- असम में प्रवासी मधुमक्खी पालन उद्योग काफी फल-फूल रहा है, जहां मधुमक्खी पालक पराग के लिए खिले हुए फूलों की तलाश में पूरे देश में एक जगह से दूसरी जगह पर जाते हैं।
- पूरे भारत में आम होते हुए भी, असम के लिए यह उद्योग काफी नया है और तेजी से बढ़ रहा है। पराग स्रोतों में अनिश्चितता और बदलते मौसम का पैटर्न मधुमक्खी पालकों को प्रवास करने के लिए मजबूर करता है।
- बड़े पैमाने पर की जाने वाली सरसों की खेती और कम प्रतिस्पर्धा, प्रवासी मधुमक्खी पालकों को असम की ओर आकर्षित करती है। विशेषज्ञों का सुझाव है कि एक अधिक एकीकृत कृषि प्रणाली इस उद्योग को फायदा पहुंचा सकती है।
असम के नुमालीगढ़ क्षेत्र के बोरसापोरी गांव के दूर क्षितिज पर सूरज डूब रहा था। दूर-दूर तक फैले सरसों के खेतों में मधुमक्खियों की भिनभिनाहट के बीच लीला चरण दत्ता और उनके पांच साथी तेजी से लकड़ी के अपने बक्से पैक करने में लगे थे। सूरज की किरणें धीरे-धीरे अपने आगोश में समा रही थीं और जनवरी की ये शाम ठंडी और ठंडी होने लगी। उधर बिना अपना समय गंवाए “मधुमक्खी की तरह व्यस्त,” ये सभी लोग अपने काम में जुटे थे। सन्नाटा छाने लगा और भिनभिनाने की आवाजें भी धीरे-धीरे बक्से में बंद होती चली गईं।
दत्ता एक प्रवाली मधुमक्खी पालक हैं, जो प्रवासी मधुमक्खी पालन करते हैं। आज शाम वो और उनके साथी सरसों के इन खेतों के बीच एक महीने से अधिक समय बिताने के बाद, यहां से निकलने की तैयारी में हैं। उन्हें अपने तकरीबन 250 लकड़ी के बक्से पैक करे और फिर मधुमक्खियों के लिए अनुकूल मौसम और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध फूलों वाली जगहों पर पहुंचने के लिए अपने सफर की शुरुआत कर दी। उनके हर बॉक्स में औसतन 60,000 मधुमक्खियां थीं।
मधुमक्खी पालन एक आकर्षक व्यवसाय बन चुका है। वैसे तो ज्यादातर लोग देशी प्रजाति एपिस सेराना इंडिका (भारतीय शहद मधुमक्खी) को पालना पसंद करते हैं लेकिन दत्ता जैसे अनुभवी पालकों ने यूरोपीय किस्म एपिस मेलिफेरा के साथ अपने व्यवसाय को बढ़ाने का विकल्प चुना। हालांकि इस विदेशी मधुमक्खी का पालन पूरे भारत में आम है, लेकिन असम और भारत के उत्तर पूर्वी इलाकों के लिए ये प्रजाति नई है। उसके बावजूद असम प्रवासी मधुमक्खी पालकों के लिए एक पसंदीदा गंतव्य के रूप में उभर रहा है। यहां साल दर साल प्रवासी मधुमक्खी पालकों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
दत्ता असम के उन कुछ लोगों में से हैं, जिन्होंने इस क्षेत्र में सबसे पहले एपिस मेलिफेरा पालन की और अपने कदम बढ़ाए थे। अपनी मेहनत और जानकारी के कारण आज उनका व्यवसाय काफी फल-फूल रहा है और वो अन्य लोगों के लिए भी प्रेरणा बन गए हैं। 2001 से इस व्यवसाय से जुड़े दत्ता कहते हैं, “इस किस्म के बारे में मुझे सबसे पहले असम कृषि विश्वविद्यालय से जानकारी मिली थी। और जब मुझे इन मधुमक्खियों की खासियत पता चली तो, मैं इनकी तलाश में पंजाब, बिहार और पश्चिम बंगाल तक पहुंच गया।” इस प्रजाति को पंजाब कृषि विश्वविद्यालय साल 1962 और 1964 के बीच भारत लेकर आया था। इसकी उच्च उत्पादन क्षमता के कारण, इसे देशी प्रजातियों की तुलना में व्यावसायीकरण के लिए प्राथमिकता दी गई। एपिस सेराना इंडिका बदतर से बदतर परिस्थितियों में 8 से 10 किलोग्राम शहद का उत्पादन कर लेती है। जबकि एपिस मेलिफेरा प्रति मौसम या वर्ष में 25 से 30 किलोग्राम शहद ही इकट्ठा कर पाती हैं। वह कहते हैं, “लेकिन यह उच्च उत्पादन क्षमता लगातार प्रवासन पर निर्भर करती है। क्योंकि तभी पर्याप्त फूलों के स्रोत उपलब्ध हो पाते हैं।”
दत्ता के साथ जुड़े मधुमक्खी पालक मुरुली बोरा ने बताया, “हम असम के कई इलाकों से होते हुए पड़ोसी राज्य अरुणाचल प्रदेश की सीमाओं तक चले जाते हैं। प्रवास का मौसम मानसून के बाद शुरू होता है।”
उन्होंने आगे विस्तार से बताया, “हमारा ये सफर आमतौर पर बाजाली जिले के पाठशाला में बोगोरी (बेर) के फूलों से शुरू होता है और सरसों के फूलों के आने तक हम यहीं डेरा जमाए रखते हैं। उसके बाद हम लगभग 355 किमी दूर नुमालीगढ़ की ओर निकल पड़ते हैं। उसके बाद धनिया और कद्दू के फूलों के लिए बोकाखाट पहुंचते हैं। फिर डोरोनसाक (ल्यूकस लिनिफोलिया) के फूलों का भी मौसम आ जाता है, सो हमें यहां कुछ दिनों के लिए और रुकना पड़ता है। फिर हम रबर के लिए कार्बी आंगलोंग चले आते हैं, जहां मधुमक्खियां फूलों के बजाय नई पत्तियों से रस इकट्ठा करती हैं। कुछ दिन यहां बिताने के बाद हम कामरूप जिले के खेतड़ी में लीची की ओर रुख करते हैं या कभी-कभी राज्य से बाहर मालदा (पश्चिम बंगाल में) या बिहार की ओर भी निकल पड़ते हैं। जब तक लीची का मौसम खत्म होता है, तब तक मानसून आ जाता है।”
मधुमक्खियों का प्रवास किसी तय रास्ते पर निर्भर नहीं करता है, बल्कि फूलों की उपलब्धता के आधार पर बदलता रहता है।
मानसून के मौसम में जब नेक्टर और पॉलन की कमी होती है, तो एपिस मेलिफेरा की कॉलोनियों को सूखे स्थानों में चीनी के सिरप पर जिंदा रखा जाता है। हर बॉक्स को हर छह दिन में लगभग एक किलो चीनी सिरप देने की जरूरत होती है। दत्ता ने समझाते हुए कहा, “इसके अलावा, हम इस ऑफ-सीजन के दौरान मधुमक्खियों एक वैकल्पिक विटामिन मिश्रण भी देते हैं। हालांकि, उन्हें अभी भी नेक्टर की जरूरत होती है। मधुमक्खियों को पोषण देने के लिए हम खुद ही पराग इकट्ठा भी करते हैं। अगर जरा सी भी लापरवाही बरती, तो मधुमक्खियां मर सकती हैं। हमारे बक्से खाली हो सकते हैं। यहां तक जो मधुमक्खियां जिंदी रहेगी, उन्हें भी ठीक होने और अगले सीजन में सक्रिय रूप से भोजन की तलाश शुरू करने में समय लगेगा। इसकी वजह से उत्पादन भी धीमा हो जाएगा।”
दुनिया के बाकी देशों में काफी समय से चला आ रहा मधुमक्खी पालन का यह तरीका भारत के लिए एकदम नया है। इससे न सिर्फ शहद का उत्पादन बढ़ा, बल्कि ये मधुमक्खी पालन के व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए फायदेमंद सौदा भी साबित हुआ। इस तरीके में मधुमक्खी के बक्से को उन क्षेत्रों से ले जाया जाता है जहां नेक्टर खत्म हो गया है और उन क्षेत्रों में लाया जाता है, जहां नेक्टर भरपूर मात्रा में है। भारत भर में मधुमक्खी पालन का यह तरीका आम है। दक्षिण भारत में, मधुमक्खी पालक अक्सर अपने छत्ते को सूरजमुखी, कुसुम, कपास, तिल और अन्य फसलों के खेतों में ले जाते हैं। सर्दियों आते ही कश्मीर घाटी से मधुमक्खी पालक राजस्थान, गुजरात और अन्य राज्यों जैसे गर्म क्षेत्रों की ओर पलायन कर जाते हैं। 2018-19 में शुरू किया गया राष्ट्रीय मधुमक्खी पालन और शहद मिशन, प्रवासी मधुमक्खी पालन को बढ़ावा देने के लिए उनके परिवहन के तरीके, समय, प्रवास के लिए मधुमक्खियों के छत्तों की तैयारी, आदि के लिए ट्रेनिंग देता है।
रात के अंधेरे में सफर
प्रवास की इस प्रक्रिया में सही फूलों और आवासों के लिए संभावित जगहों की तलाश करना शामिल है। एक बार जब आशाजनक जगहों की पहचान हो जाती है, तो मधुमक्खी पालक उस जगह का निरीक्षण करते हैं। साथ ही फूलों की उपलब्धता और मधुमक्खियों के छत्तों को रखने की व्यवहार्यता का आकलन करने के लिए स्थानीय लोगों से भी जुड़ते हैं। पूरी तरह से जांच पड़ताल और संतुष्टि के बाद ही चुने हुए गंतव्य की ओर रुख किया जाता है।
मधुमक्खियां दिन में पराग इकट्ठा करती हैं, इसलिए एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए रात का समय सबसे अच्छा है। शाम को मधुमक्खियां अपने छत्तों में वापस आ जाती हैं, तो बक्सों के दरवाजों को बंद कर, मधुमक्खी पालक अगले गंतव्य की ओर निकल पड़ते हैं। फूलों और नरम पत्तियों के खेतों में अगली सुबह उनके बक्सों के दरवाजे फिर से खुलते हैं और वे भोजन की तलाश में फूलों पर मंडराने लगती हैं। पूरा ऑपरेशन एक रात के भीतर पूरा हो जाना जरूरी है। बिहार के एक मधुमक्खी पालक मदन मंडल बताते हैं, “ऐसे मामलों में जहां अगला गंतव्य 600 किमी से अधिक दूर है, हमें सुबह कहीं न कहीं रुकना पड़ता है।” वह आगे कहते हैं “हम सुबह 10 से 11 बजे के बीच बक्से खोल देते हैं ताकि मधुमक्खियां उड़ सकें। हम अपनी यात्रा के अगले चरण के लिए शाम को फिर से सामान पैक करना होता है। और फिर हम अपने आगे के रास्ते पर निकल पड़ते हैं।”
एपिस मेलिफेरा को पालने के लिए कम से कम चार से पांच लोगों की टीम की जरूरत होती है ताकि शहद उत्पादन की पूरी प्रक्रिया – स्काउटिंग, कैंपिंग और उत्पाद- आसानी से चलती रहे। अगर कोई किसान, सचमुच इससे पेशे से फायदा चाहता है, तो उसे कम से कम 200 बक्से बनाए रखने होंगे। जिनके पास कम बक्से हैं, लगभग 50 या 100, वे तीन से चार व्यक्तियों के समूहों में मिलकर इसे मैनेज करते हैं और मिलकर अपना शिविर लगाते हैं।
प्रवासी मधुमक्खी पालकों को आकर्षित करता असम
बिहार के रहने वाले मदन मंडल पिछले दो दशकों से ज्यादा समय से मधुमक्खी पालन के व्यवसाय में हैं। 2013 से वह हर साल सरसों के खेतों में पराग की तलाश में अपने 200 मधुमक्खी बक्सों के साथ बिहार से असम के बारपेटा जिले के सफर पर निकल पड़ते हैं। लेकिन अपने इस सफर में वे अकेले नहीं होते हैं। उनके साथ-साथ बिहार और पश्चिम बंगाल के बहुत से मधुमक्खी पालक हर सर्दियों में असम के बारपेटा, बाजली और मोरीगांव जिलों की ओर रुख करते हैं। उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है।
मंडल ने कहा, “शहद का उत्पादन बेहतर हो, इसके लिए एपिस मेलिफेरा की 200 कॉलोनियों को लगभग 250 एकड़ फसलों की जरूरत होती है।” उन्होंने आगे कहा, “लेकिन बिहार और पड़ोसी पश्चिम बंगाल और झारखंड में मधुमक्खी पालकों की बढ़ती संख्या की वजह से उत्पादन घटने लगा है। इससे निपटने के लिए, हमने असम की ओर पलायन करना शुरू कर दिया, जहां बड़े पैमाने पर सरसों की खेती होती है, लेकिन मधुमक्खी पालक कम हैं। नतीजतन, उत्पादन में अच्छी-खासी बढ़ोतरी हो रही है।”
मंडल बताते हैं, “हालांकि, पिछले एक दशक में असम की तरफ भी पलायन बढ़ा है। मात्र दो किलोमीटर के दायरे में, आपको अलग-अलग शिविरों के 2000 से अधिक बक्से मिल जाएंगे।”
मंडल और उनके साथी किसानों ने शहद उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव के लिए फसलों में बदलाव को भी जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने बताया कि पहले, असम में सरसों के बाद धनिया की खेती की जाती थी, जिससे मधुमक्खियों को दोनों फसलों से पराग इकट्ठा करना आसान रहता था। ऐसे ही बिहार में बड़े पैमाने पर सूरजमुखी की खेती से उन्हें प्रचुर मात्रा में पराग मिल जाता था। लेकिन पिछले तीन सालों में बिहार में मक्का का उत्पादन दोगुना हो गया है। और इसकी वजह केंद्र सरकार द्वारा राज्य में 47 नए इथेनॉल प्लांट्स को मंजूरी देना है। इसके बाद से राज्य सरकार ने मक्का से इथेनॉल उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाएं है। मंडल कहते हैं, “फिलहाल, हमारी मुख्य कमाई सरसों से होती है। अगर हमें सरसों के फूल नहीं मिले, तो हमारा व्यवसाय नहीं चल सकता।”
असम के मधुमक्खी पालक राज्य में रहते हुए ही काफी शहद का उत्पादन कर सकते हैं क्योंकि यहां संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं और प्रतिस्पर्धा कम है। लेकिन, उत्तर-पूर्व से बाहर के मधुमक्खी पालकों को पर्याप्त उत्पादन और लाभ कमाने के लिए कई राज्यों में यात्रा करनी पड़ती है।
उन्होंने कहा, “दिसंबर और जनवरी में हम असम में रहते हैं। इसके बाद, फरवरी में लीची का मौसम शुरू होने पर हम बिहार के भागलपुर चले जाते हैं। इसके बाद, हम जंगली करंजा (मिलेटिया पिनाटा) फूल के लिए झारखंड के रांची शहर की ओर निकल पड़ते हैं।” इसका सीधा सा मतलब है लागत का बढ़ना। हमें परिवहन और अलग-अलग जगहों पर खेतों को किराए पर लेने पर काफी खर्च करना पड़ता है।
वैसे इसका कोई आधिकारिक अनुमान नहीं है, लेकिन दूसरे राज्यों से आने वाले मधुमक्खी पालकों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। बारपेटा जिले में, स्थानीय लोगों का कहना है कि लगभग 50 समूह हर साल यहां आते हैं।
असम की शहद उत्पादन क्षमता बढ़ी
सीएसआईआर – नॉर्थ ईस्ट इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (NEIST) के अनुसार, उत्तर पूर्व क्षेत्र सालाना पांच लाख किलोग्राम शहद का उत्पादन करता है, जिसमें असम का योगदान इस कुल उत्पादन का 25% है, जो जंगली और खेती की गई मधुमक्खी के छत्तों दोनों से प्राप्त होता है।
दत्ता कहते हैं, “असम में अभी भी मुख्य रूप से एपिस सेराना इंडिका प्रजाति को पाला जाता है। लेकिन, एपिस मेलिफेरा पर स्विच करने से बाजार की मांगों को बेहतर तरीके से पूरा किया जा सकता है। इसके लिए, हमें शुष्क मौसम की जरूरत है। ज्यादा बारीश शहद उत्पादन के लिए सही नहीं है। हालांकि, बदलती जलवायु की वजह से हम कम वर्षा वाले दिन देख रहे हैं, जो वास्तव में मधुमक्खी पालन के लिए अनुकूल है क्योंकि नेक्टर पानी में बहकर बर्बाद नहीं होता है। लेकिन, समय पर बारिश न होने से, अगर पौधे समय पर नहीं खिलेंगे, तो भी इसका असर हमारे व्यवसाय पर पड़ेगा।”
दत्ता ने बताया कि उत्तर-पूर्व में शहद की खपत भारत के अन्य हिस्सों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक है। नतीजतन, मांग लगातार आपूर्ति से आगे निकल जाती है और क्षेत्र में शहद की कीमतें निर्यात कीमतों की तुलना में अधिक बनी रहती हैं। अन्य राज्यों के मधुमक्खी पालकों के उलट, जो मुख्य रूप से निर्यात बाजार पर निर्भर हैं, यह उत्तर-पूर्व के मधुमक्खी पालकों के लिए एक लाभदायक स्थिति है।
मधुमक्खी पालक मदन मंडल सरसों की अच्छी फसल के मौसम में, लगभग 3,000 किलोग्राम शहद का उत्पादन कर लेते हैं और इसे वह लगभग 150 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचते हैं। निर्यात दरें आमतौर पर अस्थिर होती हैं, लेकिन सरसों के शहद में क्रिस्टलीकृत होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति के चलते चीनी के साथ मिलावट की गलत धारणाएं लोगों में फैली हुई है। इन्हीं के चलते भारतीय बाजार में कीमतें कम हो जाती हैं। इसी वजह से मधुमक्खी पालक अपने शहद को निर्यात बाजार में कम दरों पर बेचने के लिए मजबूर हैं।
असम में सरसों के फूलों का शहद 200 से 300 रुपये प्रति किलोग्राम तक बिकता है। तो वहीं अन्य प्रकार के शहद, जैसे धनिया, लीची और ल्यूकास लिनिफोलिया औसतन 400 रुपये प्रति किलोग्राम या उससे अधिक की कीमत पर मिल जाता है, खासकर जब इन्हें उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों में बेचा जाए। शहद के अलावा, मधुमक्खी पालक मधुकोश भी बेचते हैं, जिसकी कीमत 1,000 रुपये प्रति किलोग्राम है। कॉस्मेटिक इंडस्ट्री में इसका काफी इस्तेमाल किया जाता है।
सीएसआईआर-एनईआईएसटी ने क्षेत्र में मधुमक्खी पालन और कृषि के बीच एकीकरण की कमी देखी है, जिससे शहद उत्पादन कम हो रहा है। दत्ता का सुझाव है कि असम को मधुमक्खी पालन की पूरी क्षमता को अनलॉक करने के लिए धनिया, सूरजमुखी और तिल जैसी एकल फसलों की बड़े पैमाने पर खेती करनी चाहिए। एपिस मेलिफेरा को आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनाने के लिए यह बदलाव आवश्यक है।
दत्ता ने बताया कि असम में खेती का तरीका बिखरा हुआ है, जिसमें अलग-अलग किसान छोटे-छोटे टुकड़ों में अलग-अलग फसलें उगाते हैं। यह बिहार जैसे क्षेत्रों से अलग है, जहां बड़े पैमाने पर करंजा/कोरोच (मिलेटिया पिनाटा) की खेती होती है, और सुंदरबन, जो खालसी (एजिसरस कॉर्निकुलेटम), गोरान (सेरियोप्स डेकेंड्रा) और केओरा (सोनेरटिया एपेटाला) के व्यापक फूलों के लिए जाना जाता है।
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इन समस्याओं से निपटने के लिए दत्ता ने सुझाव दिया है कि सरकार को विशेष रूप से तिलहन बाजार में खेती से लेकर प्रसंस्करण और उत्पादन तक एकीकृत कृषि प्रणाली स्थापित करने के लिए कदम उठाने चाहिए। इस एकीकृत दृष्टिकोण से सहकारी खेती को प्रोत्साहन मिल सकता है, जिससे कृषि और मधुमक्खी पालन दोनों को लाभ होगा।
असम कृषि विश्वविद्यालय में आईसीएआर-एआईसीआरपी ऑन हनी बीज एंड पॉलिनेटर्स के प्रमुख वैज्ञानिक मुकुल कुमार डेका कहते हैं कि असम में बागानों की कमी एपिस मेलिफेरा के पालन के लिए एक बड़ी बाधा है, खासकर मानसून के मौसम में। हालाँकि, मोरिंगा, करमबोला और ड्रैगन फ्रूट जैसी नई फसलों को लगाने के प्रयासों से संसाधनों की उपलब्धता में वृद्धि हुई है, जो एक सकारात्मक प्रवृत्ति का संकेत है। इन सुधारों के बावजूद, राज्य में शहद उत्पादन बढ़ाने के लिए अधिक योजनाबद्ध तरीके से खेती करने की आवश्यकता है।
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 6 मई 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: असम के बारपेटा में बिहार के प्रवासी मधुमक्खी पालक। तस्वीर- सुरजीत शर्मा/मोंगाबे