- बीते सितंबर महीने में भारत सरकार तीन नए कृषि कानून लेकर आई। इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले कुछ दशकों में हुए सबसे बड़े सुधार की संज्ञा दी।
- पर किसान इन कानूनों से संतुष्ट नहीं है और सितंबर से ही इसका विरोध कर रहे हैं। किसानों का मानना है कि नए कानून न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी नहीं देते। पुराने कानून में स्थिति अलग थी।
- किसान और उनके लिए काम करने वाले संगठन मानते हैं कि भारत जैसे देश में फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि यहां पचास फीसदी से अधिक आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है और जलवायु परिवर्तन से प्रभावित है।
मंगलवार को देश भर के किसानों ने भारत-बंद का आह्वान किया था जो कमोबेश सफल बताया जा रहा है। यह बंद पिछले कुछ महीनों से चल रहे किसान आंदोलन का ही एक हिस्सा था। पिछले कुछ सप्ताह से देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर किसान आंदोलन कर रहे हैं। कृषि मंत्री और किसानों के बीच कई दौर की बातचीत हो चुकी है। मंगलवार की शाम गृहमंत्री अमित शाह ने भी किसान नेताओं को बातचीत के लिए बुलाया था। पर अभी तक सारी बातचीत बेनातीजा ही रही है। किसान पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। किसानों की मांग है कि सरकार इन तीनों कानूनों को रद्द करे और उनकी फसलों के लिए सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सुनिश्चित करे। केंद्र सरकार ने सितंबर में कृषि से जुड़े तीन कानून संसद से पास कराए और दावा किया कि यह कदम किसान-हित में उठाए गए हैं।
ये किसान मूलतः पंजाब और हरियाणा से हैं जिन्हें अन्य राज्यों के किसानों का भी समर्थन प्राप्त है। इस आंदोलन को करीब दर्जन भर विपक्षी दलों का समर्थन भी प्राप्त है। अगर सरकार ने किसानों की मांग नहीं मानी तो आने वाले समय में गतिरोध के तेज होने की संभावना है।
इन नए कानूनों की घोषणा करते हुए केंद्र सरकार ने कहा था कि देश के आर्थिक सुधार के क्षेत्र में यह कदम मील का पत्थर साबित होने वाला है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कृषि के इन नए कानूनों को ‘ऐतिहासिक’ और इस क्षेत्र का अब तक का सबसे बड़ा सुधार बताया था।
वर्ष 1991 के सुधारों से देश की औद्योगिक नीतियों में संरचनात्मक परिवर्तन आया था। इन नए कानूनों से कृषि क्षेत्र में कुछ वैसा ही सुधार लाने का दावा किया जा रहा है। कोविड-19 से जुड़े लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर लाने के प्रयास के तहत सरकार ने संसद में इन तीनों कानूनों को अमलीजामा पहनाया। इसमें किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक, 2020, किसानों (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) का मूल्य आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक, 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 शामिल हैं।
पर किसान इन कानूनों से संतुष्ट नहीं हैं। उन्हें लगता है कि ये कानून एमएसपी को लेकर कोई आश्वासन नहीं देते। किसानों को डर है कि इन कानूनों की वजह से ये निजी कंपनियों की दयादृष्टि के मोहताज हो जाएंगे। खासकर तब जब ये कंपनियां सरकारी एजेंसी की जगह कृषि उपज की खरीद करने लगेंगी।
सितंबर से ही किसान पंजाब-हरियाणा सीमा पर डेरा जमाए हुए थे। करीब दो महीने वहां आंदोलन करने के बाद भी सरकार ने इनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया। फिर इन किसानों ने दिल्ली कूच करने का फैसला किया। रास्ते में उन्हें पुलिस से भिड़ना पड़ा। अब किसानों ने दिल्ली-चंडीगढ़ राजमार्ग को अवरुद्ध कर रखा है। इस बीच केंद्र सरकार के साथ कई दौर की चर्चा हुई हैं पर अभी तक कोई हल नहीं निकला है।
हालांकि एमएसपी की मांग पर्यावरण के मुद्दों से सीधे ताल्लुक नहीं रखती पर जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभाव इसमें समाहित जरूर हैं। अब फसलों पर मौसम की मार सामान्य बात हो चुकी है। फसलें लगातार तेज बारिश, गर्मी, कीट, ओलावृष्टि, बाढ़ और सूखा इत्यादि के चपेटे में आती रही हैं। इससे अंततः किसानों की आमदनी प्रभावित होती है।
कुछ कृषि विशेषज्ञ तो यह मानते हैं कि खेती-किसानी से जुड़े कई विवाद के पीछे फसलों को प्रभावित करने वाले पर्यावरण संबंधित कारक हैं।
मध्य प्रदेश के एक पूर्व विधायक और अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) के कार्यकारी सदस्य डॉ सुनीलम का कहना है कि ये दोनों मामलें आपस में जुड़े हुए हैं। इनके अनुसार, ”इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है। चाहे बारिश हो, ओलावृष्टि हो या फिर बाढ़, सूखा आदि- पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के कारण खेती-किसानी पर हमेशा अनिश्चितता बनी रहती है और किसानों का जीवन हमेशा प्रभावित होता रहता है।
पिछले कुछ वर्षों में ऐसे ढेरों उदाहरण देखने को मिले जब मौसम की मार ने कृषि को प्रभावित किया।
आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 के अनुसार, पिछले साल (2019-2020) में कृषि का सकल मूल्य योगदान 16.5 प्रतिशत था। यह कृषि उत्पादों पर आने वाली लागत के कटौती के बाद कृषि उत्पादों और सेवाओं के मूल्य को दर्शाता है। कृषि और इससे जुड़े तमाम अन्य क्षेत्र में देश की 50 फीसदी आबादी को रोजगार मिलता है। इसलिए जलवायु परिवर्तन से न केवल देश की राष्ट्रीय आय प्रभावित होती है बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा और आबादी के एक महत्वपूर्ण हिस्से की आजीविका सुरक्षा को भी बड़ा नुकसान होता है।
पिछले दिसंबर यानी 2019 में नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद ने एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था कि कृषि “जलवायु परिवर्तन, स्वच्छ हवा, जमीन और पानी के तर्कसंगत इस्तेमाल’ के केंद्र में हैं।
कृषि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी समस्या और समाधान- दोनों का हिस्सा है। समाज को जो भी मौका मिले उसका इस्तेमाल करते हुए अव्यवहारिक और अक्षम कृषि तरीकों को त्यागना चाहिए। इन्हें त्यागते हुए खेती के स्थिर और दक्ष तरीकों को अपनाना चाहिए जिससे भविष्य भी सुरक्षित रहे। पर्यावरण के भविष्य को देखते हुए कृषि एक ऐसा क्षेत्र है जहां सबसे अधिक संभावनाएं हैं,” चंद ने कहा।
पिछले कुछ समय से किसानों के प्रतिरोध का माहौल बन रहा था
वर्तमान में चल रहे किसानों का आंदोलन अचानक से नहीं हुआ। बल्कि इसको लेकर माहौल पहले से बनता दिख रहा था। कोविड-19 से जुड़े लॉकडाउन के तहत भी सरकार ने अपने 20 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज में किसानों को ध्यान में रखते हुए कई घोषणाएं की थी। लेकिन किसानों और कृषि क्षेत्र में सक्रिय मजदूरों को इससे कोई राहत नहीं मिली। और अब किसान फिर से सड़क पर हैं।
किसानों के आंदोलन को देश भर के कई संगठनों और अन्य समूहों का भी समर्थन मिला है। किसानों के प्रति एकजुटता और समर्थन व्यक्त करने के लिए इंग्लैंड और अमेरिका में भी विरोध मार्च निकाला गया है।
वर्ष 2019 में हुए केंद्र सरकार के चुनाव के पहले भी पंजाब के किसान परेशान थे। राज्य के सिंचाई संपन्न क्षेत्र में रहने वाले किसानों ने मोंगाबे-इंडिया से बात करते हुए मौसम से जुड़ी ढेर सारी समस्याएं गिनाई थी।
हाल के वर्षों में देश भर के किसान बदलते मौसम की मार झेलने को अभिशप्त हैं। वर्ष 2019 में, देश के मौसम विज्ञान विभाग के महानिदेशक ने मोंगाबे-इंडिया को बताया था कि मानसून प्रणाली में स्थायित्व नहीं रहा। मॉनसून का कैलंडर बदल रहा है और अब मौसम से जुड़ी तीव्र घटना अधिक होने लगी है। तीव्र घटना में अचानक मूसलाधार बारिश जैसी घटनाएं शामिल हैं।
हाल के वर्षों में कृषि क्षेत्र में व्याप्त तनाव बढ़ा ही है। खेती और पर्यावरण से जुड़े मुद्दे हमारे सामने उभरते रहे हैं। जैसे 2018 के अंत में किसानों का आंदोलन हुआ। उन्हीं दिनों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधानसभा के चुनाव हुए और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को शिकस्त मिली। इसके पीछे किसानों के इन आंदोलन की अहम भूमिका मानी जाती है।
जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे किसान अपने फसल के कीमत की गारंटी चाहते हैं
किसान नेता मानते हैं कि पर्यावरण से जुड़े मामलें तमाम वजहों में से एक है जो देश के कृषि क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। ऐसे में ये नेता एमएसपी की मांग को जायज ठहराते हुए कहते हैं कि इससे खेती में किसानों द्वारा किए गए निवेश का कुछ तो हासिल हो सकेगा।
मध्य प्रदेश में किसान कांग्रेस (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ा किसान संगठन) के कार्यकारी अध्यक्ष केदार सिरोही कहते हैं कि किसान तो केवल मूल्य की गारंटी चाहता है।
पर्यावरण निश्चित रूप से कृषि में उतार-चढ़ाव की वजह है। यह क्षेत्र देश की लगभग 50 प्रतिशत आबादी को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार देता है। बदले में, किसान केवल अपनी फसलों की कीमत की गारंटी मांग रहे हैं। किसानों की मांग में कोई और फायदा या मौसम से होने वाले नुकसान का मुआवजा नहीं शामिल है। अगर किसानों को बस इनकी फसल की कीमत मिल जाए फिर यह आंदोलन खत्म हो जाएगा,” सिरोही ने मोंगाबे-इंडिया से कहा।
भारतीय किसान यूनियन और इंडियन कोऑर्डिनेशन कमिटी ऑफ फार्मर्स मूवमेंट (आईसीसी एफएम) के राष्ट्रीय सचिव युधवीर सिंह कहते हैं कि एमएसपी तय करने की पूरी प्रणाली दोषपूर्ण है। यह केवल उत्पादन, स्टॉक और अंतर्राष्ट्रीय कीमतों को ध्यान में रखकर तय किया जाता है और कई अन्य मुद्दों की अनदेखी की जाती है।
“सरकार ने 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का दावा किया था। अब ये दूर की कौड़ी लगती है। तब भी किसान खुश हैं और सरकार से बस न्यूनतम समर्थन मूल्य का आश्वासन चाहते हैं,” सिंह ने मोंगाबे इंडिया को बताया।
जब कोविड-19 और लॉकडाउन की वजह से देश की पूरी अर्थव्ययस्थ ठप्प पड़ गई थी। निर्माण और सेवा क्षेत्र छोड़कर लाखों-करोड़ों मजदूर अपने गाँव के लिए जाने को मजबूर हो गए थे तब कृषि क्षेत्र ने इनको संभाला था। अच्छे मानसून और खरीफ की अच्छी फसल ने सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था में जान डाला। इन सबके पीछे हाड़तोड़ परिश्रम करने वाले किसान आज अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं।
बैनर तस्वीरः पंजाब और देश के दूसरे हिस्से से दिल्ली आए किसान कुछ इस तरह से सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। फोटो– रणदीप मडोक/विकिमीडिया कॉमन्स