- भारत और जर्मनी के वैज्ञानिकों की एक टीम ने दक्षिणी भारतीय राज्य केरल के लैटेरिटिक एक्वाफिर से विज्ञान के लिए एक नई कैटफ़िश प्रजाति का खुलासा किया है।
- कैटफ़िश का नाम उन आम नागरिकों के नाम पर रखा गया है जिन्होंने उसे खोजने में मदद की थी। यह मछली छोटी है, इसका शरीर लाल रंग का है और इसकी आंखें नहीं हैं। यह आनुवंशिक रूप से अपने जींस की अन्य प्रजातियों से अलग है लेकिन अन्य प्रजातियों के समान दिखाई देती है।
- भविष्य में और अधिक प्रजातियों की खोज के लिए सार्वजनिक भागीदारी महत्वपूर्ण है। इसमें अनोखी प्रजातियों के महत्व और अनुसंधान के उद्देश्यों के लिए प्रजातियों को कैसे इकट्ठा किया जाए, इस पर आम लोगों को प्रशिक्षण देना शामिल होगा।
दक्षिणी भारतीय राज्य केरल के संकीर्ण भूजल एक्विफर के अंदर भूमिगत कैटफ़िश का एक अनूठा समूह रहता है। ये मछलियां पोषक तत्वों और ऑक्सीजन की कम सांद्रता के साथ पूरी तरह से अंधेरे में रहती हैं। इन मछलियों की एक झलक पाना दुर्लभ है, लेकिन जब पुश्तैनी घरों के कुओं को खोदा जाता है या साफ किया जाता है, तो इनमें से कुछ मछलियां कभी-कभार बाहर आ जाती हैं।
काफी लंबे समय से चली आ रही एक परियोजना के हिस्से के रूप में, स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षित नागरिक वैज्ञानिकों ने केरल के विभिन्न हिस्सों के खोदे गए कुओं में छिपी कैटफ़िश को देखा और उन्हें वैज्ञानिकों को सौंप दिया। वैज्ञानिकों ने कुओं और भूमिगत टैंकों से कैटफ़िश भी इकट्ठा की। टीम ने उथली आर्द्रभूमियों, जल स्रोतों, घरेलू बगीचों और वृक्षारोपण में स्कूप जाल का इस्तेमाल किया। वहीं घरों, तालाबों और गुफाओं में खोदे गए कुओं में बेटैड ट्रैप का इस्तेमाल किया।
केरल यूनिवर्सिटी ऑफ फिशरीज एंड ओशन स्टडीज़ (केयूएफओएस), नई दिल्ली में शिव नादर यूनिवर्सिटी और जर्मनी में सेनकेनबर्ग संग्रहालय के शोधकर्ताओं की एक टीम द्वारा किए गए एक विस्तृत अध्ययन में विज्ञान के लिए एकदम नई गुप्त प्रजाति का पता चला है। जानकारी और नमूने मुहैया कराने में मदद करने वाले नागरिक वैज्ञानिकों को सम्मान देते हुए, छोटी मछली का नाम होराग्लानिस पॉपुली रखा गया है। यहां ‘पॉपुली‘ लैटिन भाषा का शब्द ‘पॉपुलस‘ से आया है, जिसका मतलब होता है लोग।
केयूएफओएस में सहायक प्रोफेसर और अध्ययन के मुख्य लेखक राजीव राघवन कहते हैं, “यह पहली बार था कि इन रहस्यमय भूमिगत कैटफ़िश पर इस तरह का अध्ययन किया जा रहा है।” राघवन बताते हैं, “होराग्लानिस कैटफ़िश का एक अनोखा और हर समय विकास करते रहने वाला एक विशिष्ट समूह है।”
फिर से प्रकट होना: भूमिगत मछलियां और होराग्लानिस का अनोखा मामला
केरल के लैटेरिटिक एक्वीफर सिस्टम में रहने वाली जीनस होराग्लानिस की मछलियों काफी अनोखी होती है: वे छोटी होती हैं (लंबाई में 35 मिमी से कम), उनकी आंखें नहीं होती हैं और रंगों की कमी होती है। रंगहीन त्वचा पारदर्शी होती है, जिसमें इन मछिलयों का खून साफ तौर पर नजर आता हैं। इस वजह से प्रजाति का रंग खून वाला लाल होता है।
लुइसियाना स्टेट यूनिवर्सिटी में विकासवादी जीव विज्ञान और इचिथोलॉजी (मछली का अध्ययन) के प्रोफेसर प्रोसांता चक्रवर्ती ने कहा “पिगमेंट की कमी के कारण कई केव फिश सफेद या गुलाबी रंग की होती हैं। लेकिन यह नई प्रजाति चमकदार लाल रंग की है क्योंकि आप इसके शरीर की सतह के पास इसका खून देख सकते हैं।” चक्रवर्ती इस शोध में शामिल नहीं थे। उन्होंने आगे कहा, “अगर पहले से ही टेक्सास कैटफ़िश का नाम ‘सतन‘ नहीं होता तो मैं इस प्रजाति के लिए इसी नाम का सुझाव देता। मुझे थोड़ी जलन हो रही है। लेकिन उम्मीद है कि एक दिन मैं उन्हें जरूर जिंदा देख पाऊंगा।”
होराग्लानिस एकमात्र प्रजाति है जो लैटेरिटिक एक्विफर से जुड़ी है जबकि अन्य सभी एक्विफर में रहने वाली मछलियां चूना पत्थर की संरचनाओं में पाई जाती हैं। जेनेटिक सीक्वेंस और स्थानीय रिकॉर्ड से पता चला है कि होराग्लानिस केरल के पालघाट गैप के दक्षिण में पाई जाती हैं, जो पश्चिमी घाट पर्वत श्रृंखला में एक प्रसिद्ध जैव-भौगोलिक घेरा या अवरोध है।
दक्षिणी भारतीय राज्य केरल का लेटराइट लैंडस्केप जमीन के अंदर रहने वाली मछलियों की वजह से दुनियाभर को आकर्षित करता है। लेटराइट एक प्रकार की मिट्टी और चट्टान दोनों को संदर्भित करता है जो आयरन और एल्यूमीनियम से समृद्ध होती है। यह आमतौर पर गीले उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाई जाती है। लैटराइटिक एक्वेफायर दक्षिण-पश्चिमी भारत में घरेलू और कृषि उद्देश्यों के लिए पानी का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं।
राघवन कहते हैं, “इस खोज से पता चलता है कि भूमिगत मछली प्रजातियों की विविधता को कम करके आंका जा रहा है और उनकी वास्तविक विविधता को समझने के लिए गहन अध्ययन की जरूरत है।”
अर्बाना-कैंपेन में इलिनोइस यूनिवर्सिटी के सहायक रिसर्च वैज्ञानिक मिल्टन टैन उनकी इस बात से सहमत हैं। हालांकि वह इस शोध में शामिल नहीं थे। उन्होंने कहा, “हमें अभी भी इस बात का सही अंदाज़ा नहीं है कि जमीन के नीचे रहने वाली ये कैटफ़िश कितने प्रकार की हैं। एक नई प्रजाति की खोज वहां मौजूद चीजों की पूरी तस्वीर के लिए पहेली का एक और हिस्सा है।”
जमीन के नीचे पाई जाने वाली 289 मछली प्रजातियों में से 53 कैटफ़िश हैं और इनमें से सिर्फ 10 फीसदी मछलियां एक्विफर में रहती हैं। राघवन बताते हैं, “इनमें से कुछ रहस्यमय अंधी कैटफ़िश हैं, जो ज्यादातर अमेरिका में पाई जाती है- इनमें से कुछ में सतन, प्रीटेला, ट्रोग्लोग्लानिस, फ़्रीटोबियस जीनस के सदस्य शामिल हैं।”
चक्रवर्ती कहते हैं, “भारत की केव फिश शायद सबसे दिलचस्प हैं क्योंकि चीन, ब्राज़ील, अमेरिका और मैक्सिको की तुलना में इन मछलियों का बहुत कम अध्ययन किया गया है। इन सभी जगहों में 100 से अधिक प्रजातियों के बारे में जानकारी है।” वह आगे कहते हैं, “राजीव राघवन जैसे स्थानीय शोधकर्ताओं और उनके छात्रों और सहयोगियों को धन्यवाद। जो हमें उस चीज के बारे में बता रहे हैं जो कभी छिपी हुई थी। सतह पर रहने वाले पूर्वजों के इन भूतों को सामने लाया जा रहा है।”
मौजूदा समय में, वैज्ञानिकों ने पांच प्रजातियों (एनिग्माचन्ना, होराग्लानिस, क्रिप्टोग्लानिस, पैंजियो और रक्तामिचथिस) में 10 स्थानिक प्रजातियों की पहचान की है। जीनस होराग्लानिस में अब चार प्रजातियां शामिल हैं जिनमें से तीन के बारे में पहले से जानकारी है।
इन मछलियों को बहुत ही सीमित जगहों पर पाया जाता है और उनकी सुरक्षा के लिए बहुत कम या फिर कोई कानून नहीं है। सफाई के लिए खोदे गए कुएं से व्यापक और अनियमित जल निकासी से इन मछलियों को खतरा हो सकता है। कई इलाके जहां होराग्लानिस मछलियां पाई जाती हैं, वे तट से 30 किमी के भीतर हैं और एक्विफर में समुद्री जल का घुस आना चिंता का विषय है। अन्य खतरों में भूजल प्रदूषण और विकासात्मक गतिविधियों के लिए लेटराइट मिट्टी का खनन शामिल है।
आनुवंशिक रूप से विविध लेकिन दिखने में समान
अध्ययन के सह-लेखक और स्कूल ऑफ नेचुरल साइंसेज, शिव नादर इंस्टीट्यूशन ऑफ एमिनेंस, दिल्ली-एनसीआर में सहायक प्रोफेसर नीलेश दहानुकर बताते हैं, “जब किसी पैतृक प्रजाति की दो या उससे अधिक आबादी लंबे समय तक अलग-थलग रहती है, तो इसके चलते इनकी आबादी आनुवंशिक रूप से एक-दूसरे से अलग हो सकती है और इससे एक नई प्रजाति का निर्माण हो सकता है।” वह आगे बताते हैं, “क्योंकि पृथक आबादी अलग-अलग आवासों में निवास कर सकती है, वे आसपास की पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुकूलन के कारण उनके बाहरी स्वरूप में परिवर्तन आ सकता है।”
बाहरी स्वरूप में इन अंतरों का इस्तेमाल अक्सर प्रजातियों के बीच अंतर करने के लिए किया जाता है। दहानुकर कहते हैं, “हमारे आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला कि एच. पोपुली आनुवंशिक रूप से अन्य सभी ज्ञात प्रजातियों से बहुत अलग है। लेकिन हमें यह देखकर हैरानी हुई कि इसे विभिन्न प्रजातियों से अलग करने के लिए कोई रूपात्मक अंतर नहीं थे।” उन्होंने बताया, “वास्तव में, सभी चार प्रजातियों के बीच हाई जेनेटिक डाइवर्जेंस के बावजूद, कोई रूपात्मक अंतर नहीं है जो उन्हें अलग करने में मदद कर सके। इसलिए इन प्रजातियों को अलग करने का एकमात्र तरीका आनुवंशिक बारकोडिंग है।
दहानुकर कहते हैं, इस स्थिर आकृति विज्ञान के लिए कई पारिस्थितिक कारण हो सकते हैं। टैन के अनुसार, इन निष्कर्षों से पता चलता है कि होराग्लानिस का भूमिगत निवास स्थान “जो काफी स्थिर हैं और वहां इनका शिकार भी नहीं किया जा सकता है। हो सकता है इन भूमिगत निवास स्थान की वजह से ही इन प्रजातियों के बीच एक स्थिर मोरफोलॉजी और सीमित विकासवादी अंतर हो।”
नागरिक वैज्ञानिकों को संगठित करना
राघवन की टीम ने केरल के लैटेरिटिक लैंडस्केप में छह साल का खोजपरक और सिटीजन साइंस से जुड़ा सर्वेक्षण किया। शोधकर्ताओं ने लगातार कार्यशालाओं और फोकल-ग्रुप चर्चाओं में कई इलाकों में समुदायों के साथ बातचीत की, जहां ग्रामीणों को किसी भी प्रजाति का सामना करने पर जानकारी, तस्वीरें या वीडियो साझा करने के लिए कहा गया। उन्हें प्रजातियों के महत्व और उनके संरक्षण के बारे में भी शिक्षित किया गया। इन नागरिक वैज्ञानिकों की मदद से टीम ने होराग्लानिस के लिए 47 नए स्थानिक रिकॉर्ड दर्ज किए।
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टीम को उम्मीद है कि भविष्य में इस क्षेत्र में और अधिक प्रजातियां खोजी जाएंगी। राघवन इस बात पर जोर देते हैं कि नई रहस्यमय प्रजातियों की खोज के लिए सार्वजनिक भागीदारी महत्वपूर्ण है। “हमें इन अनोखी प्रजातियों के महत्व पर आम जनता और नागरिक वैज्ञानिकों को प्रशिक्षित करने की जरूरत है, जहां उनके होने की संभावना है, उन्हें कैसे इकट्ठा किया जा सकता है और रिसर्च के लिए उपलब्ध कराया जा सकता है, और उनके आवासों को कैसे संरक्षित किया जा सकता है, इस पर अधिक जानकारी देने की जरूरत है।”
टैन जानकारी इकट्ठा करने में नागरिकों को शामिल करने के महत्व पर भी प्रकाश डालते हैं, जो नई प्रजातियों की पहचान करने में मदद कर सकता है। वे कहते हैं, “इनकी सराहना की जानी चाहिए। ऐसा लगता है कि लेखकों ने क्षेत्र के लोगों से जुड़ने के लिए वास्तव में कड़ी मेहनत की है जो इस परियोजना में मदद करने में रुचि रखते हैं। यह काम असंभव तो नहीं मगर मुश्किल तो जरूर होगा। नई प्रजातियों की पहचान करने में मदद करने के लिए स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षित नागरिक वैज्ञानिकों के लिए निश्चित रूप से बहुत सारे अवसर हैं। यहां तक कि जानवरों की तस्वीरें लेना और उन्हें ‘आई नेचुरेलिस्ट’ (iNaturalist) पर पोस्ट करना भी नई प्रजातियों को खोजने में सहायक रहा है।”
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बैनर तस्वीर: होराग्लानिस पॉपुली केरल के लैटेरिटिक एक्विफर सिस्टम में पाई जाती हैं। यह मछलियां आकार में छोटी हैं। इनकी आंखें और पिगमेंट नहीं होते हैं। तस्वीर- अर्जुन सी.पी.
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