- जलवायु परिवर्तन और तपेदिक (टीबी) के बीच परोक्ष संबंध पर अब ध्यान दिया जाने लगा है, क्योंकि विकासशील देशों में इस बीमारी के सबसे ज्यादा मामले सामने आते हैं।
- मॉडल किए गए अध्ययन और समीक्षाएं टीबी के लिए जलवायु-संवेदनशील संक्रमण को जिम्मेदार ठहरा रही हैं।
- जानकार कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन और तपेदिक के कारण खतरा झेल रहे लोग दुनिया के दक्षिण और उत्तर दोनों में सबसे कमजोर तबकों में शामिल हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि दुनिया भर में तापमान में बढ़ोतरी का दुष्प्रभाव टीबी पर भी दिख रहा है जिस पर अब तक कम ध्यान दिया गया है। इसलिए इस पर अध्ययन भी कम हुए हैं। इससे समाज के सबसे गरीब तबकों पर दोहरी मार पड़ने की आशंका है।
टीबी के जानकारों की जलवायु परिवर्तन और तपेदिक के बीच परोक्ष संबंधों पर टिप्पणियों के बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अक्टूबर 2024 में मौसम में बदलाव और टीबी पर शोध की रूपरेखा तैयार करने के लिए दो दिन का परामर्श आयोजित किया था। डब्ल्यूएचओ के वैश्विक तपेदिक कार्यक्रम इकाई के प्रमुख मैटेओ जिग्नोल के अनुसार, जलवायु परिवर्तन और सेहत “वैश्विक स्वास्थ्य में सबसे चर्चित विषयों में से एक” के रूप में सामने आए हैं।
उन्होंने 2024 के आखिर में बाली में फेफड़ों की सेहत पर आयोजित सालाना विश्व सम्मेलन में कहा, “जलवायु परिवर्तन संबंधी बहसों में टीबी का मुद्दा चर्चा से बाहर है।”
विश्व स्वास्थ्य संगठन अब ऐसे ढांचे पर काम कर रहा है जो तीन बड़े शोध क्षेत्रों पर ध्यान देगा: प्रवासन और विस्थापन; भोजन और पानी की असुरक्षा और हाल में बाढ़ की घटनाओं की वजह से स्वास्थ्य प्रणालियों में तेजी से व्यवधान। ये सब चीजें कोविड–19 महामारी के दौरान स्पष्ट थी।
जिग्नोल ने 2024 के बाली सम्मेलन में बताया कि जलवायु परिवर्तन और टीबी के बीच संबंध तब और स्पष्ट हो जाता है जब टीबी में अहम भूमिका निभाने वाले कुपोषण पर विचार किया जाता है। उन्होंने 2024 में प्रकाशित 2024 कोक्रेन समीक्षा का हवाला दिया, जिसमें दिखाया गया है कि कुपोषण से टीबी का जोखिम छोटी अवधि या 10 साल से कम समय में दोगुना हो जाता है और यह लंबी अवधि या 10 साल से ज्यादा समय में भी टीबी का जोखिम बढ़ा सकता है। जिग्नोल ने कहा कि “ऐसे अनुमान लगाए गए हैं कि दुनिया के तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी से 18.9 करोड़ लोगों को भूखे पेट सोना पड़ सकता है। दुनिया के चार डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म होने पर यह संख्या 1.8 अरब लोगों तक पहुंच सकती है।” फिलहाल, भारत में ग्लोबल वार्मिंग और टीबी के मामलों पर योजनाबद्ध अध्ययन नहीं हो रहे हैं।

हालांकि, एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन की अध्यक्ष और विश्व स्वास्थ्य संगठन की पूर्व मुख्य वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन का कहना है कि मध्यम से लंबी अवधि में खाद्य सुरक्षा पर जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव ज्यादा बड़ा हो सकता है। वह कहती हैं, “खासकर अफ्रीका में खाद्य असुरक्षा झेल रहे लोगों की संख्या में पहले से ही बढ़ोतरी हो रही है। इसमें और तेजी आने की आशंका है।” उनका कहना है कि अगर कुपोषण बढ़ता है, तो शर्तिया तौर पर टीबी भी बढ़ेगी, क्योंकि यह दुनिया भर में टीबी के जोखिम की सबसे बड़ी वजह है और 40% से 50% मामलों के लिए जिम्मेदार है।
स्वामीनाथन कहती हैं कि दूसरा संबंध वायु प्रदूषण और टीबी के बीच है। कई विकासशील देशों में ज्यादा पीएम 2.5 (ऐसे कण जो नंगी आंखों से नहीं दिखते हैं, सांस के साथ अंदर जा सकते हैं और जिनका व्यास 2.5 माइक्रोमीटर से कम है, जैसे कि कालिख) भी टीबी का जोखिम बढ़ाने वाला है। वह कहती हैं, “वायु प्रदूषण को कम करने की कोशिश जलवायु परिवर्तन को कम करने में भी मदद करेगी, क्योंकि दोनों का स्रोत एक ही है।”
लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन (एलएचएसटीएम) में संक्रामक रोग और महामारी विज्ञान विभाग की रिसर्च फेलो रेबेका क्लार्क के अनुसार, ग्रीनहाउस गैसों के अलग-अलग उत्सर्जन स्तरों और साझा सामाजिक-आर्थिक पाथवे (एसएसपी) का इस्तेमाल करके मॉडल किए गए अध्ययन कुछ बेहतर इनसाइट देते हैं। जलवायु अनुसंधान में मॉडल किए गए अध्ययनों में इस्तेमाल किए जाने वाले ये परिदृश्य यह पता लगाते हैं कि 21वीं सदी में वैश्विक समाज, जनसांख्यिकी और अर्थशास्त्र किस तरह विकसित हो सकते हैं, जो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन को तय करन वाले कारकों को प्रभावित करते हैं। क्लार्क की टीम के मॉडलिंग अध्ययनों से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन मुख्य निर्धारक कुपोषण को प्रभावित कर सकता है, जो बदले में “टीबी के बोझ पर बड़ा असर डालेगा।”
क्लार्क का कहना है कि चरम मौसम और जलवायु परिवर्तन के कारण खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ रही हैं। 2024 में फेफड़ों के स्वास्थ्य पर यूनियन वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा, “मॉडलिंग से जलवायु परिवर्तन के कारण कुपोषण से टीबी के बढ़ने वाले बोझ का अनुमान लगाया जा सकता है।”
सिंगापुर स्थित इंटरैक्टिव रिसर्च एंड डेवलपमेंट (आईआरडी) ग्लोबल की मेडिकल डायरेक्टर उजमा खान ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि जलवायु परिवर्तन और टीबी के कारण जोखिम झेल रहे लोग समाज के सबसे कमज़ोर तबकों से हैं। दोनों ही समस्याएं सामाजिक गैर-बराबरी के मुद्दों से जुड़ी हैं, दोनों ही ग्लोबल साउथ में हैं। उदाहरण के लिए पाकिस्तान में 2023 की विनाशकारी बाढ़ और ग्लोबल नॉर्थ में कनाडा में स्थानीय समुदायों में टीबी के ज्यादा मामले। “समस्या सिर्फ ग्लोबल साउथ या एलएमआईसी (निम्न और मध्यम आय वाले देशों) तक सीमित नहीं है।”
खान का कहना है कि जलवायु और टीबी से जुड़े अन्याय को दूर करने के लिए अलगाव को खत्म करने की जरूरत है। उन्हें सिर्फ बायोमेडिकल या अकादमिक नजरिए से नहीं देखना चाहिए, क्योंकि इससे “हमारी समझ सीमित हो जाती है और समाधान में बाधा आती है।” वह कहती हैं, “इसके लिए मानसिकता बदलनी होगी।”
खान कहती हैं, “इन जटिल मुद्दों का हल खोजने के लिए नए विचारों और निवेशों तथा अलग-अलग क्षेत्रों में सहयोग की जरूरत है।” “जलवायु सक्रियता से टीबी पर सक्रियता के बारे में सीखा जा सकता है।”

टीबी का जोखिम बढ़ने की वजह जलवायु
ये हालिया चेतावनियां जलवायु और टीबी के बीच संबंधों पर हाल ही में की गई शोध रिपोर्टों में शामिल हैं। साल 2022 में, एडिलेड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने बताया कि जलवायु परिवर्तन “टीबी के अंतर्निहित जोखिम कारकों की व्यापकता को बढ़ाकर व्यक्तियों की टीबी के प्रति संवेदनशीलता को प्रभावित कर सकता है, जिसमें कुपोषण, गरीबी, भीड़भाड़, घर के अंदर वायु प्रदूषण और एचआईवी संक्रमण, मधुमेह शामिल हैं। पर्यावरण अनुसंधान पर उनकी रिपोर्ट कहती है कि “विकासशील देश स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के प्रति संवेदनशील हैं” और “टीबी को जलवायु-संवेदनशील बीमारी माना जाना चाहिए।”
शोधकर्ताओं ने कहा, “यह शोध का उभरता हुआ क्षेत्र है जिस पर वैज्ञानिक समुदाय को और अधिक ध्यान देने की जरूरत है।”
पर्यावरण शोध पत्र के लेखकों में से एक और फिलहाल ऑस्ट्रेलिया के वाग्गा वाग्गा बेस अस्पताल में जूनियर मेडिकल ऑफिसर साहिल खरवाडकर ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “हमारे नतीजों के आधार पर यह संभावना है कि जलवायु परिवर्तन खाद्य असुरक्षा को बढ़ाएगा और इसके चलते कमजोर तबकों में टीबी संक्रमण का खतरा बढ़ जाएगा।”
खारवाडकर कहते हैं, “ समीक्षा में हमने पाया कि बाढ़ और सूखे जैसी मौसम की चरम स्थितियां खास तौर पर कुपोषण के साथ मजबूती से जुड़ी हुई हैं और यह टीबी के लिए बड़ा जोखिम है।” उन्होंने कहा कि इस संबंध का सबसे बड़ा प्रमाण बच्चों में था, जो टीबी संक्रमण के प्रति और भी ज्यादा संवेदनशील होते हैं।
संभावित तंत्र फसल उत्पादन और उसके बाद खाद्य उपलब्धता पर तापमान और वर्षा की चरम सीमाओं के प्रभाव के जरिए है। खारवाडकर कहते हैं, “हमारे नमूने में भारत के डेटा वाले चार अध्ययन शामिल थे और कुपोषण की जांच करने वाले बाकी 13 अध्ययन एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों पर आधारित थे।”

खारवाडकर बताते हैं कि टीबी उन्मूलन की दिशा में हुई व्यापक प्रगति के बावजूद, कमजोर आबादी में टीबी से होने वाली मौतों की संख्या काफी ज्यादा है। भारत में टीबी का बोझ बहुत ज्यादा है और अनुमान है कि दुनिया भर में टीबी मामलों में से एक-चौथाई भारत में हैं। “आगे बढ़ते हुए, भारत में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के लिए टीबी के प्रसार में जलवायु परिवर्तन की भूमिका को स्वीकार करना और खाद्य सुरक्षा पर इसके दुष्प्रभाव को कम करने पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी है।”
जापान-नेपाल स्वास्थ्य और टीबी रोग अनुसंधान संघ के शोधकर्ताओं द्वारा 2021 की एक अन्य समीक्षा ने इंटरनेशनल जर्नल ऑफ बायोमेटोरोलॉजी में बताया कि जलवायु परिवर्तन विभिन्न तरीकों से टीबी को प्रभावित करता है: तापमान, आर्द्रता और बारिश जैसे जलवायु कारकों में बदलाव विटामिन डी के वितरण, पराबैंगनी विकिरण, कुपोषण और अन्य जोखिम में परिवर्तन के जरिए शरीर की प्रतिक्रिया पर असर डालते हैं।
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जापान-नेपाल रिपोर्ट कहती है कि मौसम की घटनाओं में बढ़ोतरी से आबादी का विस्थापन होता है, जिसके चलते टीबी के प्रति संवेदनशील और जोखिम वाली आबादी की संख्या बढ़ जाती है। इससे टीबी के संक्रमण और तपेदिक के लिए अनुकूल वातावरण बनता है और टीबी के निदान और इलाज में बाधा आती है।
रिपोर्ट के मुताबिक इस जटिल संबंध को समझने तथा जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली तपेदिक की घटनाओं को बेहतर ढंग से समझने के लिए आगे और अध्ययन तथा नए तरीकों की जरूरत है।
इंडोनेशिया के शोधकर्ताओं द्वारा की गई समीक्षा के आधार पर 2021 में ही एक दूसरी रिपोर्ट में बताया गया कि जलवायु परिवर्तन गर्म तापमान में हवा से होने वाले संक्रमणों के लिए फैलाव के नए अवसर पैदा करता है।
इस बीच, अमेरिका के नेवार्क में रटगर्स स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शहरी-वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग में स्टीफन श्वांडर और उनके सहकर्मी वायु प्रदूषण और टीबी पर मेटा विश्लेषण और व्यवस्थित समीक्षा कर रहे हैं। साल 2024 के यूनियन वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस ऑन लंग हेल्थ में प्रस्तुत उनके शुरुआती विश्लेषण के अनुसार बच्चों को घर के अंदर वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों का ज्यादा जोखिम है और आसपास के सूक्ष्म प्रदूषणकारी कणों जैसे कि पार्टिकुलेट मैटर (पीएम 2.5) या कालिख में 10 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर की बढ़ोतरी से टीबी का जोखिम नौ प्रतिशत बढ़ जाता है।
श्वांडर कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन से हवा की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है, जिसके चलते रोशनी आने, घुलन, बारिश और प्रदूषणकारी कणों के फैलने और अन्य प्रक्रियाओं के चलते वायु प्रदूषण के मौसम विज्ञान में बदलाव हो रहे हैं। घर के भीतर ज्यादा तापमान ओजोन निर्माण और बेहद सूक्ष्म कण PM2.5 को भी बढ़ाता है। साथ ही, इससे शुष्क क्षेत्रों में रेत और धूल के तूफानों की आवृत्ति और जंगल की आग भी बढ़ती है।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 17 मार्च, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: पश्चिम बंगाल के एक अस्पताल में टीबी के मरीज का एक्स-रे देखता हुआ डॉक्टर। फ्लिकर (CC BY-NC-ND 2.0) के जरिए ILO एशिया-पैसिफिक की तस्वीर।