- हालिया अध्ययनों से पता चला है कि भारत में आवारा कुत्ते इंसान और मवेशी की सुरक्षा और जैव विविधता के लिए खतरा पैदा करते हैं।
- मध्य भारतीय सवाना घास के मैदान और लद्दाख के लेह क्षेत्र में आवारा कुत्ते जंगली जानवरों के साथ संभोग करके हाइब्रिड प्रजाति बनाते हैं, जिनका व्यवहार ज्यादा आक्रामक और भोजन की आदतें भी बदली हुई होती हैं।
- भारत जैसे विविधता वाले देश के लिए यह जरूरी है कि वह कुत्तों की आबादी को कम करने के लिए एक वैज्ञानिक प्रतिक्रिया पर सक्रियता से विचार करे, ताकि जंगली जानवरों के साथ-साथ इंसानों को भी फायदा हो।
- इस टिप्पणी में दिए गए विचार लेखक के अपने हैं।
डेविड क्वामेन ने अपनी किताब ‘द सॉन्ग ऑफ द डोडो’ में लिखा है, “इस बीच, ब्रिटिश जहाजों से लाए गए घरेलू कुत्ते तस्मानिया में जंगली हो गए थे और वे हिंसक जंगली कुत्ते खुद ही कई भेड़ों को मार रहे थे।” उनकी किताब द्वीपों में प्रजातियों के खत्म होने का स्पष्ट रूप से वर्णन करती है। वे कई बार इंसानी वजहों से जानवरों के खत्म होने के खतरे का उल्लेख करते हैं। इनमें आक्रामक प्रजातियों को इसका सबसे सामान्य और बड़ा कारण माना जाता है। समस्या भले आसान थी, लेकिन इसकी कई परतें थी। औपनिवेशिक युग के व्यापारियों और नई जगहों की खोज करने वाले सैलानियों ने कई प्रजातियों को उन नई जगहों पर पहुंचाया, जहां उनका होना असंभव था। यह काम उन्होंने गलती से या फिर जान-बूझकर भी किया।
आक्रामक प्रजातियों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों और संरक्षणवादियों को पता है कि ये प्रजातियां तेजी से नए माहौल में ढल जाती हैं। आखिरकार, उनके अनुकूलन और विकास के चलते कई मूल प्रजातियां खत्म हो गईं। लेकिन तब क्या होता है जब ऐसी आक्रामक प्रजाति भी इंसानों की भरोसेमंद साथी बन जाती है?
इसी तरह, आवारा कुत्ते भी बड़े पैमाने पर जैव विविधता को नुकसान पहुंचा रहे हैं। यह ना सिर्फ द्वीप वाले सिस्टम में दिखाई देता है, जैसा कि डेविड क्वामेन ने उल्लेख किया है। ये नुकसान दुनिया के दूसरे देशों में भी देखे जाते हैं। उनसे जैव विविधता को होने वाला नुकसान बड़ा है। बहुत ज्यादा विविधता वाला देश भारत भी इसका अपवाद नहीं है। वैज्ञानिक समुदाय ने सबूत के साथ स्थापित किया है कि भारत भर में लुप्तप्राय और खतरे में पड़ी जंगली प्रजातियों को नुकसान में डालने के लिए कुत्ते सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं।
आइए हम मध्य भारतीय सवाना का मामला लें। शोधकर्ताओं और नागरिक वैज्ञानिकों के एक समूह ने हाल ही में महाराष्ट्र में पुणे के पास सवाना घास के मैदानों में भेड़िया और कुत्ते की संकर नस्ल की मौजूदगी की पुष्टि (बालों के नमूनों का आनुवंशिक अध्ययन करके) की है। इस तरह के संकरण के नुकसानदायक नतीजे होते हैं, जिससे आनुवंशिक विविधता पर असर पड़ता है। यह भारतीय भेड़िये जैसी प्रजाति के लिए घाटे का सौदा हो सकता है, जिसका अध्ययन नहीं किया गया है और प्राकृतिक आवास के नुकसान के चलते इनका वितरण बंटा हुआ है। कुत्तों द्वारा यह संकरण सिर्फ मध्य भारतीय भेड़ियों तक ही सीमित नहीं है। भारत में, कुत्तों के सुनहरे सियार जैसे अन्य जंगली जानवरों के साथ संभोग करने के उदाहरण हैं।
उदाहरण के लिए, लद्दाख के लेह क्षेत्र में तिब्बती भेड़िये और जंगली कुत्तों के संकर नस्ल को स्थानीय रूप से खिबशांक कहा जाता है, इन्हें व्यवहार में अधिक साहसी और ज्यादा आक्रामक माना जाता है। उन्होंने इंसानों, वन्यजीवों और मवेशी प्रजातियों को खतरे में डाल दिया है। देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान के नीरज महर के नेतृत्व में एक हालिया अध्ययन इसकी पुष्टि करता है। अध्ययन में आवारा कुत्तों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए उन्हें कॉलर लगाना और उनके खान-पान की आदतों को समझने के लिए कुत्तों के अवशेषों का विश्लेषण करना शामिल था। अध्ययन में पाया गया कि उनके आहार का एक बड़ा हिस्सा मवेशियों (74.29%) और जंगली प्रजातियों (13.06%) का था। कुत्तों के खाने में जंगली शिकार प्रजातियों में पक्षियां (4.49%), लैगोमोर्फ्स (3.67%), चूहे/गिलहरी (2.45%) और तिब्बती जंगली गधे (1.63%) की ज्यादा मौजूदगी थी। आहार में अन्य प्रजातियों में पिका, मर्मोट, नीली भेड़ और बत्तख, क्रेन और पेलिकन की कई प्रजातियों सहित पक्षी शामिल थे।
महर के अध्ययन ने आवारा कुत्तों से लगातार होने वाले नुकसान से निपटने में ग्रामीण समुदायों की परेशानियों पर भी रोशनी डाली गई है। जिन ग्रामीण समुदायों के साथ उन्होंने काम किया, उनमें से एक बड़ा तबका कुत्तों को एक समस्या मानता था, लेकिन समाधान के लिए काम करने में असमर्थ था। इसी तरह के नतीजे अन्य जगहों से भी पाए गए। इनमें हिमाचल प्रदेश का स्पीति भी शामिल है जो ऊंचाई वाला इलाका है। स्पीति में चंद्रिमा होमे और उनके सहयोगियों ने पाया कि मवेशियों में लगभग 64% का नुकसान कुत्तों के चलते हुआ।
शिकार के अलावा, कुत्ते कई तरह की बीमारियों का कारण भी बनते हैं। यह वन्यजीव संरक्षण के लिए बहुत बड़ी चिंता है। हाल के अध्ययनों में, शोधकर्ताओं ने आवारा कुत्तों में संक्रामक रोगों के बहुत ज्यादा प्रसार का दस्तावेजीकरण किया है, जिनमें पार्वोवायरस, कैनाइन डिस्टेंपर वायरस और कैनाइन एडेनोवायरस शामिल हैं। इन सभी बीमारियों में अलग-अलग प्रजातियों में बहुत ज्यादा संक्रामकता होती है और इसने दुनिया भर में मांसाहारी जीव-जंतुओं को प्रभावित किया है (चाहे वह 30% अफ्रीकी शेरों, अमूर बाघों और यहां तक कि विशाल पांडा का सफाया करना हो)।
वास्तव में, 2018 की रिपोर्ट “भारत में बाघ, सह-शिकारी और शिकार की स्थिति” ने देश के अधिकांश बाघ अभयारण्यों से आवारा कुत्तों की मौजूदगी के बारे में जानकारी दी। रिपोर्ट में बाघ, तेंदुए और अन्य मांसाहारी जानवरों पर आवारा कुत्तों के असर के बारे में भी बताया गया। यह अध्ययन दुनिया के सबसे बड़े व्यवस्थित जैव विविधता अध्ययनों में से एक था।
ऐसा भी नहीं है कि कुत्ते सिर्फ जंगली जानवरों को ही नुकसान पहुंचाते हैं। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में भी इंसानों पर कुत्तों का बड़ा खतरा दिखता है। देशभर में सामने आने वाले सीधे मौत के मामलों से लेकर, रेबीज के ज़रिए फैलने वाली बीमारियों और हमलों तक, आवारा कुत्ते सुरक्षा के लिए एक गंभीर खतरा हैं।
कुत्तों के हमले बेहद गरीब पृष्ठभूमि वाले लोगों पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। यह समुदाय ज्यादा असुरक्षित होता है। इनके पास अक्सर कुत्ते के काटने पर उचित इलाज की व्यवस्था नहीं होती है। अकेले 2022 में भारत में रेबीज के चलते 307 लोगों की मौत हो गई।
कुत्तों के चलते इंसानों और वन्यजीवों पर खतरे के ऐसे कई उदाहरण हैं। इसके बाद वैज्ञानिक कुत्तों के जोखिम के बारे में जानकारी बढ़ाने के तरीकों के बारे में सोचने लग गए हैं। खास तौर पर ऐसे समय में यह बहुत जरूरी है जब समाज वैज्ञानिक सबूतों को खारिज करने या गलतफहमी के कारण आवारा कुत्तों के खतरों के बारे में अपनी-अपनी राय बनाता है।
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वन्यजीव जीवविज्ञानी से शिक्षिका बनीं सुभाषिनी कृष्णन कहती हैं, “समय के साथ इस पर आगे बढ़ना होगा। बदलाव एक दिन में नहीं होगा।” “आपको लोगों के लिए विज्ञान और सबूत पर भरोसा करने की क्षमता विकसित करने की जरूरत है।” एक विज्ञान शिक्षक के रूप में काम करते हुए और स्कूलों में स्थान-आधारित शिक्षा की अवधारणा की खोज करते हुए, कृष्णन इस बात पर जोर देती हैं कि अच्छी विज्ञान शिक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
हालांकि लोग इंसान और वन्यजीवों पर आवारा कुत्तों के असर के बारे में जानते हैं, लेकिन समाधान की दिशा में काम करना जटिल है। कुछ लोग जानवरों के संरक्षण को लेकर गलत भावना से प्रेरित हैं और प्राकृतिक प्रणाली से जुड़ी गलत सोच के चलते हमारे देश में आवारा कुत्तों से निपटने के लिए कोशिशें सही दिशा में आगे नहीं बढ़ रही हैं। भले ही कुछ प्रयास अच्छे इरादे से किए गए हों, लेकिन उनमें से लगभग सभी में वैज्ञानिक और राजनीतिक सोच का अभाव था। कहने की आवश्यकता नहीं है, इससे फायदे की जगह नुकसान ज्यादा होता है।
मवेशियों को होने वाले नुकसान या आवारा कुत्तों द्वारा इंसानी बच्चों पर हमले कुत्तों की आबादी को कुशल और वैज्ञानकि तरीके से कम करने की गारंटी देने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इसके बजाय, जन्म नियंत्रण या गोद लेने जैसे उपाय को ज्यादा सक्रियता से समर्थन मिलता है। हालांकि, इससे कुत्तों की आबादी में बहुत ज्यादा कमी नहीं आती है। भारत के लिए यह जरूरी है कि वह कुत्तों की आबादी को कम करने के लिए एक वैज्ञानिक तरीके पर सक्रियता से विचार करे जिससे वन्यजीव और इंसान दोनों को लाभ हो।
लेखक मिनेसोटा विश्वविद्यालय में संरक्षण विज्ञान में पीएचडी छात्र हैं।
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बैनर तस्वीर: सड़क पर आवारा कुत्तों का झुंड। तस्वीर – कोट्टाकलनेट/विकिमीडिया कॉमन्स।