- भारत दुनिया के सबसे अधिक बाढ़-प्रभावित देशों में से एक है।
- देश के बाढ़ क्षेत्रों में कंक्रीट की इमारतें और नित होने वाले विकास से नदियों और नालों की वहन क्षमता कम हो रही है, जिससे शहरी बाढ़ की समस्या बढ़ती जा रही है।
- सिर्फ कुछ राज्यों जैसे मणिपुर, राजस्थान, उत्तराखंड और पूर्ववर्ती राज्य जम्मू और कश्मीर में बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग के लिए नीतियां हैं।
- विशेषज्ञों ने राज्यों में इन कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करने और अन्य राज्यों, विशेष रूप से बाढ़ की संभावना वाले राज्यों में बाढ़ क्षेत्र के ज़ोनिंग कानून पारित करने की आवश्यकता दोहराई है।
पानी और परिवहन तक आसान पहुंच के लिए शहर और कस्बे अक्सर नदी तटों और बाढ़ के मैदानों के करीब बनाए जाते हैं। ऐतिहासिक रूप से, भारत में मौसमी नदियों के घटने पर रिवर बैड और बाढ़ के मैदानों की उपजाऊ भूमि कृषि के लिए उपलब्ध हो जाती है और इस तरह की जमीन को राज्य किसानों को अस्थायी पट्टे पर आवंटित कर देते है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र भूमि राजस्व संहिता में इस प्रावधान को “छोटी सीमा की जलोढ़ भूमि पर अस्थायी अधिकार” के रूप में जाना जाता है। महाराष्ट्र में ‘गाल पर लैंड’ (जलोढ़ भूमि) के रूप में जानी जाने वाली यह भूमि नदी की थी।
हालांकि, हाल के कुछ दिनों से भारत में नदी तल और बाढ़ के मैदानों पर कानूनी और अवैध दोनों तरह से अतिक्रमण एक नियमित घटना बन गई है। इसकी वजह से 2005 में महाराष्ट्र, 2015 में चेन्नई और 2018 में केरल जैसे कई राज्यों में बाढ़ का खासा असर देखने को मिला है।
बाढ़ के मैदान क्या हैं?
बाढ़ के मैदान नदी के दोनों किनारों से सटी हुई भूमि हैं, जो नदी में उफान आने पर पानी में डूब जाती हैं। बाढ़ क्षेत्र का आकार और आकृति नदी के किनारे के ढलानों पर निर्भर करता है। अगर वे खड़ी यानी तीव्र ढ़लान वाली हैं, तो बाढ़ का मैदान क्षेत्र कम होता है, लेकिन अगर वे समतल हैं, तो बाढ़ का मैदान कई किलोमीटर तक फैल सकता है।
बाढ़ मैदान ज़ोनिंग के लिए भारत का मॉडल विधेयक, 1975, “बाढ़ क्षेत्र” को परिभाषित करता है जिसमें “वाटर चैनल, फ्लड चैनल और बाढ़ के प्रति संवेदनशील निकटवर्ती तराई क्षेत्र” शामिल है।
इस परिभाषा को बाद में राजस्थान, मणिपुर, उत्तराखंड और जम्मू और कश्मीर बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग अधिनियमों में शामिल किया गया था।
भू-आकृति विज्ञान के अनुसार भारत में बाढ़ के मैदान दो प्रकार के होते हैं: अ) प्रायद्वीपीय (दक्कन के पठार में पाए जाते हैं) जहां रॉक टैरेस हैं (लावा प्रवाह द्वारा बनाई गई सीढ़ीदार संरचनाएं), और ब) जो हिमालय क्षेत्र में पाए जाते हैं, जोकि पुराने, चौड़े तथा निक्षेपणात्मक (तलछट के निक्षेपण से निर्मित) होते हैं। भू-विज्ञान और भू-आकृति विज्ञान विशेषज्ञ श्रीकांत कार्लेकर बताते हैं, “हिमालयी बाढ़ के मैदानों में तलछट की गहराई काफी ज्यादा होती है। कुछ स्थानों पर यह 300-400 मीटर तक गहरी हो सकती है।” उन्होंने इस विषय पर कुछ किताबें भी लिखी हैं।
शहरी योजनाकार और सस्टेनेबल डवलपमेंट प्रोफेसर अनीता गोखले-बेनिंगर “बाढ़” और “नदी” की परिभाषाओं के आधार पर बाढ़ के मैदानों का एक और वर्गीकरण करती हैं। उनके अनुसार, अगर नदी का मतलब एक जल निकाय है जो अपने प्राकृतिक रूप से परिभाषित किनारों के भीतर बहता है, तो इन प्राकृतिक रूप से परिभाषित किनारों के भीतर बनी संरचनाओं में पानी के आ जाने की घटनाओं को “बाढ़” नहीं कहा जा सकता है।
बाढ़ की इस परिभाषा को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि आंतरिक बाढ़ के मैदान नदी के भीतर की जमीन हैं। यह जमीन गर्मियों के दौरान नदी में पानी कम हो जाने के बाद उजागर होती है। जबकि बाहरी बाढ़ क्षेत्र वह भूमि है जहां नदी के अपने किनारों से बाहर बहने पर बाढ़ आती है। गोखले-बेनिंगर बताती हैं, “प्रायद्वीपीय नदियों में नदी के प्रवाह क्षेत्र की भूमि को संरक्षित करना होगा।” उनके मुताबिक, पूरे बाढ़ क्षेत्र की सुरक्षा करना संभव नहीं है। उन्होंने कहा, “अगर आप नदी के किनारों के बाहर बाढ़ के मैदानों की बात करेगें, तो यह अंतहीन है। शहर और कस्बे हमेशा से बाढ़ के मैदानों पर बनाए जाते रहे हैं।”
गोखले-बेनिंगर बताती हैं कि उत्तर भारत में नदियों का मार्ग बदल जाता है क्योंकि बाढ़ के मैदान जलोढ़ मिट्टी द्वारा निर्मित होते हैं। नदियों के बदलते मार्ग के पैटर्न का अध्ययन करने के बाद हिमालयी नदियों के लिए बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग नीति बनाई जानी चाहिए। दूसरी ओर, प्रायद्वीपीय नदियां डेक्कन ट्रैप रॉक से होकर बहती हैं और इसलिए इस क्षेत्र में जलोढ़ मिट्टी कम है। उन्होंने कहा, “नदी के प्राकृतिक रूप से परिभाषित किनारों के बीच की जगह को संरक्षित किया जाना चाहिए। नदी एक प्राकृतिक इकाई है जिसे बहने, बढ़ने और घटने के लिए जगह की जरूरत होती है। सभी जल निकायों को बेहद महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए। अब तक, इन जगहों पर न सिर्फ अवैध निर्माण हुआ है बल्कि कानूनी रूप से भी आवासीय भवनों का निर्माण किया गया है। दोनों तरीके से अतिक्रमण किया गया है।”
महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के महाड शहर और तहसील में जुलाई 2021 में आई भारी बारिश से पहले और बाद की सैटेलाइट तस्वीरें। तहसील और शहर का निर्माण सावित्री नदी के बाढ़ क्षेत्र पर किया गया है। इस क्षेत्र में साल दर साल बाढ़ आती है। मानचित्र- टेक्नोलॉजी फॉर वाइल्डलाइफ फाउंडेशन
यमुना नदी के बाढ़ क्षेत्र पर बने राष्ट्रमंडल खेल गांव की 2022 की सैटेलाइट तस्वीरें। 2010 में खेलों से पहले आयोजन स्थल में बाढ़ आ गई थी। मानचित्र- टेक्नोलॉजी फॉर वाइल्डलाइफ फाउंडेशन
इस मुद्दे को कवर करने वाले कानून और रेगुलेशन?
बाढ़ क्षेत्र के ज़ोनिंग कानूनों का उद्देश्य जीवन और संपत्ति के नुकसान को रोकने और बाढ़ के प्रभाव को कम करने के लिए बाढ़ के मैदानों पर विकास को रोकना या प्रतिबंधित करना है।
केंद्रीय जल आयोग ने बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग दिशानिर्देश तैयार किए और बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग के लिए मॉडल विधेयक को 1975 में भारत सरकार की ओर से प्रसारित किया गया था। इसके बाद चार राज्यों ने बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग अधिनियम पारित किया: 1978 में मणिपुर, 1990 में राजस्थान, 2005 में जम्मू और कश्मीर और 2012 में उत्तराखंड ने। ये अधिनियम एक “बाढ़ ज़ोनिंग प्राधिकरण” की स्थापना का प्रावधान करते हैं जो बाढ़ के मैदानों की प्रकृति का निर्धारण करने के लिए सर्वे करने, बाढ़ के मैदानों में भूमि के इस्तेमाल को प्रतिबंधित करने और कानून का उल्लंघन करने पर जुर्माना लगाने के लिए अधिकृत है।
बाढ़ आपदाओं को कम करने के लिए बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग में किसी भी तरह के ढांचे के निर्माण न करने जैसे उपाय अपनाए गए है। क्योंकि बाढ़ क्षेत्रों में विकास से नदियों की वहन क्षमता कम हो जाती है और बाढ़ का असर बढ़ जाता है।
इस प्रकार विशेषज्ञों ने अन्य राज्यों, विशेष रूप से बाढ़ की संभावना वाले राज्यों में बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग कानूनों को पारित करने और उन राज्यों में कानूनों को लागू करने की आवश्यकता को दोहराया है जहां पहले ही इस तरह के कानून बन चुके हैं।
साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (SANDRP) के कोर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर ने कहा, महाराष्ट्र एक और राज्य है जहां कानून के जरिए बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग को कुछ हद तक लागू किया गया है। सिंचाई विभाग ने 1989 में दिशानिर्देश जारी कर सभी नदियों के लिए बाढ़ रेखाएं खींचने के लिए कहा था।
ठक्कर कहते हैं, “हम किसी भी भूमि को बाढ़रोधी नहीं बना सकते है। यह एक गलतफहमी है कि किसी जगह पर बाढ़ को नियंत्रण करना और उसे बाढ़रोधी बनाना संभव है। बाढ़ तो आएगी ही। सवाल सिर्फ यह है कि कब, कितनी बार और किस तरह की बाढ़ आएगी। दूसरे, अगर आप उचित नीतियों का पालन करते हैं, मसलन इन क्षेत्रों में किस प्रकार की गतिविधियों और संरचनाओं की अनुमति दी गई, उसके आधार पर विकास करते हैं तो बाढ़ आपदा नहीं बनेगी।”
2011 में मुला, मुथा और पावना नदियों के लिए बाढ़ रेखाओं का सीमांकन किया गया था। लेकिन महाराष्ट्र में कई अन्य नदियों के लिए बाढ़ रेखाओं का सीमांकन अभी भी नहीं किया गया है। मुंबई स्थित पर्यावरणविद् और एक गैर सरकारी संगठन ‘वनशक्ति’ के निदेशक स्टालिन दयानंद ने बाढ़ रेखाओं के अंतिम सीमांकन और सभी नदियों से अतिक्रमण हटाने के लिए 2014 में एक जनहित याचिका दायर की थी। उन्होंने कहा, “नदियों को बढ़ने और घटने के लिए सांस लेने के लिए जगह की जरूरत होती है। बाढ़ के मैदानों पर बनाए गए सभी तरह के निर्माण को हटाया जाना चाहिए। साथ ही भविष्य में और अधिक निर्माण पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। हमने 2014 में बाढ़ क्षेत्र की सुरक्षा के लिए एक जनहित याचिका दायर की थी और बार-बार सुनवाई के लिए दबाव डाल रहे हैं।”
नोएडा विकास प्राधिकरण ने यमुना बाढ़ के मैदानों पर अतिक्रमण के बारे में किसानों की शिकायतों का जवाब देते हुए पिछले साल 40 करोड़ रुपये के अवैध फार्महाउस और इमारतों को ध्वस्त कर दिया था। हालांकि उत्तर प्रदेश में कोई बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग कानून नहीं है, लेकिन नोएडा विकास प्राधिकरण ने भवन निर्माण को प्रतिबंधित करने के नियमों के अनुसार भूखंड आवंटित करने और उत्तर प्रदेश औद्योगिक क्षेत्र विकास अधिनियम, 1976 के तहत भूमि उपयोग के लिए स्थलों का सीमांकन करने के आदेश के अनुसार यह कदम उठाया था।
गैर-सरकारी संगठन ‘सोशल एक्शन फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट’ के संस्थापक और नोएडा स्थित पर्यावरणविद् विक्रांत टोंगड कहते हैं, “बाढ़ के मैदानों की सुरक्षा सिंचाई विभाग के अधिकार क्षेत्र में आती है, लेकिन नोएडा विकास प्राधिकरण ने इन इमारतों को ध्वस्त करने का काम अपने अधिकार क्षेत्र में विकास परियोजनाओं को मंजूरी देने और राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के आदेश को लागू करने की शक्ति का इस्तेमाल करके किया था। सिंचाई विभाग बाढ़ के मैदानों की सुरक्षा के लिए कानूनी कार्रवाई कर सकता है। लेकिन मैंने कभी ऐसे किसी मामले के बारे में नहीं सुना है जहां सिंचाई विभाग ने कार्रवाई की हो।”
जिन राज्यों ने बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग कानून पारित किया है उनका प्रदर्शन कैसा है?
मणिपुर बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग के शुरुआती समर्थकों में से एक था। इस राज्य ने 1975 में बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग के लिए मॉडल विधेयक प्रसारित होने के बाद 1978 में कानून पारित किया था। बाढ़ क्षेत्रों का परिसीमन, निर्माण गतिविधियों पर रोक, राज्य सरकार द्वारा 1988 में एक अधिसूचना के जरिए की गई थी। हालांकि, इस अधिसूचना को नागरिकों के बीच व्यापक रूप से प्रचारित नहीं किया गया था।
2018 में, मणिपुर सरकार ने इम्फाल नदी से मीटर दूर बनी संरचनाओं को ध्वस्त करके अधिनियम लागू किया था।
मणिपुर यूनिवर्सिटी में भूगोल विभाग के सहायक प्रोफेसर अबुजम मंगलम सिंह कहते हैं, “जनता को मौजूदा प्रतिबंधित और सीमांकित क्षेत्रों के बारे में बहुत कम या कोई जानकारी नहीं थी। इसलिए अधिनियम को लागू करने के लिए धीरे-धीरे छोटे चरणों में काम करना पड़ा। अगर बाढ़ के मैदानों को संरक्षित करना है, तो बाढ़ रेखाओं का सीमांकन और क्षेत्रों के अनुसार संरचनाओं पर नियंत्रण जरूरी है।” सिंह ने मणिपुर की बाढ़ क्षेत्र के ज़ोनिंग नीति से प्रभावित लोगों की धारणाओं का अध्ययन किया और पाया कि लगभग 50 फीसदी उत्तरदाताओं ने मणिपुर बाढ़ मैदान ज़ोनिंग अधिनियम को लागू करने का समर्थन किया था।
उत्तराखंड ने 2012 में अपना बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग अधिनियम पारित किया। उत्तराखंड सरकार ने 2020 में बाढ़ रेखाओं का सीमांकन शुरू किया। बाढ़ रोकने के लिए बेहतर रणनीतियों के बारे में समझने के लिए उत्तराखंड में 2013 की बाढ़ से बचे लोगों का सर्वे करने वाले एक अध्ययन में पाया कि बचे हुए लोग उस नाजुक वातावरण के बारे में जानते हैं जिसमें वे रहते हैं, लेकिन उन्हें वहां से स्थानांतरित होना पसंद नहीं हैं। इसके बजाय, वे बेहतर आपातकालीन योजना प्रणाली, बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग अधिनियम का सख्ती से लागू करने और राज्य आपदा प्रबंधन एजेंसी के साथ बेहतर संचार पसंद करते हैं।
राजस्थान और पूर्ववर्ती राज्य जम्मू और कश्मीर (अब एक केंद्र शासित प्रदेश) में बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग कानून पारित तो कर दिए गए हैं लेकिन बाढ़ रेखाओं का सीमांकन और बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग को यहां लागू नहीं किया गया है। ज्यादातर जगहों पर नदी के स्थान की कोई कानूनी परिभाषा भी नहीं है। जैसा कि SANDRP के हिमांशु ठक्कर कहते हैं, “अगर किसी नदी के दोनों किनारों पर 500 मीटर तक निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया जाए, तो ये 500 मीटर कहां से शुरू और ख़त्म होंगे?”
पुणे स्थित पर्यावरणविद् और कार्यकर्ता सारंग यडवाडकर कहते हैं कि मानसून के दौरान नदियों की तरह काम करने वाली जलधाराएं भी नदियों की तरह संरक्षित होने की हकदार हैं। उन्होंने कहा, “2019 में पुणे की अंबिल ओधा (अंबिल धारा) में 20 से अधिक लोगों की जान चली गई और कई गाड़ियां बह गईं। हमें यह सुनिश्चित करने के लिए कानूनों की जरूरत है कि ऐसी धाराएं संरक्षित रहें और हम उनके रास्ते में संरचनाओं का निर्माण न करें।”
भारत में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र (1998-2022)। भारत दुनिया के सबसे अधिक बाढ़-प्रभावित देशों में से एक है। मानचित्र- फ्लड एफेक्टिड एरिया एटलस ऑफ इंडिया
बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग के लिए कौन जिम्मेदार?
औरंगाबाद के वाटर एंड लैंड मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट से सेवानिवृत्त प्रोफेसर प्रदीप पुरंदरे का मानना है कि बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग कानूनों को लागू करने के लिए संबंधित राज्यों के सिंचाई विभाग जिम्मेदार हैं। उन्होंने कहा, “महाराष्ट्र में कोई बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग अधिनियम नहीं है। यह विषय महाराष्ट्र सिंचाई अधिनियम, 1976 के अंतर्गत आता है, जो मूल अधिनियम है। सारा सिंचाई प्रबंधन इसी पर आधारित है। सिंचाई विभाग नदियों को अधिसूचित करता है और उसके पास अतिक्रमण हटाने की पावर है। हालांकि, अधिकारी अपनी इस पावर का इस्तेमाल नहीं करते है क्योंकि बाढ़ के मैदानों की रक्षा करने में विफल रहने पर कानूनी तौर पर कोई जवाबदेही नहीं होती है।”
और पढ़ेंः बाढ़ क्यों आती है?
हालांकि सारंग यादवडकर का कहना है कि बाढ़ क्षेत्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी शहरी स्थानीय निकायों पर आती है। पुणे में, सिंचाई विभाग ने 2011 में बाढ़ रेखाएं खींची थीं, लेकिन दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए जिम्मेदार शहरी स्थानीय निकाय, पुणे नगर निगम ने नीली रेखा के अंदर (यानी, प्रतिबंधित क्षेत्र में) इमारतों के निर्माण की अनुमति दे दी। यादवाडकर कहते हैं, “सिंचाई विभाग और शहरी स्थानीय निकाय महाराष्ट्र में बाढ़ सुरक्षा के लिए संयुक्त रूप से और अलग-अलग जिम्मेदार हैं। सिंचाई विभाग बाढ़ रेखाओं की पहचान के लिए ज़िम्मेदार है और बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग को लागू करना शहरी स्थानीय निकायों की ज़िम्मेदारी है।”
विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा पैटर्न प्रभावित हो रहा है, इसलिए 25 साल में एक बार बाढ़ और 100 साल में एक बार बाढ़ की परिभाषा को संशोधित करने की जरूरत है। इससे हमारी बाढ़ क्षेत्र ज़ोनिंग नीतियों में बदलावों को लागू करना ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाएगा।
विशेषज्ञों के अनुसार, जिन अधिकारियों को बाढ़ के मैदानों की सुरक्षा का जिम्मा सौंपा गया है, वे ही “रिवरफ्रंट डेवलपमेंट” के नाम पर उन पर अतिक्रमण को वैध बना रहे हैं। उन्होंने चेतावनी दी है कि व्यावसायिक हितों के लिए भूमि की जरूरत को पूरा करने के लिए बाढ़ के मैदानों पर कंक्रीट की इमारतें खड़ी करना एक पर्यावरणीय आपदा है। “रिवरफ्रंट विकास परियोजनाएं अनिवार्य रूप से न सिर्फ बाढ़ के मैदानों पर बल्कि पार्क, होटल, पर्यटन स्थलों आदि का निर्माण करके रिवर बैड और नदी के किनारों पर अतिक्रमण को वैध बनाने पर विचार कर रही हैं। नदी तटों को कंक्रीट का कर देने से बाढ़ नियंत्रण के लिए कुछ नहीं होने वाला है। वास्तव में, इससे बाढ़ की स्थिति और खराब हो जाएगी।”
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बैनर तस्वीर: अडयार नदी के बाढ़ क्षेत्र पर बना चेन्नई हवाई अड्डा 2015 की बाढ़ के दौरान बाढ़ में डूब गया था। तस्वीर– भारतीय वायु सेना / विकिमीडिया कॉमन्स