- भारत की परंपरा में पवित्र स्थल की संस्कृति है जिसकी वजह से प्राकृतिक संपदा के साथ तमाम जीवों का भी संरक्षण होता रहा है। इसमें सांपों का संरक्षण अहम है।
- बाजार की नजर अब इन प्राकृतिक संसाधनों पर है और पुरानी मान्यताएं भी दम तोड़ रही हैं। ऐसे में जीव-जंतुओं के संरक्षण के वास्ते सरकारों को आगे आने की जरूरत है।
- जीवविज्ञानी, संरक्षणविद और तकनीक के जानकारों ने मिलकर एक ऐप की शुरुआत की है जहां सांप से जुड़ी तमाम जानकारी उपलब्ध है। अंग्रेजी और मलयालम के बाद इस ऐप को अन्य भाषाओं में भी लाने की कोशिश जारी है।
धार्मिक स्थल के साथ-साथ पेड़-पौधे और वन भी भारतीय समाज में आस्था के प्रतीक रहे हैं। लोग प्राकृतिक संसाधनों को विभिन्न देवी-देवताओं से जोड़कर पूजते रहे हैं। भारत में पवित्र स्थलों की यह परंपरा न सिर्फ वनों की रक्षा करती थी, बल्कि इससे वहां रहने वाले जीवों की भी रक्षा होती थी। नाग देवता में लोगों की आस्था की वजह से ही सांपो का संरक्षण भी होता था।
लेकिन, वर्तमान में आधुनिक अर्थव्यवस्था के दबाव में ये पवित्र स्थल भी आ चुके हैं। एक तरफ इस तरह की परम्पराएं कमजोर पड़ी हैं तो दूसरी तरफ व्यावसायिक उद्देश्य मजबूत हुए हैं। कुल मिलाकर जैव-विविधता के लिए मुश्किल का समय है। जानकार मानते हैं कि इन स्थलों को बचाने के लिए अब सरकारों को आगे आना चाहिए और युवाओं को इन स्थलों के प्रति जागरूक करना चाहिए।
पर पहले हजारों वर्षों से चली आ रही इस परंपरा की बात करते हैं जिससे वन और जीव-जंतुओं की भी रक्षा होती थी।
देश के पश्चिमी समुद्री तट को ही लें। इसके समानांतर पश्चिमी घाट की पर्वत श्रृंखला हिमालय की पर्वत श्रृंखला से भी पुरानी है। वर्ष 2012 में यूनेस्को द्वारा यहां के 39 स्थलों को वर्ल्ड हेरिटेज साइट चिन्हित किया गया था। एक अनुमान के मुताबिक देश के विभिन्न वनों में ऐसे एक लाख के करीब पवित्र स्थल पाए जाते हैं। केवल कर्नाटक के कोडागू जिले में ही 1200 पवित्र स्थलों की गणना हुई है।
ये जंगल किसी खास देवता के नाम से बने होते हैं। अधिकतर मामलों में वह देवता नाग ही होते हैं। हमारी संस्कृति में नाग देवता का काफी अहम स्थान है। इन्हें मलयालम में सर्पकावू नाम से जाना जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है सांपों का वन या बगीचा। इन स्थानों पर सर्प की मूर्तियां भी रखी होती हैं।
इंद्रियम बायोलॉजी प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक दिलीपकुमार आर बताते हैं कि इन देवताओं की कई तरह से पूजा होती है। जैसे कुछ जगहों पर पानी, दूध, चावल के घोल और हल्दी से इनकी पूजा की जाती है। इसे स्थानीय भाषा में नूरम पालुम के नाम से जाना जाता है। इसी तरह की पूजा के बारे में केरल विश्वविद्यालय की सीनियर फेलो जयाकुमारी कुंजम्मा ने भी बताया। इन्होंने केरल में सर्प पूजा पर एक किताब भी लिखी है।
पवित्र वनः सांपों की शरणस्थली
पिछले वर्ष प्रकाशित एक शोध के लिए शोधकर्ताओं ने केरल के कन्नूर और कासरगोड तथा कर्नाटक के कूर्ग के 30 पवित्र स्थलों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि इन स्थलों पर आने वाले श्रद्धालु यहां मौजूद सांपों को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते, लेकिन अगर वही सांप उन्हें कहीं और दिख जाते तो स्थिति अलग हो सकती थी। यहां आने वाले कई श्रद्धालु ऐसे भी थे जो पवित्र वन के साथ-साथ, बाहर भी सांपों को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ हांगकांग से जुड़े फेलिक्स यॉन इस शोध के मुख्य लेखक हैं। वह बताते हैं कि कम ही लोग ऐसे मिले जो सांप को देखते ही मारना चाहते हों। वन में 96 प्रतिशत लोग सांप को देखकर उन्हें नहीं मारना चाहते, लेकिन वन के बाहर अगर सांप दिखे तो ऐसे 60 फीसदी लोग ही हैं जो उन्हें न मारने के पक्ष में होंगे। केरल के स्थानीय नागरिक वीसी वालाकृष्णा कहते हैं कि उन्हें पवित्र वन में जब सांप दिखता है तो वह उसके जाने का इंतजार करते हैं।
यू प्रशांत बल्लुलल्या जो कि इस शोध के सह लेखक हैं, कहते हैं कि इन पवित्र स्थलों के बारे में स्थानीय लोगों में यकीन है कि उनके पूर्वजों ने अपने देवता सांप को रहने का स्थान प्रदान करने के लिए बनाया है। विशेष तौर पर कोबरा सांपों को अधिक महत्व दिया जाता है। बल्लुलल्या ने शोध में पाया कि स्थानीय लोगों में मान्यता है कि सांप को मारना पाप है। कई जगह ऐसी भी मान्यता है कि सांप को मारने पर उनका वंश नहीं चल पाएगा। इस तरह की मान्यताओं से सांपों की प्रजाति सुरक्षित रहती है। भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलुरु के प्रोफेसर टीवी रामाचंद्र बताते हैं कि बाद में इन पवित्र स्थलों पर कंक्रीट का निर्माण कर इनमें सर्पों की मूर्तियां रखी जाने लगी।
यूनाइटेड किंगडम के ओपन यूनिवर्सिटी के शोनिल भागवत मानते हैं कि ये अच्छी बात है कि लोग जंगली जीवों से डरते हैं और जंगल में नहीं जाते। इससे जंगल इंसानों से अछूता रहता है। वह मानते हैं कि डर का यह दायरा जैव-विविधता को बचाने में कारगर है।
केरल के ऊंचाई वाले स्थान कोडागू और उससे सटे शहरी इलाके कासरगोड में एक अध्ययन कर इसका प्रकाशन वर्ष 2019 में हुआ। शोधकर्ताओं ने पाया कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय लोग इन स्थलों के पेड़-पौधों को नहीं काटते और न ही यहां की मिट्टी उठाकर कोई और उपयोग करते हैं। न ही लोग दीमक के टीले को छेड़ते हैं।
सेंट्रल यूनिवर्सिटी केरल के प्रोफेसर पालाती आलेश सिनू के मुताबिक स्थानीय लोगों में मान्यता है कि अगर इन सुरक्षित वनों से एक पत्ता भी उठाया तो उस स्थल का अपमान माना जाएगा। सिनू कहते हैं कि शहरी लोगों की तुलना में ग्रामीणों में अपनी मान्यताओं पर अधिक विश्वास है। इन्हीं मान्यताओं की वजह से वे परंपरा से इन वनों की रक्षा करते आ रहे हैं। इसके विपरीत, शहरी लोग पर्यावरण की चिंता में हरियाली की रक्षा करना चाहते हैं।
‘विकास’ की चकाचौंध में मान्यताएं पड़ने लगी हैं कमजोर
वर्षों से संरक्षित पवित्र वनों पर अब विकास का दबाव पड़ने लगा है। कई ऐसे स्थल या तो छोटे होते जा रहे हैं या फिर खत्म ही हो गए। केरल के निर्माण के समय 1956 में वहां 10 हजार ऐसे जंगल थे, लेकिन 2015 आते-आते इनकी संख्या 1200 तक सिमट गई। यह आंकड़े केरल विधानसभा की जंगल, पर्यावरण और पर्यटन के लिए बनी कमेटी ने तैयार किये हुए हैं। ग्लोबल नेचर स्टडी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिणी पश्चिम घाटों के जंगल को कई तरह का खतरा है। दिलीपकुमार कहते हैं कि एक समय सर्पकावू का इतना महत्व था कि हर कोई उसमें प्रवेश भी नहीं कर सकता था, लेकिन अब की स्थिति यह है कि यह स्थान सिर्फ एक शब्द बनकर रह गया है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि युवा पीढ़ी का इन मान्यताओं से विश्वास उठ रहा है। भागवत मानते हैं कि अगर युवाओं को यह समझाया जाए कि ये पवित्र स्थल प्रकृति और पर्यावरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण है तो इसका काफी असर होगा। सोसायटी फॉर इनवायरमेंटल एजुकेशन इन केरल नाम की संस्था के सचिव वीसी बालाकृष्णन ने कई कैंप का आयोजन ऐसे स्थलों के लिए किया है जहां नई पीढ़ी को इन चीजों का महत्व समझाया गया।
सितंबर 25 को दिलीपकुमार कुछ सर्प विशेषज्ञों और तकनीकी रूप से दक्ष लोगों के साथ मिलकर स्नेकहब नाम के एक ऐप की शुरुआत की। इस ऐप को इंद्रियम बायोलॉजिकल प्राइवेट लिमिटेड के सामाजिक दायित्व के तहत चलाया जा रहा है। ऐप के प्रमुख विवेक शर्मा के मुताबिक यहां 114 सांपों की प्रजाति के बारे में जानकारी मिलती है।
ऐप के प्रमुख शर्मा के मुताबिक इस समय यह अंग्रेजी और मलयालम भाषा में उपलब्ध है। भविष्य में दूसरी स्थानीय भाषाओं में भी लाने की योजना है। इस ऐप पर सांप काटने का समाधान और उससे संबंधित जानकारी भी मौजूद है।
सनद रहे कि भारत में सर्पदंश एक बड़ी समस्या है। पूरे विश्व में सांप काटने से मरने वालों में आधे भारतीय होते हैं। एक शोध के मुताबिक पिछले 20 वर्षों में देशभर में 12 लाख लोगों की सर्पदंश से मृत्यु हो गयी है। मृत्यु के अधिकतर मामले ग्रामीण इलाकों से सामने आते हैं।
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भागवत कहते हैं कि बीते कुछ वर्षों में ऐसे पवित्र स्थलों का बाजार और थोपी गयी संस्कृति की वजह से नुकसान हुआ है। इन्हें लोकप्रिय देवताओं के नाम से जोड़ दिया गया और ऐसे स्थानों पर कंक्रीट के बड़े मंदिर बना दिए गए। इस तरह की सोच की वजह से इन स्थलों का प्राकृतिक महत्व कम होता गया।
बाजार की ताकतें ऐसे स्थानों को बेचने पर तुली हुई हैं। ये स्थान सरकारी या निजी हाथों में हो, पर हर कोई इसे बेचकर फायदा कमाना चाह रहा है। पूरे रीति रिवाज और गाजे बाजे के साथ पहले वहां से देव स्थल को कहीं और ले जाया जाता है। फिर वहां की जमीन बाजार के हवाले कर दी जाती है। इन स्थानों से जब सांप भागकर रहवासी इलाकों में जाते हैं तो सांप और इंसान दोनों के लिए खतरा बढ़ता है।
आखिर कैसे बच सकते हैं ये स्थान
जानकारों का मानना है कि इन्हें बचाने में सरकारों को भी सामने आना होगा। केरल सरकार ने पचाथुरुथा नाम से एक योजना की शुरुआत की जिससे जैव विविधता को बचाने में मदद मिल रही है। इसके तहत हरियाली लगाने का प्रयास किया जा रहा है। सिनू कहते हैं कि केरल में 1500 पवित्र स्थल हैं, सरकार चाहे तो उन्हें प्राकृतिक अभ्यारण्य घोषित कर सकती है।”
रामाचंद्रा ने सलाह दी कि केरल सरकार पश्चिम घाटों के ऐसे स्थानों को जैव-विविधता एक्ट 2002 के तहत हेरिटेज घोषित कर सकती है। वन विभाग ने कुछ वर्ष पहले पवित्र स्थलों को घेरने के लिए राशि जारी की थी, ताकि वहां की जैव-विविधता बची रह सके।
बैनर तस्वीर- कोडागू स्थित मंदिर के सामने नाग देवता का स्थान। फोटो- यू. प्रशांत बल्लुलल्या