- उत्तराखंड और आपदा का चोली-दामन का साथ है। इस साल मॉनसून में कम बारिश के बावजूद करीब ढाई महीनों में कम से कम 39 लोगों की जान गई है।
- इस बार बारिश का सबसे ज्यादा असर तीन जिलों देहरादून, टिहरी और यमकेश्वर में पड़ा है। इन जिलों के दुर्गम स्थानों में कई लोग अब भी लापता हैं और राहत पहुंचने का इंतजार कर रहे हैं।
- जानकारों का मानना है कि पहाड़ों को काटना और नदियों को पाटना इस पहाड़ी राज्य के लिए जानलेवा बनता जा रहा है।
भले ही इस साल उत्तराखंड में मॉनसून में बारिश औसत से कम हुई है। लेकिन बारिश और भूस्खलन से जान-माल का नुकसान जारी है। राज्य में 15 जून से 28 अगस्त तक बारिश और भूस्खलन के चलते कम से कम 39 लोगों की जान गई है। मौसम विभाग के अनुसार मॉनसून के दौरान औसत 954.6 मिमी बारिश होती है। लेकिन इस बार अब तक 817.8 मिमी बारिश ही दर्ज की गई है। लेकिन कमजोर मॉनसून के बाद भी राज्य में भूस्खलन की करीब दो दर्जन छोटी-बड़ी घटनाएं हुई हैं।
राज्य की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार पिथौरागढ़ और टिहरी में सात-सात लोगों की मौत हुई है। देहरादून में 8 लोगों की जान गई है। वहीं चमोली, रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी में चार-चार लोग की मौत हुई है। इन हादसों में 39 लोग घायल भी हुए हैं। वहीं आठ लोग अब भी लापता हैं। इनमें देहरादून और टिहरी के चार-चार लोग शामिल हैं। आंकड़ों के मुताबिक छोटे-बड़े मिलाकर 247 जानवर मारे गए हैं। 128 घरों को जबरदस्त नुकसान हुआ है। 36 घर पूरी तरह मलबे में तब्दील हो गए हैं। 326 घरों को आंशिक रूप से नुकसान हुआ है। सरकार ने चार राहत शिविर लगाए हैं। इनमें 26 परिवारों के 94 लोग रह रहे हैं।
गढ़वाल के आयुक्त सुशील कुमार ने देहरादून, पौड़ी और टिहरी जिलों के प्रभावित क्षेत्रों में आपदा से हुए नुकसान का आकलन करने के आदेश दिए हैं।
तीन जिलों में बारिश से बड़ा नुकसान
दरअसल, पिछले साल 17 अक्टूबर को भी बेमौसमी बारिश ने इस पहाड़ी राज्य में बहुत नुकसान किया था। लोग इससे उबर ही रहे थे कि इस साल गुजरते मॉनसून ने यहां फिर तबाही मचा दी। उम्मीद थी कि इस बार मॉनसून शांति से गुजर जाएगा। लेकिन 19-20 अगस्त की दरम्यानी रात को बहुत ज्यादा बारिश और बादल फटने की घटनाओं ने आपदा के पुराने जख्मों को हरा कर दिया। बारिश का ये सिलसिला अभी रुका नहीं है। 28 अगस्त की देर रात देहरादून में भूस्खलन से एक मकान ढह गया। मरने वालों में दो महिलाएं और एक नवजात है।
मौसम विभाग ने 19-20 अगस्त को राज्य के कुछ जिलों में कहीं-कहीं भारी बारिश का यलो अलर्ट जारी किया था। लिहाजा कहीं भी बड़े खतरे की आशंका नहीं थी। लेकिन हुआ ठीक उलटा। राज्य के तीन जिलों में बादल कहर बनकर बरसे। बादल फटने के कारण देहरादून के रायपुर, टिहरी के धनोल्टी और पौड़ी जिले के यमकेश्वर में भारी नुकसान हुआ। देहरादून का सरखेत व भैंसगांव और टिहरी जिले का सीतापुर व ग्वाड़ गांव सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। बांदल (ठंदकंस) नदी के दोनों तरफ के इन गांवों में दर्जनों घर मलबे में दब गए। खेतों में मलबा भरने से फसलें बर्बाद हो गई। नदी के दोनों ओर बने दर्जन आलीशान रिजॉर्ट या तो बह गए या फिर उनमें मलबा भर गया।
आपदा से सबसे ज्यादा प्रभावित देहरादून और टिहरी जिलों की सीमा पर बांदल नदी है। इसी नदी के किनारे सरखेत गांव है, जहां मलबे में दबे तीन लोगों के शव घटना के चार दिन बाद निकाले जा सके। यहां दो लोग अब भी लापता हैं। सरखेत गांव तक पहुंचने की सभी सड़कें भी टूट गई थी। आपदा के छह दिन बाद गांव तक पहुंचने के रास्ते फिर से तैयार हुए। इस गांव में 15 परिवार आपदा में बेघर हो गए। पांच की मौत हुई और दर्जनों लोगों ने घरों से भागकर जंगल में जाकर जान बचाई।
राज्य में आपदा की स्थिति में रिस्पांस टाइमिंग क्या है, इसका उदाहरण घटना के एक दिन बाद सरखेत गांव में देखने को मिला। गांव से करीब दो किलोमीटर पहले सड़कें पूरी तरह टूट गई थी। किसी तरह सरखेत पहुंचने पर पता चला कि राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (एनडीआरएफ), राज्य आपदा मोचन बल (एसडीआरएफ) और पुलिस के कुछ जवानों व अधिकारियों के अलावा सरकारी अमले के नाम पर वहां सिर्फ एक प्राइमरी स्कूल अध्यापिका थीं।
जिस घर में पांच लोगों के दबे होने की आशंका थी वहां 36 घंटे बाद भी ग्रामीणों और एनडीआरएफ के कुछ लोगों के अलावा कोई नहीं था। आपदा के तीसरे दिन मलबा हटाने का काम शुरू हुआ और तीन शव निकाले जा सके। दो लोगों का अब तक पता नहीं चल पाया है। प्रशासन ने इस क्षेत्र में 20 मवेशियों के मरने की बात कही है। हालांकि ग्राम प्रधान सुनील सिंह तोपवाल का मानना है कि अकेले गांव में सौ से ज्यादा पशुओं की मौत हुई है। बांदल के आसपास के सैकड़ों एकड़ खेत भी बह गए।
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सरखेत गांव बांदल नदी के किनारे छोटे-छोटे समूहों में बसा है। गांव के पीछे की तरफ पहाड़ हैं। इन पहाड़ों से छोटे-छोटे पहाड़ी नाले गांव के बीच से होकर बांदल नदी में मिलते हैं। अनुमान है कि घटना की रात गांव के ऊपर घने जंगलों में कहीं बादल फटा। इससे पहाड़ की तरफ से आने वाले सभी नालों में भारी मा़त्रा में मलबा आ गया। इससे बांदल नदी में पानी का स्तर बहुत बढ़ गया।
सरखेत के करण सिंह तोपवाल बताते हैं, “रात 2.30 बजे के करीब एक तरफ उनके घर का निचला हिस्सा बांदल में समां रहा था। दूसरी तरफ पहाड़ी नाले से भारी मात्रा में मलबा घरों को अपनी चपेट में ले रहा था। ऐसे में उनका परिवार और आसपास के 5-6 परिवारों के लोग एक छत पर जमा हुए। लेकिन यहां भी बचने की उम्मीद नहीं थी। सभी लोग बुजुर्गों और बच्चों को कंधे पर उठाकर छत से नीचे कूद गए। कुछ सेकेंड की देर होती तो 13 लोग मलबे से समां जाते। किसी तरह मलबे की जद से निकलकर पहाड़ी की तरफ भागे।“ यहां सभी घर पूरी तरह या आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हुए हैं।
सरखेत गांव से करीब डेढ़ किमी आगे घंतू का सेरा में भी यही सब हुआ। यहां भी पहाड़ी नाला हजारों टन मलबे के साथ नीचे उतरा। आपदा में मारे गए विशाल के पिता रमेश कैंतुरा ने बताया, “मेरा घऱ नाले के दूसरी तरफ है। मेरे भाई दिनेश का घर पूरी तरह मलबे की चपेट में आ गया। घर में उस रात तीन मेहमानों के साथ परिवार के सात लोग थे। इनमें मेरा बेटा विशाल भी था। तीन मेहमान और परिवार के दो सदस्य मलबे में दब गए। तीन घायल हुए और दो समय रहते सुरक्षित स्थान पर चले गए। यहां अब तक तीन शव मलबे में से निकाले जा चुके हैं, जबकि दो की तलाश जारी है।“ बांदल के दूसरी तरफ टिहरी जिले के ग्वाड़ गांव में भी मलबे में दबने पांच लोगों की मौत हुई है।
वहीं बांदल नदी के दूसरी तरफ टिहरी जिले में स्थितियां भी काफी खराब हैं। 29 अगस्त तक भी सड़कें पूरी तरह ठीक नहीं हुई हैं। कई किलोमीटर पैदल चलकर सीतापुर और ग्वाड़ जैसे दूर-दराज के गांव में पिछले दो दिनों में राहत सामग्री पहुंचाई गई है।
इस क्षेत्र में बांदल के किनारे बने रिजॉर्ट में फंसे कई पर्यटक किसी तरह लालपुल तक पहुंचकर अपने घरों की तरफ रवाना हुए। लालपुल में मिले दिल्ली, मुंबई और पंजाब के पर्यटकों ने बताया कि उनकी 10-12 गाड़ियां बह गई हैं। यही नहीं पहाड़ की ओर से आने वाले कई नालों के पुल भी बह गए हैं।
पहाड़ को काटना, नदियों को पाटना है वजह
सवाल उठता है कि बांदल नदी और उसमें गिरने वाले छोटे-छोटे पहाड़ी नाले इतने मारक क्यों हो गए? यह जानने के लिए उत्तराखंड वानिकी एवं उद्यानिकी विश्वविद्यालय में भूवैज्ञानिक प्रो. एसपी सती खुद बांदल नदी घाटी पहुंचे। प्रो. सती ने इस आपदा का मुख्य कारण बांदल नदी के दोनों तरफ बड़ी संख्या में बने रिजॉर्ट को बताया। वे कहते हैं कि नदी के दोनों तरफ बचे रिजॉर्ट के मलबे साफ बता रहे हैं कि कब्जा करके नदी को नाला बना दिया गया है। नदी को पाटकर और पहाड़ को काटकर बनाए गए इन रिजॉर्ट का मलबा नदी में ही फेंका गया होगा, जो इतने बड़े नुकसान का कारण बना।
वहां दून घाटी की नदियों के जानकार भारत ज्ञान विज्ञान समिति के विजय भट्ट और इंद्रेश नौटियाल कहते हैं कि आपदा में सरखेत गांव सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है और इसका कारण गांव के ठीक ऊपर बन रही सड़क है। यह सड़क मालदेवता से पौंठा होकर सरुणा और वहां से आगे धनोल्टी तक बन रही है। विजय भट्ट कहते हैं, “पहाड़ों में मोटर मार्ग बनाने के लिए पहाड़ काटकर मलबा नीचे घाटियों, नदियों या नालों में डंप किया जा रहा है। भारी मात्रा में सड़क का मलबा यहां पहाड़ी नालों में ऊपरी क्षेत्र में जमा था। तेज बारिश के बीच ये मलबा नालों से निचले क्षेत्रों की ओर बहा और रास्ते में इसने भारी नुकसान पहुंचाया।”
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जाने-माने पर्यावरणविद् प्रो. रवि चोपड़ा भी स्थिति का जायजा लेने सरखेत पहुंचे। वे कहते हैं, “सरकार ग्रामीण सड़कों के निर्माण के लिए सिर्फ एक करोड़ रुपये प्रति किमी खर्च कर रही है, जो इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर है। दूसरी तरफ चारधाम सड़क परियोजना पर अनुमानित 12 से 13 करोड़ रुपये प्रति किमी खर्च किया किया जा रहा है। दुर्गम पहाड़ों में इतनी कम रकम में अच्छी सड़क बनाना संभव नहीं है। इन सड़कों को बनाने में मानकों का पालन नहीं किया जाता। मलबा वहीं छोड़ दिया जाता है, जो इस तरह की घटनाओं का कारण बन रहा है।”
आती रही हैं आपदाएं
हाल के सालों में सबसे भयानक आपदा केदारनाथ में साल 2013 में आई थी। इसमें जान-माल का भारी नुकसान हुआ था। इस आपदा में 5,798 लोगों की जान गई थी। वहीं 1998 में मालपा में भूस्खलन से तीन सौ लोगों की जान गई थी। पिछले साल चमौली में ऐसी ही घटना में दो सौ से अधिक लोगों की मौत हुई थी। बीत साल ही नैनीताल में भी आपदा के चलते करीब 80 लोग मारे गए थे।
बैनर तस्वीरः सरखेत गांव के प्राथमिक विद्यालय का आधा से ज्यादा हिस्सा मलबे दब गया है। तस्वीर-त्रिलोचन भट्ट