- जलवायु कार्रवाई और सतत विकास को प्रोत्साहित करने के लिए शहरी और अर्द्ध-शहरी कृषि (यूपीए) भारतीय महानगरों में लोकप्रियता हासिल कर रही है।
- कहा जाता है कि शहरी और कस्बाई (अर्ध-शहरी) कृषि जलवायु परिवर्तन के असर को काफी हद तक कम करने में अपना योगदान दे सकती है। हालांकि ये बात काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जा रही है, लेकिन आईआईटी-मद्रास के एक अध्ययन में पाया गया कि यूपीए कार्बन स्टॉक को बढ़ाने और शहरों में भूमि की सतह के तापमान को नीचे लाने में “महत्वहीन नहीं है। यह एक छोटी भूमिका निभा सकती” है।
- हालांकि, शोधकर्ताओं का कहना है कि शहरी और अर्द्ध-शहरी कृषि के कई अन्य फायदे भी हैं जो इसे शहरी नियोजन के लिए महत्वपूर्ण बनाते हैं, जैसे व्यक्तिगत और सामुदायिक कल्याण को बढ़ावा देना, शहरी खाद्य सुरक्षा बढ़ाना और हरित रोजगार पैदा करना।
कृषि कीटविज्ञानी (एंटोमोलोजिस्ट) राजेंद्र हेगड़े (53) बेंगलुरु में कुछ-कुछ हफ्तों में एक बड़ी सभा को संबोधित करते रहे हैं। अपनी इस सभा में वह लोगों के सामने एक प्रस्ताव रखते हैं और उनसे अपनी छतों या बालकनियों में सब्जियों और जड़ी-बूटियों को उगाने की कल्पना करने के लिए कहते हैं।
उनकी ये कल्पना, पश्चिमी घाट और अरब सागर के बीच स्थित तटीय कर्नाटक में उनके अपने गृहनगर होन्नावर की बचपन की यादों से जुड़ी हुई है, जहां हर कोई घरेलू माली या किसान हुआ करता था।
जब हेगड़े 2002 में बेंगलुरु गए, तो उन्हें अच्छा नहीं लगता था। हर तरफ कंक्रीट का जंगल और हरियाली के नाम पर हरे रंग के सिर्फ छिटपुट टुकड़े ही बचे थे। तीन साल बाद, वह नागरिकों को अपनी छत पर बागवानी करने के लिए मनाने के अपने साथी एंटोमोलोजिस्ट विश्वनाथ कदुर के मिशन में शामिल हो गए।
हेगड़े ने कहा, “हम शहर के खाद्य परिदृश्य को बदलना चाहते हैं, लेकिन शहरी खेती के बारे में बहुत सारी गलतफहमियां थीं। लोगों ने सोचा कि छत पर बागवानी करने से छतों को नुकसान होगा और यह पूरा प्रयास महंगा होगा। उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि बीज, उर्वरक और कीटनाशक कहां से खरीदें।”
साल 2011 तक, उन्होंने गार्डन सिटी फार्मर्स ट्रस्ट का गठन कर लिया था। यह एक ऐसा संगठन है जो शहरी खेती को लोकप्रिय बनाना चाहता है। उनका मुख्य कार्यक्रम ‘ऊटा फ्रॉम योर थोटा’ हर तीन महीने में आयोजित किया जाता है। दरअसल यह एक कन्नडा वाक्य है जिसका मतलब होता है, ‘आपके बगीचे से भोजन।‘। यह एक दिवसीय कार्यक्रम बेंगलुरु के घनी आबादी वाले आवासीय क्षेत्रों में आयोजित किया जाता है और इसमें जैविक शहरी कृषि पर ध्यान केंद्रित करने वाली बातचीत, कार्यशालाएं, स्टॉल और बाजार शामिल होते हैं। यह आयोजन अब अपने 41वें संस्करण में है।
हेगड़े ने कहा, “इन कार्यशालाओं के जरिए हम लगभग 50,000 लोगों तक पहुंच चुके हैं। ये लोग अब अपनी जरूरत की 30 से 80 % तक सब्जी छत के बगीचों में उगा रहे हैं। हमारा मकसद एक लाख लोगों को शहरी खेती में शामिल करना और इस शहर को अधिक सस्टेनेबल बनाना है।”
नागरिक-नेतृत्व वाला एक शहरी खेती आंदोलन
ज्यादातर भारतीय शहर मौजूदा समय में अनियोजित कंक्रीट संरचनाओं, शहरी के कुछ खास गर्म इलाकों, वायु प्रदूषण और बढ़ते ग्रीनहाउस उत्सर्जन का एक समूह हैं। और आने वाले सालों में हालात काफी बदतर होने की संभावनाएं हैं।
शहरी और अर्द्ध-शहरी खेती (यूपीए) ने इस जाल को तोड़ने के संभावित तरीके के रूप में भारतीय महानगरों में लोकप्रियता हासिल करना शुरू कर दिया है। शहरों और उसके आसपास के इलाकों में खेती और बागवानी को प्रोत्साहित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। साथ ही उम्मीद की जा रही है कि इस तरह की जलवायु कार्रवाई को प्रोत्साहित किया जाए और भारतीय शहर को अधिक टिकाऊ और रहने योग्य बनाया जाए। आईसीएआर-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के शोधकर्ता शहरी और अर्द्ध-शहरी कृषि को “तेजी से शहरीकरण का रक्षक” तक कहने लगे हैं।
‘ऊटा फ्रॉम योर थोटा’ के अलावा, अन्य भारतीय शहरों में भी इसी तरह की कई अन्य पहल शुरू हुई हैं। चेन्नई में, कस्तूरबा नगर के लोगों ने अपने सामुदायिक हॉल के पास झाड़ियों और कचरे से भरे एक उपेक्षित जमीन के टुकड़े को गोद लिया और इसे एक फलते-फूलते सब्जियों के बगीचे में बदल दिया है। हैदराबाद में, राज्य बागवानी विभाग की योजना में सालाना 600 से अधिक परिवार नामांकन करते हैं, जहां शहरी खेती को प्रोत्साहित करने के लिए मिट्टी, खाद, उर्वरक और बीज की किट मुहैया कराई जाती हैं। मुंबई में, सफाई कर्मचारी और पारंपरिक कृषि श्रमिक शहर के कुछ बची हुई जगहों- रेलवे की खाली जमीन से लेकर अपार्टमेंट परिसरों में खाली जगह तक- में फल और सब्जियां उगा रहे हैं। पुणे ने अपने स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के हिस्से के रूप में 18 एकड़ शहरी खेतों को शामिल किया है, जबकि गैर-लाभकारी संगठन ‘पीपुल्स रिसोर्स सेंटर’ दिल्ली में यमुना बाढ़ के मैदानों पर सब्जियों की अनौपचारिक खेती को बचाने के लिए एक शहरी कृषि नीति पर जोर दे रहा है।
हैदराबाद में शहरी किसानों के 2021 के सर्वे से पता चला है कि मोटे तौर पर, ये सभी काम आम जनता के नेतृत्व में किए गए हैं: या तो मजबूरी वश जैसा कि मुंबई में दैनिक वेतन भोगी कृषि श्रमिकों कर रहे हैं या फिर बागवानी में रुचि रखने वाले लोग इसमें शामिल हैं।
राजेंद्र हेगड़े ने कहा, “एक बड़ी राष्ट्रीय कृषि नीति के बावजूद यह शहरी खेती नीति निर्माताओं के दिमाग में नहीं आई है। क्योंकि वो इसे एक शौक के रूप में देखते हैं।”
शौक से कहीं ज़्यादा?
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-मद्रास (आईआईटी-एम) के शोधकर्ताओं के सितंबर 2022 के एक अध्ययन से पता चलता है कि कार्बन स्टॉक बढ़ाने और शहरों में भूमि की सतह के तापमान को कम करने में यूपीए “महत्वहीन नहीं है। यह एक छोटी भूमिका निभा सकता है।”
शोधकर्ताओं ने 2032 और 2041 में विकास क्षमता का अनुमान लगाने के लिए बेंगलुरु और चेन्नई के शहरी विकास रुझानों का अनुमान लगाया। इसमें कुल मिलाकर 7,000 वर्ग किमी से अधिक के क्षेत्र को कवर किया गया है। इन दो शहरों को उनके शहरीकरण की उच्च दर के लिए चुना गया था: उदाहरण के लिए, बेंगलुरु में, निर्मित क्षेत्र 2011 में 16% था, जो 2020 में बढ़कर 32% तक हो गया।
सर्वे से पता चला कि आधे से ज्यादा खेत 300 वर्ग फुट से कम हैं और शहरी खेती का क्षेत्र सालाना 3% बढ़ रहा है।
यह मानते हुए कि 1.25 लाख लोग बेंगलुरु में शहरी खेती करते हैं – गार्डन सिटी फार्मर्स ट्रस्ट की महत्वाकांक्षाओं से थोड़ा अधिक – 2032 में बेंगलुरु में औसत भूमि सतह के तापमान में 0.35 डिग्री सेल्सियस की गिरावट का अनुमान लगाया गया है। तो वहीं चेन्नई में तापमान में 0.04°C से 0.07°C डिग्री सेल्सियस की गिरावट आने की उम्मीद है।
आईआईटी मद्रास में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर और पेपर के लेखकों में से एक अश्विन महालिंगम ने कहा, “शहरों के बीच यह अंतर इसलिए है क्योंकि शहरीकरण की गति चेन्नई की तुलना में बहुत अधिक है।”
हालांकि, ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि शहरी खेती के कारण बढ़ा हुआ जैव-भार बेंगलुरु में कम से कम 1.3 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड को कम कर सकता है। शोध पत्र में कहा गया है कि संख्याएं छोटी हैं, लेकिन इन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
महालिंगम बताते हैं, “शहरी खेतों की छोटी-छोटी जगहों से बहुत कुछ होने वाला नहीं है। और न ही ये सस्टेनेबल की राह पर आगे बढ़ते हुए जलवायु को कम करने वाली सुई को आगे बढ़ा सकते हैं।” वह आगे कहते हैं, “लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह उपयोगी नहीं है। आंदोलन कहीं न कहीं से शुरू होना चाहिए और शहरी खेती के कई अन्य फायदे भी हैं।”
अर्द्ध-शहरी खेती के फायदे
महालिंगम की टीम पता लगा रही है कि किस तरह से अर्द्ध-शहरी खेतों का और भी अधिक प्रभाव पड़ सकता है। वे जिन संभावित फायदों की जांच कर रहे हैं उनमें से एक परिवहन उत्सर्जन में कमी है। दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों से सब्जियों और फलों को ढोने में काफी कार्बन उत्सर्जन होता है। इसके लिए ट्रक और मालवाहक वाहनों को सैकड़ों किलोमीटर सड़कों पर दौड़ना पड़ता है। सब्जियों और फलों को स्थानीय स्तर पर सोर्स करने से संभावित रूप से इस पर्यावरणीय बोझ को कम किया जा सकता है।
टीम ने चेन्नई में टमाटर और बैंगन की मांग के जीवनचक्र का विश्लेषण किया। उन्होंने पारंपरिक ग्रामीण खेतों, उपनगरीय और शहरी क्षेत्रों से इन वस्तुओं की सोर्सिंग के कार्बन फुटप्रिंट का मॉडल तैयार किया। महालिंगम ने कहा, “ग्रामीण खेतों से इन्हें पाने का दायरा काफी बड़ा है। लेकिन इसे शहरी खेतों से भी पाया जा सकता है। यहां, उत्पादन की मात्रा कम है, लेकिन इनपुट – बीज और उर्वरक के संदर्भ में, जिन्हें दूर-दराज के इलाकों से लाया जाता है – अधिक है।” निष्कर्ष अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं।
हालांकि, अर्द्ध-शहरी खेती – जो शहर के चारों ओर है – परिवहन के कार्बन फुटप्रिंट्स और उत्पादन की मात्रा के मामले में ‘गोल्डीलॉक्स ज़ोन‘ में हैं। उन्होंने कहा, “अगर शहर जलवायु परिवर्तन को कम करना चाहते हैं, तो उनके लिए अर्द्ध-शहरी खेती को बचाए रखना और उसे प्रोत्साहित करना बेहतर होगा।”
लेकिन भारत में अर्द्ध-शहरी खेती करना आसान नहीं है। ज़मीन की ऊंची कीमतें, मकानों और अपार्टमेंटों के निर्माण को ज़मीन के मालिक के लिए खेती की तुलना में कहीं अधिक आकर्षक बनाती हैं। भूजल और मिट्टी प्रदूषण और घटते जल स्रोतों के कारण कम उपज जैसी अतिरिक्त चुनौतियां भी हैं। भारतीय प्रबंधन संस्थान-अहमदाबाद के एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि बढ़ते तापमान और बदलते बारिश के पैटर्न से कुछ फसलों की पैदावार में भी गिरावट आएगी। इसमें देहरादून, अहमदाबाद-गांधीनगर और पणजी में बागवानी खेती की संभावनाओं पर गौर किया गया है। ऐसी नीति तैयार की जानी चाहिए जिससे किसानों को उन फसलों से दूर रहने में मदद मिल सके जिनकी पैदावार बढ़ते तापमान (जैसे, टमाटर, बीन्स और पत्तागोभी) के कारण कम होगी और उन फसलों की ओर बढ़ा जा सके जिनकी पैदावार (आलू, प्याज) स्थिर होगी या (आम) बढ़ेगी।
एक नीति के रूप में शहरी खेती
बेंगलुरु के इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट्स (IIHS) में एक शोधकर्ता और अर्बन एंड पेरी अर्बन एग्रीकल्चर एज ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर (UP-AGrI) प्रोजेक्ट के साथ एक सह-प्रमुख अन्वेषक प्रोथिग्ना पूनाचा ने कहा कि जलवायु परिवर्तन को कम करने के मामले में हालांकि शहरी खेती का प्रभाव ज्यादा नहीं है लेकिन यह भारतीय शहरों के लिए महत्वपूर्ण है और सार्वजनिक नीति में इस पर विचार किया जाना चाहिए। भारत और तंजानिया में अनुसंधान संस्थानों द्वारा संचालित इस रिसर्च प्रोजेक्ट का उद्देश्य शहरी और अर्द्ध-शहरी खेती (यूपीए) के पारिस्थितिक और सामाजिक प्रभावों की जांच करना है और साथ ही उन रणनीतियों का परीक्षण करना है जो यूपीए को शहरी स्थिरता में योगदान करने की अनुमति देते हैं।
पूनाचा ने कहा, “शहरी बागवानी और खेती को बढ़ावा देने के कई फायदे हैं। सबसे पहला फायदा, शहरी खेती में लगे लोगों की खुद की भलाई है, खासतौर पर उनके बेहतर मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में। किसी के बगीचों में सब्जियों और जड़ी-बूटियों की जरूरतों का एक महत्वपूर्ण अनुपात उगाने से काफी फायदा होता है। दूसरा फायदा ये है कि शहरी खेती खाद्य सुरक्षा में भी योगदान देती है और पोषण संबंधी जरूरतों का एक हिस्सा पूरा करती है। इसके अलावा शहरी स्तर पर, शहरी खेती से जुड़े हजारों हरित रोजगार पैदा करती है, खासकर हाशिए पर रहने वाले समुदायों और प्रवासी श्रमिकों के लिए।”
UP-AGrI ग्रीन बिल्डिंग सर्टिफिकेशन के मानदंड के रूप में शहरी खेती को शामिल करना अनिवार्य बनाने के लिए नेशनल बिल्डिंग कोड पर जोर दे रहा है। उन्होंने कहा, “शहरी खेती को प्रोत्साहित करने के लिए नीति में बहुत सारे अवसर हैं। शहरी योजना के जरिए सामुदायिक खेती को प्रोत्साहित किया जा सकता है या फिर संपत्ति कर में कटौती के जरिए भी।”
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बैनर तस्वीरः शहरी खेती को बढ़ावा देने के लिए छत पर की जाने वाली खेती। तस्वीर – Maheshcm76/विकिमीडिया कॉमन्स