- त्रिपुरा में बांस कारीगरों के उत्पादों की मांग बढ़ रही है। अपने राज्य के अलावा दूसरे बाजारों तक उनकी पहुंच बढ़ी है। इससे कारोबार और कमाई बढ़ी है।
- शिल्पकर्मन नाम के संगठन ने स्थानीय साझेदारों, क्लस्टर प्रमुखों और समुदाय के सदस्यों के साथ मिलकर ग्रामीण त्रिपुरा में वैल्यू चेन सिस्टम बनाया है।
- भारत में बांस प्रचुर मात्रा में होता है। दस लाख से ज्यादा लोग अपनी आजीविका के लिए इस पर निर्भर हैं। इसके बावजूद, बांस आधारित अर्थव्यवस्था में फिर से जान फूंकने की सरकार की कोशिशों को असरदार मार्केट लिंकेज बनाने में लगातार चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
ज्योत्सना देवनाथ का छोटी उम्र में पश्चिम त्रिपुरा के ब्रज नगर में नया सफर शुरू हुआ। यहां उनकी शादी हुई और वह एक ऐसे परिवार का हिस्सा बन गईं, जो बांस के उत्पाद बनाकर अपनी आजीविका चलाने के लिए जाना जाता था। उनके पति राजकुमार देवनाथ ने उन्हें कारोबार के कौशल में प्रशिक्षित किया। यानी बांस खरीदने से लेकर उत्पाद बनाने और इन्हें स्थानीय बाजार में बेचने तक।
बांस प्रमुख गैर-लकड़ी वन संसाधन है। त्रिपुरा में इसका इस्तेमाल आदिवासी और ग्रामीण समुदाय बड़े पैमाने पर करते हैं। लगभग 1.49 लाख कारीगर इस अनोखी घास से कई उत्पाद बनाने में सक्रिय रूप से शामिल हैं।
ज्योत्सना पिछले 35 सालों से बांस के अलग-अलग कलात्मक उत्पाद तैयार कर रही हैं। पिछले सात से आठ सालों में, उन्होंने देखा है कि उनके गृह राज्य के अलावा अन्य लोगों की भी बांस के उत्पादों में दिलचस्पी बहुत बढ़ी है। बढ़ती मांग ने उनके कारोबार को बढ़ा दिया है। “मैंने कर्मचारियों की संख्या चार से बढ़ाकर नौ कर दी है। ये लोग रोजाना सुबह 11 बजे से शाम 4 बजे तक काम करते हैं। पहले, हम कच्चे माल के रूप में एक महीने में मुश्किल से 150-200 बांस का इस्तेमाल कर पाते थे। अब, हम लगभग 300 बांसों का इस्तेमाल कर लेते हैं। हम इनसे चटाई और आभूषण के बक्से जैसे उत्पाद बनाते हैं।
वह ऑर्डर में बढ़ोतरी का श्रेय त्रिपुरा के बाहर स्थित थोक खरीदारों को देती हैं। जैसे कि नई दिल्ली स्थित शिल्पकर्मन। इस संगठन का मालिकाना हक टाड उद्योग प्राइवेट लिमिटेड के पास है। यह बिजनेस-टू-कंज़्यूमर संगठन है जो सीधे कारीगरों के साथ काम करता है।
नए तरह का वैल्यू चेन
दरअसल, शिल्पकर्मन बांस से बने उत्पादों का ब्रांड है। इसने त्रिपुरा में वैल्यू चेन खड़ा किया है जहां यह कारीगरों के साथ बांस-आधारित उत्पादों को डिजाइन करने और उन्हें बेचने के लिए काम करता है। इस तरह, बिचौलिये की भूमिका खत्म हो जाती है जो उत्पादों की मांग और कीमत में अनिश्चितता बढ़ाती है। संगठन राज्य में स्थानीय कारीगरों से बांस आधारित उत्पाद खरीदता है और उन्हें देश भर के शहरों और विदेशों में ग्राहकों को आपूर्ति करता है।
संगठन की संस्थापक अक्षया श्री का दावा है कि इस ग्रामीण वैल्यू चेन की स्थापना का उद्देश्य स्थानीय कारीगरों के लिए आय का स्थिर जरिया और काम के बेहतर अवसर पैदा करना है।
इस वैल्यू-चेन सिस्टम में कारीगर सामग्री की सोर्सिंग और उत्पादन करते हैं। कारीगर क्लस्टर प्रमुखों के अधीन काम करते हैं। वे खुद भी कारीगर हैं। मसलन, ज्योत्सना मोहनपुर क्लस्टर की क्लस्टर प्रमुख हैं। यहां कारीगर बांस की चटाई और परदे बनाते हैं। इसी तरह, चार अन्य क्लस्टर हैं जिनमें एक क्लस्टर प्रमुख और स्थानीय कारीगर अलग-अलग उत्पाद तैयार करने के लिए काम करते हैं। जैसे कि उदयपुर क्लस्टर बांस के मग, टर्निंग और घरेलू सजावट में माहिर है।
सभी क्लस्टर प्रमुख शिल्पकर्मन के स्थानीय पार्टनर तन्मय मजूमदार से जुड़े हुए हैं, जो राज्य की राजधानी अगरतला से काम करते हैं। मजूमदार का दावा है कि इस संरचना को बेहतर तरीके से चलाने और किसी भी बिचौलिये से बचने की योजना बनाने में उन्हें लगभग डेढ़ साल लग गए, जिसका इस्तेमाल पहले कारीगरों और उपभोक्ताओं के बीच लेन-देन को सुविधाजनक बनाने के लिए किया जा रहा था।
इस पूरी संरचना को उत्पाद का पता लगाने की क्षमता पक्की करने, खास उत्पादों के लिए जिम्मेदार समूहों या कारीगरों के साथ आसानी से बातचीत की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए डिजाइन किया गया है। अक्षया श्री ने दावा किया कि गुणवत्ता या डिजाइन में सुधार के मामले में किसी भी उत्पाद में वैल्यू जोड़ने की मांग करते समय यह मॉडल फायदेमंद साबित होता है।
राज्य में बांस पर आधारित अर्थव्यवस्था के लिए वैल्यू चेन खड़ा करना चुनौती है। नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च की प्रोफेसर बोर्नली भंडारी अपने क्षेत्र के अनुभव से सीखते हुए, कारीगरों के सामने आने वाली चुनौतियों को रेखांकित करती हैं। इसमें सीमित बाजार कनेक्टिविटी, दूरदराज वाली जगहों के चलते समय पर उत्पाद पहुंचाने में दिक्कत और लगातार ऑर्डर नहीं मिलना शामिल है।
अक्षया श्री का दावा है कि शिल्पकर्मन का वैल्यू चेन मॉडल इन चुनौतियों से निपटने के लिए डिजाइन किया गया है और यह अभी भी विकसित हो रहा है।
शिल्पकर्मन को अहमदाबाद में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन में स्थित नेशनल डिजाइन बिजनेस इनक्यूबेटर (एनडीबीआई) में इनक्यूबेट किया गया है। एनडीबीआई में कार्यक्रम प्रबंधक कृतिका चेतिया के अनुसार, शिल्पकर्मन अपने इनोवेशन के लिए जाना जाता है। खास तौर पर, उन्होंने एक बिचौलिये की भागीदारी को खत्म कर दिया है। यह ऐसी सामान्य परिपाटी है जिसके चलते अक्सर बिचौलियों के बीच लाभ के बंटवारे के कारण कारीगरों को न्यूनतम फायदा होता है। इस मॉडल में, कारीगरों को उनके मुनाफे के शोषण से बचाया जाता है। संगठन ने त्रिपुरा में 250 से ज्यादा कारीगरों को सफलतापूर्वक आजीविका उपलब्ध कराई है। चेतिया ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि असरदार क्लस्टर प्रबंधन इस उद्योग में महत्वपूर्ण चुनौती है और शिल्पकर्मन को इन क्लस्टरों को कुशलतापूर्वक बेहतर तरीके से चलाने, मैनेज करने आगे बढ़ाते हुए देखना सराहनीय है।
अक्षया श्री 2022 में नीति आयोग की ओर से सम्मानित 75 महिलाओं में से एक थीं। क्योंकि “ताड उद्योग (शिल्पकर्मन) एक स्थायी ग्रामीण अर्थव्यवस्था वैल्यू चेन प्रणाली बना रहा है जो बांस उगाने वाले क्षेत्रों में समुदायों को सशक्त बनाता है और ग्राहकों को उत्पाद के स्थायी विकल्प उपलब्ध कराता है।”
डिजाइन है जरूरी
तन्मय मजूमदार ने 2016 में त्रिपुरा बांस मिशन (टीबीएम) के साथ मार्केटिंग के पद से इस्तीफा दे दिया था। वे इस वैल्यू चेन में उत्पाद डिजाइन की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते हैं। शिल्पकर्मन उत्पाद डिजाइनों को बेहतर बनाने में सक्रिय रूप से शामिल है और कलाकारों को उनकी कला को बढ़ाने के लिए प्रशिक्षित करता है। अक्षया श्री नए तरह के बांस उत्पादों पर बात करती हैं, क्योंकि 2017 तक उनमें मुख्य रूप से पारंपरिक वस्तुएं शामिल थीं, ना कि मॉल में पाए जाने वाली या अंतरराष्ट्रीय बाजारों में निर्यात की जाने वाली महंगी वस्तुएं। इन उत्पादों की सीमाओं को पहचानते हुए, संगठन ने 2018 में डिज़ाइन-केंद्रित दृष्टिकोण अपनाया, जिसका लक्ष्य उनकी उत्पादों को बेहतर तरीके से बनाने और सौंदर्य अपील को बढ़ाना है। उनका दावा है कि संगठन के पास इन-हाउस जानकार हैं जो नई डिजाइनों पर काम कर रहे हैं।
ज्योत्सना देवनाथ इस दृष्टिकोण से सहमत हैं। उन्होंने बताया कि उनका परिवार मुख्य रूप से चटाई बनाने का काम करता था। अलग-अलग तरह के उत्पाद बनाने की जरूरत को पहचानते हुए, उन्होंने टीबीएम के मार्गदर्शन से आभूषण बक्से को फैशनेबल बनाने का कौशल हासिल किया। आकर्षक उत्पाद बनाने के लिए नए रंगों को शामिल करने की जानकारी का श्रेय वह शिल्पकर्मन की ओर से दिए गए प्रशिक्षण को देती हैं।
हालांकि, अभी भी बांस के आसपास इस तरह की पहल शुरुआती चरण में है जो किसानों के लिए भी फायदेमंद है। पश्चिम त्रिपुरा जिले के बद्रामोनी पारा के एक किसान किशोर देबबर्मा का दावा है कि उन्होंने 2023 में तन्मय मजूमदार को लगभग 70,000 बांस बेचे हैं। उन्होंने छह एकड़ जमीन पर बांस लगाया है। उनका दावा है कि उनके गांव में 80 प्रतिशत ग्रामीण बांस की खेती करते हैं। जब उनसे पूछा गया कि एक किसान के रूप में शिल्पकर्मन उनकी किस तरह मदद कर रहा है, तो उन्होंने कहा कि पूरे बाजार में सुधार हो रहा है और संगठन से ऑर्डर इसमें जुड़ रहा है।
कारीगरों के साथ बांस आधारित आजीविका के लिए समर्पित केरल स्थित संगठन उरावु से जुड़े सी. सुरेंद्रनाथ इनोवेटिव डिजाइन के मूल्य को रेखांकित करते हैं। वह बांस उत्पादों के पारंपरिक बाजार में गिरावट देखते हैं, क्योंकि इनकी जगह प्लास्टिक जैसे सस्ते विकल्पों से बन रही चीजें ले रही हैं। उन्होंने उरावू के अनुभव से इनसाइट साझा करते हुए कहा कि उन्होंने पारंपरिक बांस उत्पादों जैसे चटाई आदि के घटते बाजार को महसूस करते हुए सजावटी सामग्री जैसे नए उत्पादों को डिजाइन करने का साहस किया। उरावू वायनाड जिले में काम करता है, जो टिकाऊ समाधानों के जरिए ग्रामीण सशक्तिकरण पर जोर देता है।
आगे का रास्ता लंबा
भारत में बांस के तहत सबसे ज्यादा रकबा (13.96 मिलियन हेक्टेयर) है। 136 प्रजातियों (125 स्वदेशी और 11 विदेशी) के साथ, बांस विविधता के मामले में यह चीन के बाद दूसरा सबसे अमीर देश है। ऐसे अध्ययन हैं जो इस बात पर रोशनी डालते हैं कि भारत में बांस के ज्यादातर संसाधनों का कम इस्तेमाल किया जाता है। 2020 में फॉरेस्ट पॉलिसी एंड इकोनॉमिक्स में प्रकाशित पेपर में कहा गया है, “बांस के पारंपरिक थोक बाजार जैसे कागज, आवास इत्यादि को बड़े पैमाने पर प्रतिस्थापित कर दिया गया है और नए थोक बाजार बने नहीं हैं जिसके चलते मांग कम हो गई है।” अध्ययन में रेखांकित किया गया कि 80% से ज्यादा वन बांस संसाधन का इस्तेमाल नहीं हो रहा है।
साथ ही, लगभग बीस लाख पारंपरिक कारीगर की आजीविका बांस से चलती है। इनमें कटाई और प्रसंस्करण से लेकर बांस के उत्पादों जैसे टोकरियां, चटाई, हस्तशिल्प और अन्य चीजों बिक्री की गतिविधियों पर निर्भर है।
भारत सरकार कम से कम तीन दशकों से बांस आधारित अर्थव्यवस्था बनाने की कोशिश कर रही है। यह उम्मीद करते हुए कि इससे खेती से जुड़ी आय बढ़ेगी, जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लचीलापन लाने में मदद मिलेगी और उद्योगों की बेहतर कच्चे माल की जरूरतें पूरी होंगी। दरअसल, बांस तेजी से बढ़ता है। साथ ही, कई प्रकार के पेड़ों की तुलना में तेजी से पक जाता है। ऐसे में अगर इसे लकड़ी के विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, तो बांस अन्य वन संसाधनों पर दबाव कम कर सकता है। इससे वनों की कटाई कम हो सकती है। इसके अलावा, तेजी से विकास और कटाई के बाद पर्याप्त सालाना वृद्धि के साथ, बांस के जंगलों में महत्वपूर्ण कार्बन स्टॉक की क्षमता होती है। केरल वन अनुसंधान संस्थान के रिसर्च में कहा गया है कि औसतन एक हेक्टेयर बांस सालाना लगभग 17 टन कार्बन सोखता करता है।
केरल वन अनुसंधान संस्थान की पूर्व मुख्य वैज्ञानिक और राष्ट्रीय बांस मिशन के तहत दक्षिण क्षेत्र के लिए बांस तकनीकी सहायता समूह की समन्वयक केके सीतालक्ष्मी बांस अनुसंधान और विकास की चल रही यात्रा के बारे में विस्तार से बताती हैं। वह इस बात पर जोर देती हैं कि बांस अनुसंधान का इतिहास लगातार रहा है। इसमें साल 1999 मील का पत्थर था जब भारत के प्रधानमंत्री ने एकीकृत बांस विकास परियोजना शुरू की थी।
उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया,“पेपर पल्प के लिए कच्चे माल के रूप में बांस को मान्यता देना और पेपर मिलों की स्थापना के बाद, बांस संसाधनों की कमी गंभीर चिंता का विषय बन गई। उचित प्रबंधन के अभाव और अतिरिक्त बांस वृक्षारोपण को बढ़ाने के प्रयासों की कमी ने समस्या को बढ़ा दिया। एक और जटिलता इस तथ्य से पैदा हुई कि बांस में सामूहिक रूप से फूल खिलते हैं, जिससे ज्यादातर प्रजातियों में फूल वाला बांस खत्म हो जाता है।”
बांस क्षेत्र के विकास के लिए दो बांस मिशन, राष्ट्रीय बांस अनुप्रयोग मिशन (एनएमबीए 2002) और बांस मिशन (एनबीएम 2006) शुरू किए गए थे। सीतालक्ष्मी बांस की पर्यावरण अनुकूल प्रकृति पर जोर देती हैं और वृक्षारोपण के लिए व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य प्रजातियों की पहचान करने के लिए बांस मिशन को श्रेय देती हैं। प्रौद्योगिकी और क्षमता विकास मौजूद होने के बाद वह मार्केटिंग पर ध्यान देने और जागरूकता बढ़ाने की जरूरत पर जोर देती हैं। अगला महत्वपूर्ण कदम बांस की खेती और इस्तेमाल को आगे बढ़ाने के लिए पूरे वैल्यू चेन को नया रूप देना है।
सरकार सरस आजीविका मेला आदि जैसी पहलों के जरिए मार्केट लिंकेज पर ध्यान केंद्रित कर रही है, जहां कारीगर अपने उत्पाद दिखाते हैं। खेती वाले बांस को बढ़ावा देने और इसके मार्केट लिंकेज को विकसित करने के लिए राष्ट्रीय बांस विकास कार्यक्रम का फिर से गठन किया गया। पहले यह कार्यक्रम पर्यावरण मंत्रालय के अधीन था। अब यह कृषि मंत्रालय के अधीन है। बांस की खेती और व्यापार को मुक्त करने के लिए भारतीय वन कानून, 1927 में भी संशोधन किया गया है।
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सुरेंद्रनाथ ने कारीगरों की आय बढ़ाने में बाजार संपर्क की क्षमता पर प्रकाश डाला। वह बताते हैं कि अब तक बांस उत्पादों के बाजार का महज एक छोटा सा हिस्सा, लगभग एक प्रतिशत ही इस्तेमाल किया जा सका है। कारीगरों को अपना काम दिखाने के लिए राज्य बांस मिशन और सरस मेला जैसे विभिन्न मेलों जैसी सरकारी पहलों के बावजूद, वे कारीगरों की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाते हैं।
साल 1996 से कारीगरों के साथ मिलकर काम करने के बाद, सुरेंद्रनाथ इस बात पर जोर देते हैं कि चुनौतियां बनी हुई हैं। ऐसा तब है, जब इसे बाजारों से जोड़ने की कोशिशें चल रही हैं। अतीत में, दो दशक पहले की तरह, कारीगर हर दिन महज 30 रुपए कमाते थे। अब, एक कारीगर की आय बढ़कर 300 रुपए हो गई है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है।
यह बात तब सच लगती है जब ज्योत्सना देवनाथ बताती हैं कि उनके कारीगर 30 दिन काम करके 2000 रुपए कमाते हैं। हालांकि, उनकी आय में सुधार हुआ है, लेकिन अभी भी लंबा रास्ता तय करना बाकी है।
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बैनर तस्वीर: फरवरी 2024 में नोएडा में आयोजित सरस मेले में बांस के उत्पादों को दिखाता एक कारीगर। सरकार सरस आजीविका मेला जैसी पहलों के जरिए मार्केट लिंकेज पर ध्यान केंद्रित कर रही है जहां कारीगर अपने उत्पादों का प्रदर्शन करते हैं। तस्वीर-कुंदन पांडे/मोंगाबे।