- छत्तीसगढ़ की 39 वर्षीय आदिवासी महिला सरोजिनी गोयल बीते कई वर्षों से आदिवासियों की इस परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं।
- आदिवासियों का पारंपरिक ज्ञान और जंगल की जड़ी-बूटियां मिलकर कई बीमारियों का इलाज करने में सक्षम है।
- अपने माता-पिता से मिले इस ज्ञान को गोयल ने प्राकृतिक चिकित्सा और वनस्पति विज्ञान के पाठ्यक्रम में भी शामिल करवाया है।
- स्व- सहायता समूह बनाकर वह दूसरी महिलाओं तक अपना ज्ञान पहुंचा रही हैं जिससे महिलाओं को रोजगार भी मिल रहा है।
आज से करीब तीस साल पहले सरोजिनी गोयल के माता-पिता जड़ी-बूटी और इलाज में काम आने वाली फूल-पत्तियों की तलाश में घने जंगलों की ख़ाक छाना करते थे। तब नौ साल की गोयल भी उनके साथ हो लिया करती थी। घने जंगल से निकाले गए ये जड़ी-बूटी आदिवासियों की प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के स्तम्भ हुआ करते थे। प्राकृतिक चिकित्सा की मदद से कई लाइलाज बीमारियों को जड़ से ठीक करने वाला जड़ी-बूटी वाला यह पारंपरिक ज्ञान समय के साथ जंगलों में ही विलुप्त होता जा रहा है।
तब अपने माता-पिता के साथ जंगल के अजनबी संसार से अपना सम्बन्ध स्थापित करने वाली बच्ची आज 39 वर्ष की हो गई हैं। सरोजिनी गोयल ने बीते वर्षों में माता-पिता से मिले इस ज्ञान को कहीं खोने नहीं दिया। बल्कि इसे और विस्तार दिया। छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में रहने वाली गोयल ने पारंपरिक ज्ञान को दिशा देने के लिए प्राकृतिक चिकित्सा में ट्रेनिंग ली और एक चिकित्सक के रूप में उस ज्ञान का लाभ लोगों तक पहुंचाने का जिम्मा उठाया। उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा और योग के साथ स्नातक किया। 15 वर्ष पहले उन्होंने महिलाओं का एक समूह बनाकर जंगलों की अनोखी जड़ी-बूटियों से आयुर्वेदिक दवाई बनाने का काम भी शुरू कर दिया।
उनको इन जड़ी-बूटी को ढूँढने में कोई मुश्किल भी नहीं आयी। छत्तीसगढ़ राज्य का 44 फीसदी हिस्सा जंगल से ढका है और यहां के घने जंगलों में कई बीमारियों के सटीक इलाज लायक जड़ी-बूटियां मौजूद हैं। छत्तीसगढ़ के औषधीय पौधा बोर्ड के मुताबित यहां 1,525 प्रजातियों के औषधीय पौधे पाए जाते हैं। गोयल उन कुछ ख़ास लोगों में शुमार हैं जो इन जड़ी-बूटी की पहचान रखती हैं। बचपन में उन्होंने अपने पिता को इन्हीं पौधों से पीलिया जैसी बीमारियों का इलाज करते हुए देखा है।
मोंगाबे से बात करते हुए सरोजिनी कहती हैं कि जंगलों के आसपास रहने वाले स्थानीय लोगों में जंगल की गहरी समझ है और वह पेड़-पौधों के गुणों से वाकिफ हैं। सरोजिनी ने ऐसे ही एक ज्ञान के बारे में बताते हुए कहा कि आदिवासी लाल अमरू के फूल को एक कपड़े में बांधकर अपने झोपड़ी में रखते हैं जिससे उन्हें भीषण गर्मियों में उल्टी और निर्जलीकरण से बचने में मदद मिलती है।
वह कहती हैं, “आधुनिक इलाज पद्धति आदिवासियों से आज भी कोसों दूर है। आसपास न अस्पताल है न दवाइयां। दूरी की वजह से इन आदिवासियों का अस्पताल तक पहुंचना मुश्किल होता है। इन्हीं वजहों से आज भी आदिवासियों का अपने पारंपरिक चिकित्सा पर भरोसा कायम है।”
विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह रिपोर्ट, आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा की स्थिति को लेकर गोयल की बात को और स्पष्ट करती है। इसके मुताबिक 65 फीसदी ग्रामीण भारतीय पारंपरिक चिकित्सा पद्धति से ही अपना इलाज करते हैं। ऐसी स्थिति में सरोजिनी जैसे प्राकृतिक चिकित्सकों का महत्व बढ़ जाता है।
सरोजिनी ने अपना बचपन याद करते हुए कहा कि वह कभी अस्पताल नहीं गईं और एकबार उनके पिता ने उन्हें एलोपैथ की दवा दी थी लेकिन कड़वी होने की वजह से वह उसे निगल नहीं पाई। उनके पिता ने परिवार में बच्चों के पीलिया का इलाज भी खुद ही किया था। सरोजिनी के पास भी सर्दी, जुकाम, डायरिया और त्वचा रोग से संबंधित कई पारंपरिक दवाएं हैं, जिससे लोग ठीक हो रहे हैं। सरोजिनी ने दावा किया कि प्राकृतिक चिकित्सा से शुरुआती स्तर का कैंसर भी ठीक किया जा सकता है।
प्राकृतिक चिकित्सा के लिए पौधों से औषधि बनाने का सफर
सरोजिनी ने ग्रामीणों के लिए एक कोर्स तैयार किया है जिससे उन्हें पौधा पहचानने में मदद मिलती है। अपने स्व-सहायता समूह की महिलाओं के साथ भी वह औषधीय पौधा पहचानने का काम करती हैं। इसके बाद उन पौधों को प्रसंस्कृत कर अलग-अलग औषधीय उत्पाद तैयार किए जाते हैं। इस समूह से जुड़ी 35 वर्षीय सुनीता वर्मन बताती हैं कि वह इस समूह से पिछले 6 वर्षों से जुड़ी हुई हैं। शुरुआत में उनका औषधीय ज्ञान न के बराबर था लेकिन इन वर्षों में उन्होंने समूह के साथ काफी कुछ सीखा है। अब वह अपने परिवार में भी प्राकृतिक औषधि का इस्तेमाल ही करती हैं। कुल 60 महिलाओं के साथ शुरू हुआ यह समूह अब 300 महिलाओं को अपने साथ जोड़ चुका है।
वर्मन कहती हैं कि वह इस समूह के माध्यम से महीने में पांच हजार रुपए तक कमा लेती हैं। समूह से जुड़ी राखी कंवर बताती हैं कि औषधीय पौधे अक्सर उनके घर में लगे पौधों के बीच ही होते हैं। राज्य सरकार ने औषधीय पौधों के लिए घर में बगीचा लगाने के एक कार्यक्रम भी शुरू किया था। सरोजिनी कहती हैं कि ऐसे बगीचों में वह 10 पौधे जरूर लगाने की सलाह देती हैं। इनमें तुलसी, नीम, गिलोय, एलोविरा, ब्राह्मी और अश्वगंधा शामिल है।
भारत के बाहर औषधीय उत्पादों का बाजार काफी तेजी से पनप रहा है। भारत ने 2017-18 में 330.18 मिलियन अमेरिकी डॉलर और 2018-19 में 456.12 मिलियन अमेरिकी डॉलर राशि का उत्पाद देश के बाहर भेजा। कोविड-19 महामारी के बाद प्राकृतिक औषधियों का उपयोग काफी बढ़ा है।
बैनर तस्वीर- स्व-सहायता समूह की महिलाएं औषधी के बगीचे में काम कर रही हैं। फोटो- अजेरा परवीन रहमान