिंताएं क्या हैं, और फिर उस हिसाब से काम करें।”
कहा जा रहा है, और मौजूदा सरकार के दल द्वारा भूमि बैंकों के विरोध के बावजूद, इन बैंकों का विचार खत्म नहीं हो पा रहा है। वास्तव में, सरकार इस क्षेत्र में सुधार करना चाह रही है और शिकायत निवारण तंत्र पर अधिक ध्यान केंद्रित कर रही है।
सिंह ने लैंड बैंकों में जमा गैर-मजरुआ भूमि के दावों के बारे में जवाब देते हुए कहा, “जैसा कि आप जानते हैं, हमारा पोर्टल, झारभूमि (Jharbhoomi) सार्वजनिक डोमेन में है और कोई भी इसे देख सकता है। पोर्टल और उस पर दी गई जानकारी जिला मुख्यालय से रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद बनाई गई है। वहां केवल जिला स्तरीय मुख्यालय द्वारा प्रमाणित रिपोर्ट अपलोड की गई है।”
उनका कहना है कि शिकायत दूर के लिए कई चैनल हैं। “जिन्हें शिकायत है वे संबंधित जिला कार्यालयों से संपर्क कर सकते हैं। आप जानते ही होंगे कि आंचलाधिकारी के कार्यालय में प्रतिदिन कई लोग अपनी शिकायतें लेकर आते हैं। इसके अलावा, वे अपनी शिकायत ऑनलाइन पोर्टल पर भी दर्ज करा सकते हैं। अगर कुछ नहीं होता है, तो वे हमें लिख भी सकते हैं।”
लेकिन ऐसे कौन से तंत्र हैं जिनके माध्यम से ऐसी विस्तृत शिकायत निवारण प्रक्रियाएं काम कर सकती हैं, खासकर तब जब इन क्षेत्रों में सूचना की बहुत ज्यादा कमी है?
सिंह ने कहा, “यह सच हो सकता है कि इनमें से कुछ प्रक्रियाओं के बारे में हमारे कई आदिवासी भाइ-बहनों में जागरूकता की कमी है। जैसा कि आप जानते हैं जनता दरबार का भी विकल्प है। खासतौर पर उन जमीनों पर जो दखल-कब्जा में हैं और लोग लंबे समय से खेती कर रहे हैं। संबंधित व्यक्ति तुरंत जनता दरबार में जाएं और अपनी शिकायतें दर्ज कराएं, उनकी तुरंत सुनवाई की जाएगी।
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सिंह ने कहा कि रैयतों को ऐसे मामलों में अंचलाधिकारी या बड़े पद पर बैठे अधिकारी से मिलना चाहिए। जिस भूमि पर दखल कब्ज़ा होता है, उसके लिए एक विस्तृत प्रक्रिया और नियमों का एक सेट होता है।
दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के कांची कोहली ने बताया, “इन जमीनों पर केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र का प्रयोग 1996 के गोदावर्मन फैसले के आलोक में किया जा सकता है।”
कोहली ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “सबसे पहले, यह महत्वपूर्ण है कि राज्य सरकारें डीम्ड वनों को पहचानने और रिकॉर्ड करने की प्रक्रिया को स्पष्ट और पूरा करें, जो ऐसी भूमि पर FCA 1980 के लागू होने को स्पष्ट करने में सक्षम होगी। दूसरा, केंद्र सरकार ने बार-बार राज्य सरकारों को भूमि बैंक बनाने के लिए प्रोत्साहित किया है ताकि भूमि की उपलब्धता सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों दोनों के पक्ष में वन डायवर्जन प्रक्रियाओं में बाधा न बने। राज्य सरकारें भी इसमें शामिल हैं।”
चूंकि, नवीकरणीय और गैर-नवीकरणीय दोनों ही सेक्टरों के लिए पर्याप्त जमीन की जरूरत है, यह देखना बाकी है कि राज्य और केंद्र सरकार राज्य के लोगों के लिए भूमि मुद्दों को हल करने के लिए सक्रिय प्रयास करती हैं नहीं, नहीं तो यह भूमि संघर्ष की वजह बन सकता है।
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बैनर तस्वीरः रांची जिले में हुंडरू झरने से ली गई एक घाटी की तस्वीर। तस्वीर– अजय कुमार/विकिमीडिया कॉमन्स