- ज्यादातर राज्य मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट से प्रभावित हैं। सबसे खराब स्थिति पंजाब, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की है। खराब हो चुकी मिट्टी को बहाल करने में दशकों लग जाते हैं।
- टिकाऊ कृषि, कचरे का वैज्ञानिक तरीके से निपटान, पुनर्वनीकरण और प्रदूषण कानूनों का सख्ती से पालन जैसे उपाय इसके संभावित समाधान हैं।
- जब तक इस समस्या निपटने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं होगी, तब तक स्थिति में कोई सुधार आने वाला नहीं है।
- कमेंट्री में विचार लेखक के अपने हैं।
दुनिया में अग्रणी बनने के अपने सपने के साथ भारत आगे बढ़ रहा है। लेकिन कृषि जगत के कुछ जरूरी मुद्दों पर उसका ध्यान बेहद कम है। इन्हीं में से एक है मिट्टी के बड़े पैमाने पर हो रहा क्षरण। पर यह एक गंभीर मसला है क्योंकि भारत एक कृषि अर्थव्यवस्था है। अगर मिट्टी की सेहत में सुधार के लिए कदम नहीं उठाए गए, तो इससे खाद्य सुरक्षा और लाखों लोगों की आजीविका पर असर पड़ने वाले विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं।
राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो की मानें तो भारत में 146.8 मिलियन हेक्टेयर यानी लगभग 30 फीसदी मिट्टी खराब गुणवत्ता वाली है। इसमें से लगभग 29% समुद्र में समा जाती है, जबकि 61% मिट्टी एक जगह से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित हो जाती है और 10% जलाशयों में जमा हो जाती है।
लेकिन मजेदार तथ्य यह है कि बड़े पैमाने पर मिट्टी के क्षरण के बावजूद खाद्य उत्पादन लगातार बढ़ रहा है और इसकी वजह है तकनीक। अब भारत कृषि उपज का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। भले ही आज देश खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर है, लेकिन अगर मिट्टी की गुणवत्ता यूं ही खराब होती रही तो आने वाले सालों में देश को खाद्य आयात करना पड़ सकता है। खास तौर पर यह देखते हुए कि दुनिया के केवल 2.4% भूमि क्षेत्र के साथ भारत के पास भोजन करने के लिए दुनिया की 18% आबादी है।
भारत एक कृषि अर्थव्यवस्था है, इसलिए यह वैश्विक मंदी के रुझान से बच गया। इससे ही नीति-निर्माताओं को पता चल जाना चाहिए कि देश के लिए मिट्टी कितनी महत्वपूर्ण है।
मिट्टी की खराब गुणवत्ता से अर्थव्यवस्था, पर्यावरण, खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य पर खासा असर पड़ता है। समस्या से निपटने के लिए तत्काल नीतिगत हस्तक्षेप, शमन में जनता की भागीदारी और तकनीकी, नियामक और शैक्षिक पहल के संयोजन की जरूरत है।
हालांकि सरकार ने कुछ कदम उठाए हैं और किसानों के लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड जैसी योजनाएं शुरू की हैं। लेकिन इससे जितनी मदद उन्हें मदद मिलनी चाहिए थी, उतनी मिल नहीं पा रही है। इसकी बड़ी वजह जागरूकता की कमी है। ज्यादातर किसानों को या तो इसके बारे में पता नहीं है या फिर उन्होंने कभी इसका लाभ नहीं उठाया है। इस योजना के जरिए किसान बिना कोई पैसा खर्च किए अपनी मिट्टी की जांच करा सकते हैं और पता लगा सकते हैं कि आखिर मिट्टी में क्या कमी है। इस योजना में तेजी लानी होगी क्योंकि यह हमें सही रणनीति बनाने के लिए महत्वपूर्ण डेटा दे सकती है।
मिट्टी की गुणवत्ता में कैसे आती है गिरावट?
भारत ने बड़े पैमाने पर हरित क्रांति का जश्न मनाया। इसकी वजह से चावल और गेहूं के उत्पादन में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई, साथ ही दालें और सब्जियों की पैदावर भी काफी बढ़ गई। लेकिन हमने इस बात को नजरअंदाज कर दिया कि ये हमारी जमीन को कितना नुकसान पहुंच रहा है। रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल ने हमारे खेतों और फसलों को जहरीला बना दिया। मिट्टी ने अपने प्राकृतिक पोषक तत्व खो दिए और वह जहरीली और दूषित हो गई। अतिरिक्त उर्वरकों से मिट्टी में नाइट्रेट बढ़ गया। अत्यधिक खेती के कारण जल स्तर गिर गया। बोरवेल हर साल गहरे, और गहरे होते चले गए। राजनीतिक फायदे के लिए ज्यादातर राज्यों ने किसानों को मुफ्त पानी उपलब्ध कराया। इसकी वजह से अंधाधुंध तरीके से सिंचाई हुई और बहुमूल्य जल संसाधनों की कमी होती चली गई।
2020 में विश्व खाद्य पुरस्कार से सम्मानित ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी में सॉयल साइंस (मृदा विज्ञान) के प्रोफेसर रतन लाल ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, ” भले ही हरित क्रांति ने खाद्य उत्पादन को 50 मिलियन टन से बढ़ाकर 300 मिलियन टन कर दिया, लेकिन इसके बाद से मिट्टी की गुणवत्ता कम होती चली गई।”
20वीं सदी के बाद से खनन, वनों की कटाई, मवेशियों द्वारा ज्यादा चराई, मोनोकल्चर खेती, अत्यधिक जुताई और रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल जैसे मानव निर्मित कारकों के कारण मिट्टी का तेजी से क्षरण हुआ है।
वहीं दूसरी तरफ भारत कीटनाशकों का सबसे बड़ा उत्पादक और उपयोगकर्ता है। कीटनाशकों के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल की वजह से भारत में लाखों हेक्टेयर मिट्टी खराब हो गई है। रतन लाल कहते हैं, “एक स्वस्थ मिट्टी पौधों को बीमारियों और कीटों से बचा कर रखती है। इससे पौधों को अधिक प्रतिरक्षा विकसित करने में मदद मिलती है, जिससे कीटनाशकों की जरूरत नहीं होगी।”
बढ़ते शहरीकरण, विकास परियोजनाओं और जनसंख्या वृद्धि ने भी मिट्टी की गुणवत्ता खराब करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अनुपचारित सीवेज और औद्योगिक अपशिष्ट को नदियों में छोड़ा जाता है और फिर इन्हीं नदियों के पानी से खेतों की सिंचाई की जाती है। भारी धातुओं वाले जहरीले पानी ने मिट्टी को और भी खराब कर दिया है। रही सही कसर सूखा, भूस्खलन और बाढ़ जैसे प्राकृतिक कारकों ने पूरी कर दी।
कृषि वैज्ञानिक चयन मंडल (एएसआरबी) के सदस्य और राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण और भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो के पूर्व निदेशक ब्रह्मा एस. द्विवेदी ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “हम तकनीक के दुरुपयोग और मानव आबादी की बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए बेतरतीब तरीके से की जाने वाली खेती की वजह से होने वाले मिट्टी के नुकसान को रोक सकते हैं। हमें अपनी जमीन का समझदारी के साथ इस्तेमाल करना होगा। हमें पानी का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल, कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों को कम करना होगा, भारी उपकरणों से जुताई भी रोकनी होगी। मिट्टी की परत बनने में सदियां लग जाती हैं। पचास के दशक में हम मिट्टी को समृद्ध करने के लिए 16% जैविक पोषक तत्वों का इस्तेमाल करते थे, जबकि 84% हिस्सा रासायनिक उर्वरकों का रहता था। लेकिन स्थिति और बदतर हो गई है। मौजूदा समय में 94% पोषक तत्व रासायनिक उर्वरकों से और सिर्फ 7% जैविक स्रोतों से आते हैं। अनाज हमारे लिए होता है और बचे हुए अवशेष वापस मिट्टी में जोत देने के लिए होते हैं।”
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में निदेशक अशोक के. सिंह बताते हैं, ”बेतहाशा रासायनिक उर्वरक के कारण हमारी मिट्टी में कार्बन का स्तर कम हो गया है। हमें टिकाऊ कृषि के लिए मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैविक स्वास्थ्य को बहाल करने की जरूरत है।
ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के लाल ने कहा, “मिट्टी की सेहत में सुधार लाने के लिए बायोमास को मिट्टी में वापस करना होगा। हमें वैज्ञानिक तरीकों को प्रभावी तरीकों से अमल में लाना होगा, जहां पर्यावरणीय गुणवत्ता को बहाल करने पर ध्यान दिया जाए, न कि रासायनिक उर्वरकों के साथ उत्पादन बढ़ाने पर।”
खनन से भी मिट्टी की सेहत में गिरावट आती है। गुरुग्राम में ख़राब खदानों को बहाल करने की कोशिशों में लगे कार्यकर्ता विजय धस्माना कहते हैं, “ खुले मैदान (ओपनकास्ट) में खनन के विनाशकारी प्रभाव इस बात को रेखांकित करते हैं कि यह कितनी तेजी से भूमि की गुणवत्ता को खराब करता है। यह जल स्तर को बिगाड़ता है, मिट्टी को दूषित करता है, वनस्पतियों और जीवों को नष्ट करता है। अक्सर उत्पादित कचरे का वैज्ञानिक तरीके से निपटान नहीं किया जाता है।”
बढ़ते औद्योगीकरण की वजह से कई राज्य प्रदूषण कानून लागू नहीं करते हैं। उद्योग जहरीला अपशिष्ट खेतों में डालने के लिए कई बार किसानों से इतनी अधिक दर पर खेत लेते हैं कि किसान उतना एक वर्ष में अपनी जमीन से प्राप्त नहीं कर सकता है।
आगे का रास्ता
कर्नाटक के नेट्रानहल्ली में एक अध्ययन में पाया गया कि भूजल स्तर में सुधार, वाटर रिजनरेशन, फसल और भूमि उपयोग के पैटर्न में बदलाव करने और मिट्टी के संरक्षण और प्रबंधन में समुदायों को शामिल करके मिट्टी के क्षरण को कम किया जा सकता है। लोगों को एकजुट और समझाए बिना मृदा संरक्षण संभव नहीं होगा। लाल बताते हैं, “भारत के पास एक मजबूत वैज्ञानिक संस्कृति है जो मिट्टी, पानी और हवा की गुणवत्ता को बहाल कर सकती है। लेकिन ऐसा होने के लिए एक मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति होनी जरूरी है। नीतियों को मिट्टी की सेहत बहाल करने वालों को मुआवजा और पुरस्कृत करने की दिशा में काम करना चाहिए।
एएसआरबी के द्विवेदी ने कहा कि मिट्टी में जस्ता, सल्फर, मैंगनीज, लोहा और तांबे जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी पचास साल पहले नहीं थी। लेकिन अब यह कमी साफ-साफ नजर आने लगी है, जो मिट्टी के क्षरण का संकेत है। अगर इन सूक्ष्म पोषक तत्वों को मिट्टी में बहाल करने का काम किया जाए, तो खेती की लागत बढ़ जाती है। जब तक किसानों को मदद नहीं मिलेगी, मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने का आंदोलन नहीं चल पाएगा।
दरअसल भारत में ज्यादातर किसानों के पास छोटी जोत है। गरीबी से जूझते हुए वे साल भर भूख से बचने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, लेकिन उनके हाथ में ज्यादा कुछ नहीं आ पाता है। कृषि बड़ी तेजी से एक अनाकर्षक प्रस्ताव बनती जा रही है। कई छोटे किसान खेती छोड़ शहरी भारत में दिहाड़ी मजदूरी करने के लिए जा रहे हैं। अगर उन्हें मृदा संरक्षण कार्यक्रमों में शामिल करना है तो सरकारी सहायता देनी होगी। मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारक है।
पिछले 50 सालों में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के प्रयोगों से पता चला है कि लंबे समय तक उर्वरक का संतुलित उपयोग बेहतर परिणाम देता है। उर्वरकों के संतुलित इस्तेमाल की वजह से लंबे समय तक मिट्टी खराब नहीं हुई और पैदावार भी बढ़ गई। इसके अलावा, सिर्फ रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करने की तुलना में जैविक और अकार्बनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करना बेहतर रहता है।
ख़राब होती मिट्टी की जटिल समस्या का कोई आसान समाधान नहीं है। लेकिन ऐसे कई तरीके हैं जो खेती की जमीन को फिर से सेहतमंद बनाने में मदद कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, लघु डैम की मदद से एकीकृत वाटरशेड प्रबंधन, सीढ़ीदार खेत और समोच्च खेती करना। इसके अलावा उन फसलों में कटौती करना जिन्हें बहुत अधिक पानी की जरूरत होती है, मानसून के दौरान मिट्टी के बहाव को रोकने के लिए बांध बनाना और कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों का कम से कम इस्तेमाल करना जैसे उपाय शामिल हैं।
गांवों में घास, गोबर, घरेलू सब्जियों का कचरा, खरपतवार और फसल के अवशेष जैसे सड़ने वाले कचरे के कई विकल्प हैं, जिनसे गरीब किसानों के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले उर्वरक तैयार किए जा सकते हैं। सरकार की थोड़ी सी मदद के जरिए ग्रामीण समुदाय इस ओर अपने कदम बढ़ा सकते हैं। और सबसे बड़ी बात, इससे गांवों में फैले कूड़े-कचरे से भी निजात मिल जाएगी।
इसके अलावा कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) भी मिट्टी के क्षरण को रोकने में मदद कर सकती है। फसल के नुकसान के कारण किसानों द्वारा आत्महत्याएं बढ़ रही हैं, इसे देखते हुए चेन्नई के वेल्लोर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के दो छात्रों ने थर्मल इमेजिंग के जरिए फसल पर लगने वाले कीटों का पता लगाने के लिए एआई का इस्तेमाल किया। ‘किसान नो’ के नाम से लेबल की गई इस तकनीक को अपनाना काफी सस्ता है।
कीटनाशक भारतीय मिट्टी के एक बड़े हिस्से को खराब कर देते हैं। भारत में लगभग 58 लाख कपास किसान हैं, जिनमें से अधिकांश के पास छोटी जोत है। वे कीटनाशक खरीदने के लिए कर्ज लेते हैं। लेकिन उन्हें ये नहीं पता होता कि उसका कितना इस्तेमाल करना है। वे इसका अत्यधिक इस्तेमाल करते हैं, यह सोचकर कि इससे कीट जल्दी खत्म हो जाएंगे। छिड़काव किए गए कीटनाशकों का लगभग 2% ही पौधे पर गिरता है, जबकि बाकि मिट्टी पर गिरता है। इसकी वजह से मिट्टी के प्राकृतिक पोषक तत्व और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए जरूरी कीड़े नष्ट हो जाते हैं।
और पढ़ेंः अब तीसरी फसल के लिए भी पराली जला रहे किसान, मिट्टी के लिए बड़ा खतरा
किसानों को उनकी फसलों की सुरक्षा में मदद के लिए एआई-संचालित प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली भी उपलब्ध है। एआई एल्गोरिदम एक दिन में जाल में पकड़े गए कीटों की पहचान करता है और उनकी गिनती करता है। इसके बाद यह संक्रमण की सीमा निर्धारित करता है और किसान को स्प्रे करने या न करने की सलाह देता है। यह जानकारी उन किसानों के साथ साझा की जा सकती है जिनके पास स्मार्टफोन नहीं है।
वैसे देखा जाए, तो भारत में 10,000 से ज्यादा सॉयल टेस्टिंग लेब हैं। लेकिन जागरूकता नहीं होने के कारण किसान इनका भी उतना इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं जितना करना चाहिए। मिट्टी की जांच के लिए उन्हें कोई पैसा नहीं देना पड़ता है। इसका खर्च सरकार उठाती है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा तैयार किए गए मृदा परीक्षण और उर्वरक अनुशंसा मीटर अब व्यावसायिक रूप से भी उपलब्ध हैं। इन्हें ग्राम पंचायतें किसानों को मिट्टी का जांच करने में मदद करने के लिए आसानी से खरीद सकती हैं।
पर्यावरणविद् और खाद्य कार्यकर्ता वंदना शिवा ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “हमारे गांव पारिस्थितिक, पुनर्योजी और जैविक कृषि की ओर लौटें, हमें यह सुनिश्चित करना होगा। मिट्टी की गुणवत्ता को रोकने का यही एकमात्र तरीका है। हमें इस पागलपन भरे शहरीकरण को उलटना होगा और मिट्टी को अपनी सोच के केंद्र में रखना होगा।”
उन्होंने वेदों का हवाला देते हुए कहा, ”इस मुट्ठी भर मिट्टी में आपका भविष्य है। इसका ख्याल रखना; यह आपका ख्याल रखेगी। अगर इसे नष्ट करोगे, तो यह तुम्हें नष्ट कर देगी।”
लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार और सिम्बायोसिस इंस्टीट्यूट ऑफ मीडिया एंड कम्युनिकेशन, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं।
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीर: जंगलों को कानूनी और गैर-कानूनी दोनों तरह से काटा जा रहा है, जिसकी वजह से मिट्टी का क्षरण हो रहा है। बारिश और बाढ़ में मिट्टी बह जाती है। तस्वीर- रमेश मेनन