- समुद्री शैवाल की खेती तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में कई महिलाओं की आमदनी का एक बड़ा जरिया है। लेकिन बढ़ती पर्यावरणीय और सामाजिक चुनौतियों के चलते समुद्री शैवाल निकालने का ये काम मुश्किल होता जा रहा है।
- बढ़ते चक्रवातों के कारण काम के घटते दिन, समुद्री शैवाल की खेती के लिए जगह का कम होना, ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्री शैवाल की घटती गुणवत्ता और समाज में महिला और पुरुष के बीच भेदभाव, महिला किसानों को दूसरे कामों की तरफ जाने के लिए विवश कर रही है।
- लेकिन वहीं दूसरी तरफ भारत ने 2025 तक समुद्री शैवाल उत्पादन को कम से कम दस लाख टन सालाना तक बढ़ा लेने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस सिलसिले में तमिलनाडु में देश के पहले बहुउद्देशीय समुद्री शैवाल पार्क का निर्माण भी शुरू हो चुका है।
“मेरी मां समुद्री शैवाल इकट्ठा किया करती थीं। उस समय मेरी उम्र काफी कम थी लेकिन फिर भी उन के साथ जाती और उनकी मदद करती थी। तभी से मैं समुद्री शैवाल की खेती करती आ रही हूं।” समुद्री शैवाल के बारे में एक स्वयं सहायता समूह को प्रशिक्षण देने वाली 45 साल की आर. सुगंती ने याद करते हुए बताया। वह तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित रामेश्वरम द्वीप (जिसे पम्बन भी कहते हैं) पर समुद्र के किनारे अपना जीवन यापन कर रही हैं।
प्रचुर मात्रा में मौजूद प्राकृतिक समुद्री शैवाल रामेश्वरम के तट पर महिलाओं के लिए आसानी से उपलब्ध है। जहां पुरुष समुद्र में गहराई में जाकर काम करते हैं, वहीं महिलाएं तटरेखा के नजदीक पानी की गहराई में बिछे समुद्री शैवाल को इकट्ठा करती हैं। यह उनकी आय का बड़ा जरिया है। इनमें से कई महिलाओं ने किशोरावस्था में ही समुद्री शैवाल की खेती शुरू कर दी थी और आज पचास की उम्र को पार कर चुकी हैं।
वे समुद्री शैवाल निकालने के लिए पानी के भीतर गोता लगाती हैं और उन्हें दो तरह से बेचती हैं। सूखे समुद्री शैवाल के लिए उन्हें बाजार में प्रति किलोग्राम के हिसाब से 110-115 रुपये मिलते हैं। वहीं ताजा समुद्री शैवाल काफी कम यानी 60 प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिकता है।
समुद्री शैवाल की खेती करने वाली एक अन्य महिला किसान उषा मुनीस्वामी ने बताया, “हमारा दिन जल्दी शुरू होता है। हम पाक खाड़ी पर ओलाईकुडा तक समुद्र की ओर तीन किलोमीटर चलते हैं। वहां पहुंचकर पानी में गोता लगाते हैं और प्राकृतिक रूप से उपलब्ध समुद्री शैवाल की तलाश करते हैं। हर दिन तीन से पांच किलोग्राम कांजी पासी (ग्रेसिलेरिया एडुलिस), मरीकोलूंथू पासी (गेलिडिएला, लाल शैवाल की एक प्रजाति) इकट्ठा कर लेते हैं।” पाक खाड़ी भारत और श्रीलंका के दक्षिण-पूर्वी तट के बीच एक कम गहराई वाली खाड़ी है।
अपनी कमर के चारों ओर एक साधारण प्लास्टिक की बोरी बांधे हुए और बेसिक डाइविंग मास्क लगाए रामनाथपुरम के तटीय गांवों की महिलाएं आज भी अपनी आय के लिए समुद्री शैवाल की खेती के जोखिम भरे व्यवसाय पर भरोसा करती हैं।
लेकिन ऐसी क्या वजह है जो समुद्री शैवाल की खेती को जोखिम भरा बना रही है?
मंगडु में रहने वाली धनलक्ष्मी एस. बताती हैं, “जब हम पानी के अंदर होते हैं तो कभी-कभी पानी हमारे डाइविंग मास्क में फंस जाता है। हमें पानी के नीचे की नुकीली चट्टानों पर भी चलना पड़ता है। कोई भी चूक जानलेवा हो सकती है। हमारे गांव में कोई क्लिनिक भी नहीं है। सबसे नजदीकी अस्पताल हमारे घर से पम्बन पुल के पार आठ किलोमीटर दूर है।”
पूछताछ किए जाने पर इन महिलाओं को भारतीय तटरक्षक बल के सामने अपनी पहचान भी साबित करनी होती है। इसके अलावा दोनों देशों के बीच समुद्री सीमाओं को लेकर लंबे समय से चले आ रहे विवाद के कारण उन्हें श्रीलंकाई नौसेना से भी डरकर रहना होता है। कुछ समय पहले तक समुद्री शैवाल की खेती करने वाली लक्ष्मी मूर्ति कहती हैं, “श्रीलंका के साथ (अंतर्राष्ट्रीय समुद्री) सीमा हमारी नावों से एक घंटे की दूरी पर है। पहले सिर्फ मछुआरों को ही पहचान पत्र मिला करते थे। 2012 से काफी विरोध प्रदर्शन के बाद, समुद्री शैवालों को इकट्ठा करने वाले मजदूरों समेत मछली पकड़ने के काम में लगी कुछ महिलाओं को भी पिछले साल बायोमेट्रिक कार्ड दिए गए थे। हम अब सुरक्षा एजेंसियों के सामने अपनी पहचान साबित कर सकते हैं।” लक्ष्मी अब द्वीप पर एक स्वयं सहायता समूह चलाती हैं।
समुद्र से निकाले गए इस समुद्री शैवाल का इस्तेमाल खाने के बजाय निर्यात और इसके एडेटिव निकालने के लिए किया जाता है। मौजूदा समय में समुद्री शैवाल खाने, कॉस्मेटिक, फर्टिलाइजर बनाने, गोंद और रसायन निकालने के साथ-साथ औद्योगिक और चिकित्सा दोनों जगह पर बखूबी इस्तेमाल में लाया जा रहा है। लेकिन विडंबना यह है कि जो महिलाएं समुद्र से समुद्री शैवाल इकट्ठा करती हैं, वे समुद्री शैवाल से बने किसी भी उत्पाद को शायद ही कभी इस्तेमाल कर पाती हों।
भारत को उम्मीद है कि 2025 तक वह समुद्री शैवाल उत्पादन को सालाना कम से कम दस लाख टन तक बढ़ा लेगा। यह प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत नीली क्रांति योजना का एक हिस्सा है।
लेकिन वहीं रामनाथपुरम जिले की ज्यादातर महिलाएं अपनी बेटियों को इस पेशे में लाने से हिचक रही हैं। इसका कारण तमाम तरह के पर्यावरणीय और सामाजिक दबाव हैं, जो बड़ी तेजी से इस पेशे को मुश्किल बना रहे हैं।
समुद्र में काम के दिनों में कमी
रामेश्वरम में समुद्री शैवाल की खेती चांद के बढ़ते और घटते आकार के अनुसार की जाती है। महिलाएं पूर्णिमा के दिन से शुरू करके छह दिनों तक काम करती हैं, उसके बाद नौ दिन तक कोई काम नहीं किया जाता है। अमावस्या के बाद छह दिनों के लिए फिर से काम शुरू होता है, उसके बाद नौ दिनों का ब्रेक होता है। मूर्ति बताती हैं कि 30 दिन के चक्र में समुद्री शैवाल इकट्ठा करने के दिनों की संख्या अब छह दिन कम हो गई है। “पहले हम नौ के बजाय छह दिन का ब्रेक लेते थे।” अब तीन दिन बढ़ा दिए गए हैं ताकि समुद्री शैवाल इन दिनों में ठीक ढंग से पनप सकें।
पूर्वी तट पर बढ़ते चक्रवातों के कारण समुद्र में साल भर में काम करने के दिनों की संख्या भी प्रभावित हुई है। मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि तमिलनाडु तट पर 1982 और 2001 की तुलना में 2002 और 2021 के बीच ज्यादा चक्रवात आए हैं। चक्रवात तमिलनाडु में ज्यादा भूस्खलन का कारण बन रहे हैं, जिसका असर समुद्री शैवाल किसानों पर भी पड़ रहा है।
इसके अलावा साल में दो महीने तक मछली पकड़ने पर भी प्रतिबंध है। वहीं दक्षिणी मानसून के दौरान एक कमजोर अवधि और मौसम की बढ़ती अनिश्चितता के चलते महिलाएं साल भर में सिर्फ सात महीने ही समुद्र में काम कर पाती हैं।
सिकुड़ती जगह
कम कामकाजी दिनों के अलावा, उन क्षेत्रों का आकार भी कम हो गया है जहां महिलाएं पारंपरिक रूप से प्राकृतिक रूप से उपलब्ध समुद्री शैवाल इकट्ठा करती आ रही हैं। पहले ये महिला किसान पंबन द्वीप के उत्तरी (पाक खाड़ी) और दक्षिणी (मन्नार की खाड़ी) दोनों किनारों पर समुद्री शैवाल को इकट्ठा कर सकती थीं। वे अपने काम के लिए मन्नार की खाड़ी के 21 द्वीपों में से आखिरी तक चली जाया करती थीं। लेकिन अब जमीन की उस संकरी पट्टी के उत्तरी किनारे (पाक खाड़ी) पर समुद्री शैवाल इकट्ठा करने तक ही सीमित हैं जिसे वे अपना घर कहती हैं।
मूर्ति कहती हैं, “हम समुद्री शैवाल इकट्ठा करने के लिए दक्षिण में कुरुसादाथिवु (क्रुसुदाई द्वीप) पर पूरा एक सप्ताह लगा देते थे। लेकिन अब वन विभाग नौ द्वीपों तक पहुंच की अनुमति देता है, वह भी सिर्फ एक दिन के लिए।”
कई स्थानीय गोताखोर और मछुआरे लंबे समय से मन्नार की खाड़ी में क्रुसादाई और अन्य निकटवर्ती द्वीपों पर पारंपरिक तौर पर मछली पकड़ने का काम करते आ रहे हैं। लेकिन यह क्षेत्र अब इको-टूरिज्म स्पॉट में बदल दिया गया है। समुद्री जैव विविधता की दृष्टि से यह क्षेत्र विश्व के सबसे समृद्ध क्षेत्रों में से एक है। इसे 1986 में समुद्री राष्ट्रीय उद्यान के रूप में घोषित किया गया था और बाद में 1989 में बायोस्फीयर रिजर्व बना दिया गया था। इस सबके चलते यह क्षेत्र स्थानीय समुदायों के लिए सीमा से बाहर हो गया है। मन्नार की खाड़ी समुद्री विविधता का भंडार है। डुगोंग और प्रवाल भित्तियों जैसी संकटग्रस्त प्रजातियों का घर है और इसका वैश्विक महत्व काफी मायने रखता है।
मूर्ति कहती हैं, “वन अधिकारियों ने हमें बताया कि दक्षिण की ओर से पासी को निकालना संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा रहा है। अब हमारे पास वैकल्पिक आजीविका संसाधनों की तलाश करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा है।”
समुद्री शैवाल की गुणवत्ता पर जलवायु का प्रभाव
समुद्री शैवाल समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन्हें क्लाइमेट-स्मार्ट शैवाल कहा जाता है। यह महत्वपूर्ण मात्रा में कार्बन को अवशोषित करता है और समुद्र के अम्लीकरण को कम करता है। कई अध्ययनों ने जलवायु शमन में समुद्री शैवाल की भूमिका को रेखांकित किया है। हालांकि, ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्री शैवाल की गुणवत्ता पर असर पड़ा है।
स्वप्निल टंडेल एक वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं और सेंट्रल मरीन फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीएमएफआरआई) के साथ काम कर चुकी हैं। मोंगाबे इंडिया के साथ बातचीत में उन्होंने बताया, “भारत में उद्योगों का फोकस कप्पाफाइकस (पेप्सी पासी) नामक समुद्री शैवाल की एक प्रजाति पर है, जिससे वो कैरेजेनन नामक रासायनिक यौगिक निकालते हैं। कैरेजेनन का इस्तेमाल तमाम तरह के खाद्य पदार्थों, कॉस्मेटिक, फार्मास्युटिकल उत्पादों और डाइटरी सप्लीमेंट में किया जाता है। यह एक जेल जैसा पदार्थ है जिसे गाढ़ा करने वाले एजेंट के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।”
टंडेल के मुताबिक, लेकिन समुद्री शैवाल की यह प्रजाति बदलती पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं बन पा रही है। यह ‘आइस-आइस’ नामक बीमारी का शिकार हो जाती है जो समुद्री शैवाल का रंग पूरी तरह से छीन लेती है। उन्होंने आगे कहा, “यह उसी घटक (कैरेजेनन) को प्रभावित करता है जिसके लिए समुद्री शैवाल की बड़े पैमाने पर निकाला जा रहा है।”
अध्ययनों से पता चलता है कि जब समुद्री शैवाल समुद्र के तापमान, लवणता और प्रकाश की तीव्रता में आए बदलावों से गुजरते हैं, तो वे एक “नम कार्बनिक पदार्थ” का उत्पादन करते हैं जो पानी में बैक्टीरिया को आकर्षित करता है और समुद्री शैवाल के ऊतकों को “सफ़ेद” और सख्त कर देता है। इस तरह से ये ‘आइस-आइस’ बीमारी इस प्रजाति को अपनी चपेट में ले लेती है।
‘आइस-आइस’ बीमारी के कारण कैरेजेनन की गुणवत्ता में कमी और कल्चर स्टॉक में गिरावट के चलते बाजार में इनकी कीमतें कम हो गई हैं और खासतौर पर छोटे पैमाने के समुद्री शैवाल उत्पादकों की आय पर असर पड़ा है। लंबे समय में जलवायु परिवर्तन समुद्री शैवाल की खेती के विस्तार को और अधिक मुश्किल बना सकता है, इस तथ्य के बावजूद कि इस खेती से पर्यावरण को काफी फायदा पहुंचता है।
जमीन पर चुनौतियां कम नहीं
समुद्र में कई चुनौतियों का सामना करने अलावा महिलाओं को लिंग, उम्र और शादी के आधार पर भी कई तरह के भेदभावों का शिकार होना पड़ता है।
जिन कई महिलाओं से इस संवाददाता ने बातचीत की, उन्होंने कहा कि उन्हें न तो समुद्री शैवाल की बाजार दरों के बारे में पता है और न ही उन्हें यह पता है कि समुद्री शैवाल किसे बेचा जाता है। उनका डाइविंग मास्क भी उनके पति या उनके घर का कोई पुरुष सदस्य बंदरगाह के पास की दुकानों से लाता है। उन्हें मास्क की कीमत भी नहीं पता थी। इस संवाददाता को क्षेत्र का दौरा करते हुए मालूम चला था कि मास्क रामेश्वरम बंदरगाह की दुकानों पर 180 रुपये से 200 रुपये में बेचा जाता है।
क्लिनिकल एसोसिएट प्रोफेसर और रिसर्च डायरेक्टर, भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी, इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस (आईएसबी) में प्रोफेसर अंजल प्रकाश ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “तटों पर काम करने वाली महिलाएं मछली पकड़ने के उद्योग की आपूर्ति श्रृंखला में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसके अलावा अपनी स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन मछली उद्योग से जुड़ी महिलाओं को बाजार तक पहुंच बनाने और मछली के लिए उचित मूल्य पाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। बिचौलिए या व्यापारी उनकी कमजोर स्थिति का फायदा उठाकर उनकी कमाई कम कर देते हैं।”
द्वीप पर भी महिलाओं की बाज़ार तक पहुंच सीमित ही है। दरअसल पहुंच व्यक्ति की उम्र और वैवाहिक स्थिति पर भी निर्भर करती है। प्रकाश बताते हैं, “कई तटीय इलाकों में लिंग असमानताएं मौजूद हैं जो कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी को प्रभावित करती हैं। उनके पास निर्णय लेने की शक्ति सीमित हो जाती है, भेदभाव का सामना करना पड़ सकता है और अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में शिक्षा और प्रशिक्षण के अवसरों तक उनकी पहुंच कम ही होती है।”
मूर्ति कहती हैं, “अब हम नहीं चाहते कि हमारी बच्चियां भी इस तरह का जीवन जिएं। हम चाहते है कि वे स्कूल जाएं। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि एक युवा विधवा को बाज़ार में जाने तक की अनुमति नहीं होती है, न ही उसे समुद्री शैवाल इकट्ठा करने के लिए कहा जाता है।” पहले समुद्री शैवाल की खेती करने वाली युवा विधवाएं अब महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के जरिए दैनिक मजदूरी के अवसर तलाश रही हैं। यहां तक कि पहचान साबित करने के लिए भी उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ती है। क्योंकि बायोमेट्रिक कार्ड के लिए भी सिर्फ वृद्ध महिलाओं को ही तरजीह दी जाती है।
मत्स्य पालन विभाग ने अब तक पूरे भारत में समुद्री मछुआरों को 1,62,262 बायोमेट्रिक कार्ड वितरित किए हैं। लेकिन इंटरनेशनल कलेक्टिव इन सपोर्ट ऑफ फिशवर्कर्स (ICSF) के लिए बनाई गई एक रिपोर्ट बताती है, “यह कार्ड सिर्फ मत्स्य पालन विभाग द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए उपयोगी है। यह उन्हें औपचारिक कार्यबल का हिस्सा नहीं बनाता है या उन्हें श्रम विभाग द्वारा अनिवार्य श्रमिकों के अधिकारों तक पहुंच प्राप्त करने में मदद नहीं करता है।
रिपोर्ट इस बात को भी रेखांकित करती है कि कार्यस्थल पर पुरुषों की दुर्घटना और मृत्यु होने पर उनके लिए राहत योजनाएं मौजूद हैं, लेकिन महिलाओं के लिए ऐसा कुछ नहीं है। इसमें कहा गया है, “ये समाज की लैंगिक कार्यप्रणाली को समझे बिना नीतियों के खराब डिजाइन और इसके कमजोर कार्यान्वयन और मछुआरों के रूप में महिलाओं की गैर-मान्यता की महत्वपूर्ण चिंता की ओर इशारा करते हैं।”
आमदनी के नए रास्ते
तमाम बाधाओं के बीच खुद को बचाए रखने के लिए समुद्री शैवाल इकट्ठा करने के काम में लगी महिलाओं ने आमदनी के नए रास्ते खोज लिए हैं। जिन दिनों समुद्री शैवाल खेती नहीं होती हैं उन दिनों ये महिलाएं सीप से बनी चीजों को बेचने और स्थानीय जलीय कृषि कारखानों में दैनिक मजदूरी करने के लिए चली जाती हैं। या फिर मनरेगा द्वारा दिए जाने वाले 100 दिनों के रोजगार के तहत काम पर लग जाती हैं।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी से समुद्री सीप से नई-नई चीजें बनाने की ट्रेनिंग लेने वाली सुगंती बताती हैं, “मैं बाकी महिलाओं की तरह ही समुद्री सीपियों से शिल्प बनाती हूं और समुद्री शैवाल भी बेचती हूं। मैं अपना परिवार चलाने के साथ-साथ अपने बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी उठा पाती हूं। युवा पीढ़ी समुद्री शैवाल व्यवसाय के पारंपरिक शिल्प को जानती है। लेकिन वे इस पेशे को अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं।”
सीपियों की एक दर्जन किस्में 120 रुपये में बिकती हैं। सुगंती ने बड़ी ही उम्मीद के साथ कहा, “हमें समुद्री चीजों के साथ-साथ ज़मीन पर बनी चीजों के व्यापार के भी बारे में पता है। हालांकि, हम पढ़े-लिखे नहीं हैं। हमने देखा है कि हमारे लिए किसी भी योजना को पारित करने के लिए अधिकारियों के हस्ताक्षर की जरूरत होती है। अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर हम उन्हें ऐसे ही पदों पर देखना चाहते हैं। अगर मेरी बेटियां समुद्र में जाने की बजाय मछली पालन विभाग का हिस्सा बनें तो इससे मेरे जैसे कई परिवारों को फायदा होगा। क्योंकि वह पहले से ही हमारी परेशानियों को जानती है, इसलिए वह हमारे लिए बेहतर नीतियां और योजनाएं बना सकती है।”
सरकार की महत्वाकांक्षा
दूसरी तरफ भारत सरकार का मत्स्य पालन विभाग और तमिलनाडु राज्य सरकार राज्य के समुद्री शैवाल के उत्पादन बढ़ाने के मिशन पर हैं। रामनाथपुरम जिले के थोंडी में 127.7 करोड़ रुपये (1.27 अरब रुपये) के निवेश के साथ एक नए एकीकृत समुद्री शैवाल पार्क का निर्माण 2 सितंबर को शुरू किया गया है। समुद्री शैवाल पार्क में मछली पालन के काम में जुटे तटीय गांवों में संभावित समुद्री शैवाल संसाधनों की पहचान, टिशू कल्चर लैब, अनुसंधान एवं विकास, तट आधारित बुनियादी ढांचा, स्किल डवलपमेंट और कैपेसिटी बिल्डिंग, स्टोरेज और मार्केटिंग, प्रसंस्करण और मूल्य संवर्धन और मॉनिटरिंग व सर्विलांस जैसी सुविधाएं होंगी।
समुद्री शैवाल पार्क एक ही जगह पर उद्यमियों और प्रसंस्करणकर्ताओं को योजनाओं, जरूरी लाइसेंस/अनुमोदनों के बारे में जानकारी उपलब्ध कराएगा और प्रोसेसिंग सेंटर बनाने के लिए जगह भी मुहैया कराएगा। फिलहाल इस परियोजना का फोकस किसानों की संख्या बढ़ाकर (समुद्री शैवाल) उत्पादन बढ़ाना है।”
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बैनर तस्वीर: रामेश्वरम में ओलाईकुडा तट पर समुद्री शैवाल निकालती हुई उषा। तस्वीर- अलमास मसूद/मोंगाबे