- अगर 2020 को किसी चीज के लिए याद किया जाएगा तो वह कोविड-19 महामारी होगी। इसे अनिश्चितता, आशंका, मास्क और सैनीटाईजर का साल कहा जा सकता है।
- लॉकडाउन की वजह से लोगों के जीवन में ढेरों दुश्वारियां आईं पर पर्यावरण पर इसका अच्छा असर दिखा। जब अर्थव्यवस्था एक तरह से रुक गयी थी तब पर्यावरण बेहतर हो गया था। अब जब अर्थव्यवस्था पुनः पटरी पर लौट रही है तो पर्यावरण से जुड़ी चिंताएं भी लौट आयीं हैं।
- वर्ष 2020 ने देश को आत्मनिरीक्षण करने का मौका दिया था। विकास और पर्यावरण को स्थिरता की कसौटी पर कसने का मौका दिया था। क्या हम इसे कर पाए!
आधिकारिक तौर पर भारत में कोविड-19 का पहला मामला केरल के थ्रीसुर में जनवरी 2020 में दर्ज किया गया था। अभी दिसंबर 2020 में 90-वर्षीय ब्रिटेन का एक नागरिक इस संक्रमण के खिलाफ टीका लेने वाला दुनिया का पहला व्यक्ति बना। इन्हीं दो मामलों के मध्य में वर्ष 2020 का विस्तार रहा। इसे अनिश्चितता, आशंका, मास्क और सैनीटाईजर का साल कहा जा सकता है।
दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत भी इस संक्रमण से बुरी तरह प्रभावित रहा। हमलोग 2021 की दहलीज पर खड़े हैं और अभी भी इसकी आंच महसूस हो रही है। चुनौतियों के इस साल में प्रकाशन के क्षेत्र में भी ढेरों मुश्किलें आयीं पर बावजूद इसके मोंगाबे ने हिन्दी में अपना विस्तार किया।
इस पूरे साल नए-नए विषय, नई चुनौतियों से निपटने के तरीकों पर चर्चा होती रही। कोविड-19 के शुरुआती दिनों में सबका ध्यान जूनोसिस यानी पशु-जन्य रोग की तरफ रहा। ऐसी बीमारियां जो जानवरों से इंसानों में फैलती हैं। क्योंकि यह स्पष्ट हो चुका था कि कोविड- 19 पशुओं से ही इंसानों में आया है। जो स्पष्ट नहीं था वह यह कि इंसानों में यह वायरस कब, क्यों और कैसे आया।
दुनिया और खासकर चीन के वेट मार्केट चर्चा के केंद्र में रहे। वेट मार्केट से तात्पर्य उस बाजार से है जहां मछली-मांस जैसी कच्ची सामग्री का व्यापार होता है। फिर ऐसी महामारियों से निपटने की तैयारी पर बात आई। किसी महामारी के आ जाने के बाद उसपर प्रतिक्रिया देने की बजाय वन हेल्थ अप्रोच अपनाने की बात की गई।
ऐसी बीमारियों के मद्देनजर किसी खास समुदाय या संप्रदाय पर आरोप न लगे इसकी कोशिश हुई। वनों की कटाई और पशु-जन्य बीमारियों के आपसी संबंध की भी पड़ताल की गयी। जैव विविधता की गुणवत्ता और बीमारियों के फैलने के तरीके की पड़ताल की गयी। मवेशी और चमगादड़ के साथ महामारी के संबंध को समझने की कोशिश भी हुई। एक मजबूत वन्यजीव पशु-चिकित्सा प्रणाली तैयार करने पर बल दिया गया।
जब मार्च में राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की गई तब महामारी से जुड़े प्रतिकूल आर्थिक और नीतिगत पहलू भी खूब दिखे। बड़े- बड़े विद्वानों ने कोविड-19 का देश के खाद्य सुरक्षा पर पड़ने वाले प्रभाव की पड़ताल की। स्वास्थ्य सुरक्षा को राष्ट्रीय सुरक्षा का दर्जा देने जैसे आग्रह भी किए गए। बीमारी, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के आपसी संबंधों की पड़ताल हुई।
लॉकडाउन की वजह से किसानों की आय पर आघात हुआ। सरकार ने एक आर्थिक पैकेज की घोषणा भी की। लेकिन उस राहत पैकेज से किसानों के तत्कालीन चिंताओं से कोई राहत नहीं मिली। अच्छी बारिश और खरीफ की अच्छी फसल के बावजूद भी कृषि क्षेत्र में तनाव बढ़ता रहा। इसी का नतीजा है कि आज किसान आंदोलनरत हैं और अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में बने हुए हैं।
इस साल रोजाना नई चुनौतियां आती रहीं। क्या हाथ धोने के लिए जरूरत भर पानी उपलब्ध है? क्या बायो-मेडिकल कचरा का निष्पादन करते हुए नियम–कानून का पालन हो रहा है? वन विभाग इस आपदा के तहत बीमारी के रोकथाम और अपनी अन्य जिम्मेदारियों का निर्वहन कैसे कर रहा है! इन सब की पड़ताल की गयी। लंबे समय से चले आ रहे अध्ययन भी प्रभावित हुए। इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे इसकी भी पड़ताल की गयी। कुछ राहत देने वाली भी खबरें थीं जैसे तमाम चुनौतियों के बावजूद भी असम में बोट क्लिनिक के माध्यम से सुदूर क्षेत्र में बसे लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करायी जा रही थी।
आदिवासी समाज कोविड-19 से कैसे प्रभावित हो रहा है- इसकी चर्चा रही। अंडमान में बसे जन-जातियों के बीच भी इस बीमारी का वायरस पहुंच गया। यह भी चिंता का सबब बना।
इस महामारी के शुरुआती दिनों में केरल को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा मिली। इसकी वजह थी बीमारी के शुरुआती मामलों में केरल प्रशासन के द्वारा सफलतापूर्वक रोक-थाम। हालांकि यह राज्य भी बाद में कोविड-19 की चपेट में आया और यहां भी इससे प्रभावित मरीजों की संख्या बढ़ी।
क्या मनमाफिक बदलाव हुआ?
लॉकडाउन की वजह से लोगों के जीवन में ढेरों दुश्वारियां आईं पर पर्यावरण पर इसका अच्छा असर दिखा। तत्कालीन तौर पर न केवल प्रदूषण में कमी आई बल्कि देश में ऊर्जा की खपत भी कम हुई। देश के पास एक ऐसा मौका था जब पुरानी स्थिति बहाल करते समय इन सभी पक्ष का ध्यान रखा जाए। विद्वानों में देश की ऊर्जा नीति में जरूरी परिवर्तन को लेकर चर्चा चली।
हालांकि ऐसा हो नहीं पाया। मार्च में ही सरकार पर्यावरण प्रभाव के आकलन (ईआईए) के तरीकों को कमजोर करने पर विचार कर रही थी। जब पूरा देश लॉकडाउन के तहत घरों में बंद था तो सरकार कई संरक्षित क्षेत्र को ‘विकास’ के नाम पर अनलॉक कर रही थी, यानी खोल रही थी। नई नई परियोजनाओं को सहमति देने की हड़बड़ी दिख रही थी। सरकार निवेश को आकर्षित करने के लिए लैंड बैंक बनाने की बात कर रही थी। पनबिजली यानी हाइड्रो-पावर की बड़ी योजनाओं की वापसी हुई।
सरकार के आर्थिक सुधार पैकेज में खनन क्षेत्र को खासा तवज्जोह दी गई और कोयले इत्यादि के खनन में गति लाने की बात की गयी। यह तब किया जा रहा था जब देश की खनन नीति पर ही प्रश्नवाचक चिन्ह लग रहे थे।
एक मौका जो गंवा दिया गया!
ऐसा कभी-कभार होता है जब पूरी दुनिया किसी एक आपदा से जूझ रही होती है। वैसे प्राकृतिक आपदाएं, महामारी, जंग और अन्य चुनौतियां पृथ्वी के किसी न किसी हिस्से में मुश्किल पैदा कर रही होती है। पर कोविड-19 जैसी आपदा जो पूरे विश्व को अपने चपेट में ले ले, सदियों में आती है।
विकास बनाम पर्यावरण की चर्चा जब भी चलती है तो नफा-नुकसान के दायरे में बात होती है। वर्ष 2020 ने इस नफा-नुकसान के अद्धभूत आयाम दिखाए। जब अर्थव्यवस्था एक तरह से रुक गयी थी तब पर्यावरण बेहतर हो गया था। अब जब अर्थव्यवस्था पुनः पटरी पर लौट रही है तो पर्यावरण से जुड़ी चिंताएं भी लौट आयीं हैं।
उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों से समशीतोष्ण अक्षांश तक फैला, समुद्र तल की गहराई से लेकर दुनिया के सबसे ऊंची पर्वतमाला समेटे भारत जैव-विविधता के कुछ गिने-चुने क्षेत्र में शुमार है। यह विविधता अपने में प्राकृतिक संसाधनों और परिस्थतितकी तंत्र को संभाले हुए जो न केवल आर्थिक विकास में मदद कर सकती है बल्कि पर्यावरण से जुड़ी स्थिरता भी प्रदान कर सकती है।
वर्ष 2020 ने देश को आत्मनिरीक्षण करने का मौका दिया था। विकास और पर्यावरण को स्थिरता की कसौटी पर कसने का मौका दिया था। पर जिस तरीके से पर्यावरण की शर्त पर आर्थिक विकास को गति देने की कोशिश हो रही है, इसकी संभावना लगभग नहीं के बराबर है कि यह साल ऐसे किसी आत्मवलोकन के लिए याद किया जाएगा।
बैनर तस्वीरः कोविड-19 महामारी ने भारत पर चौतरफा हमला किया। लॉकडाउन के दौरान देश की अर्थव्यवस्था बेपटरी हो गई। फोटो– ग्वीडियन एम. विलियम्स/फ्लिकर