- असम में साल 2020 में बाघजान तेल कुएं में विस्फोट से जैव विविधता, मछलियों की आबादी, आर्द्रभूमि मगुरी मोटापुंग बील और अहम पक्षी क्षेत्र (आईबीए) से चलने वाली आजीविका पर गंभीर असर पड़ा।
- हालांकि, कुछ जानकारों का कहना है कि तूफान के बाद मानसून ने कुछ प्रदूषकों को बहाने में मदद की है और आर्द्रभूमि बेहतर तरीके से ठीक हो रही है। लेकिन, स्थानीय समुदायों का कहना है कि ठहरे हुए पानी में रिकवरी के निशान ना के बराबर है।
- सरकारी अधिकारी आर्द्रभूमि को उसके पुराने रूप में बहाल करने के लिए प्रबंधन योजना में प्रगति का भरोसा देते हैं। लेकिन जानकार असर के ज्यादा व्यापक अध्ययन की मांग कर रहे हैं, क्योंकि इलाके में दूसरे तेल क्षेत्र भी हैं।
असम में 27 मई, 2020 को आर्द्रभूमि मगुरी मोटापुंग बील के पास बागजान में ऑयल इंडिया लिमिटेड के मालिकाना हक वाले तेल क्षेत्र में गैस रिसाव हुआ। इस वजह से 9 जून, 2020 को विस्फोट हुआ। इसे बुझाने में 173 से ज्यादा दिन लगे। विस्फोट से क्षेत्र में प्राकृतिक चीजों को गंभीर नुकसान हुआ।
इस विस्फोट के तीन साल बाद पारिस्थितिकी तंत्र के पुराने रूप में बहाल होने पर राय मिली-जुली है। कुछ लोग कहते हैं कि मानसून ने कुछ प्रदूषकों को बहाने में मदद की है। लेकिन, स्थानीय समुदाय की आजीविका पर दीर्घकालिक असर पड़ा है और प्रजातियों की विविधता में कमी आई है।
मगुरी मोटापुंग बील (झील) पूर्वोत्तर भारत के तिनसुकिया जिले में बाढ़ क्षेत्र वाली आर्द्रभूमि है। यह लगभग 9.6 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली है। उत्तर और दक्षिण में लोहित और डिब्रू नदियों से पोषित ब्रह्मपुत्र बाढ़ के मैदानों के भीतर स्थित यह आर्द्रभूमि डिब्रू सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान (बील के दक्षिण में) और अरुणाचल प्रदेश में नामपाड़ा राष्ट्रीय उद्यान को जोड़ती है। यह भारत-बर्मा जैव विविधता क्षेत्र में अहम वन्यजीव गलियारा है।
अन्य आर्द्रभूमियों की तरह, यह बील (झील जैसी जगह) भी वन्यजीवों की विविधता बनाए रखने में मदद करती है और प्रचुर संसाधन उपलब्ध कराती है। इसे 110 से ज्यादा पक्षी प्रजातियों के लिए अहम आवास माना जाता है, जिसमें सफेद पंखों वाला वुड डक (बत्तख) जैसी कई खतरे वाली प्रजातियां भी शामिल हैं। यहां मछलियों की समृद्ध विविधता से स्थानीय मछुआरों की एक बड़ी आबादी की आजीविका चलती है।
विस्फोट के बाद का असर
31 दिसंबर, 2021 को सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गई विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि “आर्द्रभूमि के प्रमुख हिस्से तेल रिसाव, जलने, ध्वनि प्रदूषण, बहुत ज्यादा तापमान और जलने, भूकंपीय गतिविधियों और जहरीले एरोसोल के असर में थे।” रिपोर्ट में कहा गया कि भारतीय वन्यजीव संस्थान और डीएफओ (तिनसुकिया) की ओर से किए गए आकलन में “मछलियों को बीमारी होने और मृत्यु दर, डॉल्फिन मृत्यु दर, आर्द्रभूमि की कई प्रजातियों का कम दिखना और वनस्पतियों के जलने” के प्रमाण मिले।
विस्फोट से उत्पन्न संघनन ने पानी में पीएएच (पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन) आ गया जिससे मानव जीवन, फसलें और पालतू जानवरों पर असर पड़ा। इसने बील में बहने वाले जल स्रोतों को भी प्रदूषित कर दिया, क्योंकि मई 2020 के दौरान भारी मानसून के कारण दोनों नदियों में बाढ़ आ गई।
भारतीय वन्यजीव संस्थान की रिपोर्ट में कहा गया है, “जहां ये हादसा हुआ, उसके आसपास की जगह जैव विविधता से समृद्ध है। रिसाव के चलते बड़े पैमाने पर मृत्यु दर बढ़ी है… जहरीले धुएं और तेल की परत ने सभी तरह की वनस्पतियों और जीवों को प्रभावित किया है।”
असम में भारत के कच्चे तेल का 27% भंडार है। इससे तेल और गैस क्षेत्रों के बहुत ज्यादा दोहन से विस्फोट का खतरा बढ़ जाता है (इससे पहले ये हादसे साल 2005 में डिकोम तेल क्षेत्र में और साल 2011 में नाहरकटिया में देखा गया था जो भूमिगत थे)।
बागजान विस्फोट पर असम सरकार ने एक-सदस्यीय जांच आयोग का गठन किया था। आयोग की रिपोर्ट में बागजान विस्फोट के कारण जैव विविधता को 55% नुकसान की बात कही गई थी, जहां “41 प्रजातियों/परिवारों से संबंधित 25,825 जानवरों की मौत की गणना की गई थी।” इसमें यह भी कहा गया कि बील और उसके आसपास के क्षेत्रों में 70% केंचुओं की मौत हो गई थी।
यही रिपोर्ट “तिनसुकिया जिले में एक और विस्फोट होने” की आशंका के बारे में भी चेतावनी देती है, क्योंकि बागजान क्षेत्र में कई तेल कुएं खोज और विकास के चरण में हैं। तेल रिग जहां विस्फोट हुआ था, अब वहां काम नहीं हो रहा है। लेकिन इस तेल क्षेत्र में अन्य तेल रिग अभी भी काम कर रहे हैं, जैसा कि इस संवाददाता ने क्षेत्र के दौरे से पाया।
मछलियों, पक्षियों और आजीविका पर असर
विस्फोट के बाद आर्द्रभूमि में मछलियों की कमी के साथ ही बील से मछली खाने के सार्वजनिक डर ने छह गांवों – बागजान गांव, पुरानी मोटापुंग, रंगारा ते नतुनगांव, गोटोंग गांव, ना-मोटापुंग गांव और धलाखट गांव के मछुआरों को प्रभावित किया है। ये गांव बील के पूर्व, पश्चिम और उत्तर में हैं।
सैंतीस साल के जिबकांत मोरन कहते हैं, “पहले जब हम मछली पकड़ने जाते थे, तो बहुतायत में (मछलियां) होती थीं। पहले हम जितना कमाते थे, अब वह घटकर एक-चौथाई से भी कम हो गया है। कोई मछली नहीं है। हम बस मछली पकड़ने जाते हैं, क्योंकि हमारे पास कोई दूसरा साधन नहीं है।”
उन्होंने आगे कहा कि उरीअम (बिस्कोफिया जावानिका) के पेड़ जो उन्होंने बचपन से आर्द्रभूमि में देखे थे, वे लाल हो गए थे, उनकी छाल झड़ गई थी और बाद में पेड़ सूख गए थे। “पहले पक्षी [पेड़ से] बीज खाने आते थे। गर्मियों के दौरान हम पेड़ की छाया में बैठते थे, लेकिन अब हमें चिलचिलाती धूप से खुद को बचाने के लिए छाता या जैपी लेना पड़ता है। लोग जलावन के लिए सूखे हुए पेड़ों का इस्तेमाल नहीं करते हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि इससे कुछ जल आत्मा (डंगोरिया) नाराज हो जाएंगी।”
स्थानीय समुदायों का दावा है कि हालांकि, पानी की गुणवत्ता में वहां कुछ सुधार हुआ है जहां डिब्रू नदी आर्द्रभूमि के दक्षिणी भाग में बहती है। लेकिन, आर्द्रभूमि के ठहरे हुए पानी में सुधार न के बराबर हुआ है।
सामाजिक कार्यकर्ता और बागजान-दिघलतरंग गांव के प्रधान मनोज हजारिका याद करते हैं, “शुरुआत में विस्फोट के बाद, सांप गायब हो गए और फिर मेंढक, घोंघे, कछुए, स्थानीय मछलियां और कीड़े भी। उस समय मछली का सेवन नहीं किया जा सकता था; उनमें मिट्टी के तेल जैसी गंध आ रही है।”
इको टूर गाइड पापुल गोगोई (25), कंडुली (एरियस मैनिलेंसिस), पुथी (पुंटियस प्रजाति), गोरोई (चन्ना प्रजाति), सेंगेली (चन्ना ब्लेहेरी), सिंगारा (स्पेराटा सीनघाला), सिंगी (हेटेरोपनेस्टेस फॉसिलिस), मागुर (क्लैरियास बत्राचस), खोलिहोना (कोलिसा फासिआटस) जैसी स्थानीय रूप से उपलब्ध मछलियों की कमी होने पर अफसोस जताते हैं। पापुल कहते हैं, “मछलियों की कुछ दुर्लभ प्रजातियां, स्थानीय रौ (लेबियो रोहिता), बोराली (वालागो अट्टू) की संख्या में भी गिरावट देखी गई है।”
लोगों का अनुमान है कि स्थानीय और प्रवासी पक्षियों के लिए भोजन के रूप में काम करने वाली मछली, काई, लाइकेन, कीड़े और अन्य जलीय पौधों की गैर-मौजूदगी या गिरावट से बील में आने वाले पक्षियों की संख्या में तेजी से गिरावट आई। यह महत्वपूर्ण पक्षी क्षेत्र (आईबीए) के रूप में सूचीबद्ध है। उनका कहना है कि इससे पर्यटक भी कम हो गए हैं।
हालांकि, कलाकार और बर्ड्स ऑफ मागुरी मोटापुंग किताब के सह-लेखक और आर्द्रभूमि के लंबे समय से पर्यवेक्षक डेबोरशी गोगोई का कहना है कि (आर्द्रभूमि में) आवास को उसके पुराने रूप में लगभग बहाल किया जा चुका है। उनकी दलील है, ”घास के मैदान फिर से हरे-भरे हो गए हैं।” डेबोरशी के अनुसार, 2016-2017 के बाद से इस क्षेत्र में आने वाले मौसमी पक्षियों में पहले से ही गिरावट आई थी, तब बागजान-दिघाल्टरंग और नोतुन रंगगारा के पास एक पुल का निर्माण किया गया था, जिससे इंसानी और कारोबारी गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई और घास के मैदानों में खेती भी शुरू हो हुई। वह आगे कहते हैं, “विस्फोट वजह [गिरावट की] है, लेकिन पक्षियों ने उससे पहले ही आना बंद कर दिया था। पिछले कुछ सालों में पक्षियों की संख्या और विविधता दोनों कम हो गई है।”
फिर भी, स्थानीय समुदायों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं का मानना है कि पानी अभी भी प्रदूषकों से मुक्त नहीं हुआ है। कार्यकर्ता निरंता गोहेन ने कहा कि प्रवासी पक्षी और बत्तखें आर्द्रभूमि में काई खाने के लिए आते हैं। उन्होंने कहा, “जब प्रदूषक आर्द्रभूमि पर गिरते हैं, तो काई ढेर बन जाती है और तैरने लगती है। इसलिए, जब [प्रवासी] मंदारिन बत्तखें आई, तो वह सिर्फ एक या दो दिन ही रुकी।” गोहेन का मानना है कि चूंकि गैस मिले पानी के निशान मौजूद हैं, इसलिए काई जल्दी नहीं बनेगी।
विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि पाए गए पीएएच “कार्सिनोजेनिक” थे, जिसका जानवरों के शरीर विज्ञान और प्रतिरक्षा पर कुप्रभाव पड़ता है। इसमें यह भी कहा गया है कि तेज आवाज से “स्तनधारियों, पक्षियों और कीड़ों में भटकाव से लेकर स्वास्थ्य समस्याओं तक प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।” जैव विविधता की विरलता, ज़ेलुक, केंचुए, जोंक, केकड़े, झींगा जैसे कीड़ों की अनुपस्थिति और पक्षियों की संख्या में गिरावट को वातावरण में आए बदलाव के चलते व्यवहार में बदलाव माना जाता है, जो विस्फोट के बाद का असर है।
सरकार की योजना
तेल कुएं में विस्फोट पर हुए कुछ अध्ययनों का विश्लेषण करने वाले गुवाहाटी विश्वविद्यालय में भूविज्ञान के प्रोफेसर शरत फुकन बताते हैं कि बागजान विस्फोट स्थल के आसपास की मिट्टी और पानी में जहरीले पदार्थों का कोई असामान्य स्तर नहीं दिखा है। हालांकि, इसका सटीक कारण पता नहीं चल पाया है? उनका कहना है, ”पिछले कुछ सालों में लगातार मानसून ने पहले से मौजूद सभी विषाक्त पदार्थों को बहाने में भूमिका निभाई है।” संघनन के संबंध में उनका मानना है कि चूंकि इन यौगिकों में बहुत ज्यादा अस्थिर हाइड्रोकार्बन होते हैं, “वे पानी पर तैरते हैं, सामान्य वायुमंडलीय परिस्थितियों में अस्थिर होते हैं और पर्यावरण में नहीं बने रहते हैं।”
जब फुकन से कुछ प्रवासी पक्षी प्रजातियों की गैर-मौजूदगी के बाबत सवाल पूछा गया, तो उन्होंने कहा, “संबंधित क्षेत्रों में विशेषज्ञों की ओर से व्यापक मूल्यांकन करना जरूरी है। घटना के साथ किसी भी संभावित संबंध का पता लगाने के लिए गहन अध्ययन जरूरी है।
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इस बीच, तिनसुकिया के पूर्व और वर्तमान जिला वन अधिकारी (डीएफओ) केके देवरी और खानींद्रनाथ दास भरोसा दिलाते हैं कि बील के लिए प्रबंधन योजना पर काम चल रहा है। दास बताते हैं, “एनजीटी द्वारा प्रस्तावित योजना भी प्रगति पर है…मैं भी इस समिति का सदस्य हूं। बैठकें और चर्चाएं चल रही हैं।”
तिनसुकिया के डिप्टी कमिश्नर स्वप्निल पॉल प्रबंधन योजना से सहमत हैं और कहते हैं, “बील की प्राकृतिक बहाली पहले ही हो चुकी है। हम ऐसे उपाय सुझा रहे हैं कि इसे लंबी अवधि के लिए और ज्यादा टिकाऊ किस तरह बनाया जाए। तो, चाहे यह डॉल्फिन की संख्या बढ़ाने के बारे में हो या हम आर्द्रभूमि पर निर्भर समुदायों को ज्यादा टिकाऊ तरीके से अपनी आजीविका वापस पाने में किस तरह मदद कर सकते हैं। हम पहले से ही आसपास के समुदायों के साथ बातचीत कर रहे हैं। चूंकि, यह पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र (ईएसजेड) है, इसलिए यह योजना ईएसजेड का भी हिस्सा होगी। पॉल के अनुसार, योजना अभी भी “शुरुआती चरण” में है।
लेकिन मोरन चिंता जताते है, “हालांकि, हमारे जीवनकाल में पूरी तरह से इसके पुराने स्वरूप में लौटने की उम्मीद नहीं है।”
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बैनर तस्वीर: मागुरी मोटापुंग बील में अठखेलियां करते पक्षी। तस्वीर में दिख रहा इंडियन ऑयल का कारखाना। तस्वीर – बोंदिता बरुआ/मोंगाबे।