- भारत में पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और जीव-जंतुओं से जुड़े मसलों पर फिल्में बनने का सिलसिला लगातार बढ़ रहा है। अच्छी बात यह है कि गंभीर फिल्मों के अलावा रोमांटिक, गुदगुदाने वाली और एक्शन फिल्मों में भी इन कहानियों को जगह मिल रही है।
- फिल्मों को जनसंचार का सबसे बड़ा माध्यम माना जाता है। फिल्में गंभीर विषयों को आसान शब्दों में बड़ी ऑडियंस के सामने रख सकती है। पर्यावरण से जुड़े विषयों पर फिल्में बनने का फायदा यह हो सकता है कि इससे लोगों के बीच जागरूकता बढ़ने की संभावना है।
- मोंगाबे-हिन्दी ने इन फिल्मों को बनाने का मकसद जानने के लिए फुकरे-3 के निर्देशक मृगदीप सिंह लांबा, जोरम के निर्देशक देवाशीष मखीजा, जेंगाबुरु कर्स के निर्देशक नील माधब पांडा, जनसंचार के प्रोफेसर आनंद प्रधान और फिल्मों पर लगातार लिखने वाले अजय ब्रह्मात्मज से बात की और इस नए ट्रेंड को समझने की कोशिश की।
पानी का एक टैंकर खड़ा है और सैकड़ों लोग उसे घेरे खड़े हैं। गुत्थम-गुत्था हुए जा रहे हैं। चीखने-चिल्लाने की आवाजें आ रही हैं। टैंकर के पेट में सैकड़ों पाइप घुसे हुए हैं। हर कोई पानी भरने को आतुर है। किसी तरीके से एक बाल्टी पानी मिल जाए। अचानक टैंकर का ड्राइवर कहता है अब पानी बंद। खीझ में लोग चिल्लाते हैं, क्यों बंद। लोग ड्राइवर से उलझ जाते हैं। ड्राइवर टैंकर लेकर भागने लगता है और लोग उसके पीछे दौड़ते हैं।
यह एक दृश्य आज के तमाम बड़े शहरों में पानी की किल्लत की कहानी बयान करता है। हालांकि यह मनोरंजन को ध्यान में रखकर बनाई गई फिल्म फुकरे 3 का एक दृश्य है। यह फिल्म 28 सितंबर, 2023 को देशभर में रिलीज हुई थी। दर्शकों को गुदगुदाने के उद्देश्य से बनाई गई इस फिल्म में दिल्ली में पानी की समस्या को बड़े परदे पर दिखाया गया है।
मनोरंजन प्रधान फिल्मों के लिए पहचान बना चुके हिन्दी सिनेमा में यह नया ट्रेंड है जब मार-धाड़, हसीन वादियों में नृत्य-संगीत की चाशनी वाली फिल्में पर्यावरण संबंधित मुद्दों को भी उठाने की कोशिश कर रही हैं।
बीते नवंबर को ओटीटी पर रिलीज हुई आर्चीज भी चर्चित रही। सुहाना खान, खुशी कपूर, अगस्त्य नंदा जैसे हिन्दी सिनेमा की बड़ी हस्तियों के परिवारों से जुड़े बच्चे इस सीरीज में अहम किरदार निभाते नजर आए। नाच-गाना और रोमांस के बीच, इस सीरीज में ये बच्चे एक पार्क को बचाने की लड़ाई लड़ते दिखे। इसी कड़ी में 2018 में आई केदारनाथ जैसी रोमांटिक फिल्म का नाम भी लिया जा सकता है जिसकी कहानी में 2013 में उत्तराखंड में आई भयानक बाढ़ भी शामिल थी।
इस श्रेणी में पिछले साल जनवरी में आई लकड़बग्घा फिल्म को भी रखा जा सकता है। एक्शन से भरपूर यह फिल्म इसलिए खास है, क्योंकि पूरी कहानी कुत्ते के ईद-गिर्द बुनी गई है और फिर फिल्म वन्यजीवों के अवैध व्यापार करने वाले रैकेट से लकड़बग्घे को बचाने पर खत्म होती है।
यही नहीं, 2022 में आई शेरदिल: द पीलीभीत सागा भी इस सिलसिले को आगे बढ़ाती है। गुदगुदाने वाली इस फिल्म में पंकज त्रिपाठी ने ऐसे सरपंच की भूमिका निभाई है जो मुआवजे के लिए बाघ से मरने के लिए जंगल जाता है। वहीं, 2021 में रिलीज हुई आखेट फिल्म का नायक बाघ का शिकार करके अपने पूर्वजों की तरह ही मशहूर होना चाहता है। यह फिल्म कुणाल सिंह की कहानी पर आधारित है।
जब मोंगाबे-हिन्दी ने इस संदर्भ में फुकरे-3 के निर्देशक मृगदीप सिंह लांबा की राय जाननी चाही तो उन्होंने कहा, “हमारा मकसद यही था कि दिल्ली में जो कुछ हो रहा है उसके बारे में मैसेज दिया जाए। जो सब लोगों के साथ घट रहा है उसको हाइलाइट किया जाए। अगर आप एंटरटेनमेंट के साथ मैसेज देना चाहेंगे, तो उसकी रीच (पहुंच) ज्यादा होगी।”
विशेषज्ञ मानते हैं कि आने वाले समय में यह ट्रेंड और प्रगाढ़ होता दिखेगा, क्योंकि पर्यावरण से संबंधित मुद्दे भी अब मुख्यधारा की समस्या बनते जा रहे हैं।
हालांकि, एक रिसर्च पेपर कहता है कि भारतीय फिल्में 1940 के दशक से ही प्रकृति, पर्यावरण और जलवायु को बड़े परदे पर दिखा रही हैं। इनमें मदर इंडिया, पाथेर पांचाली और 1971 की सबसे बड़ी कमर्शियल हिट राजेश खन्ना अभिनीत हाथी मेरे साथी जैसी सैकड़ों फिल्में शामिल हैं। हालांकि, तब इन फिल्मों को सामाजिक नजरिए से देखा जाता था।
गंभीर फिल्में समय से आगे
दरअसल, पिछले कुछ सालों में कई ऐसी गंभीर फिल्में आई हैं जिनमें बदलते पर्यावरण की विभीषिका को पर्दे पर उतारने की संजीदा कोशिशें हुई है। इनमें सूखे पर बनी कड़वी हवा, पानी की समस्या पर बनी कौन कितने पानी में, कारखानों से दूषित होते भूमिगत जल पर बनी इरादा, कच्छ में गंभीर जल संकट पर बनी जल, और मानव-वन्यजीव संघर्ष पर विद्या बालन की मुख्य भूमिका वाली शेरनी जैसी फिल्में शामिल हैं।
इसी कड़ी में पिछले महीने आठ दिसंबर को सिनेमाघरों में जोरम फिल्म भी रिलीज हुई। सदाबहार अभिनेता मनोज बाजपेयी के अभिनय से चर्चा में आई इस फिल्म में विकास के नाम पर प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ को गंभीरता के साथ फिल्माया गया गया है। फिल्म को बहुत अच्छे रिव्यू भी मिले हैं, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। जोरम जहां अपनी लागत भी नहीं निकाल पाई, वहीं इसी के आसपास रिलीज हुई एक्शन और मसाला मूवी एनिमल ने अपने बजट से ढाई गुना से ज्यादा कमाई की।
जोरम के निर्देशक देवाशीष मखीजा ने ऐसी फिल्में बनाने में आने वाली मुश्किलों पर मोंगाबे-हिन्दी से कहा, “ऐसा सालों से होता आ रहा है। ऐसी फिल्में देखने के लिए न ऑडियंस तैयार होती है, न कहीं बैठी होती है। हम ये फिल्म इसलिए बनाते हैं, क्योंकि हम बनाना चाहते हैं। जिन चीजों को लेकर गुस्सा है, जिन चीजों को लेकर बेसब्री है, अगर इन चीजों को मैं अपनी फिल्मों में न डालूं, तो शायद में अंदर से इतना बीमार हो जाऊं कि मैं मर जाऊं।” इनका कहना है कि दोनों – गंभीर और मनोरंजन प्रधान – फिल्में पर्यावरण संबंधित मुद्दों को जनता तक ले जाने में अहम भूमिका अदा कर सकती हैं।
अब अच्छी बात यह है कि ऐसी कहानियों को ओटीटी का साथ भी मिल रहा है। पिछले साल ओटीटी पर आई हिंदी की पहली क्लाइमेट-फिक्शन थ्रिलर सीरीज जेंगाबुरु कर्स इंसान और प्रकृति पर खनन के असर को दिखाती है।
पर्यावरण और सामाजिक विषयों पर 70 से ज्यादा फिल्में, डॉक्यूमेंट्री और शॉर्ट फिल्में बना चुके और इस सीरीज के निर्देशक नील माधब पांडा ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “क्लाइमेट चेंज से जुड़ी चीजें जब अखबार या डॉक्यूमेंट्री में आती हैं लोग उन्हें गंभीरता से नहीं लेते हैं। लोगों को लगता है कि हमारे साथ नहीं हो रहा है, किसी ओर से साथ हो रहा होगा, तो मुझे लगा कि जब हम क्लाइमेट-फिक्शन करेंगे तो बेहतर असर होगा।“
लेकिन, ऐसी कहानियों को बॉक्स ऑफिस पर सफलता नहीं मिलने के सवाल पर फिल्मों पर लगातार लिखने वाले अजय ब्रह्मात्मज मोंगाबे-हिंदी से कहते हैं, “सबसे बड़ी वजह बिजनेस है, क्योंकि क्लाइमेट चेंज पर फिल्म बनाने से बिजनेस नहीं होगा। जोरम जैसी फिल्म का उदाहरण हमारे सामने है। लेकिन आप चाहेंगे कि क्लाइमेट चेंज पर कोई एक पूरी फिल्म प्लान कर दे, तो उसके लिए धुरंधर लेखक होना चाहिए जो दिलचस्प तरीके से मैसेज दे सके। ऐसी स्थिति अभी तक बनी नहीं है और कोई भी निर्माता उसमें इन्वेस्ट करने के लिए तैयार नहीं है।”
वैसे, पर्यावरण के क्षेत्र में कई बेहतरीन डॉक्यूमेंट्री भी बन रही हैं। इनमें द एलिफेंट व्हिस्पर्स ने पिछले साल एकेडमी अवार्ड जीत कर इतिहास रच दिया। लेकिन, जानकारों का मानना है कि डॉक्यूमेंट्री की पहुंच फिल्म फेस्टिवल और खास आयोजनों तक ही होती है। पांडा भी कहते हैं कि डॉक्यूमेंट्री को एक फीसदी से भी कम लोग देखते हैं और जब कोई देखेगा नहीं, तो असर क्या होगा?
पर्यावरण और फिल्मों की भूमिका
जलवायु परिवर्तन की तीव्रता के साथ लोगों की समस्याएं भी बढ़ रही है। एक हालिया अध्ययन के मुताबिक, साल 2023 के पहले नौ महीनों में भारत में लगभग हर दिन किसी न किसी हिस्से में चरम मौसमी घटनाएं हुई। इनमें गलाने वाली ठंड और लू से लेकर तूफान और भीषण बारिश, बाढ़ व जमीन घंसना शामिल था। इन घटनाओं ने करीब तीन हजार लोगों की जान ले ली। विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे में इन मुद्दों को किसी के लिए भी नजरअंदाज करना मुश्किल होगा।
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इस विकट स्थिति में, जनसंचार का सबसे असरदार माध्यम यानी फिल्में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर समाज में गहरे प्रभाव छोड़ सकती हैं। दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान में प्रोफेसर डॉ आनंद प्रधान ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “जन माध्यमों में सिनेमा सबसे ताकतवर माध्यम है जो कहानियों के जरिए हल्के-फुल्के तरीके से सीधे दिल पर असर करता है, जटिल बातों को भी आसान बना देता है। कहानियों में बड़ी ताकत होती है। फ़िल्में लोगों को अपनी कहानियों से जोड़ती हैं, उसके लोकप्रिय नायक और नायिकाएं प्रभावी एक्टिंग से लोगों को पर्यावरण में हो रहे बदलावों और उसकी जटिलताओं को लेकर जागरूक कर सकती हैं।“
लेकिन, एक बात अक्सर उठती है कि पर्यावरण या क्लाइमेट चेंज से जुड़े मुद्दों पर इन फिल्मों का कितना असर होता है। भारतीय संदर्भ में ऐसा कोई अध्ययन नहीं हुआ है। विदेशों में भी कुछ ही अध्ययन हुए हैं और इनके नतीजे मिले-जुले हैं। ये अध्ययन चार मुख्य क्षेत्रों – पर्यावरण से जुड़े मुद्दों की जानकारी, उनसे जुड़ी चिंताएं, असर और व्यवहार – पर हुए हैं।
उदाहरण के लिए, साल 2010 में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि अलगोर की फिल्म एन इनकन्वेनिएंट ट्रूथ देखने के बाद ऑडियंस के बीच जलवायु परिवर्तन के बारे में जानकारी और उससे जुड़ी चिंता में इजाफा हुआ। वहीं, साल 2020 में हुए एक और अध्ययन में पाया कि जलवायु परिवर्तन को संदेह की नजर से देखने वालों में भी फिल्में देखने के बाद पर्यावरण से जुड़ी चिंताएं बढ़ सकती हैं। लेकिन ब्लू प्लेनेट फिल्म को लेकर 2017 में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि इससे लोगों के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया।
दूसरी तरफ, एक रिसर्च में साल 2016 से 2020 के बीच करीब मनोरंजन से जुड़ी 37,453स्क्रिप्ट और फिल्मों को देखा गया। इसमें पाया गया कि इनमें से महज 2.8% में ही जलवायु परिवर्तन का जिक्र था। रिपोर्ट में लिखा गया कि जो फिल्में क्लाइमेट को मान्यता नहीं देगी उन पर असलियत को अनदेखा करने और अप्रासंगिक होने का खतरा होगा।
वहीं, जॉर्ज वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में लेखन के असिस्टेंट प्रोफेसर माइकल स्वोबोडो का मानना है कि, “ज्यादातर क्लाइमेट-फिक्शन फिल्में निराशाजनक कहानियां बताती हैं। इनमें बाढ़ और हिमयुग से लेकर तूफान और समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी तक सभी प्रकार की आपदाएं शामिल हैं। लेकिन जीवाश्म-ईंधन उद्योग की कोई बात नहीं है। दिक्कत यह है कि व्यूअर दुनिया के खत्म होने की कहानियां देखकर बोर हो गए हैं। बार-बार बताई गई विनाश की ये कहानियां कार्रवाई करने को प्रोत्साहित नहीं करतीं हैं।“
हालांकि, कुछ जानकारों के मुताबिक लोगों को लगता है कि जलवायु परिवर्तन इतना जटिल मुद्दा है कि इसमें निजी कोशिशों से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इसलिए, फिल्मकारों को ये बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वे किस तरह फिल्मों के जरिए निजी कोशिशों को बढ़ावा दे सकते हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि भारतीय फिल्मों के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि सॉफ्ट पावर के रूप में पूरी दुनिया में उसकी पहचान है। अगर भारतीय फिल्म इंडस्ट्री पर्यावरण और क्लाइमेट चेंज को मुख्यधारा में शामिल करती है, तो भारत का सॉफ्ट पावर और मजबूत ही होगा।
बैनर तस्वीरः फुकरे-3 फिल्म का एक दृश्य जिसमें लोग टैंकर से पानी भरने के लिए गुत्म-गुत्था हो रहे हैं। तस्वीर साभार- एक्सेल इंटरटेनमेंट