- उत्तराखंड जैसी त्रासदी में लोगों का जीवन तभी सुरक्षित रह सकेगा जब ऐसे हादसों का पूर्वानुमान सटीक हो। इसके लिए वैज्ञानिक सुझाते हैं कि पानी, बर्फ और मौसम परिवर्तन की सतत निगरानी जरूरी है।
- मौसम में परिवर्तन को समझने के लिए वैज्ञानिकों को बेसलाइन डाटा यानी मौसम और पानी संबंधी पुराने आंकड़ों की जरूरत होगी, ताकि इसमें जरा सा भी विचलन हो तो उसे समझा जा सके।
- हिमालय क्षेत्र आने वाले समय में हादसों की आशंका से भरा हुआ है। जलवायु परिवर्तन ने ऐसी घटनाएं और बढ़ेंगी। पर ऐसे हादसों का सटीक पूर्वानुमान कर जान-माल की क्षति को कम किया जा सकता है।
उत्तराखंड के चमोली जिले में 7 फरवरी को हुए हादसे में कई लोगों की जान चली गयी और अभी भी सैकड़ों लोगों की तलाश जारी है। इसी बीच वैज्ञानिकों ने पर्वतीय इलाकों में निगरानी की क्षमता बढ़ाने पर बल दिया है ताकि ऐसी घटनाओं का पूर्वानुमान किया जा सके।
यह विडंबना ही कही जाएगी कि इस हादसे के करीब पांच दिन पहले यानी 2 तारीख को एक अध्ययन प्रकाशित हुआ। इस अध्ययन में पर्वतीय क्षेत्र में बढ़ते हादसों को मद्देनजर निगरानी की क्षमता बढ़ाने पर जोर दिया गया था। और पांच दिन बाद ऐसा ही एक हादसा हो गया जिसमें जान-माल की इतनी क्षति हो गयी। इस अध्ययन में ऐसे हादसों के पूर्वानुमान के लिए हिमालय क्षेत्र में मौसम, जल और बर्फ (हिम) के निगरानी की आवश्यकता बताई गयी है। इसके अनुसार हिमालय के क्षेत्र में ऐसे तकनीकी तंत्र विकसित करने की जरूरत है जिससे आपदा के होने के पहले ही उसका अनुमान लगाया जा सके। अगर हिमालय क्षेत्र में मौसम की निगरानी के तंत्र विकसित किये जाएंगे तो न सिर्फ ऐसे हादसों का पूर्वानुमान किया जा सकेगा बल्कि पानी, ऊर्जा और बेहतर खाद्य सुरक्षा के लिए भी समय रहते योजनाएं बनाईं जा सकेंगी।
हिमालय के बर्फीले पहाड़ दुनिया में सबसे ऊंचे हैं और यहां ध्रुवीय स्थान के बाद यहां सबसे अधिक बर्फ पाई जाती है। हिमालय में 9,575 ग्लेशियर यानी हिमनद या हिमानी हैं जो कि 37,466 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैले हुए हैं।
ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हिमालय के ग्लेशियर काफी संवेदनशील हो गए हैं। इनके पिघलने की दर तेजी से बढ़ रही है। इनकी अपेक्षा चीन, भारत और पाकिस्तान सीमाओं पर स्थित काराकोरम पर्वत के ग्लेशियर अधिक स्थिर हैं। यह कहना है चीन, नेपाल, अमेरिका, कनाडा और जर्मनी के वैज्ञानिकों का जो कि कई देशों को साथ मिलकर जल विद्युत परियोजनाओं के समुचित प्रबंधन की वकालत करते हैं।
हिमझीलों में पानी बढ़ने से उसका किनारा टूटने की घटनाओं में हाल में वृद्धि देखी गई है और वैज्ञानिकों को आशंका है कि ऐसी घटनाओं की संख्या आने वाले समय में बढ़ेगी। ऐसे में यहां से जुड़ी नदियों में बने पनबिजली परियोजनाओं और भविष्य किसी भी संभावित पनबिजली परियोजनाओं पर खतरा मंडराता रहेगा।
कार्बन का उत्सर्जन कम कर बर्फ पिघलने की रफ्तार को कम करने की कोशिशों पर बल दिया जा रहा है। इस रिव्यू ने इसे एक जरूरी कदम बताया है।
अंतर्राष्ट्रीय एकीकृत पर्वतीय विकास केन्द्र (आईसीआईएमओडी) की रिवर बेसिन और क्रायोस्फीयर (हिम आच्छादित क्षेत्र) की रिजनल प्रोग्राम मैनेजर अरुण बी. श्रेष्ठ ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया की विकास की परियोजनाओं के लिए बेहतर नीति बनाकर उत्तराखंड जैसी त्रासदी से बचा जा सकता है। श्रेष्ठ इस अध्ययन से जुड़े नहीं हैं। वह कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन को देखते हुए भविष्य में इस तरह के हादसों की पुनरावृत्ति हो सकती है।
“पनबिजली और सड़क परियोजनाओं की वजह से आसपास का पर्यावरण प्रभावित हो रहे हैं। जब ऐसी परियोजनाओं को लेकर नीतियां बने तो पर्यावरण की चिंता को केंद्र में रखा जाना चाहिए,” वह कहते हैं।
रिव्यू में निगरानी तंत्र के मजबूत किये जाने पर बल दिया गया है और श्रेष्ठ इससे सहमत हैं। कहते हैं कि रिमोट-सेसिंग के जरिए हिम झीलों की स्थिति पर नजर रखता बेहतर तरीका हो सकता है। इससे आने वाले समय में हादसे की आहट लग जाएगी और जान माल की क्षति रोकी जा सकेगी।
आईसीआईएमओडी हिन्दु-कुश हिमालय क्षेत्र स्थित हिम झीलों पर काम करती है। संस्थान ने 47 ऐसे झीलों को आने वाले समय के खतरा बताया है। इसलमें 25 झील चीन, 21 नेपाल और एक भारत में स्थित है।
नेशनल सेंटर फॉर पोलर एंड ओशन रिसर्च (एनसीपीओआर) के डायरेक्टर रविचंद्रन ने कहा कि संस्था ने इस बाबत हिमाचल प्रदेश स्थित चंद्रा बेसिन पर एक अध्ययन किया है। यह संस्था मिनिस्ट्री ऑफ अर्थ साइंसेज के अंतर्गत आती है। इस अध्ययन में इस इलाके की छह ग्लेशियर की निगरानी की गई थी।
“अब तक हम ग्लेशियर का स्थान और उसके सतह की जानकारी ही रखते आए हैं, लेकिन आने वाले समय में ग्लेशियर की गहराई और उसमें पानी की स्थिति का पता भी लगाया जाएगा। हम यह भी जान सकेंगे कि पानी कितना उपलब्ध है और कितना कम हुआ है। एक स्थान पर इस तरह की गहन निगरानी रखी जा रही है। जल्द ही दूसरे हिमनद को भी इस जद में लाया जाएगा,” रविचंद्रन ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
“हमने दूसरी संस्थाओं का साथ भी लिया है। सैटेलाइट से मिले आंकड़ों की मदद से हम लगभग सभी ग्लेशियर की निगरानी रख सकेंगे,” वह कहते हैं।
त्रासदी के बाद उत्तराखंड
त्रासदी के बाद की तस्वीरों से इतना समझ आया कि ऋषिगंगा नदी में आई बाढ़ और पानी के साथ बहकर आए मलबे की वजह से यह तबाही मची। कुछ वैज्ञानिकों ने शुरुआत में भूस्खलन को इसका जिम्मेवार माना। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग के मुताबिक ऋषिगंगा नदी के ऊपरी कैचमेंट में भूस्खलन से हिम झील का एक हिस्सा टूटने की वजह से नदी के निचले इलाके में तबाही आई। इस हादसे के बाद से वैज्ञानिक वजह जानने में लगे हैं और हादसे की एक वजह हिमालय में पनबिजली परियोजना का विस्तार भी बताया जा रहा है।
वर्ष 2013 में उत्तराखंड में आई भीषण तबाही के बाद कई रिपोर्ट इस ओर इशारा करते रहे कि इस स्थान को भविष्य में ऐसे और हादसों का सामना करना पड़ सकता है। इस त्रासदी के एक वर्ष बाद वर्ष 2014 में उच्चतम न्यायालय की एक कमेटी ने बांधों के निर्माण को इसकी बड़ी वजह माना। इस कमेटी का गठन पर्यावरणविद् रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में हुआ था। कमेटी ने 23 पनबिजली परियोजनाओं को बंद करने का सुझाव दिया था। हालांकि, ऐसे सुझावों पर अमल नहीं किया गया।
वर्ष 2016 में एक अध्ययन में सामने आया कि हिमालय से लगे 177 पनबिजली परियोजनाओं में से हर पांचवी परियोजना बाढ़ के खतरे से जूझ रही है। इसमें से कई परियोजनाएं भारत की भी हैं। ये परियोजनाएओं हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, नेपाल और भूटान में स्थित हैं। अध्ययन के लेखक वोल्फगैंग श्वांगहार्ट ने पाया कि उत्तराखंड में हुआ हालिया हादसा अध्ययन की आशंकाओं की पुष्टि करता है।
“हमारा अध्ययन ग्लेशियर झील के टूटने पर केंद्रित था। हमें जितनी जानकारी मिली है उससे लगता है कि उत्तराखंड में हादसे भी इसी वजह से हुआ। पनबिजली परियोजनाओं का विस्तार ऐसे हादसों को आमंत्रित करता है,” वह कहते हैं।
हादसे की संभावित वजहें
उत्तराखंड में हजार से अधिक हिमनदियां हैं। वर्ष 2020 में एक अध्ययन हुआ था जिसमें सामने आया कि 1980 से 2017 के बीच नंदा देवी पर्वत-श्रृंखला में ग्लेशियर के क्षेत्र में 10 फीसदी की कमी आई है।
चमोली में हुए हादसे के बाद विश्वभर के वैज्ञानिकों ने सैटेलाइट तस्वीरों का अध्ययन किया। अमेरिका के शेफ़ील्ड विश्वविद्यालय में वाइस प्रेसिडेंट (अनुसंधान और नवाचार) डेव पेटली ने अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन लैंडस्लाइड ब्लॉग में इस घटना का उल्लेख किया।
कैलगरी विश्वविद्यालय के भू-आकृतिविद (geomorphologist) डैन शुगर और सहकर्मियों के विश्लेषण से पता चलता है कि ग्लेशियर वाली झील भूस्खलन की वजह से टूटी जिससे ऋषिगमंगा और धौलगंगा नदियों में अचानक बाढ़ आई।
“हिम झील लगातार बदलते हैं। अगर 5, 10 या 20 वर्ष पहले इसका कोई नक्शा तैयार हुआ है तो जरूरी नहीं कि आज भी इसकी वही स्थिति होगी,” वह कहते हैं।
फ्रांस की स्पेस एजेंसी ने इस बारे में जानकारी हासिल करने के लिए अंतरिक्ष से उत्तराखंड के इस इलाके की तस्वीर ली। इसके जरिए एक तस्वीर सामने आई जिसे हादसे का मूल स्रोत माना जा रहा है।
आईआईटी रुड़की के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर सौरभ विजय मानते हैं कि ऐसे हिम झीलों की सतत निगरानी जरूरी है। विशेषतौर पर वे झील जो ऋषिगंगा नदी के स्रोत पर बने हैं, यानी हैंगिंग ग्लेशियर। इसकी निगरानी कर हादसों का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। आईआईएससी बैंगलुरु के प्रोफेसर अनिल कुलकर्णी ने रिमोट सेंसिंग टूल के जरिए हिम झीलों में पानी का पता लगाने का तरीका सुझाया है।
“उत्तराखंड हादसे से जुड़ी जानकारियों का विश्लेषण करने पर हमारी टीम ने पाया है कि यह हादसा हिमस्खलन के बाद हुआ है। इसकी वजह से हिमझील में इकट्ठा हुआ 16 लाख क्यूबिक मीटर पानी सीधे नदी की धारा में जा मिला,” वह कहते हैं।
आईआईटी गुवाहाटी के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के चंजन महंता मानते हैं कि हिमालय इलाके में पनबिजली की योजनाओं की अधिकता खतरनाक है। विशेषकर उन इलाकों में जहां हिम झील नजदीक हो। वह मानते हैं कि अभी सभी हिम झीलों के बारे में हमारे पास जानकारी भी नहीं है। आकार में छोटे हिम झील भी खतरनाक हो सकते हैं और उनके बारे में शोध कर जानकारी हासिल करना जरूरी है। विज्ञान और प्रोद्योगिकी मंत्रालय के मुताबिक पूर्वी हिमालय के हीम झील तेजी से पिघल रहे हैं। मंत्रालय के द्वारा किए गए शोध में सामने आया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से ऐसा हो रहा है। मंत्रालय ने इस तरह के शोध पर वर्ष 2016 से 2019 तक 14.90 करोड़ रुपए खर्च किए हैं।
बैनर तस्वीरः हिमालय से निकलती एक हिमनदी। हिमालय में 9,575 ग्लेशियर हैं जो कि 37,466 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैले हुए हैं। तस्वीरः अदिति/फ्लिकर