- वन्यजीव विशेषज्ञों ने पश्चिमी भारत में एशियाई बनबिलाव की संख्या कम होने की जानकारी दी है। इसे जीव को भारतीय रेगिस्तानी बिल्ली के रूप में भी जाना जाता है। जानकारों का मानना है कि प्राकृतिक आवास कम होने और आबादी में गिरावट इसकी वजह है।
- इस प्रजाति का घरेलू बिल्ली के साथ संकरण (क्रॉस-ब्रीडिंग या हाइब्रिडाइजेशन) इन्हें बचाने में सबसे बड़ी बाधा बन रहा है। साथ ही इससे आनुवंशिकी विशेषताओं का नुकसान होता है।
- पारिस्थितिकी में भारतीय रेगिस्तानी बनबिलाव की भूमिका और इसके व्यवहार के आधार पर संरक्षण कोशिशों को समझने के लिए ज्यादा गहन, लंबे समय वाले अध्ययन की जरूरत है।
राजस्थान की जलाने वाली गर्मी में दो प्रकृतिवादी नागफनी की एक बहुत बड़ी झाड़ी के सामने सब्र के साथ इंतजार कर रहे हैं। कैमरे तैयार हैं और आंखें विलुप्त होती जा रही भारतीय रेगिस्तानी बनबिलाव को देखने के लिए बेसब्र है।
चार घंटे बाद, बनबिलाव नागफनी के नीचे से निकलता है और दोनों बेतहाशा तस्वीरें खींचने लगते हैं। राजस्थान के जैसलमेर में रहने वाले वन्यजीव फोटोग्राफर और संरक्षणवादी राधेश्याम बिश्नोई ने कहा, “यह इस क्षेत्र में काफी आम हुआ करता था। लेकिन अब हमें इसे देखने के लिए भी घंटों इंतजार करना पड़ता है।”
भारतीय रेगिस्तानी बनबिलाव (फेलिस लिबिका ओरनाटा, जिसे इसे एशियाई बनबिलाव या एशियाई स्टेपी-वाइल्डकैट के रूप में भी जाना जाता है) का प्राकृतिक वास पूर्वी कैस्पियन क्षेत्र से शुरू होकर उत्तर में कजाकिस्तान से लेकर पाकिस्तान, पश्चिमी भारत, पश्चिमी चीन और मंगोलिया तक फैला हुआ है।
भारतीय रेगिस्तानी बनबिलाव, बिल्ली जैसा ही दिखता है। इसकी पहचान नरम, रेतीले-भूरे रंग का धब्बेदार शरीर है। इसके अगले और पिछले पैरों के ऊपरी हिस्से पर गहरे रंग की धारियां होती हैं और आधार के पास धब्बे और एक काली नोक के साथ पतली पूंछ होती है। हालांकि, भारत और पाकिस्तान में पाए जाने वाले बनबिलाव की त्वचा रेतीली होती है। मध्य एशिया में पाए जाने वालों की त्वचा ज्यादा भूरी-पीली या लाल रंग की होती है। यह बनबिलाव शुष्क आवासों में बढ़ता हैं। लंबे समय तक पानी के बिना जीवित रह सकता है। बिल्ली को भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) कानून की अनुसूची I और CITES के परिशिष्ट II में सूचीबद्ध किया गया है। 2002 तक दुनिया भर में इसकी आबादी 20,000 से ज्यादा थी। इसलिए इसे आईयूसीएन रेड लिस्ट में सबसे ‘कम चिंता‘ वाली श्रेणी के तहत भी सूचीबद्ध किया गया है।
हालांकि, भारत में वन्यजीव जीवविज्ञानियों और संरक्षणवादियों ने हाल के दिनों में बनबिलाव को कम देखा है, जो कभी राजस्थान के रेगिस्तानों में आजाद होकर घूमते थे। यह आबादी में गिरावट का संकेत हो सकता है।
वन्यजीवों के जानकार इस कमी को शुष्क मौसम, झाड़ियों वाले रेगिस्तान और बंजर भूमि में खेती और निर्माण गतिविधियों जैसे इंसानी कारकों को मानते हैं।
सामान्य घरेलू बिल्ली के साथ संकरण
दुनिया भर में बिल्ली की प्रजातियों के संरक्षण के लिए काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था कैट स्पेशलिस्ट ग्रुप (सीएसजी) का कहना है कि एशियाई जंगली बिल्ली के जीन को घरेलू बिल्लियों से होने वाले संकरण के चलते खतरा है। सीएसजी का कहना है, “पाकिस्तान और मध्य एशिया से संकरण की जानकारी मिली थी और शायद यह भारत में भी एक समस्या है। जंगली बिल्लियों की आनुवंशिक रूप से शुद्ध आबादी बहुत कम बची है।“
जीजीएस इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट मैनेजमेंट के सहायक प्रोफेसर सुमित डूकिया कहते हैं, “मैंने पिछले पांच सालों में अपने शोध में ऐसे कई मामले देखे हैं जहां भारतीय रेगिस्तानी बिल्ली ने आम घरेलू बिल्ली के साथ संभोग किया है। लेकिन चूंकि बनबिलाव के बच्चे, घरेलू बिल्ली की तुलना में जंगली प्रजातियों जैसे दिखते हैं, इसलिए फर्क करना मुश्किल हो जाता है। उचित वैज्ञानिक अध्ययन और डीएनए विश्लेषण के अभाव में, इन संकर बच्चों की असली संख्या का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है।” डूकिया ने प्रजातियों पर बड़े पैमाने पर काम किया है और सीएसजी के नतीजों से सहमत हैं।
वैसे देखा जाए तो एशियाई जंगली बनबिलाव घरेलू बिल्लियों के पूर्वज हैं, जो उन्हें करीबी रिश्तेदार और प्रजनन के लिए उपयुक्त बनाता है।
डुकिया कहते हैं, “इस संकरण की मुख्य वजह प्राकृतिक आवास का कम होना और उनके गलियारों (वह रास्ता जहां से जंगली बिल्ली आती-जाती है) की खराब स्थिति है। ऐसे बहुत कम हिस्से हैं जो अभी भी एक बड़ी आबादी का घर हैं, लेकिन इन्हें भी आनुवंशिक रूप से व्यवहार्य आबादी को बनाए रखने के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।”, वह ये बात अपने शोध पत्र हैबिटेट सुइटेबिलिटी एनालिसिस ऑफ एशियाटिक स्टेपी वाइल्डकैट इन थार डेजर्ट ऑफ राजस्थान इन 2023 से अपने शोध नतीजों का हवाला देते हुए कहते हैं। यह शोध पत्र अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। हालांकि, लेकिन मोंगाबे-इंडिया ने इसे देखा है।
फेलिस लाइबिका ऑर्नाटा को फेलिस सिल्वेस्ट्रिस ऑर्नाटा के नाम से भी जाना जाता है। एशियाई जंगली बिल्ली और अफ़्रीकी जंगली बिल्ली, जंगली बिल्लियों के समूह हैं। यह समूह अफ्रीकी देशों से लेकर यूरोपीय और एशियाई देशों तक व्यापक रूप से फैला हुआ है, जिसमें कई तरह की आबादी शामिल हैं। डूकिया ने बताया कि अलग-अलग प्रकार की आबादी वाले लैंडस्केप को पॉलीटाइपिक प्रजाति कॉम्प्लेक्स कहा जाता है और टैक्सोनोमिस्ट नियमित रूप से उनके वैज्ञानिक नामों और प्रजातियों के स्थान पर बहस करते हैं।
इसी तरह के नतीजे साल 2008 के एक शोध पत्र में भी दिए गए हैं। शोध पत्र में इस बात का पता लगाया गया था कि क्या घरेलू बिल्लियां इबेरियन प्रायद्वीप में जंगली बिल्लियों (फेलिस सिल्वेस्ट्रिस सिल्वेस्ट्रिस) की आनुवंशिक अखंडता को खतरे में डाल रही हैं। इसे नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन ने प्रकाशित किया था। अध्ययन में हंगरी, स्कॉटलैंड, पुर्तगाल, इटली और जर्मनी में आबादी का अध्ययन करने के बाद यूरोपीय बनबिलाव में संकरण के खतरे और संरक्षण पर प्रभाव के बारे में बात की गई। इसमें कहा गया है, “दो उप-प्रजातियों के बीच दीर्घकालिक अज्ञात प्रभावों के चलते यूरोपीय बनबिलाव की आनुवंशिक और वर्गीकरण स्थिति के बारे में वैश्विक चिंता पैदा हुई।” अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि लंबे समय तक लगातार संकरण से “जंगली आबादी में बड़े पैमाने पर और न बदला जा सकने वाला आनुवंशिक बदलाव” हो सकता है, जिससे यूरोप में जंगली बिल्लियों के अस्तित्व को खतरा हो सकता है।
अगर संकरण पर कोई अंकुश नहीं लगा और इसके प्राकृतिक आवास की रक्षा के लिए कोई कोशिश नहीं की गई, तो एशियाई बनबिलाव के लिए भी इसी तरह के नतीजे सामने आ सकते हैं। डुकिया कहते हैं, लंबे समय तक चलने वाले वैज्ञानिक अध्ययनों की कमी के चलते संकरण के स्तर और उसके नतीजों को समझना मुश्किल होगा।
दशकों से प्रजातियों की उपेक्षा
MOEFCC के चंडीगढ़ स्थित क्षेत्रीय कार्यालय के उप महानिरीक्षक गोबिंद सागर भारद्वाज ने 2000 के दशक के आखिर में बनबिलाव को देखने में कमी को महसूस करना शुरू किया। इस बात पर नजर रखने के लिए कि उसने बिल्ली को कितनी बार और किस तरह के लैंडस्केप में देखा, उसने देखे जाने का एक निजी रिकॉर्ड बनाए रखा।
वह कहते हैं, “कई कारक हैं। इनमें सड़क पर होने वाली मौत इन बिल्लियों की आबादी के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। इससे आबादी में भारी गिरावट आ रही है।” “पहले से ही इनके प्राकृतिक घर छोटी-बड़ी सड़कों से घिरे हुए है, इसलिए जब ये शर्मीले जीव चलते हैं, तो वे वाहनों की चपेट में आ जाते हैं।”
वह आगे कहते हैं, “मैंने साल 2010 में राजस्थान के अलग-अलग जगहों में देखे गए जानवरों का दस्तावेजीकरण करना शुरू किया और 2018 तक सिर्फ 26 बार भारतीय रेगिस्तानी बनबिलाव को देखा। इनमें से दो कैमरा ट्रैप फुटेज थे। सबसे ज्यादा बार इसे रेगिस्तान में बने राष्ट्रीय पार्क देखा गया।” भारद्वाज ने अपना निजी रिकॉर्ड मोंगाबे इंडिया के साथ साझा किया। इसके मुताबिक बिलाव को ताल छापर वन्यजीव अभयारण्य, बाड़मेर जिले के सुंदरा, सरिस्का टाइगर रिजर्व और जोधपुर के बाहरी इलाके में देखा गया था।
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वह कहते हैं कि अन्य छोटी बिल्लियों के साथ-साथ इस प्रजाति को लेकर लापरवाही भी आबादी में गिरावट का एक वजह थी। “यहां तक कि जब मैं राजस्थान में तैनात था, तब भी हमने कभी भी भारतीय रेगिस्तानी बनबिलाव की गिनती नहीं की थी। पिछले दो दशकों में, संख्या में भारी कमी आई है लेकिन हमारे पास कोई उचित रिकॉर्ड नहीं है।”
आईयूसीएन के कैट स्पेशलिस्ट ग्रुप का कहना है कि हालांकि खाल के लिए जानवरों का अवैध शिकार कम हो गया है, लेकिन कुछ खालें स्थानीय बाजारों में दिखाई देती हैं। इसमें अन्य जानवरों के लिए रोडेंटिकाइड और जालों को भी उन खतरों के रूप में सूचीबद्ध किया गया है जो प्रजातियों की अनजाने में हत्या की वजह बनते हैं।
डूकिया का सुझाव है, “हमें भारतीय रेगिस्तानी बनबिलाव की पारिस्थितिक भूमिका और व्यवहार को व्यापक रूप से समझने के लिए ज्यादा गहन, लंबी अवधि के अध्ययन की जरूरत है। तभी हम असरदार संरक्षण रणनीतियां तैयार कर पाएंगे।”
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बैनर तस्वीर: राजस्थान के रेगिस्तान में सूखी घास के रंग में भारतीय रेगिस्तानी बिल्ली का रंग पूरी तरह मिल जाता है। तस्वीर-राधेश्याम बिश्नोई।